वैश्वीकरण की बयार बहने और शहरीकरण के ठीक पहले तक सोशल पुलिसिंग ने हालात पर काफी नियंत्रण कर रखा था। सामाजिक बदलावों के दौर में शहरीकरण के दौरान लोग केवल गांव से शहर की ओर नहीं आये। बल्कि शहर में रहने वालों के लिए पुराने शहर अप्रासंगिक हो उठे। पहले किसी भी शहर को नदी के एक ही तरफ बसाया जाता था। दूसरा छोर एकदम खाली छोड़ दिया जाता था। लेकिन कालांतर में हर शहर में बहने वाली छोटी या बड़ी नदी पर पुल तान दिये गये। नदी के दूसरे छोर पर भी नया शहर बसा दिया गया। यह नया इलाका गांव से शहर आने वाले लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना। गांव में बिजली, सड़क, पानी नहीं था। पढ़ाई, कमाई और दवाई की व्यवस्था नहीं थी। नतीजतन, जो भी थोडे़ बहुत पैसे वाले लोग थे, उन्होंने तेजी से उभरते नये शहरों में अपने लिए मुकाम बनाया। ठिकाना बनाया। अपनी हैसियत के मुताबिक छोटा या बड़ा घर खड़ा कर लिया।
नये बसे शहरी इलाके में पुराने इलाके की तुलना में साफ-सफाई अधिक थी, सड़कें चैड़ी थीं, जल निकासी की अच्छी व्यवस्था थी, मनोरंजन के नये साधन थे, नये जमाने के स्कूल खुले। नया होने की वजह से इलाका सुन्दर दिखता था। इन नये इलाकों में भी परम्परागत स्वाद परोसने वाली दुकानों ने अपना एक्सटेंशन कांउटर खोल लिया। पश्चिमी स्वाद वाले व्यंजन मिलने लगे। पुराने इलाकों में आमतौर पर वही लोग रहते थे जिनका नौकरी से कम रोजगार से ज्यादा ताल्लुक होता था। जो व्यापार करते थे। लिहाजा पुराने शहर में रहने वालों की नई पीढ़ी इस इलाके को ललचाई नजर से देखने लगी। नतीजतन, उनके पुरखों को शहर के नये इलाके में भी एक आशियाना खड़ा करना पड़ा। पुराने शहर से निकलकर नये शहर में आकर बसने वाले पुराने बाशिंदों के लिए भी ये दुनिया उतनी ही अपरिचित थी, जितनी गांव से नये शहर में आकर रहने वालों के लिए।
शहर के पुराने इलाकों और गांव में संस्कृति और संस्कार तकरीबन एक सरीखे थे। पुराने शहरों में मोहल्ले होते थे। जहां कई पीढ़ी से लोग रहते चले आ रहे थे। पीढ़ियों का रिश्ता होता था। रिश्तों में जिन्दगी के अच्छे-बुरे समय की यादें होती थीं। नतीजतन, बुजुर्ग लोग अपने ही नहीं आस पास के दूसरे बच्चों के साथ ही साथ मोहल्ले के बच्चों की सोशल पुलिसिंग बहुत करते थे। वे इस बात का ख्याल रखते थे कि मोहल्ले का कोई लड़का या लड़की बिगड़ तो नहीं रहा। किसी गलत संगत में पड़ तो नहीं रहा है। अगर ऐसा कोई दृश्य उनको नजर आता तो वे सीधे उस बच्चे के मां बाप से शिकायत करने का खुद को हकदार मानते थे। हमारे साथ हमारा एक सहयोगी अनुराग काम करता था। अनुराग शुक्ला इन दिनों अच्छा और बड़ा पत्रकार है। वह फैजाबाद का रहने वाला है। उसकी स्मृतियों में एक वाकया बहुत गंभीरता से दर्ज है। एक दिन उसने अपने एक दोस्त से मोटरसाइकिल ली। उसे हवा में उड़ाने लगा। अचानक उसके मुंहबोले चाचा ने मोटरसाइकिल रुकवाई। चाभी अपने पाकेट में रख ली। अनुराग से कहा कि जाओ बड़े भईया को भेज देना। वही मोटरसाइकिल ले जायेंगे। चाचा सब कुछ इतनी शांति से कर रहे थे कि अनुराग को गुस्सा दिखाने का भी मौका नहीं था। बाद में अनुराग के पिता मोटरसाइकिल लेने गये। चाचा ने तेज चलाने की शिकायत की। घर पर आकर पिता अनुराग पर बरसे। अब अनुराग बड़ा हो गया। लेकिन उसकी स्मृतियों में यह दर्ज है। चाचा ने जो कुछ किया वह सोशल पुलिसिंग है।
गांव में भी बच्चों की किसी भी गलत हरकत पर कोई भी चाचा-चाची, दादा-दादी, बड़े भाई-बहन दो चार चपत लगा सकते थे। लेकिन अब यह सिलसिला इस कदर ठहर गया है कि कोई टीचर भी बच्चों को मार नहीं सकता। कहा जाता है कि कान खींचने से दिमाग तेज होता है। टीचर अब बच्चों के कान भी नहीं उमेठ सकता। पहले गांव में टीचर बच्चों से अरहर की संटी मंगाया करते थे। बच्चे ये जानते हुए भी कि इससे हमें पीटा जाएगा लाकर देते थे। यही नहीं, अब कोई भी किसी के बच्चे की कोई शिकायत भी नहीं कर सकता। ऐसा करने वालों को बच्चे का दुश्मन माना जाता है। आमतौर जब आपके बच्चे शरारती होते हैं तो उसकी शरारत का पता घर वालों को सबसे देर में चलता है। मोहल्ले और गांव वालों को इलहाम सबसे पहले होता है। शहरीकरण की दौड़ ने मोहल्ले खत्म कर दिये। कालोनियां बन गई हैं। जहां निरा अपरिचय का संसार होता है। लोग जिस तरह रेलगाड़ियों, बसों और हवाईजहाज में घंटों का सफर करते हैं और आसपास की अपरिचित दुनिया से खुद को भी अपरिचित बनाये रखने की कोशिश करते हैं, उसी तरह इन कालोनियों में लोग महीनों, साल दर साल रहते हैं और अपने इर्द-गिर्द अपरिचय का संसार इस कदर बुनकर रखते हैं कि वे प्रायः जिज्ञासा और कौतुहल का सबब हो उठते हैं। इस अपरिचय की दुनिया में सोशल पुलिसिंग का मतलब बेमतलब टांग अड़ाना होता है।
मैं जिस कालोनी में रहता हूं। वह अफसरों की कालोनी है। कई पत्रकार और न्यायिक सेवा के अधिकारी भी रहते हैं। मेरे घर के ठीक सामने एक पार्क है। पहले पार्क में लाइट नहीं थी। तो नवजवान लड़के, लड़कियां देर रात को न जाने कहां से आ जाते थे। उनके जाने के बाद पार्क के कई हिस्से खुला होने के बावजूद तम्बाकू की गंध से परेशान करते थे। खाली बोतले पड़ी रहती थीं। लेकिन कोई भी रात को निकलकर उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं करता था कि आखिर वे कौन हैं। उनमें कितने उस कालोनी के बच्चे हैं। ऊबकर मुझे मेरे मकान के दो मकान के बाद उस समय के पुलिस महानिदेशक का घर था। उनसे शिकायत करनी पड़ी। रात को पुलिस लगानी पड़ी तब जाकर जमावड़ा रुका। सोशल पुलिसिंग का काम अब पुलिस को करना पड़ रहा है।
अब तो बुजुर्गों को साथ रखना कम लोगों को रुच रहा है। निरंतर अकेले होते जाने की यात्रा का दंश बुजुर्ग होने पर झेलना पड़ता है। पहले बुजुर्ग अपने घरों में भी नैतिकता का तकाजा बताते और जताते हुए सोशल पुलिसिंग करते थे। पर कालोनियों में हर आदमी इसे इसलिए अनसुना करने को तैयार बैठा है, क्योंकि कालोनियों और नये शहरों में सासाइटी ही नहीं है। यहां सिर्फ रिहायश है।
नये बसे शहरी इलाके में पुराने इलाके की तुलना में साफ-सफाई अधिक थी, सड़कें चैड़ी थीं, जल निकासी की अच्छी व्यवस्था थी, मनोरंजन के नये साधन थे, नये जमाने के स्कूल खुले। नया होने की वजह से इलाका सुन्दर दिखता था। इन नये इलाकों में भी परम्परागत स्वाद परोसने वाली दुकानों ने अपना एक्सटेंशन कांउटर खोल लिया। पश्चिमी स्वाद वाले व्यंजन मिलने लगे। पुराने इलाकों में आमतौर पर वही लोग रहते थे जिनका नौकरी से कम रोजगार से ज्यादा ताल्लुक होता था। जो व्यापार करते थे। लिहाजा पुराने शहर में रहने वालों की नई पीढ़ी इस इलाके को ललचाई नजर से देखने लगी। नतीजतन, उनके पुरखों को शहर के नये इलाके में भी एक आशियाना खड़ा करना पड़ा। पुराने शहर से निकलकर नये शहर में आकर बसने वाले पुराने बाशिंदों के लिए भी ये दुनिया उतनी ही अपरिचित थी, जितनी गांव से नये शहर में आकर रहने वालों के लिए।
शहर के पुराने इलाकों और गांव में संस्कृति और संस्कार तकरीबन एक सरीखे थे। पुराने शहरों में मोहल्ले होते थे। जहां कई पीढ़ी से लोग रहते चले आ रहे थे। पीढ़ियों का रिश्ता होता था। रिश्तों में जिन्दगी के अच्छे-बुरे समय की यादें होती थीं। नतीजतन, बुजुर्ग लोग अपने ही नहीं आस पास के दूसरे बच्चों के साथ ही साथ मोहल्ले के बच्चों की सोशल पुलिसिंग बहुत करते थे। वे इस बात का ख्याल रखते थे कि मोहल्ले का कोई लड़का या लड़की बिगड़ तो नहीं रहा। किसी गलत संगत में पड़ तो नहीं रहा है। अगर ऐसा कोई दृश्य उनको नजर आता तो वे सीधे उस बच्चे के मां बाप से शिकायत करने का खुद को हकदार मानते थे। हमारे साथ हमारा एक सहयोगी अनुराग काम करता था। अनुराग शुक्ला इन दिनों अच्छा और बड़ा पत्रकार है। वह फैजाबाद का रहने वाला है। उसकी स्मृतियों में एक वाकया बहुत गंभीरता से दर्ज है। एक दिन उसने अपने एक दोस्त से मोटरसाइकिल ली। उसे हवा में उड़ाने लगा। अचानक उसके मुंहबोले चाचा ने मोटरसाइकिल रुकवाई। चाभी अपने पाकेट में रख ली। अनुराग से कहा कि जाओ बड़े भईया को भेज देना। वही मोटरसाइकिल ले जायेंगे। चाचा सब कुछ इतनी शांति से कर रहे थे कि अनुराग को गुस्सा दिखाने का भी मौका नहीं था। बाद में अनुराग के पिता मोटरसाइकिल लेने गये। चाचा ने तेज चलाने की शिकायत की। घर पर आकर पिता अनुराग पर बरसे। अब अनुराग बड़ा हो गया। लेकिन उसकी स्मृतियों में यह दर्ज है। चाचा ने जो कुछ किया वह सोशल पुलिसिंग है।
गांव में भी बच्चों की किसी भी गलत हरकत पर कोई भी चाचा-चाची, दादा-दादी, बड़े भाई-बहन दो चार चपत लगा सकते थे। लेकिन अब यह सिलसिला इस कदर ठहर गया है कि कोई टीचर भी बच्चों को मार नहीं सकता। कहा जाता है कि कान खींचने से दिमाग तेज होता है। टीचर अब बच्चों के कान भी नहीं उमेठ सकता। पहले गांव में टीचर बच्चों से अरहर की संटी मंगाया करते थे। बच्चे ये जानते हुए भी कि इससे हमें पीटा जाएगा लाकर देते थे। यही नहीं, अब कोई भी किसी के बच्चे की कोई शिकायत भी नहीं कर सकता। ऐसा करने वालों को बच्चे का दुश्मन माना जाता है। आमतौर जब आपके बच्चे शरारती होते हैं तो उसकी शरारत का पता घर वालों को सबसे देर में चलता है। मोहल्ले और गांव वालों को इलहाम सबसे पहले होता है। शहरीकरण की दौड़ ने मोहल्ले खत्म कर दिये। कालोनियां बन गई हैं। जहां निरा अपरिचय का संसार होता है। लोग जिस तरह रेलगाड़ियों, बसों और हवाईजहाज में घंटों का सफर करते हैं और आसपास की अपरिचित दुनिया से खुद को भी अपरिचित बनाये रखने की कोशिश करते हैं, उसी तरह इन कालोनियों में लोग महीनों, साल दर साल रहते हैं और अपने इर्द-गिर्द अपरिचय का संसार इस कदर बुनकर रखते हैं कि वे प्रायः जिज्ञासा और कौतुहल का सबब हो उठते हैं। इस अपरिचय की दुनिया में सोशल पुलिसिंग का मतलब बेमतलब टांग अड़ाना होता है।
मैं जिस कालोनी में रहता हूं। वह अफसरों की कालोनी है। कई पत्रकार और न्यायिक सेवा के अधिकारी भी रहते हैं। मेरे घर के ठीक सामने एक पार्क है। पहले पार्क में लाइट नहीं थी। तो नवजवान लड़के, लड़कियां देर रात को न जाने कहां से आ जाते थे। उनके जाने के बाद पार्क के कई हिस्से खुला होने के बावजूद तम्बाकू की गंध से परेशान करते थे। खाली बोतले पड़ी रहती थीं। लेकिन कोई भी रात को निकलकर उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं करता था कि आखिर वे कौन हैं। उनमें कितने उस कालोनी के बच्चे हैं। ऊबकर मुझे मेरे मकान के दो मकान के बाद उस समय के पुलिस महानिदेशक का घर था। उनसे शिकायत करनी पड़ी। रात को पुलिस लगानी पड़ी तब जाकर जमावड़ा रुका। सोशल पुलिसिंग का काम अब पुलिस को करना पड़ रहा है।
अब तो बुजुर्गों को साथ रखना कम लोगों को रुच रहा है। निरंतर अकेले होते जाने की यात्रा का दंश बुजुर्ग होने पर झेलना पड़ता है। पहले बुजुर्ग अपने घरों में भी नैतिकता का तकाजा बताते और जताते हुए सोशल पुलिसिंग करते थे। पर कालोनियों में हर आदमी इसे इसलिए अनसुना करने को तैयार बैठा है, क्योंकि कालोनियों और नये शहरों में सासाइटी ही नहीं है। यहां सिर्फ रिहायश है।