कुंभ से अमृत छलकाने की तैयार

Update:2019-01-21 17:44 IST
भारतीय जनमानस की अंतश्चेतना में आधुनिकता के मोहपाश के बावजूद धर्म और अध्यात्म के प्रति आस्था की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसे जांचने-परखने के लिए रेत पर बसे तंबू वाले शहर से गुजरना अनिवार्य है। धर्म और आस्था को जानने के लिए कुंभ में जाने के बाद न तो गुरु की जरूरत रह जाती है और न ही पोथी की। आस्था की नगरी में श्रद्धा का यह चेहरा देख कर कुंभ से अभिभूत हुए बिना नहीं रहा जा सकता। सांस्कृतिक चेतना के इस महापर्व में स्नान, दान और ज्ञान का संगम होता है। धर्म और आस्था भारतीयता और राष्ट्रीयता को प्राणवान बनाते हैं। कुंभ में धर्म की अखंड और अनंत अग्नि प्रज्वलित होती है। इसी अग्नि का रंग सनातन संस्कृति की लहराती धर्म ध्वजाओं में दिखता है। यही कुंभ के लोगों और माहौल को चटक बनाता है। इसमें रमने और बसने का संदेश देता है। यह संदेश सिर्फ भारत के लोगों के लिए नहीं होता बल्कि विदेशियों के लिए भी होता है। तभी तो अनगिनत विदेशी आस्था और धर्म के इस कुंभ में श्रद्धा से शरीक होने के लिए आ जुटते हैं। ये दूर-दराज से आये भारतीयों के लिए आकर्षण का सबब भी होते हैं। पश्चिम में शांति की खोज, नई अशांति को जन्म दे देती है। भारत शांति का मुकाम है।

प्रयागराज में 35 सौ हेक्टेयर में बसे तंबू के शहर में रात जीवंत हो उठती है। शिविरों में प्रवचनों की गूंज, पांडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम, रामचरित मानस की चैपाइयों का उच्चारण, बड़े-बड़े होर्डिंग और बैनरों पर दर्ज कुंभ की गौरव गाथा के साथ ही वेद, अठारह पुराणों और उपनिषदों के मुख्य सूत्र वाक्य, ‘कुंभ की कहानी, प्रयाग की जबानी‘ थीम पर उकेरे गये चित्र और इसे ही बयान करते हुये शहर के चैराहों पर लगी स्क्रीन पर चल रही फिल्में, अखाड़ों में धूनी रमाये अद्भुत भाव और विचार वाले नागा संत कुंभ की पहचान हैं, जान हैं। इन दृश्यों को अपनी आंखों में बसाये लोगों की उपस्थिति से संगम तट मुस्कुराने लगे हैं।
सर्द हवाओं में भी रेंगती नहीं दौड़ती हुई जिंदगी, बुनियादी इंतजामों की गठरी सिर पर लादे, पहली डुबकी लगाने को अकुलाये लोग। इन लोगों की आस्था की ऊर्जा से गुनगुना हो उठने वाला गंगा जल। तभी तो लोगों को गंगा में प्रदूषण और गंगा जल के रंग से कोई लेना-देना नहीं रह जाता है। अलग-अलग जगहों को सेल्फी प्वाइंट बनाने में जुटे हैं लोग। बाबाओं और नागाओं के साथ सेल्फी लेने की होड़ में श्रद्धालु। बृहस्पति ज्ञान का, सूर्य आत्मा का और चंद्रमा मन का प्रतीक माना गया है। कुंभ काल में इन तीनों ग्रहों का संगम होता है।

कुंभ में टूट जाते हैं जाति के बंधन, संप्रदाय की बेड़ियां, ऊंच-नीच और छोटे-बड़े का भेद गंगा में तिरोहित हो जाता है। यहां हर व्यक्ति अपनी पहचान छोड़कर, अहं त्याग कर व्यष्टि को समष्टि में समाहित कर देना चाहता है और यहीं कुंभ सार्थक हो उठता है। संजीव हो उठता है। अलौकिक हो उठता है। कुंभ में श्रद्धा के ठाठ निराले होते हैं। पर मुस्कान में तृप्ति का एक विहंगम दृश्य होता है। लोगों की लालसा तीर्थ को जानने-समझने की नहीं रह जाती, बल्कि वे तीर्थ जीने लगते हैं। कुंभ विशाल, आध्यात्मिक अनुष्ठान है।
नदी में स्नान का उत्सव तन नहीं मन धोने का होता है। तभी तो यहां जीने की शक्ति मिलती है। इस सामूहिक सांस्कृतिक उत्सव में एक ओर जहां अखाड़ों के संत-महंत केसरिया बाने के साथ हर-हर महादेव का उद्घोष करते हैं, वहीं दूसरी ओर कल्पवासियों, स्नानार्थियों और पर्यटकों की अंतहीन अनंत कतारें धर्म पाठ करते हुए संगम की ओर जाते हुए दिखती हैं। ऐसे में आनंद और आस्था और गहरी हो जाती हैं। यहीं वजह है कि जिसने कुंभ देखा, उसने भारत देखा। कुंभ भारत की सतरंगी छटा का चटक रंग है। जहां देव समर्पण करते हुए जनसमुदाय का अथाह समंदर होता है। जो अलौकिक विहान रचता है। आंखों में इसे भर लेने की कोशिश दिखने लगती है।
प्रयाग का कुंभ हर्ष को आज भी नहीं भूलता है, यही वजह है कि इस कुंभ में हर भिखारी की झोली भर जाती है। किसी को मांगने की जरूरत नहीं पड़ती। लोग हर्ष की तरह सब कुछ दान कर देना चाहते हैं। कुंभ से सिर्फ पुण्य ले जाना चाहते हैं। कुंभ सर्वस्व देने का पर्व है। सब देकर पुण्य कमाने का स्थल है। पिछले कुंभ में परी अखाड़े को जगह मिली थी। महिलाओं को धर्म और अध्यात्म की इस दुनिया में शस्त्र और शास्त्र की नई जिम्मेदारी दी गई थी। इस बार पहली मर्तबा किन्नर अखाड़े की उपस्थिति और स्वीकृति ने सामाजिक समरसता का एक नया अध्याय रचा। किन्नर समाज का धर्म के मेले में राजतिलक एक ऐसा स्वागत योग्य कदम है जो संस्कृति में एक नया अध्याय जोड़ता है। संस्कृति को समृद्ध बनाता है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने धर्म और आस्था के इस पवित्र संगम के साक्षी श्रद्धालुओं के लिए बड़ी और व्यापक व्यवस्था की है। अर्द्ध कुंभ को कुंभ के संसाधनों की तरह तैयार किया गया है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की ही नहीं संत की भी सरकार है। ऐसे में कुंभ, जो श्रद्धालुओं के साथ-साथ संतों, महंतों और अखाड़ों का आकर्षण होता है, उसके आयोजकों से ज्यादा उम्मीद का होना लाजिमी है। इस उम्मीद को कसौटी पर कसने के लिए कुंभ जाइये। आपके मुंह से बरबस निकल उठेगा- आह कुंभ! वाह कुंभ! क्योंकि स्नान के दिनों में हेलिकाप्टर आप पर पुष्प वर्षा कर रहे होंगे। अमृत मंथन का लेजर शो चल रहा होगा। सदियों बाद अक्षय वट दिखेगा, सरस्वती कूप के दर्शन होंगे। चित्र-विचित्र दृश्य दिखेंगे। सीलन भरी रेंत में गर्मी मिलेगी। पांच सितारा संस्कृति दिखेगी तो एपीएल और बीपीएल के जड़-मूल संस्कार दिखेंगे। बतकही का संसार मिलेगा। कुंभ में आने वाले लोग गंगा मैया से जो भी मांगते हैं वह अभौतिक होता है। भौतिक चीजों की कामना के लिए यहां आना मना है। अभौतिक जो है, उसमें पुण्य है, मोक्ष है। मोक्ष और पुण्य की यह चाह ही कुंभ से हर लौटने वाले के हाथ में किसी न किसी पात्र में गंगा जल के रूप में होती है। क्योंकि हर भारतवासी यह जानता है कि गंगा मोक्ष दायिनी हैं। भगीरथ गंगा को अपने पुरखों को मोक्ष दिलाने के लिए ही पृथ्वी पर लाये थे। कुंभ से लौटा श्रद्धालु गंगा जल को पुरखों को मोक्ष दिलाने का जरिया मानता है। किसी धार्मिक अनुष्ठान और शरीर त्यागने के समय दो बूंद गंगा जल पवित्रता और मोक्ष का वाहक बन जाता

Similar News