बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भारत विद्या भवन के एक सेमिनार में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश के गृह मंत्री अमित शाह ने इतिहास पर निरंतर सवाल खड़े करने वाले लोगों के सामने यह चुनौती पेश की है कि वे अपना नया इतिहास लिखें। यह सही है कि हमारा इतिहास सही नहीं लिखा गया है। लेकिन इसके लिए अंग्रेजों और वामपंथियों की आलोचना करते रहना उचित नहीं होगा। अपना और अपनी दृष्टि से इतिहास लिखना होगा।
प्लेटो ने लिखा है कि कहानियां सुनाने वालों के हाथों में सत्ता होती है। इसका सीधा अर्थ है कि इतिहास सत्ताधारी वर्ग लिखता है। सत्ताधारी वर्ग उपेक्षितों को हाशिये पर भी जगह क्यों देगा? यह दुर्भाग्य है कि भारत का इतिहास अंग्रेजों ने लिखा। भाषा का इतिहास से सीधा और करीबी रिश्ता होता है। भाषा पर भी ग्रियर्सन और कामिल बुल्के जैसे लोगों ने काम किया। इतिहास लेखन की शुरुआत भी अंग्रेजों से हुई। ऐसे में यह अपरिहार्य था कि वे औपनिवेशिक दृष्टि को जायज ठहराने के लिए तर्क और प्रमाण गढ़ते। अपनी श्रेष्ठता साबित करते, बताते कि उनसे पहले भारत सभ्यता की कसौटी पर कहीं नहीं था। कोई आविष्कार अथवा उपलब्धि भारत के खाते में नहीं थी। भारत को भिखारियों का देश कहा था। सपेरों का देश कहा था। अंग्रेजों ने कहीं यह नहीं बताया कि शून्य की खोज भारत में हुई। आर्य भट्ट ने गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी, उसकी खोज आर्य भट्ट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। आर्य भट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2þ कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था।
आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही ऋषि बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे। लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्यामितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाए जाते हैं। आधुनिक विज्ञान ने केवल 400 वर्ष पूर्व ही सर्जरी करनी शुरू की है। लेकिन महर्षि सुश्रुत ने 2600 वर्ष पहले यह कार्य करके दिखा दिया था। निश्चय ही बिजली का आविष्कार थॉमस एडिसन ने किया लेकिन कितने लोगों को यह पता है कि एडिसन ने अपनी किताब में लिखा है कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने ’अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की। जिसमें बिजली उत्पादन से संबंधित कई सूत्र मंत्र दिये हैं। अंग्रेजों ने भारतीय धार्मिक ग्रंथों, दंत कथाओं और पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों को उपहास का पात्र बना दिया।
हमारे इतिहास की नींव झूठ पर है। जिसमें कहा गया है कि आर्य बाहर से आए थे। यह थ्योरी भाषा वैज्ञानिकता को आधार मानते हुए विलियम जोन्स ने दी। 17वीं शताब्दी से पहले कहीं यह विवाद नहीं था। रामाधारी सिंह दिनकर ने अपनी किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ में आर्य के बाहर से आने का इतिहास लिखने वालों से सवाल पूछा है - अगर वे बाहर से आए थे तो वेद में अपनी जन्मभूमि को क्यों नहीं याद किया? वेदों में जिस मुंजवंत पर्वत का उल्लेख है वह पंजाब में है? जेएनयू के एक शोधार्थी ने ‘आर्यन इनवेजन‘ नामक शोध पत्र लिखकर इस थ्योरी की हवा निकाल दी।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम को हमारे इतिहासकारों ने विद्रोह साबित किया था। वीर सावरकर नहीं होते तो 1857 की क्रांति हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा ही नहीं बन पाती। बाजीराव पेशवा एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपनी जिंदगी में 41 लड़ाइयां लड़ीं। कोई नहीं हारे। पर इतिहास में उन्हें एक वीर योद्धा की जगह मस्तानी के इश्क में गिरफ्तार प्रेमी के रूप में पेश किया गया। हल्दी घाटी के युद्ध के साथ भी इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया है। राजा रतन सिंह, पद्मावती और अलाउद्दीन का इतिहास भी कथ्य और सत्य की जगह गल्प पर आधारित करके लिखा गया है। हम मोर्चे तो हारे पर उसे युद्ध के पराजय के रूप में दर्ज कर दिया गया। वह भी तब जब इतिहास के लिए पठनीयता या नाटकीयता का पुट देना जरूरी नहीं है। ज्ञान की किसी भी शाखा की तरह इतिहास का जरूरी तत्व है-सत्य की तलाश। इसके लिए तथ्यों और तर्कों की निर्मम आलोचना अनिवार्य है। इतिहास लेखन में वैझानिकता क आग्रह होना चाहिए जो भारतीय इतिहास लेखन में मौजूद नहीं है। हमारे इतिहासकार अशोक और अकबर दोनो को महान बताते हैं। यह कैसे संभव है? भारतीय इतिहास की लब्ध प्रतिष्ठित लेखिका रोमिला थापर बीते दिनों यह कहते हुए सोशल मीडिया पर ट्रोल हुईं कि युधिष्ठिर ने अशोक से प्रेरणा ली थी। इतिहास पढ़ने वाला शायद ही ऐसा कोई विद्यार्थी हो जिसे भारतीय इतिहास की समझ के लिए रोमिला थापर की किताब से न गुजरना पड़े। आजादी का श्रेय कांग्रेस के हिस्से कर दिया गया। और जो लोग अपने-अपने ढंग से अपने-अपने इलाकों के जंग-ए-आजादी लड़ रहे थे उनकी अनदेखी की गई। स्वतंत्रता पश्चात की दृष्टि में इसका आभाव है। यह नहीं बताया गया है कि भगत सिंह के मुकदमे में वह कौन से 398 गवाह थे जिन्हें लाभ दिया गया।
सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों के बाद जिन इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास लेखन के लिए कलम चलाई उन्होंने अंग्रेजों की डगर छोड़ी क्यों नहीं? क्यों वह भी लीक पीटते रहे? इसका सीधा सा उत्तर यह हो सकता है कि अंग्रेजों की लीक पर थोड़ी बहुत रद्दोबदल के साथ चलना आसान था, दूसरे भारतीयों ने न तो कभी ऐतिहासिक द्सतावेजों को लिखने में रुचि दिखायी और न ही उन्हें सहेजने में वेद सदियों तक वाचिक रहे। ऐसे में भारतीय इतिहास दृष्टि को खोलने के लिए ज्यादा मेहनत की जरूरत थी। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में पहल नहीं हुई। फ्रेंच दार्शनिक रेनेग्योनान श्रीलंका के आनंद कुमार स्वामी राहुल सांकृत्यायन वासुदेव शरण अग्रवाल गोविंद चंद पांडे, वीएस पाठक, विद्या निवास मिश्र, रामधारी सिंह दिनकर, प्रयाग शुक्ल, प्रभाकर माचवे सरीखे अनंत नाम हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास के नए पन्ने खोले। अस्मिता की राजनीति के लिए सामग्री इतिहास से मिलती है इसलिए किसी भी देश का इतिहास ऐसा होना चाहिए जो लोगों को गौरव से भर दे। पराजय में भी जय का वह पक्ष सामने रखे जिससे उस देश की जनता राष्ट्रवाद से भर उठे। हमारे इतिहास में इसका सर्वथा आभाव है। जिस आधार पर भारत प्राचीन काल में विश्व गुरु माना जाता था वे सारे तथ्य और सत्य विलुप्त कर दिए गए। भारतीय इतिहास लेखने में प्राच्य सभ्यता को नकारने की बहस का अंत हो चुका है। इन सब को सिलसिलेवार लाना होगा। लेकिन अमित शाह ने जो चुनौती दी है उससे निपटने के लिए उनके भी मदद की दरकार है। वह सबसे बड़ी और सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष है। संगठन भी हैं। सरकार भी हैं।
प्लेटो ने लिखा है कि कहानियां सुनाने वालों के हाथों में सत्ता होती है। इसका सीधा अर्थ है कि इतिहास सत्ताधारी वर्ग लिखता है। सत्ताधारी वर्ग उपेक्षितों को हाशिये पर भी जगह क्यों देगा? यह दुर्भाग्य है कि भारत का इतिहास अंग्रेजों ने लिखा। भाषा का इतिहास से सीधा और करीबी रिश्ता होता है। भाषा पर भी ग्रियर्सन और कामिल बुल्के जैसे लोगों ने काम किया। इतिहास लेखन की शुरुआत भी अंग्रेजों से हुई। ऐसे में यह अपरिहार्य था कि वे औपनिवेशिक दृष्टि को जायज ठहराने के लिए तर्क और प्रमाण गढ़ते। अपनी श्रेष्ठता साबित करते, बताते कि उनसे पहले भारत सभ्यता की कसौटी पर कहीं नहीं था। कोई आविष्कार अथवा उपलब्धि भारत के खाते में नहीं थी। भारत को भिखारियों का देश कहा था। सपेरों का देश कहा था। अंग्रेजों ने कहीं यह नहीं बताया कि शून्य की खोज भारत में हुई। आर्य भट्ट ने गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी, उसकी खोज आर्य भट्ट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। आर्य भट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2þ कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था।
आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही ऋषि बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे। लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्यामितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाए जाते हैं। आधुनिक विज्ञान ने केवल 400 वर्ष पूर्व ही सर्जरी करनी शुरू की है। लेकिन महर्षि सुश्रुत ने 2600 वर्ष पहले यह कार्य करके दिखा दिया था। निश्चय ही बिजली का आविष्कार थॉमस एडिसन ने किया लेकिन कितने लोगों को यह पता है कि एडिसन ने अपनी किताब में लिखा है कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने ’अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की। जिसमें बिजली उत्पादन से संबंधित कई सूत्र मंत्र दिये हैं। अंग्रेजों ने भारतीय धार्मिक ग्रंथों, दंत कथाओं और पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों को उपहास का पात्र बना दिया।
हमारे इतिहास की नींव झूठ पर है। जिसमें कहा गया है कि आर्य बाहर से आए थे। यह थ्योरी भाषा वैज्ञानिकता को आधार मानते हुए विलियम जोन्स ने दी। 17वीं शताब्दी से पहले कहीं यह विवाद नहीं था। रामाधारी सिंह दिनकर ने अपनी किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ में आर्य के बाहर से आने का इतिहास लिखने वालों से सवाल पूछा है - अगर वे बाहर से आए थे तो वेद में अपनी जन्मभूमि को क्यों नहीं याद किया? वेदों में जिस मुंजवंत पर्वत का उल्लेख है वह पंजाब में है? जेएनयू के एक शोधार्थी ने ‘आर्यन इनवेजन‘ नामक शोध पत्र लिखकर इस थ्योरी की हवा निकाल दी।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम को हमारे इतिहासकारों ने विद्रोह साबित किया था। वीर सावरकर नहीं होते तो 1857 की क्रांति हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा ही नहीं बन पाती। बाजीराव पेशवा एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपनी जिंदगी में 41 लड़ाइयां लड़ीं। कोई नहीं हारे। पर इतिहास में उन्हें एक वीर योद्धा की जगह मस्तानी के इश्क में गिरफ्तार प्रेमी के रूप में पेश किया गया। हल्दी घाटी के युद्ध के साथ भी इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया है। राजा रतन सिंह, पद्मावती और अलाउद्दीन का इतिहास भी कथ्य और सत्य की जगह गल्प पर आधारित करके लिखा गया है। हम मोर्चे तो हारे पर उसे युद्ध के पराजय के रूप में दर्ज कर दिया गया। वह भी तब जब इतिहास के लिए पठनीयता या नाटकीयता का पुट देना जरूरी नहीं है। ज्ञान की किसी भी शाखा की तरह इतिहास का जरूरी तत्व है-सत्य की तलाश। इसके लिए तथ्यों और तर्कों की निर्मम आलोचना अनिवार्य है। इतिहास लेखन में वैझानिकता क आग्रह होना चाहिए जो भारतीय इतिहास लेखन में मौजूद नहीं है। हमारे इतिहासकार अशोक और अकबर दोनो को महान बताते हैं। यह कैसे संभव है? भारतीय इतिहास की लब्ध प्रतिष्ठित लेखिका रोमिला थापर बीते दिनों यह कहते हुए सोशल मीडिया पर ट्रोल हुईं कि युधिष्ठिर ने अशोक से प्रेरणा ली थी। इतिहास पढ़ने वाला शायद ही ऐसा कोई विद्यार्थी हो जिसे भारतीय इतिहास की समझ के लिए रोमिला थापर की किताब से न गुजरना पड़े। आजादी का श्रेय कांग्रेस के हिस्से कर दिया गया। और जो लोग अपने-अपने ढंग से अपने-अपने इलाकों के जंग-ए-आजादी लड़ रहे थे उनकी अनदेखी की गई। स्वतंत्रता पश्चात की दृष्टि में इसका आभाव है। यह नहीं बताया गया है कि भगत सिंह के मुकदमे में वह कौन से 398 गवाह थे जिन्हें लाभ दिया गया।
सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों के बाद जिन इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास लेखन के लिए कलम चलाई उन्होंने अंग्रेजों की डगर छोड़ी क्यों नहीं? क्यों वह भी लीक पीटते रहे? इसका सीधा सा उत्तर यह हो सकता है कि अंग्रेजों की लीक पर थोड़ी बहुत रद्दोबदल के साथ चलना आसान था, दूसरे भारतीयों ने न तो कभी ऐतिहासिक द्सतावेजों को लिखने में रुचि दिखायी और न ही उन्हें सहेजने में वेद सदियों तक वाचिक रहे। ऐसे में भारतीय इतिहास दृष्टि को खोलने के लिए ज्यादा मेहनत की जरूरत थी। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में पहल नहीं हुई। फ्रेंच दार्शनिक रेनेग्योनान श्रीलंका के आनंद कुमार स्वामी राहुल सांकृत्यायन वासुदेव शरण अग्रवाल गोविंद चंद पांडे, वीएस पाठक, विद्या निवास मिश्र, रामधारी सिंह दिनकर, प्रयाग शुक्ल, प्रभाकर माचवे सरीखे अनंत नाम हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास के नए पन्ने खोले। अस्मिता की राजनीति के लिए सामग्री इतिहास से मिलती है इसलिए किसी भी देश का इतिहास ऐसा होना चाहिए जो लोगों को गौरव से भर दे। पराजय में भी जय का वह पक्ष सामने रखे जिससे उस देश की जनता राष्ट्रवाद से भर उठे। हमारे इतिहास में इसका सर्वथा आभाव है। जिस आधार पर भारत प्राचीन काल में विश्व गुरु माना जाता था वे सारे तथ्य और सत्य विलुप्त कर दिए गए। भारतीय इतिहास लेखने में प्राच्य सभ्यता को नकारने की बहस का अंत हो चुका है। इन सब को सिलसिलेवार लाना होगा। लेकिन अमित शाह ने जो चुनौती दी है उससे निपटने के लिए उनके भी मदद की दरकार है। वह सबसे बड़ी और सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष है। संगठन भी हैं। सरकार भी हैं।