Bhagavad Gita Quotes: श्री कृष्ण कहते हैं, क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम
Bhagavad Gita Quotes: भगवद गीता का ज्ञान आज भी उतना ही तर्कसंगत है जितना कई वर्षों पहले था आइये एक नज़र डालते हैं भगवद गीता कोट्स पर।
Bhagavad Gita Quotes: महाभारत काल में भगवद गीता भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को एक सलाह के रूप में सुनाई थी कि क्या सही है और क्या गलत है जब अर्जुन अपने चचेरे भाई कौरवों के खिलाफ युद्ध में जाने से झिझक रहे थे। जिन घटनाओं के कारण यह युद्ध हुआ, उनका वर्णन महाभारत में किया गया है, जो ऋषि व्यास द्वारा लिखित विस्तृत छंदों का एक महाकाव्य है। आइये जानते हैं श्री कृष्ण के वो वचन जो आज भी मनुष्यों पर तर्कसंगत लगते हैं।
भगवद गीता कोट्स (Bhagavad Gita Quotes)
1 . यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
अर्थ - कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है
वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
2 . क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
अर्थ- क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है
और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।
3 . नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥
अर्थ- संयमरहित अयुक्त पुरुष को आत्म ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती।
भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ ?
4 . या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
अर्थ- संपूर्ण प्राणियोंके लिए जो रात्रि के सामान है,
उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद ली प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं,
परमात्मा के तत्त्व को जाननेवाले मुनि के लिए वह रात्रि के सामान है ।
5 . आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
अर्थ- जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादामें अचल प्रतिष्ठित रहता है।
ऐसे ही सम्पूर्ण भोगपदार्थ जिस संयमी मनुष्यमें विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है भोगोंकी कामनावाला नहीं।
6 . विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥
अर्थ- जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है।
7 . न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥
अर्थ- कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह पूर्णत्व प्राप्त करता है।
8 . कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थन्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
अर्थ-जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रयों के विषयों का चिंतन करता रहता है,
वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।
9 . नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥
अर्थ- तुम अपने नियत कर्तव्य कर्म करो क्योंकि अकर्म से श्रेष्ठ कर्म है। तुम्हाम्हारे अकर्म होने से तुम्हारा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
10 . यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥
अर्थ- यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए
हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक आचरण करो।