Patparganj History: आज का पटपड़गंज कभी था युद्ध की भूमि, कैसे हुई थी यह जमीन खून की प्यासी, चलिए जानते हैं
Patparganj Ka Itihas: आज जहां मार्केट, कॉलोनियाँ और फ़ैक्ट्रियाँ बसी हैं, वहीं किसी समय गोलों की गूंज, तलवारों की टंकार और साम्राज्य के पतन की करुण गाथा गूंज रही थी। आइए जानते हैं पटपड़गंज का इतिहास।;
Patparganj History (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
Patparganj Ka Itihas: आज आप पटपड़गंज को सिर्फ़ एक बाज़ार या औद्योगिक क्षेत्र के रूप में जानते होंगे। लेकिन इसके इतिहास की ज़मीन पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण और ख़ूनी अध्याय दफ़न है। 19वीं सदी की शुरुआत में, यहीं पर एक ऐसा युद्ध लड़ा गया था जिसने भारत का राजनीतिक और औपनिवेशिक भविष्य हमेशा के लिए बदल दिया।
पटपड़गंज का युद्ध– 11 सितंबर,1803
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
इस दिन मराठों और मुग़लों की संयुक्त सेना का सामना हुआ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) की ताक़तवर फ़ौज से। यह केवल एक सामान्य युद्ध नहीं था, बल्कि एक ऐसा ऐतिहासिक मोड़ था जिसने भारत की सत्ता-संरचना को पूरी तरह पलट कर रख दिया।
इस लड़ाई में ब्रिटिशों ने निर्णायक जीत हासिल की। इसके साथ ही दिल्ली पर उनका पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो गया, मुगल साम्राज्य (Mughal Empire) केवल नाममात्र का प्रतीक रह गया, और मराठा साम्राज्य का क्षरण शुरू हो गया, जो अगले 15 वर्षों में लगभग समाप्त हो गया।
इतिहास की बड़ी कड़ी: प्लासी, बक्सर और फिर पटपड़गंज
प्लासी (1757) और बक्सर (1764) की लड़ाइयों के बाद पटपड़गंज का युद्ध तीसरा ऐसा बड़ा युद्ध था जिसने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में न केवल सैन्य शक्ति दी, बल्कि उत्तर भारत के बड़े हिस्से पर प्रशासनिक नियंत्रण भी दिला दिया।
यह युद्ध एक तरह से ब्रिटिश औपनिवेशिक युग की नींव बन गया, जहां से उनकी सत्ता दक्षिण से उत्तर और पश्चिम की ओर तेज़ी से फैलने लगी।
दिल्ली पर कब्ज़ा– प्रतीकात्मक सत्ता का अधिग्रहण
दिल्ली उस समय भले ही राजनीतिक रूप से कमज़ोर हो चुकी थी। लेकिन मुग़लों की राजधानी होने के कारण यह प्रतीकात्मक रूप से बेहद अहम थी। ब्रिटिशों ने इस युद्ध के बाद दिल्ली पर कब्ज़ा करके देश की मानसिक सत्ता भी अपने हाथों में ले ली।
इतिहास में पटपड़गंज की भूमिका (Patparganj Role In History)
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आज जहां मार्केट, कॉलोनियाँ और फ़ैक्ट्रियाँ बसी हैं, वहीं किसी समय गोलों की गूंज, तलवारों की टंकार और साम्राज्य के पतन की करुण गाथा गूंज रही थी।
शुरुआत: बंजर ज़मीन से बाज़ार तक का सफ़र
17वीं सदी में जब शाहजहाँ ने शाहजहानाबाद (आज का पुराना दिल्ली क्षेत्र) की नींव रखी, तभी शहर के बाहर व्यापारिक और व्यावसायिक केंद्र भी विकसित होने लगे। पटपड़गंज भी ऐसा ही एक इलाक़ा था, जहां दो नदियों के बीच उपजने वाला उपजाऊ अनाज एकत्र होता था। यह अनाज स्थानीय व्यापारियों को बेचा जाता था, जो पहाड़गंज के बाज़ारों में अपना कारोबार चलाते थे और वहीं निवास करते थे।
‘पटपड़गंज’ सनाम की व्युत्पत्ति भी दिलचस्प है — यह दो उर्दू शब्दों से मिलकर बना है: पटपड़ = बंजर या वीरान ज़मीन। गंज = बाज़ार या भंडारण स्थल।यानि एक ऐसा बाज़ार जो कभी वीरान ज़मीन पर विकसित हुआ था।
हमलों से अछूता नहीं रहा पटपड़गंज
हालाँकि दिल्ली पर सदियों तक कई आक्रमण हुए। लेकिन पटपड़गंज, जो यमुना नदी के पूर्वी तट पर स्थित है, आमतौर पर अपेक्षाकृत शांत रहा। पर इसका मतलब यह नहीं कि यह इलाक़ा हिंसा से अछूता रहा।
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◾ 1753 : नजीबउद्दौला का हमला
रोहिल्ला सरदार नजीबउद्दौला ने मुग़ल बादशाह अहमद शाह बहादुर (1748–1754) की मदद के बदले अपना पारिश्रमिक माँगा। जब यह नहीं मिला, तो उसने पटपड़गंज पर हमला कर दिया। उसने लूटपाट की, स्थानीय लोगों के साथ सौदा हुआ— 35,000 रुपये मिलने के बाद ही वह वापस गया।
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◾ 1757 : मराठों की एंट्री
जुलाई 1757 में मराठा सैनिकों ने दिल्ली पर हमला करने से पहले यहीं डेरा जमाया। उस समय दिल्ली के तख़्त पर आलमगीर द्वितीय थे, जिन्हें उसी साल अफ़ग़ान शासक अहमद शाह अब्दाली ने चौथे हमले के दौरान गद्दी पर बैठाया था।दिल्ली का वास्तविक नियंत्रण हालांकि नजीबउद्दौला के पास था। लेकिन इमाद-उल-मुल्क, जो नजीब की निगरानी में था, डर गया कि अब्दाली कहीं पूरी दिल्ली पर क़ब्ज़ा न कर ले। उसने मराठों को दिल्ली बुलाया ताकि नजीब को हटाया जा सके।
रघुनाथ राव के नेतृत्व में मराठे आए और दिल्ली पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया। यही वह क्षण था, जब मराठों ने उत्तर-पश्चिम भारत में अपनी सैन्य और राजनीतिक पकड़ बनाना शुरू किया।
पटपड़गंज केवल व्यापार का केंद्र नहीं था, यह सियासत, विश्वासघात और रणनीतिक गठबंधनों की भूमि भी था। आज यह इलाक़ा भले ही औद्योगिक केंद्र और रिहायशी इलाक़ा बन चुका है। लेकिन इसकी ज़मीन पर कभी इतिहास की धूल और तलवारों की चमक बसी थी।
मुग़ल साम्राज्य के उत्थान-पतन की गवाही देता इलाक़ा
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मुग़ल साम्राज्य के मध्यकाल में पटपड़गंज एक छोटा, किंतु रणनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इलाक़ा था। यह क्षेत्र मुख्यतः शांत माना जाता था। लेकिन औरंगज़ेब (1658-1707) की मृत्यु के बाद जैसे-जैसे साम्राज्य का पतन शुरू हुआ, वैसे-वैसे पटपड़गंज भी अशांतियों की चपेट में आने लगा।
औरंगज़ेब के बाद तख़्त पर बैठने वाले मुग़ल शासक एक से बढ़कर एक कमज़ोर सिद्ध हुए, जिससे साम्राज्य की पकड़ ढीली पड़ती गई। इस गिरते साम्राज्य की स्थिति को देखकर मराठों को लगा कि अब दिल्ली को जीतना संभव है। मराठों ने उत्तर भारत की ओर बढ़ना शुरू किया। उन्होंने 1723 में मालवा (वर्तमान मध्यप्रदेश) और 1735 में राजपुताना (वर्तमान राजस्थान) पर अधिकार कर लिया। दिल्ली पर भी उनका ध्यान गया और 1737 तथा 1757 में उन्होंने युद्ध के बाद इस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। इन अभियानों का नेतृत्व पेशवा बाजीराव प्रथम और उनके भाई रघुनाथ राव ने किया।
इस बीच, जब 1748 में मुग़ल सम्राट मोहम्मद शाह का निधन हुआ, तो देश की राजनीतिक स्थिरता पूरी तरह बिखर गई। क्षेत्रीय शक्तियों—जैसे जाट, सिख और मराठे—तेज़ी से उभरने लगे। सत्ता की इस उठापटक में हर कोई अपने हिस्से की लूट खींचने को तैयार था। सन 1739 में, फ़ारसी आक्रांता नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला बोला और क्रूरता से कत्लेआम किया। यह आक्रमण इसलिए भी हुआ क्योंकि मुग़ल बादशाह ने नादिर शाह के आग्रह के बावजूद अफ़ग़ानों के लिए काबुल की ओर जाने वाले मार्ग को बंद करने से इनकार कर दिया था। नादिर शाह की नज़र भारत की अपार संपदा पर पहले से ही थी और यह युद्ध उसके लिए लूट की एक सुनियोजित योजना था।
कुछ ही वर्षों बाद, 1761 में तीसरे पानीपत युद्ध में मराठों को अफ़ग़ान आक्रांता अहमद शाह अब्दाली से करारी हार मिली। मराठों का उत्तरी भारत में बढ़ता प्रभाव अब्दाली को असहज कर रहा था और इसी कारण यह निर्णायक युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में अपदस्थ मुग़ल सेनापति नजीबउद्दौला ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ मिलकर मराठों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला।
युवराज शाह आलम द्वितीय का राज
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हालांकि युद्ध में मराठे हार गए। लेकिन अब्दाली उनकी बहादुरी से इस क़दर प्रभावित हुआ कि उसने दिल्ली की प्रशासनिक बागडोर फिर से मराठों को सौंप दी। साथ ही, उसने पंजाब से सुतलज नदी तक का इलाक़ा अफ़ग़ानों के लिए सुरक्षित रख लिया। उसने मुग़ल युवराज शाह आलम द्वितीय (1759-1806) को औपचारिक रूप से बादशाह मान लिया, जो उस समय राजनीतिक अराजकता और डर के चलते पूर्वी भारत में भटक रहे थे।
इस समय दिल्ली की सत्ता इमाद-उल-मुल्क के हाथों में थी, जो स्वयं को असली शासक मानता था। उसने ही शाह आलम के पिता आलमगीर द्वितीय को तख़्त पर बैठाया था और बाद में अपनी शर्तों पर शाहजहां तृतीय को गद्दी सौंप दी। यह बादशाह मात्र नाम का शासक था, जबकि असली सत्ता इमाद-उल-मुल्क और उसके समर्थकों के हाथ में थी।
इसी बीच, भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एक साधारण व्यापारिक संस्था के रूप में अपने प्रारंभिक स्वरूप से आगे बढ़कर एक राजनीतिक शक्ति में परिवर्तित हो रही थी। बंबई और मद्रास जैसे तटीय नगरों को कंपनी ने सामरिक रूप से विकसित करना शुरू कर दिया था। इस क्रम में 1757 में प्लासी और 1764 में बक्सर के निर्णायक युद्धों में अंग्रेज़ों की जीत ने उन्हें भारत की राजनीति में एक प्रभावशाली ताक़त के रूप में स्थापित कर दिया।
इलाहाबाद संधि (Allahabad Pact)
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इन युद्धों में अंग्रेज़ों ने मुग़ल सम्राट, अवध के नवाब और बंगाल के नवाब की संयुक्त सेनाओं को हराकर अपनी सैन्य कुशलता और रणनीतिक चतुराई का परिचय दिया। इन पराजयों के परिणामस्वरूप 1765 में 'इलाहाबाद संधि' संपन्न हुई, जिसके अंतर्गत मुग़ल सम्राट शाह आलम-द्वितीय ने बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी अधिकार अंग्रेज़ों को सौंप दिए। अब शाह आलम-द्वितीय केवल नाम का सम्राट रह गया था, जिसकी शक्ति और प्रभावशाली स्थिति पूरी तरह खत्म हो चुकी थी। धीरे-धीरे वह विलासिता, अफ़ीम और अय्याशी में डूब गया।
इस दौरान सम्राट को यह भय सताने लगा कि नजीबउद्दौला का पोता, रोहिल्ला सरदार ग़ुलाम क़ादिर, उसके हरम की महिलाओं को बहला-फुसलाकर षड्यंत्र रच रहा है ताकि उसकी हत्या की जा सके। इसी आशंका के चलते शाह आलम ने ग़ुलाम क़ादिर का नपुंसकीकरण करवा दिया और उसे कारावास से रिहा कर दिया, जहां वह अंतिम रोहिल्ला संघर्ष के बाद से कैद था।
शाह आलम की स्थिति लगातार कमजोर होती रही और 1783 में उसका साम्राज्य सिकुड़ते हुए सिखों के अधीन होता गया। अगले वर्ष, क्षेत्रीय ताक़तों से जूझने में अक्षम सम्राट ने उज्जैन के मराठा सरदार और कुशल राजनीतिज्ञ महादजी शिंदे को दिल्ली आमंत्रित किया और उसे प्रशासनिक अधिकार सौंप दिए। शिंदे इससे पहले पाटन और मर्टा में राजपूतों को पराजित कर चुका था और उसकी युद्धनीति और संगठन शक्ति की ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी।
महादजी शिंदे के दिल्ली आगमन के बाद प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ हुई और 1787 में ग़ुलाम क़ादिर तथा सिखों द्वारा किया गया संयुक्त हमला विफल हो गया। किंतु इसके अगले वर्ष ग़ुलाम क़ादिर ने दोबारा हमला किया और इस बार उसने क्रूर प्रतिशोध लिया। उसने शाह आलम-द्वितीय की आंखें फोड़ दीं और शाही हरम की महिलाओं को अत्याचार व भूख की दशा में अपमानित किया। स्थिति मार्च 1788 में तब बदली जब महादजी शिंदे अपनी सेना के साथ दिल्ली पहुंचे और क़ानून-व्यवस्था को बहाल किया। शाह आलम-द्वितीय के आदेश पर ग़ुलाम क़ादिर को कठोर यातना देकर मृत्युदंड दिया गया।
परंतु यह व्यवस्था स्थायी न रह सकी। शीघ्र ही मराठों और मुग़लों के हाथों से दिल्ली पुनः निकल गई। 1803 में मराठा शक्ति में आंतरिक मतभेद उभरने लगे और पेशवा बाजीराव-द्वितीय ने अपने निजी हितों की पूर्ति हेतु ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से एक संधि कर ली। इस संधि में अंग्रेज़ों ने बाजीराव की सुरक्षा का आश्वासन दिया, बदले में मराठा संघ से संबंधित सभी वार्ताओं में कंपनी की मध्यस्थता को मान्यता दी गई।मराठा सरदार सदैव अंग्रेज़ों के हस्तक्षेप और ऐसे समझौतों के विरोधी रहे थे। उन्होंने इस संधि को नकारते हुए अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष की राह अपनाई। इसी पृष्ठभूमि में अगस्त 1803 में 'द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध' प्रारंभ हुआ।
इस प्रकार, पटपड़गंज और समूचा दिल्ली क्षेत्र 18वीं सदी में सत्ता के इस संघर्ष का साक्षी बना, जिसमें मुग़ल, मराठा, अफ़ग़ान, जाट, सिख और अंग्रेज़ सभी किसी न किसी रूप में शामिल थे। यद्यपि पटपड़गंज स्वयं राजधानी नहीं था, फिर भी यह अनेक निर्णायक ऐतिहासिक घटनाओं से प्रभावित हुआ और दिल्ली के राजनीतिक मानचित्र पर अपनी अहम छाप छोड़ गया।