लोकसभा चुनाव 2019: एक ही जिले की दो सीटों के अलग-अलग रंग

लखनऊ लोकसभा सीट से कई शीर्ष नेता संसद पहुंचते रहे हैं। भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा इस सीट ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित, तथा इनके ही परिवार से शीला कौल तथा हेमवती नंदन बहुगुणा भी इसी सीट से संसद तक पहुंचे। 1951 से 1977 के बीच विजयलक्ष्मी पंडित, राजवती नेहरू, पुलिन बिहारी बनर्जी, बी.के. धवन और शीला कौल कांग्रेस से सांसद रहे। जबकि 1967 के चुनाव में आनंद नारायण मुल्ला और 1971 में भी कांग्रेस जीती।

Update:2019-05-03 16:13 IST

श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ: देश की राजधानी का केंद्र उत्तर प्रदेश और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ, यहां के चुनावी मिज़ाज़ को आज तक कोई नही भांप सका। जहां एक तरफ 1991 के बाद से लखनऊ सीट लगातार भाजपा की झोली में गिर रही है वहीं 1998 से 2009 तक यह सीट सपा के खाते में आती रही। 2014 में जब दूसरे दल से आकर कौशल किशोर भाजपा में शामिल हुए तब कहीं जाकर यह सीट 1991 के बाद भाजपा के खाते में जुड़ सकी।

लखनऊ लोकसभा सीट से कई शीर्ष नेता संसद पहुंचते रहे हैं। भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा इस सीट ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित, तथा इनके ही परिवार से शीला कौल तथा हेमवती नंदन बहुगुणा भी इसी सीट से संसद तक पहुंचे। 1951 से 1977 के बीच विजयलक्ष्मी पंडित, राजवती नेहरू, पुलिन बिहारी बनर्जी, बी.के. धवन और शीला कौल कांग्रेस से सांसद रहे। जबकि 1967 के चुनाव में आनंद नारायण मुल्ला और 1971 में भी कांग्रेस जीती।

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लखनऊ संसदीय सीट 1991 के बाद से लगातार अटल के नाम होती रही है। इस सीट पर लगातार अटल विहारी बाजपेई जीतते रहे। 2009 में स्वास्थ्य कारणों के चलते लाल जी टंडन जब चुनाव में उतरे तो जनता ने उनको हाथों हांथ लिया। तब स्वास्थ्य कारणों से अटल विहारी वाजपेयी लखनऊ नही आये तो उन्होंने अपनी खड़ाऊं भेजी और एक चिट्ठी भी जिसमें अपने उत्तराधिकारी लालजी टंडन को सांसद बनने की अपील की गई थी। यह चिट्ठी घर-घर पहुंच गई।

इसके बाद 2014 में मोदी लहर के चलते राजनाथ सिंह विजयी हुए। उस बार भी अटल जी ने एक अंगवस्त्रम भेजा जिसे पूरे चुनाव के दौरान राजनाथ सिंह साथ लेकर चलते रहे और जनता ने उन्हें अपना भरपूर आशीर्वाद दिया। इस बार भी राजनाथ सिंह चुनाव मैदान में हैं ।

बस नज़र इन बात पर है कि वोटों का अंतर 2 लाख 72 हज़ार पार करता है कि नही ? जबकि बगल की ही सीट मोहनलालगंज की बात करें तो अयोध्या मुद्दे को लेकर 1991 में तो यहां जीत मिली। इसके बाद 1998 में भी अटल के नाम पर यह सीट जीती गई। पर 1996 में सपा की युवा नेत्री रीना चौधरी ने यह सीट भाजपा से छीन ली। इसके बाद लगातार चार चुनावो तक यह सीट सपा के खाते में आती रही। 2014 में कौशल किशोर ने यह सीट भाजपा के हिस्से में देने का काम किया।

मोहनलालगंज सीट पर पहला लोकसभा चुनाव 1962 में हुआ और कांग्रेस की गंगा देवी ने जीत हासिल की थी। इसके बाद वह लगातार तीन बार सांसद रही। पर आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में यह सीट भारतीय लोकदल ने जीत ली। इसके बाद 1980 में इंदिरा कांग्रेस ने फिर यह सीट जीती। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावो में भी यह सीट कांग्रेस के खाते में रही पर 1989 में कांग्रेस विरोधीलहर के चलते यह सीट जनता दल के सरजू प्रसाद सरोज को मिली।

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इसके बाद से फिर कांग्रेस कभी भी यह सीट न जीत सकी। 1984 में कांग्रेस नेता जगन्नाथ प्रसाद सासंद चुने गए। 1989 के लोकसभा चुनाव में जनता दल ने सरजू प्रसाद सरोज को मैदान में उतारकर कांग्रेस के लगातार जीत के सिलसिले को रोक दिया। इसके बाद से कांग्रेस दोबारा इस सीट पर वापसी नहीं कर सकी है।

1991 के चुनाव में छोटे लाल ने जीतकर भाजपा का खाता खोला और 1996 में दोबारा जीते । लेकिन इसके बाद 1998 से लेकर 2009 तक सपा ने इस सीट पर लगातार चार बार जीत हासिल की। सपा के विजय रथ को 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कौशल किशोर को उतारकर ब्रेक लगा दिया है। इस बार फिर एक बार भाजपा की तरफ से कौशल किशोर चुनाव मैदान में उतरे हैं।

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