नई दिल्ली : दिल्ली में हवा की गुणवत्ता में गिरावट के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाने की गतिविधियों को अक्सर जिम्मेदार ठहराया जाता है। एक ताजा अध्ययन में पता चला है कि यह प्रदूषण अब महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ तक पहुंच रहा है।
विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं और आंकड़ों के विश्लेषण से पाया गया है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाने से होने वाला प्रदूषण मौसमी दशाओं के कारण गंगा के मैदानी क्षेत्रों से मध्य तथा दक्षिण भारत तक पहुंच रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार, हाल के वर्षों में फसलों की मशीनीकृत कटाई बढ़ रही है, जिसके कारण पुआल, डंठल और ठूंठ के रूप में फसल अवशेष खेतों में छूट जाते हैं, जिन्हें जला दिया जाता है। इस कारण बारीक कार्बन कणों और ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोत्तरी की गति तेज हुई है।
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शोधकर्ताओं का कहना है कि “फसल अवशेषों को जलाने के कारण हाल के वर्षों में वायु गुणवत्ता और प्रदूषण का खतरा बढ़ा है, जो स्थानीय आबादी के स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकता है।” यह अध्ययन शोध पत्रिका जियोफिजिकल रिसर्च-एटमॉस्फेयर में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं में नासा गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर से जुड़े डॉ सुदिप्ता सरकार, कैलिफोर्निया की चैपमैन यूनिवर्सिटी से जुड़े डॉ रमेश पी. सिंह और ग्रेटर नोएडा स्थित शारदा यूनिवर्सिटी के शोधार्थी अक्षांश चौहान शामिल थे।
इस अध्ययन में फसल अवशेषों में आग लगाने की घटनाओं से संबंधित आंकड़े नासा के मॉडरेड रिजोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर उपग्रह और अन्य उपग्रहों से लिए गए हैं। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश के कानपुर और बलिया के गांधी कॉलेज स्थित रिसर्च स्टेशनों से प्राप्त स्थलीय आंकड़ों का उपयोग भी किया गया है।
देश के अन्य हिस्सों में प्रदूषण स्तर में अचानक बढ़ोत्तरी के आकलन के लिए फसल अवशेषों को जलाने समेत अन्य स्थानीय स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन का भी मूल्यांकन अध्ययन में किया गया है। प्रमुख शोधकर्ता डॉ सुदीप्ता सरकार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “उत्तर भारत की तरह मध्य और दक्षिण भारत में भी पराली जलायी जाती है, पर वहां यह काम फरवरी से मई के अंत तक पूरा हो जाता है। हमने पाया कि इन क्षेत्रों में कार्बन कण (ब्लैक कार्बन) या पीएम-2.5 में सबसे अधिक बढ़ोत्तरी नवंबर और दिसंबर में होती है, जब उत्तर भारत में पराली जलायी जाती है। इसी से अनुमान लगाया गया है कि ब्लैक कार्बन में इस बढ़ोत्तरी के लिए उत्तरी राज्यों में फसल अवशेषों को जलाया जाना जिम्मेदार हो सकता है।”
डॉ रमेश सिंह के अनुसार, “सर्दियों के दौरान वाहनों के प्रदूषण, घरेलू स्रोतों और उद्योगों से होने वाले उत्सर्जन मात्र से ही अचानक प्रदूषण का स्तर इतना अधिक नहीं बढ़ सकता है। नवंबर और दिसंबर के महीनों में हवा का बहाव मुख्य रूप से उत्तर से उत्तर-पश्चिम की ओर होता है। यह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि दक्षिण और मध्य भारत में नवंबर तथा दिसंबर के महीनों में पीएम-2.5 जैसे सूक्ष्म कणों के बढ़ने के लिए उत्तरी राज्यों में पराली का जलाया जाना जिम्मेदार है। हवा की गुणवत्ता संबंधी आंकड़ों के विश्लेषण से नागपुर और हैदराबाद में पीएम-2.5 का स्तर उस दौरान काफी अधिक दर्ज किया गया है, जब उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे उत्तर भारत के राज्यों में पराली जलायी जाती है।”
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आईआईटी, गांधीनगर की वाटर ऐंड क्लाइमेट लैब से जुड़े वैज्ञानिक डॉ विमल मिश्रा, जो इस अध्ययन में शामिल नहीं थे, के अनुसार “फसल अवशेषों को जलाने और उसके प्रभाव से जुड़े इस अध्ययन के नतीजों को देखकर हैरानी नहीं होनी चाहिए। अध्ययन के परिणाम फसल अवशेषों को जलाने से जुड़े नियमों के महत्व को रेखांकित करते हैं। इस संबंध में भूजल उपयोग और बिजली सब्सिडी से जुड़े नियम महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं क्योंकि इससे धान रोपाई का क्षेत्र कम हो सकता है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में हवा की गुणवत्ता की समस्या भूजल में गिरावट से भी जुड़ी है, जो जल-ऊर्जा-भोजन-वायु गुणवत्ता का एक गैर-टिकाऊ गठजोड़ है।”
हवा की गुणवत्ता में गिरावट चिंता का विषय है, खासतौर पर पूर्व में स्थित गंगा के मैदानों में, जो कोयले के खनन, जीवाश्म ईंधन के दहन, उद्योगों और वाहनों के दबाव से पहले ही ग्रस्त है। (इंडिया साइंस वायर)