हर वर्ष करीब तीन लाख और अब तक करीब 1.5 करोड़ बांग्लादेशी भारत वर्ष में घुसपैठ कर चुके हैं। (माधव गोडबोले की रिपोर्ट, 2000) बड़ी संख्या में बांग्लादेशियों के घुसपैठ के कारण असम 'वाह्य अक्रमण एवं आंतरिक अशांति' से ग्रस्त है। (सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी, 2005) बांग्लादेशी घुसपैठियों की बड़ी संख्या में मौजूदगी आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है। (संसदीय पैनल की रिपोर्ट, 2008)
पूर्वोत्तर की नेशनल रजिस्टर आॅफ सिटिजन (एनआरसी) की हालिया समस्या को अगर इन तीनों टिप्पणियों के मद्देनजर देखा व समझा जाए तभी जाकर इस समस्या को राष्ट्रहित में हल करने के सूत्र मिल सकते हैं। लेकिन पता नहीं क्यों इतनी महत्वपूर्ण समस्या को भी हमारे और तुम्हारे वोट बैंक के नजरिये से देखा जा रहा है। इसे तुष्टिकरण की एक शातिराना कोशिश का हिस्सा बनाया जा रहा है। इसे भी हिंदू और मुसलमान के खांचे में बांटकर देखा जा रहा है। दुनिया के किसी भी देश में घुसपैठियों की संख्या लाख से ऊपर नहीं मिलती। पर भारत में करोड़ों घुसपैठिये होने के बाद भी एक तबका उनके पक्ष में खड़ा मिलता है? एनआरसी भी अपनी गलतियों के चलते प्रमाणिक नहीं रह गया है भाजपा विधायक की पत्नी, आजाद हिंद फौज के सेनानी, सेना के कई पदक पाये लोगों सरीखे कई ऐसे नाम छूट गए हैं जो एनआरसी पर सवाल उठाते हैं। लिहाजा केंद्र और असम सरकार को एनआरसी को लेकर अड़ियल रुख अपनाना नहीं चाहिए। त्रुटियों को सुधारने का मौका देना चाहिए।
रोहिंग्याओं के भारत में शामिल कर लेने के सवाल की अनुगूंज अभी थमी भी नहीं थी कि घुसपैठियों के पक्ष-विपक्ष में लामबंदी दिखने लगी। आज आस्टेªलिया के जनसंख्या के बराबर तकरीबन दो करोड़ घुसपैठिये भारत में हैं। यह तब जब कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम संधि के तहत 1966 से 1971 के बीच बांग्लादेश से आये लोगों को भारत के नागरिक के तौर पर पंजीकृत किये जाने का मौका दिया था।
अकेले पश्चिम बंगाल में 2001 से 2011 के बीच हिंदुओं की तादात में 10.81 फीसदी और मुसलमानों की संख्या में 21.81 फीसदी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। असम में यह आंकड़ा क्रमशः 10.89 और 29.59 का है। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय ही एक करोड़ लोग जान बचाकर भारत की सीमा में घुस आये थे। हमारे देश के संसाधन हमारे लिए ही पर्याप्त नहीं हैं। फिर घुसपैठियों का विरोध होना लाजिमी है। यह ध्रुवीकरण नहीं है। संसाधनों में हिस्सेदारी के खिलाफ गुस्सा है। रोहिंग्या कैंपों में हिंदुओं और बौद्धों के साथ जुल्म और ज्यादती की दास्तान अब किसी से छिपी नहीं है।
घुसपैठ का यह सिलसिला नया नहीं है। 1931 में तात्कालीन जनगणना अधीक्षक सी.एस. मुल्लन ने कहा था कि असम में घुसपैठ से संस्कृति और समाज का तानाबाना ध्वस्त हो जाएगा। जनरल इरशाद ने जब 1975 में इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म घोषित किया तब बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमले हुए और वे पलायन करने लगे। बांग्लादेश के इंस्टीट्यूट आफ डवलपमेंट स्टडीज के आंकड़ों का आकलन करें तो 1996 तक वहां के चुनाव आयोग ने एक करोड़ तेइस लाख लोगों के नाम जनसंख्या रजिस्टर और चुनाव सूची से कटवाये। दस साल असम की कांग्रेस सरकार एनआरसी के सवाल पर मुंह बांधे बैठी रही। भाजपा ने एनआरसी का जो मसौदा जारी किया उसमें उसे 3.29 करोड़ आवेदन पत्र मिले। इनमें 2.89 करोड़ को नागरिकता प्रदान की गई। सिर्फ 40 लाख लोग एनआरसी में दर्ज नहीं हैं। फिर भी हायतौबा।
भारत की सभी सीमाएं खुली हुई हैं। जो बंदिश है वो भी कंटीले तारों वाले बाड़ की। मोदी सरकार ने बांग्लादेश के साथ पिछले दिनों एक सीमा समझौता किया जिसके तहत भारत की 17160.63 एकड़ जमीन बांग्लादेश को दी और बांग्लादेश की 7110.02 एकड़ जमीन भारत के हिस्से में आई। इस समझौते के तहत 111 छित महलों की अदला-बदली हुई। इससे 41 साल पुराना विवाद हल हो गया। इस समझौते में 22 अनुबंध किये गए। 6.1 किमी. अनिश्चित सीमा का सीमांकन किया गया।
ऐसा महज इसलिए किया गया ताकि घुसपैठ की समस्या से स्थाई निजात मिले। लेकिन राजनीति के तहत घुसपैठ का समर्थन करके जो समस्या खड़ी की जा रही है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। दुनिया के हर देश से अवैध घुसपैठिये बाहर किये जा रहे हैं। हद तो यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के तमाम देशों में काम कर रहे दूसरे देश के लोगों के खिलाफ भी गुस्सा आम हो चुका है। अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के आने के बाद ग्रीन कार्ड होल्डर तक के लिए दिक्कत हो गई है। एक ही दिन में करीब चार सौ परिवारों को अमेरिका से बाहर किया गया। हैरतंगेज यह है कि जिन परिवारों को बाहर किया गया उनके जो बच्चे अमेरिका में पैदा हुए थे उन्हें जरूर अमेरिका ने रख लिया। ब्रिटेन में ब्रैग्जिट के बाद प्रवासियों के लिए जिंदगी उतनी आसान नहीं रह गई है।
बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ मुंबई में राज ठाकरे ने क्या किया यह अभी बीते दिनों की बात नहीं हुई है। इन सबका सीधा सा मतलब है कि देश में दूसरे प्रांतों के निवासियों के लिए जब सौहार्द नहीं है तब असम, पूर्वोत्तर के अन्य राज्य तथा पश्चिम बंगाल के निवासियों से यह उम्मीद की जाए कि वे बांग्लादेश के घुसपैठियों के प्रति सौहार्द और सहानुभूति रखें प्रशंसनीय नहीं कहा जाएगा। पूर्वोत्तर के राज्य लंबे समय से गरीबी की तंगी से उबर नहीं पाए हैं। केंद्र की सरकारों ने जितनी धनराशि जम्मू-कश्मीर पर खर्च किया है। उसकी आधी धनराशि भी अगर पूर्वोत्तर के राज्यों पर खर्च की गई होती तो शायद न केवल ये इलाके पर्यटन का मुकाम बन गए होते बल्कि ये राज्य भारत की प्रगति के साथ कदमताल कर रहे होते। पूर्वोत्तर कश्मीर से ज्यादा सुंदर है।
जो घुसपैठिये राशन कार्ड, आधार कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंसे सरीखे भारत में पहचान के दस्तावेज बनवाने में कामयाब हो गए हैं उन्हें निकालना निःसंदेह एक दुरूह प्रक्रिया है। लेकिन इन्हें 'डाउटफुल सिटीजन' के तौर पर ही रखा जाना चाहिए। यह तब तक होना चाहिए जब तक कि वे नागरिकता के पुष्ट और प्रमाणिक दस्तावेज न पेश कर दें। तब तक इन्हें सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली उन सुविधाओं से वंचित रखा जाना चाहिए। जो पूर्वोत्तर के आम नागरिकों को देने की जिम्मेदारी सरकार कुबूल करती है। इन्हें चुनाव में वोट देने से रोका जाना चाहिए। सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलना चाहिए। अचल संपत्ति खरीदने से रोका जाना चाहिए। सरकारी नौकरियों में जगह नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन दवाई, कमाई और पढ़ाई का उनका हक मिलना चाहिए। सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा और सरकारी अस्पताल में इलाज के वे हकदार होने चाहिए। तभी माधव गोडबोले, सुप्रीम कोर्ट और संसदीय पैनल की चिंताओं से मुक्ति की दिशा में हम कदम बढ़ाते दिख पाएंगे।