पूरी अर्थव्यवस्था को एक नया स्वरूप देने का मनमोहनी प्रयास सामने आ गया। जिसमें भारत को लगातार मंदी से उबारने के लगातार प्रयास की सार्थकता है। हर इच्छाओं को पूर्ण विराम देने का प्रयास भी। मनमोहन सिंह पर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के दबाव पर बजट बनाने का जो आरोप लगाया जा रहा था उसे निरर्थक साबित करने की उपलब्धि हाथ लगने का दावा भी शायद मनमोहन सिंह कर बैठे परन्तु उत्पाद करों को बढ़ाकर तट करों से घटाकर निर्यातोन्मुखी उपाय दिखाने के बाद भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश को सरल करना व रुपये की पूर्ण परिवर्तनशीलता सभी हमारे स्वावलम्बन, आत्मनिर्भरता पर प्रहार है।
इस बजट से डंके ल प्रस्तावों’ पर सरकारी नजरिया स्पष्ट करने की दिशा में भी कुछ प्रकाश दिखा। अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों की भारत की जर्जर आर्थिक स्थिति पर कब्जा कर लेने की मंशा पर पानी फेर गया। फिर भी आम आदमी को जिन चीजों से सीधा रोजमर्रा का साबका रखना पड़ता है उन पर मूल्य बढ़े यथा गेहूं, चावल, कोयला, चीनी।
भारत में बाजार प्रावधानो का अब वैसा खासा महत्व नहीं रह गया जितना होना चाहिए था क्योंकि बजट से इतर अब संसद के बाद भी मूल्य वृद्धि की गैर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को हम पना चुके हैं। इसी के तहत 15 सितम्बर 1992 को डीजल व पेट्रोल उत्पादों में जबर्दस्त वृद्धि घोषित की जा चुकी है। रसोई गैस के सिलेण्डरों की कीमत 15-17 रुपये तक बढ़ायी जा चुकी है। डीजल के मूल्य 22 प्रतिशत बढ़े।
परिणामतः परिवहन लागत 10 प्रतिशत बढ़ी। परिवहन लागत के साथ-साथ कोयला के मूल्यों में इस बार भी वृद्धि हुई। ये सभी चीजें ‘अवस्थापकों’ में आती हैं। जिनमंे कोई भी वृद्धि मूल्यों में वृद्धि के लिए पर्याप्त एवं प्रासंगिक हो उठती है।
बजट के पूर्व 7 फरवरी 1993 को ही रबी के मूल्य में 13 से 25 प्रतिशत की वृद्धि के कारण गेहूं व चावल के मूल्य 18 व 19 प्रतिशत बढ़ गये। जनवरी में ही इस्पात निगम और भारतीय स्टील प्राधिकरण के कारण स्टील के दामों में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। फरवरी में चीनी के दाम में वृद्धि के कारण चीनी के मूल्य 20 प्रतिशत बढ़ गये। इसी माह में कोयले के मूल्य 42 रुपये प्रति टन बढ़ाये गये।
बजट से इतर इन वृद्धियों के बाद एक ऐसा बजट पेश करना किसी विशेष उपलब्धि का विषय नहीं रह जाता है। क्योंकि बजटीय परम्परा के प्रति सरकार की प्रतिक्रियाएं दोयम दर्जे की है। इसलिए अब यह स्वीकारना कि बजट से कुछ खास दिखेगा, पाया जा सके गा यह एक भुलावा होगा।
तट करों में कमी का प्रभाव हमारे घरेलू उद्योग पर पड़ेगा, जिससे प्रतिस्पर्धा में वो पिछड़ जाएंगे। परिणामतः उनमें आश्रित रोजगार व उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। रुपये की पूर्ण परिवर्तनशीलता से हमारे आवश्यक आयात यथा पेट्रोल आदि पर व्यय बढ़ जाएगा। सभी वस्तुओं यथा कार, फ्रिज आदि के मूल्य घटाने से इन उद्योगों की ओर उत्पादन के संसाधनों को आकर्षित हो जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। बजट के घाटे की स्थिति विश्वसनीय नहीं है। वैसे ही जैसे सरकार का मुद्रास्फीर्ति का दावा गैर विश्वसनीय है। विकास कार्यों में 43 प्रतिशत की वृद्धि और फिर बजट घाटे की कमी का दावा ? मुद्रास्फीति की दर पर नियंत्रण का दावा और मूल्यों में सतत् वृद्धि जारी रहने की बाजारी प्रवृत्ति? हमारी अर्थव्यवस्था में बजट से पहले ही मूल्यों में वृद्धि कर दी गयी है फिर भी यह दावा कितना खोखला है जनता जो बाजार से सीधा साबका रखती है।
वित्त मंत्री ने बजट अभिभाषण के शुरू में ही कहा है कि हमने विरासत में मिली अत्यन्त कठिन आर्थिक स्थिति पर काबू पाने के लिए लगातार काम किया है। जून 91 में अर्थव्यवस्था भुगतान संतुलन के अपूर्व संकट में फंसी थी आदि। वित्त मंत्री के सारे दावे अगर उनके द्वारा पेश तीनों बजटों की एक साथ समीक्षा कर ली जाए तो खोखले सिद्ध होते हैं। उनके सारे आंकड़े अपनी सार्थकता खो देते हैं। मुद्रास्फीति की दर मूल्य वृद्धि को आधार मानकर देखी जाय तो पन्द्रह प्रतिशत से पर दिखती है और बजट की सार्थकता को एक ही आधार पर देखा जाता तो इतना ही कहा जा सकता है कि अनिवासी भारतीय सहित विदेशी निवेशकों किसी को अभी तक आकर्षित नहीं कर पाया- मनमोहन का अर्थशास्त्र। मनमोहन सिंह पाश्चात्य अर्थशास्त्र के प्रवक्ता हैं। जिनमें विकासशील देशों की चरित्रगत विशेषताओं को दूर करने के लिये कोेई उपकरण नहीं होते हैं। जैसा तीसा की मंदी से उबरने के लिए किसने गुणक, त्वरक सिद्धान्त को उचित बताया परन्तु भारत में गुणक, त्वरक को लागू करने की आधारभूत स्थितियां ही नहीं हैं। हमारे संसाधनों में 2 प्रतिशत से ज्यादा की विकास दर प्राप्त करने की स्थितियां आज कल नहीं हैं। राजकोषीय घाटे में कटौती से उत्पादन गिरा। उत्पादन गिरने से रोजगार कम होगा। जिससे क्रय शक्ति घटती है और ‘गरीबी का दुष्चक्र’ चलता रहता है। पिछले 20 माह में विदेशी कर्ज का बोझ बढ़ा है और विदेशी सहायता की आवश्यकता कितनी महसूस की जा रही है कि हम किसी भी शर्त पर ऋण प्रदाय संस्थानों और देशों की ओर टकटकी लगाये देख रहे हैं ?
राजकोषीय विसंगति को दूर करने के लिए सरकारी अपव्यय पर नियंत्रण की जगह रोजगार सृजन जैसे कार्यक्रमों पर निवेश घटाया गया है। सरकार विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित करने के लिए अपने यहां आबादी के 30 प्रतिशत का आधुनिक बाजार होने का दावा करती है जबकि 0.07 प्रतिशत आबादी ही यहां आयकर देती है। विलासिता की वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित करने की कोई योजना वित्त मंत्री ने पेश नहीं की? जबकि सोने व चांदी के खुले आयात से देश को 4-5 अरब डालर प्रति वर्ष की हानि उठानी पड़ रही है।
पूंजी व ईंधन दर बढ़ाने पर कोई खास दबाव नहीं है जबकि इसके कारण उत्पादक गतिविधियों में पंूजी प्रवाह निरुद्ध हो रहा है।
जो भी हो मध्यावधि चुनावों के लिए ‘वोट बटोरने’ का जो चाकलेटी प्रस्ताव मनमोहन सिंह ने पेश किया है, वह भारतीय लोकतंत्र की वाहवाही भले लूट ले परन्तु भारतीय जनतंत्र उपभोक्ता बाजार तथा अर्थतंत्र पर किसी किस्म का खास प्रभाव नहीं छोड़ पाएगा और अर्थतंत्र बेकाबू होकर मूल्य वृद्धि वर्तमान घाटे को बढ़ाने के साथ-साथ स्फीतिजन्य परिस्थितियां पैदा ही करेगा। वैसे भी मनमोहन की पर्यायगत सार्थकता उनका बजट अभी तक किसी भारतीय वर्ग से नहीं जुट पाया है। प्रयास जो भी हो सामानान्तर संशोधन व पर्याप्त वृद्धि की सम्भावनाएं सन्निहित हैं जो समय रहते सामने आ जाएंगी।
इस बजट से डंके ल प्रस्तावों’ पर सरकारी नजरिया स्पष्ट करने की दिशा में भी कुछ प्रकाश दिखा। अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों की भारत की जर्जर आर्थिक स्थिति पर कब्जा कर लेने की मंशा पर पानी फेर गया। फिर भी आम आदमी को जिन चीजों से सीधा रोजमर्रा का साबका रखना पड़ता है उन पर मूल्य बढ़े यथा गेहूं, चावल, कोयला, चीनी।
भारत में बाजार प्रावधानो का अब वैसा खासा महत्व नहीं रह गया जितना होना चाहिए था क्योंकि बजट से इतर अब संसद के बाद भी मूल्य वृद्धि की गैर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को हम पना चुके हैं। इसी के तहत 15 सितम्बर 1992 को डीजल व पेट्रोल उत्पादों में जबर्दस्त वृद्धि घोषित की जा चुकी है। रसोई गैस के सिलेण्डरों की कीमत 15-17 रुपये तक बढ़ायी जा चुकी है। डीजल के मूल्य 22 प्रतिशत बढ़े।
परिणामतः परिवहन लागत 10 प्रतिशत बढ़ी। परिवहन लागत के साथ-साथ कोयला के मूल्यों में इस बार भी वृद्धि हुई। ये सभी चीजें ‘अवस्थापकों’ में आती हैं। जिनमंे कोई भी वृद्धि मूल्यों में वृद्धि के लिए पर्याप्त एवं प्रासंगिक हो उठती है।
बजट के पूर्व 7 फरवरी 1993 को ही रबी के मूल्य में 13 से 25 प्रतिशत की वृद्धि के कारण गेहूं व चावल के मूल्य 18 व 19 प्रतिशत बढ़ गये। जनवरी में ही इस्पात निगम और भारतीय स्टील प्राधिकरण के कारण स्टील के दामों में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। फरवरी में चीनी के दाम में वृद्धि के कारण चीनी के मूल्य 20 प्रतिशत बढ़ गये। इसी माह में कोयले के मूल्य 42 रुपये प्रति टन बढ़ाये गये।
बजट से इतर इन वृद्धियों के बाद एक ऐसा बजट पेश करना किसी विशेष उपलब्धि का विषय नहीं रह जाता है। क्योंकि बजटीय परम्परा के प्रति सरकार की प्रतिक्रियाएं दोयम दर्जे की है। इसलिए अब यह स्वीकारना कि बजट से कुछ खास दिखेगा, पाया जा सके गा यह एक भुलावा होगा।
तट करों में कमी का प्रभाव हमारे घरेलू उद्योग पर पड़ेगा, जिससे प्रतिस्पर्धा में वो पिछड़ जाएंगे। परिणामतः उनमें आश्रित रोजगार व उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। रुपये की पूर्ण परिवर्तनशीलता से हमारे आवश्यक आयात यथा पेट्रोल आदि पर व्यय बढ़ जाएगा। सभी वस्तुओं यथा कार, फ्रिज आदि के मूल्य घटाने से इन उद्योगों की ओर उत्पादन के संसाधनों को आकर्षित हो जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। बजट के घाटे की स्थिति विश्वसनीय नहीं है। वैसे ही जैसे सरकार का मुद्रास्फीर्ति का दावा गैर विश्वसनीय है। विकास कार्यों में 43 प्रतिशत की वृद्धि और फिर बजट घाटे की कमी का दावा ? मुद्रास्फीति की दर पर नियंत्रण का दावा और मूल्यों में सतत् वृद्धि जारी रहने की बाजारी प्रवृत्ति? हमारी अर्थव्यवस्था में बजट से पहले ही मूल्यों में वृद्धि कर दी गयी है फिर भी यह दावा कितना खोखला है जनता जो बाजार से सीधा साबका रखती है।
वित्त मंत्री ने बजट अभिभाषण के शुरू में ही कहा है कि हमने विरासत में मिली अत्यन्त कठिन आर्थिक स्थिति पर काबू पाने के लिए लगातार काम किया है। जून 91 में अर्थव्यवस्था भुगतान संतुलन के अपूर्व संकट में फंसी थी आदि। वित्त मंत्री के सारे दावे अगर उनके द्वारा पेश तीनों बजटों की एक साथ समीक्षा कर ली जाए तो खोखले सिद्ध होते हैं। उनके सारे आंकड़े अपनी सार्थकता खो देते हैं। मुद्रास्फीति की दर मूल्य वृद्धि को आधार मानकर देखी जाय तो पन्द्रह प्रतिशत से पर दिखती है और बजट की सार्थकता को एक ही आधार पर देखा जाता तो इतना ही कहा जा सकता है कि अनिवासी भारतीय सहित विदेशी निवेशकों किसी को अभी तक आकर्षित नहीं कर पाया- मनमोहन का अर्थशास्त्र। मनमोहन सिंह पाश्चात्य अर्थशास्त्र के प्रवक्ता हैं। जिनमें विकासशील देशों की चरित्रगत विशेषताओं को दूर करने के लिये कोेई उपकरण नहीं होते हैं। जैसा तीसा की मंदी से उबरने के लिए किसने गुणक, त्वरक सिद्धान्त को उचित बताया परन्तु भारत में गुणक, त्वरक को लागू करने की आधारभूत स्थितियां ही नहीं हैं। हमारे संसाधनों में 2 प्रतिशत से ज्यादा की विकास दर प्राप्त करने की स्थितियां आज कल नहीं हैं। राजकोषीय घाटे में कटौती से उत्पादन गिरा। उत्पादन गिरने से रोजगार कम होगा। जिससे क्रय शक्ति घटती है और ‘गरीबी का दुष्चक्र’ चलता रहता है। पिछले 20 माह में विदेशी कर्ज का बोझ बढ़ा है और विदेशी सहायता की आवश्यकता कितनी महसूस की जा रही है कि हम किसी भी शर्त पर ऋण प्रदाय संस्थानों और देशों की ओर टकटकी लगाये देख रहे हैं ?
राजकोषीय विसंगति को दूर करने के लिए सरकारी अपव्यय पर नियंत्रण की जगह रोजगार सृजन जैसे कार्यक्रमों पर निवेश घटाया गया है। सरकार विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित करने के लिए अपने यहां आबादी के 30 प्रतिशत का आधुनिक बाजार होने का दावा करती है जबकि 0.07 प्रतिशत आबादी ही यहां आयकर देती है। विलासिता की वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित करने की कोई योजना वित्त मंत्री ने पेश नहीं की? जबकि सोने व चांदी के खुले आयात से देश को 4-5 अरब डालर प्रति वर्ष की हानि उठानी पड़ रही है।
पूंजी व ईंधन दर बढ़ाने पर कोई खास दबाव नहीं है जबकि इसके कारण उत्पादक गतिविधियों में पंूजी प्रवाह निरुद्ध हो रहा है।
जो भी हो मध्यावधि चुनावों के लिए ‘वोट बटोरने’ का जो चाकलेटी प्रस्ताव मनमोहन सिंह ने पेश किया है, वह भारतीय लोकतंत्र की वाहवाही भले लूट ले परन्तु भारतीय जनतंत्र उपभोक्ता बाजार तथा अर्थतंत्र पर किसी किस्म का खास प्रभाव नहीं छोड़ पाएगा और अर्थतंत्र बेकाबू होकर मूल्य वृद्धि वर्तमान घाटे को बढ़ाने के साथ-साथ स्फीतिजन्य परिस्थितियां पैदा ही करेगा। वैसे भी मनमोहन की पर्यायगत सार्थकता उनका बजट अभी तक किसी भारतीय वर्ग से नहीं जुट पाया है। प्रयास जो भी हो सामानान्तर संशोधन व पर्याप्त वृद्धि की सम्भावनाएं सन्निहित हैं जो समय रहते सामने आ जाएंगी।