इस धरा पर कोई भी अथवा कुछ भी अपने क्रूड यानी नैसर्गिक स्वरूप में सबसे अधिक उपयोगी और सर्वाधिक सुंदर होता है। गमलों में खिले फूल और फूलों से महकते बगीचों को देखकर यह सहज ही समझा जा सकता है। प्रकृति सुंदरता का सबसे बड़ा मापदंड है। वाहक है। हालांकि आजकल सुंदर बनने और बनाने के तमाम कृत्रिम उपाय चलन में हैं। कई लवेंडर सुंदर बनाने का दावा करते हैं। बाहर की सुंदरता ठीक करने के लिए तो आर्थोडेंटिस्ट का पाठ्यक्रम ही शुरू हो गया है। तमाम नई तकनीकें आ गई हैं, जो कभी सिक्स पैक, कभी बड़े उरोज, कभी लंबी पतली नाक बनाते हैं। मेक ओवर और मेकअप करने की दुकानें आपकी चैखट तक आ गई हैं। सुंदर बनने और दिखने की चाहत ने आपकी, हमारी नैसर्गिक सुंदरता को मार दिया है। खत्म कर दिया है। दुनिया में बहुतेरे कलाकार हुए। पर एक भी ऐसा कलाकार नहीं है जो एक ही तरह की आकृति बनाए और उसकी आकृति भिन्न-भिन्न नजर आये। पर ईश्वर एक ऐसा कलाकर है जो यह करने में सक्षम नहीं, दक्ष है। वह हर इंसान के कान की जगह कान, आंख की जगह आंख, नाक की जगह नाक, होंठ की जगह होंठ सब कुछ किसी भी तरह एक ही जगह लगाता है। बावजूद इसके विभिन्नता जांची परखी जा सकती है। साफ दिखती भी है। उसने हमें इंसान बनाकर भेजा था। हम न जाने क्या-क्या बन गए। इतिहास से कट गए हैं। हमारे नौजवानों और बच्चों तक को पता ही नहीं है कि कितना गौरवशाली था हमारा अतीत। वे वर्तमान में खुश हैं। क्योंकि अतीत पता चल जाएगा तो उन्होंने जो कुछ भी बनाया, रचा है उस पर इतराने की जगह उन्हें शर्मसार होना पड़ेगा। क्योंकि हमने खुद में जातिमोह पैदा कर लिया है। जो इंसान को इंसान से दूर करती है। मानव जीवन के बहुत बड़े सच्चे धर्म को उभरने से रोकती है। मौजूदा दौर में मनुष्य कथ्य और आंकड़ों से मुरीद होकर भाषा की तरक्की और सहज रवानगी से दूर होते जाने की वजह से पाठ की सुखानुभूति नहीं कर पाता। हमने बोलने को भाषा मान लिया है। भाषा केवल दर्ज करने का उपकरण नहीं है। वह हमारे समय का क्रानिकल रचती है। संवेदन और संज्ञान में अंतर है। संवेदन के द्वारा प्राणि को उत्तेजना का आभास होता है। संज्ञान शक्ति के द्वारा मनुष्य संवेदना को नाम, रूप, गुण आदि भेदों से संगठित कर ज्ञान पाता है। देह में उम्मीदें पलती हैं। किसी के चेहरे की झुर्रियां बताती हैं कि उसने जीवन का कितना रास्ता तय किया है और कितने उतार चढ़ाव देखे हैं। वाल्टरपेट ने कहा है कि एक बात को कहने का एक ही तरीका है। और एक शब्द ही उसे कह सकता है। टीएस इलियट ने कविता की परिभाषा देने के बजाय यह कह दिया है कि कविता सिर्फ शब्द ही शब्द है। कवि शब्दों को वैसे ही गढ़ता है जैसे सुनार गहनों को पर ईश्वर ने जो भी आभूषण बनाए, जितने भी गहने गढ़े वे एक प्रजाति के एक ही तरह के हैं। मनुष्य को देखिए एक ही तरह का वह है। मछलियां देखिये, पक्षियों को देखिये। संपत्ति को साथ लेकर कोई नहीं जाता फिर भी संपत्ति के प्रति लोभ किसी का कम नहीं होता। जो संत अपने प्रवचनों में माया त्यागने की बात करते हैं उनके चारों ओर माया ही माया होती है। मैंने किसी संत को ठगने वाली माया से दूर देखा ही नहीं। जो मिला वह संत नहीं भिखारी था। माया के उत्तराधिकारी वीर्यज पुत्र होते हैं। हर आदमी अपने वीर्यज पुत्रों की संख्या बढ़ाना चाहता है। जीवन के आमतौर पर तीन लक्ष्य- धनेष्णा, यशेष्णा और लोकेष्णा। हर आदमी यह उसी तरह चाहता है जिस तरह प्रायः हर मनुष्य के जीवन में सरकारी नौकरी पाने, अभिनेता बन जाने, नेता हो जाने और पत्रकार होने की ख्वाहिश जरूर किसी न किसी कालखंड में उठती है। आदमी का कर्मज पुत्र उसे यशेष्णा और लोकेष्णा दिला सकता है। पर हम हैं कि वीर्यज पुत्र से आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं हैं। शिक्षा हमारे संतोष का माध्यम होना चाहिए पर यह कितना विरोधाभास है कि जो जितना पढ़ लेता है उतना असंतुष्ट हो जाता है। और यह असंतुष्ट होना मीठे डले की तरह हमें सुहा भी रहा है और पीड़ा भी दे रहा है। शब्दों को निरर्थक बनाने की मुहिम का नाम है इमेज बिल्डिंग। और ये जो इमेज बिल्डिंग है वह आपकी उस अल्हड़ और नैसर्गिंक सुंदरता को मारती है जिसे जिंदा रखने की जिम्मेदारी ईश्वर ने आपको दी है। ईश्वर एक कालखंड के बाद बालों का रंग बदल देता है। पर हम हैं कि सर काला किये जा रहे हैं। ईश्वर चेहरे पर उम्र की रेखाएं खींचता है। हम एंटीरेंकल क्रीम के मार्फत उसकी इस चुनौती से लड़े जा रहे हैं। ऐसा करते समय आपका मन यादों की समाधि बन जाता है। संवेग कभी तटस्थ नहीं होते। जब आप ईश्वर की कला में कृत्रिमता की मिलावट करते हैं तो आपका संवेग खराब होता है। शुक्र नीति यह कहती है कि कला वहीं है जो गूंगे को भी सुलभ हो। हम जो ईश्वर की कला में बेरंग भरकर बदरंग कर रहे हैं वे हमें अंदर से चुनौती से भर देती है और बेचैन करती जाती है। ईश्वर की व्याप्ती एक ओर अनंत रूपात्मक जगत के नाना रंगों और उनकी अपनी जटिलताओं तथा विसंगतियों को दूर करती है। भले ही वह मन की अतल गहराइयों और इसके अंतर कोने तक ही हो। लेकिन हम खुद को ईश्वर की कृति और प्रकृति में जब रख ही नहीं पाते हैं तो ईश्वर की व्याप्ति कैसे होंगी। जटिलताएं, विसंगतियां दूर कैसे होंगी। जैसे-जैसे भीतर का सौंदर्य निखरेगा, वैसे-वैसे बाहर लेवेंडर लगाकर सुंदर बनने की ख्वाहिश खत्म हो जाएगी। आपने अपने शरीर को विरोधाभासों का कब्रिस्तान बना लिया है। उसमें इतनी कारस्तानी छिपी हुई है कि वह आपके भीतर के सौंदर्य को बाहर नहीं आने देता। हद तो यहां तक हो जाती है कि-
न जाने कितनी अनकही बातें साथ ले जाएंगे।
लोग झूठ कहते हैं की, खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जाएंगे।