Dharmveer Bharti: कविता पर धर्मवीर भारती के नोट्स
Dharmveer Bharti: नवम्बर 74 की शुरूआत में ही हुआ वह भयानक हादसा। जे.पी.ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी। हर उपाय पर भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज का आदेश दिया गया।
Dharmveer Bharti: ‘तानाशाही का असली रूप सामने आते देर नहीं लगी। नवम्बर 74 की शुरूआत में ही हुआ वह भयानक हादसा। जे.पी.ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी। हर उपाय पर भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज का आदेश दिया गया। अखबारों में धक्का खा कर नीचे गिरे हुए बूढ़े जे.पी.उन पर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जे.पी.और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ा कर चलते हुए जे.पी.की तस्वीर देखी । दो-तीन दिन भयंकर बेचैनी रही, बेहद गुस्सा और दुख...9 नवम्बर रात 10 बजे यह कविता अनायास फूट पड़ी।’
कविता में तो पच्चीस साल लिखा है लेकिन आज़ादी के 72 साल बाद भी ,आज भी वही प्रक्रिया जारी है।सत्ता के उम्मीदवार बन ( जनता के नहीं ) चुनाव लड़ते हैं,चुनाव मेंकरोड़ों ख़र्च करते हैं,जीतने के बाद तो पूरे बाश्शा बनने लगते हैं। मीडिया भी उनके इसी छवि को पोषित करती है और दिखाती बताती है फ़लाँ फ़लाँ का राजतिलक जबकि वे शपथ संविधान और क़ानून के संरक्षण और संवर्द्धन की तथा अपने देश या प्रदेश की जनता की सेवा का लेते हैं ।हिंदुस्तान दुनिया में अकेला लोकतांत्रिक देश है जिसमें देश के असली मालिक ‘हम भारत के लोगों ‘(जनता) का रास्ता रोक कर के इन सेवकों (तथाकथित बाश्शाहों) को गुज़ारा जाता है।
असली आज़ादी तभी आएगी जब जनता सेवक चुनेगी , जो अच्छा , ईमानदार , चरित्रवान , संवेदनशील है तथा कम से कम संसाधनों में , और वह भी आप से ही माँग माँग कर ,आपके सहयोग से चुनाव लड़ रहा है ।हमें इस सच्चाई को समझना होगा कि लोकतंत्र में असली सत्ता तो हमारे पास, जनता के पास है। शहीदों और और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तपस्या से जो लोकतंत्र और संविधान की गंगा अवतरित हुई, वह शुरू में तमाम शंकर की जटाओं में उलझ कर रह गयी। गंगा को जन जन तक ले जाने के लिए भगीरथ को दुबारा तपस्या करनी पड़ी।
भारत का संविधान पारित करते समय बाबू राजेंद्र प्रसाद (लगभग 400 सदस्यों की संविधान सभा के अध्यक्ष) और डॉक्टर अम्बेडकर (संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष) दोनों ने 26 नवम्बर 1949 को कहा था कि अगर अच्छे चरित्रवान संवेदन शील ईमानदार और चरित्रवान लोग चुनकर नहीं आएँगे तो अच्छा संविधान भी देश को ख़ुशहाल नहीं कर पाएगा। उन्होंने दुहरी ज़िम्मेदारी दी थी। अच्छे लोगों को, कि वे चुनाव में प्रत्याशी बनें और भारत के लोगों को कि वह ऐसे लोगों को जिताए।
इसके लिए जरूरी है कि चुनाव जाति, धर्म, शराब, बाहुबल, बड़े-बड़े कट आउट, सैकड़ों हज़ारों गाड़ियों के क़ाफ़िलों, मीडिया द्वारा बनायी गयी इमेज के आधार पर या अति खर्चीला न हो। जो भी बहुत अधिक धन, करोड़ों रूपये खर्च करके चुनाव जीतेगा, चाहे वह रूपया व्यक्ति का हो या पार्टी का हो नम्बर एक का हो या दो का, वह कई गुना कमाएगा और उसी में लगा रहेगा। जनता और उसकी सेवा और समस्यायें सुतलझाना और शहीदों के सपनों के अनुसार व्यवस्था चलाना उसके लिए गौड़ हो जाएगा।
आज आवश्यकता है कि हम स्वतंत्रता का अर्थ समझें, लोकतंत्र का अर्थ समझें और आज़ादी ,लोकतंत्र और संविधान की गंगा को जन जन तक पहुँचाएँ , शहीदों के सपनों को जन जन तक पहुँचाएँ। कम से कम अपना वोट तो हर स्तर के और हर चुनाव में सही आदमी को दे दिया जाए, जाति,धर्म,पैसे,शराब, बाहुबल, मीडिया द्वारा बनायी छवि, गाड़ियों के क़ाफ़िले, जिताऊपन, आदि से ऊपर उठकर, अच्छाई, चरित्र, ईमानदारी और संवेदेनशीलता के आधार पर।
इसलिए अब दिनकर की वो लाइने साकार करनी होंगी ‘सिंहासन ख़ाली करो अब जनता आती है। दरअसल संसद कभी सिंहासन था भी नहीं वह तो जनता की आवाज़ की जगह थी लेकिन वहाँ लोगों ने क़ब्ज़ा कर रखा था अपना सिंहासन समझ कर और मीडिया में प्रसारित होकर कि फ़लाँ फ़लाँ का राजतिलक। सेवा तथा संविधान और विधि के संरक्षण और संवर्धन की शपथ को राजतिलक लिखना क्या शुरू से ही सत्ता और मीडिया के दुरभिसंधि का नतीजा नहीं है ? दुखद पहलू यह भी रहा कि आज़ादी के बाद बहुत दिनों तक हमारे देश की व्यवस्था को प्रजातंत्र तक कहा गया यानि कि सत्ता राजा है और जनता प्रजा।प्रजा तो हमेशा राजा ही चुनेगी न!
हम लोगों द्वारा पूरे देश में की गयी तमाम संविधान कथाओं का मुख्य अनुभव यह रहा कि अधिकांश ‘हम भारत के लोगों ‘ को पता ही नहीं है कि आज़ादी क्या है ? लोकतंत्र क्या है ? उन्हें यही लगता है कि वे अभी भी राजशाही में जी रहे हैं ,चुनाव के द्वारा वे राजा चुनते हैं। फिर जनता को कैसे पता चले और कौन बताएगा कि वे प्रजा नहीं देश के असली मालिक हैं ,भाग्य विधाता हैं। उन्हें नहीं पता की सब भारतीयों को बराबर अधिकार हैं। उन्हें नहीं पता हैं कि प्रधान को सभी फ़ैसले सभी ग्रामवासियों की मीटिंग में होना चाहिए।
संविधान जानने से वे भीड़ से, प्रजा से नागरिक बनने लगते हैं, उनकी अपाहिजता दूर होने लगती है, उनकी आँखों की पट्टियाँ खुलने लगती हैं और ख़ुद अपने रहनुमा या तो बनने को तैय्यार हो जाते हैं या सच्चे रहनुमाओ की तलाश करने लगते हैं। माइक्रो लेवल पर उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाओं में ऐसा चमत्कार ख़ूब हुआ, आगे आने वाले समय में मैक्रो लेवल पर पूरे देश में विधान सभा और लोक सभा चुनाओं में भी यही होने जा रहा है। इसी प्रकार इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गयी। इमरजेंसी के आतंक के दौरान धर्मवीर भारती ने 45 साल पहले उस समय बहु प्रचलित अपनी कविता “मुनादी” (जो उस समय हर बच्चे की ज़ुबान पर थी ) लिखी जिसकी शुरुआत में ही जय प्रकाश जी को इंगित करते हुए लिखा है -
धर्मवीर भारती जी की पूरी कविता इस प्रकार है ( लम्बी है लेकिन विश्वास है कि आप पूरा पढ़ेंगे तथा लोगों को पढ़ाएँगे )-
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है।
शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर(हानिकर) है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय !
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है।
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों। क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?
आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं...
तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की !
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें
अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए !
नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।
ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप !
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए !
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुँछ जाए !
बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !
यह कालजयी कविता आज भी उतनी ही ज़रूरी , दिल तक असर करने वाली और सार्थक है। हर देशवासी को इसे पढ़ना चाहिए , आत्मसात् करना चाहिए। लोकतंत्र में भी अगर जनता सचेत नहीं है तो कैसे कैसे राजशाही चलाने की कोशिशें होती रहती हैं और समय समय पर कैसे कैसे उथल पुथल होते रहते हैं। इसकी बहुत सुंदर बानगी प्रस्तुत करती है ये कविता.ऐसे हादसे फिर कभी भविष्य में न हों, लोकतंत्र जन जन तक पहुँच कर जनता को, हम भारत के लोगों को देश का मालिक होने का भाव और ज़िम्मेदारी पैदा करे, इसके लिए हम सब लोगों को आँख खोलकर तपस्या के भाव से एक साथ भगीरथ भी बनना पड़ेगा और लोकपाल भी।
जुगनुओं को मिल-जुल कर ढूँढ-जोड़ कर सूरज बनाना है ,
हर हाल में इस देश- धरा और लोकतंत्र को जगमगाना है ।