शिवराज
देहरादून: सरकार का भय जायज है। प्रेस काउंसिल के हस्तक्षेप के बाद दबाव में चाहे भले ही सरकार को मीडिया के लिए सरकारी दफ्तरों में प्रवेश पर लगे प्रतिबंध को हटाना पड़ा हो.. मामला बेहद गंभीर है। गोपनीयता की अपनी आवश्यकताएं हैं। फाइलों के लीक होने का परिणाम भी लगभग सभी सरकारों ने भोगा है। मामला केवल कैबिनेट नोट के लीक होने का नहीं है। राजनैतिक प्रतिस्पर्धा की गला काट लड़ाई भी इसके पीछे महत्वपूर्ण है, हर दौर में अपनों को ही नीचा दिखाने और निपटाने की होड़ ने हमेशा ही सरकारी कागजों को सबूत बनाकर परचम की तरह लहराया गया है। किसी से छुपा नहीं है कि किस कागज के लीक होने के पीछे किसने- किसने भूमिकाएं निभाईं।
मोदी के नारे न खाएंगे न ही खाने देंगे.. को थोड़े परिवर्तन के साथ न खा पाए तो अकेले खाने भी नहीं देंगे उत्तराखंड की भूमि पर पूरे जागृत स्वरूप में है..। मीडिया तो सिर्फ बहाना है, हर कागज की कहानी के पीछे के प्रायोजक भी गौर से देखिए तो साफ दिखाई पड़ जाएंगे। सरकार की ताजा बेचैनी के पीछे भी कारण साफ दिखाई देने लगे हैं। केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के उत्तराखंड सरकार को भेजे गए पत्रों का लीक होना साधारण घटना नहीं है। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के जमाने में भी लीक पेपरों ने सरकार को काफी संकट में डाला था।
इस खबर को भी देखें: मौसम: पहाड़ों पर बर्फबारी, मैदानों में कड़ाके की ठंड
ऋषिकेश की स्टर्डिया केमिकल्स की औद्योगिक भूमि को हाउसिंग के लिए एक ही दिन में एनओसी देने के कागजों ने खासा बवाल किया था। 56 पनबिजली परियोजनाओं के कागज भी लीक हुए थे और तत्कालीन एनएचपीसी और उत्तराखंड जल विद्युत निगम के चेयरमैन योगेन्द्र प्रसाद को जेल तक जाना पड़ा था। निशंक सरकार की खूब किरकिरी हुई थी आगे जाकर इसी कांड ने निशंक की विदाई भी सुनिश्चित की थी.. और कांड भी हुए (देखें बाक्स)
दस्तावेजों के लीक होने का सिलसिला काफी पुराना है।
खासकर भाजपा के मुख्यमंत्रियों के काल में उठे विवादों ने तो सत्र तक बदलवाई है। त्रिवेंद्र सिंह सरकार भी अगर सजग है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भाजपा के सबसे ईमानादार मुख्यमंत्री मेजर जनरल खंडूड़ी के कार्यकाल में भी कई सरकारी कागज लीक हुए। उनके जमाने में देहरादून का मास्टर प्लान तक समय से पहले लीक हुआ। कांग्रेस के विजय बहुगुणा के कार्यकाल में टीएसडीसी के प्लाट के आवंटन के कागज भी लीक हुए जिसका खामियाजा ततत्कालीन टिहरी के डीएम को उठाना पड़ा और फजीहत बहुगुणा के नाम लिखी गई। त्रिवेंद्र सिंह रावत पिछली सरकारों में भी शामिल रहे हैं और उनसे बेहतर कौन जान सकता है कि किसी दस्तावेज का लीक होना किस हद तक नुकसान पहुंचा सकता है।
पेपर लीक के बाद उछले मामले
स्टर्डिया केमिकल्स की औद्योगिक भूमि को हाउसिंग परियोजना के लिए अनुमति के मामले में राज्य सरकार को अधिकारियों की भूमिका की जांच के लिए एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन करना पड़ा था। ऋषिकेश स्थित स्टर्डिया केमिकल्स की औद्योगिक भूमि को सरकार ने हाउसिंग परियोजना के लिए अनुमति दी थी। इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी जिस पर न्यायालय ने अनुमति को रद्द कर पूरे मामले की जांच का आदेश दिया था। स्टर्डिया बायोकेमिकल्स मुंबई की कंपनी है। यह मसला पिछले साल तब सामने आया था, जब विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की थी। कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि सरकार ने औद्योगिक भूमि पर गैर कानूनी ढंग से स्टर्डिया डेवलपर्स को आवासीय फ्लैट्स के निर्माण की अनुमति दी है। साथ ही उसका कहना था कि गंगा तट पर स्थित धार्मिक शहर ऋषिकेश में पर्यावरण मानकों सहित अन्य कानूनों का उल्लंघन कर रही है। तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा था कि इस हाउसिंग परियोजना को बोर्ड आफ इंडस्ट्रियल ऐंड फाइनैंशियल रिकंस्ट्रक्शन (बीआईएफआर) की सिफारिश पर मंजूरी दी गई थी।
ऐसे ही एक मामला 56 पनबिजली परियोजनाओं को निरस्त किए जाने का रहा। राज्य सरकार ने इन परियोजनाओं के लिए भूमि आवंटन की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद आवंटन निरस्त कर दिया था। एनएचपीसी और उत्तराखंड जल विद्युत निगम के पूर्व चेयरमैन योगेंद्र प्रसाद को इस मामले में जेल जाना पड़ा था।
काशीपुर की स्नवंती एनर्जी प्रा.लि. को अनुचित लाभ देने का मामला भी गूंजा था। राज्य सरकार ने इस कंपनी को एनर्जी के बजाय इंडस्ट्री में घोषित किया और राज्य को मिलने वाली नेचुरल गैस का कोटा भी इसी कंपनी को दे दिया था। कांग्रेस का आरोप था कि ऋषिकेश भूमि घोटाला व जल विद्युत परियोजनाओं के आवंटन में धांधली के बाद अब काशीपुर में एक बड़ी अनियमितता है। इस मामले में नेचुरल गैस का राज्य का कोटा प्रदेश सरकार ने स्नवंती एनर्जी प्राईवेट लि. काशीपुर को दे दिया था। कंपनी ने सौ रुपए के स्टांप पर लोगों से जमीन ले ली थी। सरकार ने लैंड यूज चेंज कर दिया और स्टांप डयूटी भी माफ कर दी। यह कार्य 4 अक्टूबर 2009 को किया गया। स्नवंति की 46.753 एकड भूमि के लिए सरकार की दरियदिली किसी घोटाले से कम नहीं है। आरोप यह भी था कि राज्य की इंडस्ट्री का गैस कोटा कैसे एक ही कंपनी को दिया गया। इस कंपनी ने 165 मेगावाट बिजली बनाने की बात कही थी लेकिन अनुमति 225 मेगावाट की दी गई।
उत्तराखंड में विद्युत से जुड़े विभागों में हमेशा से ही घपले और भ्रष्टाचार की बू आती रही है। हाल ही में यूपीसीएल घोटाले का पर्दाफाश होने के बाद पावर ट्रांसमिशन कॉर्पोरेशन ऑफ उत्तराखंड लिमिटेड (पिटकुल) के अधिकारी एक और बड़े घोटाले पर पर्दा डालने की फिराक में हैं। इस घपले में प्रदेश को करीब 700 करोड़ रुपये की चपत लगनी तय है। मामला उत्तराखंड के श्रीनगर से काशीपुर तक जाने वाली 400 केवी की विद्युत लाइन से जुड़ा है। विभाग ने इस काम के लिए एक कंपनी को सर्वे का काम दिया था। सर्वे पूरा होने के बाद जब काम शुरू किया गया तो सर्वे पूरी तरह से फर्जी पाया गया। इसके बाद भी विभाग के अधिकारियों ने कंपनी को करीब 50 लाख रुपये से ज्यादा का भुगतान भी किया। प्रोजेक्ट के मुताबिक, इस लाइन का काम साल 2016 में पूरा होना था, लेकिन सर्वे कंपनी और अधिकारियों की लापरवाही के चलते काम 2013 के बाद से आगे नहीं बढ़ा है। हालांकि, विभाग ने कंपनी के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर उसे केवल ब्लैकलिस्ट कर दिया है। ये पूरा प्रोजेक्ट एडीबी (एशियाई विकास बैंक) के बजट से होना था। चूंकि काम पूरा नहीं हो पाया इसलिए एडीबी ने भी इस प्रोजेक्ट को दोबारा शुरू करने की मंजूरी नहीं दी। सर्वे करने के लिए जब दूसरी कंपनी को काम दिया गया तो पता चला कि लाइन 90 किमी और बढक़र लगेगी। यानि जो प्रोजेक्ट उस वक्त महज 530 करोड़ रुपये में पूरा हो रहा था, वो अब करीब 700 करोड़ रुपये से ज्यादा पर पहुंच गया है। इस मामले में विभागीय जांच तो शुरू की गई है, लेकिन अबतक मामले में किसी भी अधिकारी या कर्मचारी पर गाज नहीं गिरी है जबकि मामले को साल दर साल गुजरते जा रहे हैं। जांच में जिस अधिकारी का नाम बार-बार सामने आ रहा है, बताया जा रहा है कि उस अधिकारी को न केवल बचाने की कोशिश की जा रही है, बल्कि उसके सिर पर प्रमोशन का ताज भी कभी भी पहनाया जा सकता है।