बीते दिनों ब्रिटेन की अपनी यात्रा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की बात सबके साथ कार्यक्रम में दवाओँ के खेल का खुलासा कुछ इस तरह किया। उन्होंने कहा कि , ‘आप सबको पता है कि दवाओं की बेहतरीन पैकेजिंग होती है। जो लोग उन्हें लिखते हैं उन्हें भी कुछ न कुछ मिलता ही है। आप लोग यह भी जानते हैं कि डाक्टर कांफ्रेंस में हिस्सा लेने दुबई और सिंगापुर जाते हैं। यहां वो मरीजों का इलाज करने नहीं बल्कि दवा कंपनियं की वजह से जाते हैं। ’ यह बात दवा कंपनियों और डाक्टरों दोनों को अखरीं। पर दवाओं को लेकर जो रहस्योद्धाटन हो रहे हैं वे प्रधानमंत्री के कहे से ज्यादा परेशान करने वाले हैं। देश की 62 फीसदी दवा कंपनियां मानकों पर फेल साबित हो रही हैं।
इसके लिए सिर्फ दवा कंपनियों को दोषी ठहराना जायज नहीं होगा क्योंकि नियम के मुताबिक हर साल 2 लाख 40 हजार दवाओं के नमूनों की जांच होनी चाहिए। लेकिन देश में राज्य सरकारों के पास 36 और केंद्र सरकार के पास सिर्फ 6 लैब हैं जहां दवाओँ की जांच हो सकती है। नतीजतन सिर्फ 1 लाख दवाओँ के सैंपल ही जांच परख के बाद बाहर आ रहे हैं। बीते दो सालों में दवा बनाने वाली 105 कंपनियां मानकों पर खरी नहीं उतरी हैं। सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल आर्गनाइजेशन और स्टेट ड्रग कंट्रोलर डिपार्टमेंट ने मिलकर मार्च 2016 से मार्च 2018 तक 170 दवा कंपनियों की जांच की इसमें 62 फीसदी फेल हो गयीं। 69 कंपनियों के 50 फीसदी मानक भी पूरे नहीं थे। केवल 65 ऐसी कंपनियां पाई गयीं जो शत प्रतिशत मानकों के हिसाब से चल रही थीं। माशेलकर कमेटी ने 2003 में दी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हर 50 दवा बनाने वाली यूनिट और 200 केमिस्ट शाप पर एक ड्रग इंस्पेक्टर होना चाहिए। इस लिहाज से देश में 3500 ड्रग इंस्पेक्टर रोजगार पा सकते थे। लेकिन उस समय कुल 1500 ड्रग इंस्पेक्टर देश में मौजूद थे। दवा कंपनियों को लाइफ टाइम लाइसेंस देने का चलन भी दवाओं के अधोमानक होने की वजह है।
देश में तकरीबन 2 लाख करोड़ रुपये का दवा कारोबार है। देश में दवा की क्वालिटी से समझौता न हो इसके लिए मोदी कैबिनेट ने 2015 में 1750 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान किया। यह दुर्भाग्य है कि 31 मार्च 2018 तक सिर्फ 80 करोड़ आवंटित हो पाए। यही नहीं हैदराबाद में 45 करोड़ रुपये की लागत से ड्रग रेग्यूलेटरों को ट्रेनिंग देने के लिए अकादमी खोली जानी थी पर यह प्रस्ताव भी सरकारी फाइलों से निकलकर खड़ा नहीं हो पाया। यह भी दिलचस्प है कि देश में दवा बनाने के लिए कच्चा माल सबसे अधिक चीन से आयात किया जाता है। क्वालिटी कंट्रोल के लिए चीन की राजधानी बीजिंग में कच्चे माल की निगरानी हेतु एक कार्यालय खोलने की बात हुई थी पर आज तक नहीं खुल पाया।
केंद्र और राज्य सरकारें स्वास्थ्य योजनाओँ पर अरबों रुपये खर्च कर रही हों लेकिन दवा कारोबार को लेकर सरकारी स्तर पर की जा रही अनदेखी यह बताती है कि सरकार को वास्तविक चिंता कितनी है। यही नहीं देश में मिलावट का रोग सुरसा की तरह पैर पसार रहा है। हर पर्व त्यौहार के समय बजार में मिलावटी खाद्य पदार्थों की भरमार और इनकी धरपकड़ की खबरें जरुर सबसे सामने से गुजरती होंगी। नकली घी, सिंथेटिक दूध, मसालों में मिलावट, दाल और चावल पर पालिश, सब्जियों को रंगने, दूध निकालने के लिए आक्सीटोसिन के इस्तेमाल, कारबाइड से पकाए जा रहे फल, जैसे तमाम नुस्खे हमारी सेहत बिगाड़ने के लिए हमेशा खतरे की तरह हमारे आसपास मंडराते रहते हैं। लेकिन आजादी के बाद पहली मर्तबा मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में इसकी जांच परख के मद्देनजर एक अलग विभाग खोला गया। यह विभाग स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत साल 2008 में फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथारिटी आफ इंडिया यानी एफएसएसएआई के नाम से काम कर रहा है। राज्यों में भी यह विभाग खुला पर इसकी कोई गतिविधि नज़र नहीं आती है। सरकार के तमाम दावों के बाद भी कैंसर फैलाने वाला गुटखा बाजार में आसानी से उपलब्ध है। हालांकि चतुर सुजान गुटखा मालिकों ने कानूनी दांवपेंच का लाभ उठाकर उसका स्वरूप बदल दिया है। नतीजा यह कि देश में हर रोज तंबाकू का सेवन किसी भी तरह करने वाले 2500 लोगों की मौत हो रही है। अगर मिलावट की बात करें तो देश में कैंसर की बीमारी लगातार बढ़ रही है। अकेले महिलाओं के कैंसर के बारे में बात की जाय तो अब भारत तीसरा महिलाओं में सबसे ज्यादा कैंसर पाया जाने वाला देश बन गया है। यहां पर हर साल कैंसर 5 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। पर यह सरकार के एजेंडे का विषय नहीं बन पाया है।
दवा कंपनियों की बहुत बड़ी लाबी है जो सेहत के मानदंड खुद तैयार करती है और फिर मेडिकल की बड़ी बड़ी पढाई किए हुए डाक्टरों को उससे सहमत कराती है और फिर अपनी दवा बिकवाती है। वह जब चाहती है तो ऊपर और नीचे के रक्तचाप के आंकडे बदल देती है। वह जब चाहती है तो शुगर के आंकड़े नीचे ला देती है। मसलन, आज से 30 साल पहले शुगर का सामान्य मानक 140 था जो बीस साल पहले घटकर 126, 10 साल पहले 110 और अब 100 पर आ गया है। इस छोटे से हेरफेर में करोड़ों लोग इन बीमारियों की जद में आ जाते हैं। यानी अब भारत का हर तीसरा व्यक्ति शुगर का मरीज है। दवा कंपनियों के रसूख को इससे समझा जा सकता है कि एक समय यह कंपनियां डाक्टरों से यह कहला रही थीं कि बच्चों को मां के दूध से दूर रखना चाहिए उन्हें पावडर का दूध पिलाना चाहिए, उन्हें बोतल में दूध पिलाना चाहिए। बाद में सरकार को यह अभियान चलाना पड़ा कि मां का पहला पीला दूध कितना महत्वपूर्ण है। अब यह भी अभियान का एक हिस्सा है कि बच्चे को दूध पिलाते समय हाउ टु हैंडल द ब्रेस्ट। पश्चिमी देशों के चुनाव फार्मा कंपनियों के खर्च पर लड़े जाते हैं। भारत में दवाओं के मूल्य नियंत्रण का अधिकार सरकार के पास है। एक ही कंपनी अपनी दवा को जेनरिक, जेनरिक ट्रेड और जेनरिक ब्रांड तीनों में बेच सकती है। उपभोक्ता के लिए यह अंतर समझ पाना मुश्किल है, मरीज की मुश्किल ही दवा कंपनियों का मार्ग प्रशस्त करती है।
[caption id=attachment_3544 align=aligncenter data-width=2480] दवा की ही सेहत खराब[/caption]
इसके लिए सिर्फ दवा कंपनियों को दोषी ठहराना जायज नहीं होगा क्योंकि नियम के मुताबिक हर साल 2 लाख 40 हजार दवाओं के नमूनों की जांच होनी चाहिए। लेकिन देश में राज्य सरकारों के पास 36 और केंद्र सरकार के पास सिर्फ 6 लैब हैं जहां दवाओँ की जांच हो सकती है। नतीजतन सिर्फ 1 लाख दवाओँ के सैंपल ही जांच परख के बाद बाहर आ रहे हैं। बीते दो सालों में दवा बनाने वाली 105 कंपनियां मानकों पर खरी नहीं उतरी हैं। सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल आर्गनाइजेशन और स्टेट ड्रग कंट्रोलर डिपार्टमेंट ने मिलकर मार्च 2016 से मार्च 2018 तक 170 दवा कंपनियों की जांच की इसमें 62 फीसदी फेल हो गयीं। 69 कंपनियों के 50 फीसदी मानक भी पूरे नहीं थे। केवल 65 ऐसी कंपनियां पाई गयीं जो शत प्रतिशत मानकों के हिसाब से चल रही थीं। माशेलकर कमेटी ने 2003 में दी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हर 50 दवा बनाने वाली यूनिट और 200 केमिस्ट शाप पर एक ड्रग इंस्पेक्टर होना चाहिए। इस लिहाज से देश में 3500 ड्रग इंस्पेक्टर रोजगार पा सकते थे। लेकिन उस समय कुल 1500 ड्रग इंस्पेक्टर देश में मौजूद थे। दवा कंपनियों को लाइफ टाइम लाइसेंस देने का चलन भी दवाओं के अधोमानक होने की वजह है।
देश में तकरीबन 2 लाख करोड़ रुपये का दवा कारोबार है। देश में दवा की क्वालिटी से समझौता न हो इसके लिए मोदी कैबिनेट ने 2015 में 1750 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान किया। यह दुर्भाग्य है कि 31 मार्च 2018 तक सिर्फ 80 करोड़ आवंटित हो पाए। यही नहीं हैदराबाद में 45 करोड़ रुपये की लागत से ड्रग रेग्यूलेटरों को ट्रेनिंग देने के लिए अकादमी खोली जानी थी पर यह प्रस्ताव भी सरकारी फाइलों से निकलकर खड़ा नहीं हो पाया। यह भी दिलचस्प है कि देश में दवा बनाने के लिए कच्चा माल सबसे अधिक चीन से आयात किया जाता है। क्वालिटी कंट्रोल के लिए चीन की राजधानी बीजिंग में कच्चे माल की निगरानी हेतु एक कार्यालय खोलने की बात हुई थी पर आज तक नहीं खुल पाया।
केंद्र और राज्य सरकारें स्वास्थ्य योजनाओँ पर अरबों रुपये खर्च कर रही हों लेकिन दवा कारोबार को लेकर सरकारी स्तर पर की जा रही अनदेखी यह बताती है कि सरकार को वास्तविक चिंता कितनी है। यही नहीं देश में मिलावट का रोग सुरसा की तरह पैर पसार रहा है। हर पर्व त्यौहार के समय बजार में मिलावटी खाद्य पदार्थों की भरमार और इनकी धरपकड़ की खबरें जरुर सबसे सामने से गुजरती होंगी। नकली घी, सिंथेटिक दूध, मसालों में मिलावट, दाल और चावल पर पालिश, सब्जियों को रंगने, दूध निकालने के लिए आक्सीटोसिन के इस्तेमाल, कारबाइड से पकाए जा रहे फल, जैसे तमाम नुस्खे हमारी सेहत बिगाड़ने के लिए हमेशा खतरे की तरह हमारे आसपास मंडराते रहते हैं। लेकिन आजादी के बाद पहली मर्तबा मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में इसकी जांच परख के मद्देनजर एक अलग विभाग खोला गया। यह विभाग स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत साल 2008 में फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथारिटी आफ इंडिया यानी एफएसएसएआई के नाम से काम कर रहा है। राज्यों में भी यह विभाग खुला पर इसकी कोई गतिविधि नज़र नहीं आती है। सरकार के तमाम दावों के बाद भी कैंसर फैलाने वाला गुटखा बाजार में आसानी से उपलब्ध है। हालांकि चतुर सुजान गुटखा मालिकों ने कानूनी दांवपेंच का लाभ उठाकर उसका स्वरूप बदल दिया है। नतीजा यह कि देश में हर रोज तंबाकू का सेवन किसी भी तरह करने वाले 2500 लोगों की मौत हो रही है। अगर मिलावट की बात करें तो देश में कैंसर की बीमारी लगातार बढ़ रही है। अकेले महिलाओं के कैंसर के बारे में बात की जाय तो अब भारत तीसरा महिलाओं में सबसे ज्यादा कैंसर पाया जाने वाला देश बन गया है। यहां पर हर साल कैंसर 5 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। पर यह सरकार के एजेंडे का विषय नहीं बन पाया है।
दवा कंपनियों की बहुत बड़ी लाबी है जो सेहत के मानदंड खुद तैयार करती है और फिर मेडिकल की बड़ी बड़ी पढाई किए हुए डाक्टरों को उससे सहमत कराती है और फिर अपनी दवा बिकवाती है। वह जब चाहती है तो ऊपर और नीचे के रक्तचाप के आंकडे बदल देती है। वह जब चाहती है तो शुगर के आंकड़े नीचे ला देती है। मसलन, आज से 30 साल पहले शुगर का सामान्य मानक 140 था जो बीस साल पहले घटकर 126, 10 साल पहले 110 और अब 100 पर आ गया है। इस छोटे से हेरफेर में करोड़ों लोग इन बीमारियों की जद में आ जाते हैं। यानी अब भारत का हर तीसरा व्यक्ति शुगर का मरीज है। दवा कंपनियों के रसूख को इससे समझा जा सकता है कि एक समय यह कंपनियां डाक्टरों से यह कहला रही थीं कि बच्चों को मां के दूध से दूर रखना चाहिए उन्हें पावडर का दूध पिलाना चाहिए, उन्हें बोतल में दूध पिलाना चाहिए। बाद में सरकार को यह अभियान चलाना पड़ा कि मां का पहला पीला दूध कितना महत्वपूर्ण है। अब यह भी अभियान का एक हिस्सा है कि बच्चे को दूध पिलाते समय हाउ टु हैंडल द ब्रेस्ट। पश्चिमी देशों के चुनाव फार्मा कंपनियों के खर्च पर लड़े जाते हैं। भारत में दवाओं के मूल्य नियंत्रण का अधिकार सरकार के पास है। एक ही कंपनी अपनी दवा को जेनरिक, जेनरिक ट्रेड और जेनरिक ब्रांड तीनों में बेच सकती है। उपभोक्ता के लिए यह अंतर समझ पाना मुश्किल है, मरीज की मुश्किल ही दवा कंपनियों का मार्ग प्रशस्त करती है।
[caption id=attachment_3544 align=aligncenter data-width=2480]