बच्चे राष्ट्र के भविष्य हैं। इनकी स्थिति देश की गति और समृद्धि का प्रतीक होती है। इसी सिद्धांत को दृष्टि में रखकर संयुक्त राष्ट्र शिशु निधि (यूनीसेफ) की स्थापना 1946 में युद्धोपरान्त बच्चों की राहत के लिए संयुक्त राष्ट्र शिशु आपात निधि के रूप में की गयी। इसकी गतिविधियां विकासशील देशों में बच्चों और माताओं के जीवन की गुणवत्ता को सुधारने के उद्देश्य से पहुंचायी जाने वाली सहायता पर आधारित हैं। अभी तक यूनीसेफ लगभग 110 राष्ट्रों में कार्य कर रहा है, जिसमें कुल शिशु आबादी लगभग एक अरब 30 करोड़ होगी।
यूनिसेफ द्वारा बच्चों के अधिकारों सम्बन्धी कन्वेशन को अंततः संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के सम्मुख 1990 में रखा गया। इस कन्वेशन में बच्चों के जीवन के संरक्षण के स्वास्थ्य और शिक्षा के न्यूनतम मापदण्ड निर्धारित करने के साथ-साथ बच्चों को स्पष्ट रूप से ऐसी सुरक्षा प्रदान करने की भी व्यवस्था है जिससे कि कामकाज में उनका शोषण न किया जा सके। उनका शारीरिक अथवा यौन शोषण न हो तथा युद्धकाल में उनकी दुर्गति न हो। यह कन्वेशन कानून द्वारा परिभाषित बच्चों के अधिकारों पर विश्व के राष्ट्रों के बीच सर्वप्रथम समझौता है। एक ऐतिहासिक आदर्श की उपलब्धि है।
गरीब देश अमीर देशों से लिने वाली आर्थिक सहायता की तिगुनी राशि हर साल ब्याज खाते में 17,800 करोड़ डालर के रूप में भुगतान कर देते हैं। जिसके कारण शिक्षा व पोषण जैसे कार्यक्रमों में ही कटौती करनी पड़ती है। किसी भी देश के ऋण जाल का सबसे बड़ा बोझ विकासशील देशों के बच्चों के मन मस्तिष्क और शरीर पर पड़ता है।
बेशक चीन और भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देशों में ऋण जाल की स्थिति में खुद को सम्भाले रखा है पर दूसरे विकासशील देशों की हालत क्या है, इन देशों के लोग जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, सरकारी स्वास्थ्यसेवाओं और सरकारी शिक्षा माध्यमों पर निर्भर करते हैं। पर यहां की सरकारों को जहां एक ओर स्वास्थ्य सेवाओं में कटौती करनी पड़ रही है वहीं दूसरी ओर बड़ी तादाद में शिक्षकों की भी छुट्टी करनी पड़ रही है। ऐसी हालत में भला बच्चों का विकास क्या होगा।
हालांकि कुपोषण, अल्पपोषण, संक्रामक रोगों के बार-बार फैलने से विश्व में हर सप्ताह करीब ढाई लाख बच्चों का ‘मान संहार’ हो रहा है। प्रश्न ये है कि क्या दवाओं के व्यापक प्रयोग से बच्चों के मृत्यु दर व जन्मदर में कमी लाने का विश्वव्यापी लक्ष्य पूरा हो सकता है। जाहिर है कि स्वास्थ्य सम्बन्धी औपचारिक औषधियों की सहायता से विश्व के कोने-कोने में पहुंचकर लक्ष्य पाना असम्भव है। उसके लिए जरूरी है कि संसार भर में दवाएं पहुंचाने की जगह स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियां पहुंचायी जाये।
विकासशील देशों के बहुत से देशों ने कई दशकों तक निरन्तर प्रगति की लेकिन नौवें दशक में फिर पिछड़ने लगे। दसवें दशक यानि की 1991-2000 के बीच लगभग 150 करोड़ बच्चे जनम लेंगे। यानि पहली बार मानव को इतनी बड़ी पीढ़ी का बोझ सहना पड़ेगा। वर्तमान स्थितियां यदि ऐसी ही रहीं तो इनमें से दस करोड़ से अधिक बच्चे तो पांच वर्ष की आयु प्राप्त करते-करते मर जायेंगे। लाखों बच्चे बीमारियों और कुपोषण के शिकार होकर जैसे-तैसे जीवन जियेंगे क्योंकि दक्षिण अमरीका को आय में दस प्रतिशत की तथा अफ्रीका में सहारा रेगिस्तान से लगे हुए कुछ देशों में 25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज है। अत्यनत गरीब लोगों को अपनी आय का तीन चैथाई हिस्सा पेट की आग बुझाने पर ही खर्च करना पड़ता है। वहां घटती आमदनी का मतलब है-कुपोषण में वृद्धि।
आज विकासशील देशों में लगभग पन्द्रह लाख ऐसे बच्चे हैं जो सामान्य रूप से चलते-फिरते, दौड़ते-भागते और खेलते-कूदते दिखायी पड़ते हैं। पिछले दशक में यदि इन्हें टीके लगाने का उद्यम न किया गया होता तो पोलियो ने उन्हें अपाहिज कर दिया होता।
नौवें दशक में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय घटा है जिसके कारण सैकड़ों स्वास्थ्य केन्द्रों को या तो बन्द कर दिया गया है या इन स्वास्थ्य केन्द्रों पर पर्याप्त कर्मचारी/दवाएं मुहैया नहीं करायी जा सकीं।
शिशुओं की मृत्युदर बढ़ी है। शिशु की स्थिति जांचने के लिए महिलाओं के कल्याण की स्थिति व प्रसव के समय उसके बच्चे के भार को देखा जा सकता है। जिसके परिणाम बहुत गम्भीर आये हैं।
बच्चे कब हों, कितने हों, यह निर्णय लेने का अधिकार स्त्री का है। यदि स्त्री को यह अधिकार मिल जाय तो बढ़ती आबादी पर प्रभाव पड़ेगा तथा विकासशील देशों की जनसंख्या 2020 तक 660 करोड़ से घटकर मात्र 550 करोड़ रह जाएगी।
शिशु-कन्या क्रूरता की कहानी शुरू होती है उसके जन्म के बाद। गत शताब्दी में इनके वध की कुरीति तो समाप्त हुई, पर इस शताब्दी के वर्तमान चरण में गर्भावस्था में कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक दुर्घटना के बाद भी स्वीकृत हो उठा। एक ओर सती प्रथा के विरूद्ध संसद ने एक्ट पास किया दूसरी ओर जन्म से पूर्व ही नारी का अदृश्य वध सामाजिक चेतना के विकृत स्वरूप को छिपाए जा रहा है। जीवन के लिए लड़की शिशु का संघर्ष उसके भाई से अधिक कठिन होता जा रहा है।
सम्पूर्ण विश्व में जिन नन्हें बालकों को भावी राष्ट्र तथा विश्व का निर्माता कहा जाता है और जिनके कलयाण के लिए राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित सम्मेलनों में लम्बी-चैड़ी चर्चाएं आयोजित की जाती हैं, वे आज भी बड़े पैमाने पर अमानवीय यातनाओं के शिकार बन रहे हैं। भूखे पेट की अग्नि शांत करने के लिए कभी उन्हें भारी-भरकम बोझ को उठाना पड़ता है, कभी झिड़कियां सहनी पड़ती हैं और कभी निर्जीव वस्तुओं की तरह बिकना पड़ता है।
नन्हें बालकों को जो यातनाएं सहनी पड़ती हैं उनमें सर्वाधिक कष्टप्रद और चिन्तनीय है उनका वस्तुओं के समान क्रय-विक्रय और उसी रूप में उनका उपयोग। यौन शोषण केन्द्रों पर भी बालकों की जबरदस्त मांग होती है। इसमें लड़के और लड़की में कोई अन्तर नहीं होता। कहीं-कहीं तो बाल वेश्या के रूप में लड़कों की कीमत लड़कियों से भी अधिक होती है।
जुलाई, 1989 में नार्वे सरकार ने बाल वेश्याओं पर एक रपट तैयार की थी और उसे संयुक्त राष्ट्र कार्य दल को पेश किया गया था कि विश्वभर में प्रतिवर्ष लगभग दस लाख बच्चों को सेक्स बाजार में झोंक दिया जाता है। अकेले पेरिस शहर में पांच हजार लड़के तथा तीन हजार लड़कियां वेश्यावृत्ति में संलग्न हैं। लेबनान में कई गिरोह बच्चों के व्यापार में लगे हुए हैं। चीन में बच्चों की खरीद-फरोख्त का धन्धा काफी समय से चल रहा है। चाहे फिर वहां कम्युनिस्ट शासन ही क्यों न हो।
बच्चों के क्रय-विक्रय का यह विश्वव्यापी धन्धा अक्सर वैध रूप में किया जाता है। ऊपरी तौर पर बच्चों को केवल गोद लिया जाता है। जो बच्चों के माता-पिता की सहमति से होता है। स्वीडन में इस धन्धों से सम्बन्धित एक अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय भी है। इसकी स्थापना 1969 में हुई थी। 21 देशों में इसकी शाखाएं तथा 9 हजार से भी अधिक परिवार इसके सदस्य हैं।
बच्चों के क्रय-विक्रय का यह धन्धा भारत में काफी जोर शोर से चल रहा है। बच्चों का अपहरण तो काफी बड़ी संख्या में किया ही जाता है इसके अलावा माता-पिता से उनके बच्चों को भी खरीद लिया जाता है। भूखे पेट की आग माता-पिता को अपने बच्चे बेचने को विवश कर देती है।
विभिन्न साधनों से प्राप्त कुछ बच्चों का विदेशों में विशेष रूप से अरब देशों में निर्यात कर दिया जाता है। वहां उनका यौन शोषण तो होता ही है और तरह-तरह के शोषण भी किये जाते हैं। इस सम्बन्ध में अरब देशों में प्रचलित ऊंटों की दौड़ प्रसिद्ध है जिसमें ऊंट जब दौड़ के लिए तैयार होते हैं तो उनके स्वामी अरब शेख अपने-अपने ऊंटों की पीठ पर पांच-छह वर्ष के नन्हें बालकों को मजबूती से बांध देते हैं। अक्सर उन बच्चों के चाकू या छुरे से घाव करके उनमें नमक, मिर्च लगाया जाता है, जब ऊंट भागते हैं तो ये बच्चे डर एवं दर्द के कारण चिल्लाते हैं जिससे ऊंट की गति बढ़ जाती है।
एक शोध पत्र के अनुसार अन्य वस्तुओं की मण्डियों के समान भारत मेें भी बच्चों के क्रय-विक्रय के लिए कई मण्डियां हैं। वे हैं-धौलपुर(राजस्थान), बसई (उत्तर प्रदेश), जगलपीगु और हैदराबाद (आंध्रप्रदेश), पुणे (महाराष्ट्र), मुजफ्फरपुर (बिहार), भुवनेश्वर (उड़ीसा) तथा मण्डी (हिमाचल प्रदेश) आदि।
विकासशील देशों में सातवें और आठवें दशक में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। मगर अब यह प्रवृत्ति घट रही है। इसलिए सबके लिए शिक्षा पर मार्च 1990 में थाईलैंड में प्रथम विश्व सम्मेलन हुआ लेकिन इसका परिणाम भी ढाक के तीन पात ही हुआ।
दुनिया के सबसे गरीब 37 देशों में पिछले दशक में स्कूलों पर प्रति व्यक्ति व्यय लगभग 25 प्रतिशत घटा है। हर पांच देशों में से प्राथमिक स्कूलों की संख्या में वास्तविक गिरावट आयी है। भारत में तो बढ़ती आबादी और बढ़ते शिक्षा व्यय के अनुपात पर ध्यान दें तो सरकार किसी भी छात्र को साक्षर कर पाने तक का संसाधन आवंटित नहीं कर पाती हैं जबकि प्रौढ़ शिक्षा परियोजना के नाम पर धन की बंदरबाट जारी रहती है। अगर प्रौढ़ शिक्षा के पूरे बजट को प्राथमिक शिक्षा में जोड़ दिया जाय तो बच्चों के स्कूल के पलायन कर जाने की स्थिति आर्थिक संकट के कारण जो होती है वह समाप्त हो जाती है। यह कितना हास्यास्पद है कि आम आदमी शहरों में बच्चों की शिक्षा पर अपनी आय का लगभग 15-20 प्रतिशत भाग व्यय करता है जबकि सरकार का शिक्षा व्यय अभी तक बमुश्किल दो अंकों में प्रवेश कर पाया है।
बच्चों की उभरती पीढ़ी को संरक्षण देने के नैतिक पहल के अतिरिक्त उसका एक सुदृढ़ आर्थिक पक्ष भी है। यूनिसेफ के अर्थशास्त्री डा. रिचर्ट जाॅली का मानना है आर्थिक उन्नति में भौतिक पूंजी से कहीं बड़ा महत्व मानव पूंजी का है। इसलिए पोषण, बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य के रूप में मानव पूंजी का निवेश स्थगित नहीं किया जा सकता। यह निवेश या तो उपयुक्त समय होना चाहिए या कभी नहीं। छोटे बच्चों के लिए दूसरा मौका नहीं होता। इसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया कि 9वें दशक में मानव में पूंजी निवेश घटा है। जिसका असर इक्कीसवीं सदी में जाकर इस तरह प्रकट होगा कि बच्चों का न तो शारीरिक विकास हो पाएगा न पर्याप्त शिक्षा मिलेगी। इससे बचने का एक ही उपाय है-असुरक्षित बच्चों की रक्षा के लिए उन पर और अधिक धन खर्च किया जाय। प्रौढ़ समाज की ज्यादतियों और गलतियों से होने वाले भीषण परिणामों की बच्चों की रक्षा की जानी चाहिए। फिर यह मुद्दा चाहें हिंसा को हो या आर्थिक कुप्रबंधन से होने वाले तरह-तरह के प्रभावों का।
राजनैतिक दृष्टिकोण से यह इतना सरल नहीं है कि प्राथमिकताएं बदलकर शहरी अस्पतालों की जगह ग्रामीण चिकित्सालय या राष्ट्रीय विमान सेवाओं की जगह स्थानीय बस सेवाएं या बड़े-बड़े सभागारों की जगह मामूली प्राथमिक स्कूल खोले जायें। या राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली लोगों की विभिन्न अपेक्षाओं को गौण बनाकर बहुसंख्यक गरीब लोगों की अनेक आकांक्षाओं की पूर्ति की जाय। इसलिए यह समय है कि विकासशील देश ऐसी योजनाएं बनाएं ताकि प्राथमिक शिक्षा व प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जा सके। कम लागत पर पानी व सफाई की व्यवस्था की जा सके। राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम चलाये जा सकें। प्रत्येक सरकार अपने देश में कोई उच्च स्तरीय प्राधिकरण बच्चों के लिए लोकपाल यानि अम्बुडस्मन की नियुक्ति करें।
विश्व में और विशेषकर भारत में आज भी बच्चों की स्थिति आज तक चिंतनीय हैं। जब तक इस स्थिति में बड़े पैमाने पर सुधार नहीं होता तब तक बाल दिवस, बालिका वर्ष, फिर बच्चों के कल्याण हेतु बने यूनिसेफ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के आयोजनों का कोई मतलब नहीं रह जाता।
यूनिसेफ द्वारा बच्चों के अधिकारों सम्बन्धी कन्वेशन को अंततः संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के सम्मुख 1990 में रखा गया। इस कन्वेशन में बच्चों के जीवन के संरक्षण के स्वास्थ्य और शिक्षा के न्यूनतम मापदण्ड निर्धारित करने के साथ-साथ बच्चों को स्पष्ट रूप से ऐसी सुरक्षा प्रदान करने की भी व्यवस्था है जिससे कि कामकाज में उनका शोषण न किया जा सके। उनका शारीरिक अथवा यौन शोषण न हो तथा युद्धकाल में उनकी दुर्गति न हो। यह कन्वेशन कानून द्वारा परिभाषित बच्चों के अधिकारों पर विश्व के राष्ट्रों के बीच सर्वप्रथम समझौता है। एक ऐतिहासिक आदर्श की उपलब्धि है।
गरीब देश अमीर देशों से लिने वाली आर्थिक सहायता की तिगुनी राशि हर साल ब्याज खाते में 17,800 करोड़ डालर के रूप में भुगतान कर देते हैं। जिसके कारण शिक्षा व पोषण जैसे कार्यक्रमों में ही कटौती करनी पड़ती है। किसी भी देश के ऋण जाल का सबसे बड़ा बोझ विकासशील देशों के बच्चों के मन मस्तिष्क और शरीर पर पड़ता है।
बेशक चीन और भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देशों में ऋण जाल की स्थिति में खुद को सम्भाले रखा है पर दूसरे विकासशील देशों की हालत क्या है, इन देशों के लोग जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, सरकारी स्वास्थ्यसेवाओं और सरकारी शिक्षा माध्यमों पर निर्भर करते हैं। पर यहां की सरकारों को जहां एक ओर स्वास्थ्य सेवाओं में कटौती करनी पड़ रही है वहीं दूसरी ओर बड़ी तादाद में शिक्षकों की भी छुट्टी करनी पड़ रही है। ऐसी हालत में भला बच्चों का विकास क्या होगा।
हालांकि कुपोषण, अल्पपोषण, संक्रामक रोगों के बार-बार फैलने से विश्व में हर सप्ताह करीब ढाई लाख बच्चों का ‘मान संहार’ हो रहा है। प्रश्न ये है कि क्या दवाओं के व्यापक प्रयोग से बच्चों के मृत्यु दर व जन्मदर में कमी लाने का विश्वव्यापी लक्ष्य पूरा हो सकता है। जाहिर है कि स्वास्थ्य सम्बन्धी औपचारिक औषधियों की सहायता से विश्व के कोने-कोने में पहुंचकर लक्ष्य पाना असम्भव है। उसके लिए जरूरी है कि संसार भर में दवाएं पहुंचाने की जगह स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियां पहुंचायी जाये।
विकासशील देशों के बहुत से देशों ने कई दशकों तक निरन्तर प्रगति की लेकिन नौवें दशक में फिर पिछड़ने लगे। दसवें दशक यानि की 1991-2000 के बीच लगभग 150 करोड़ बच्चे जनम लेंगे। यानि पहली बार मानव को इतनी बड़ी पीढ़ी का बोझ सहना पड़ेगा। वर्तमान स्थितियां यदि ऐसी ही रहीं तो इनमें से दस करोड़ से अधिक बच्चे तो पांच वर्ष की आयु प्राप्त करते-करते मर जायेंगे। लाखों बच्चे बीमारियों और कुपोषण के शिकार होकर जैसे-तैसे जीवन जियेंगे क्योंकि दक्षिण अमरीका को आय में दस प्रतिशत की तथा अफ्रीका में सहारा रेगिस्तान से लगे हुए कुछ देशों में 25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज है। अत्यनत गरीब लोगों को अपनी आय का तीन चैथाई हिस्सा पेट की आग बुझाने पर ही खर्च करना पड़ता है। वहां घटती आमदनी का मतलब है-कुपोषण में वृद्धि।
आज विकासशील देशों में लगभग पन्द्रह लाख ऐसे बच्चे हैं जो सामान्य रूप से चलते-फिरते, दौड़ते-भागते और खेलते-कूदते दिखायी पड़ते हैं। पिछले दशक में यदि इन्हें टीके लगाने का उद्यम न किया गया होता तो पोलियो ने उन्हें अपाहिज कर दिया होता।
नौवें दशक में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय घटा है जिसके कारण सैकड़ों स्वास्थ्य केन्द्रों को या तो बन्द कर दिया गया है या इन स्वास्थ्य केन्द्रों पर पर्याप्त कर्मचारी/दवाएं मुहैया नहीं करायी जा सकीं।
शिशुओं की मृत्युदर बढ़ी है। शिशु की स्थिति जांचने के लिए महिलाओं के कल्याण की स्थिति व प्रसव के समय उसके बच्चे के भार को देखा जा सकता है। जिसके परिणाम बहुत गम्भीर आये हैं।
बच्चे कब हों, कितने हों, यह निर्णय लेने का अधिकार स्त्री का है। यदि स्त्री को यह अधिकार मिल जाय तो बढ़ती आबादी पर प्रभाव पड़ेगा तथा विकासशील देशों की जनसंख्या 2020 तक 660 करोड़ से घटकर मात्र 550 करोड़ रह जाएगी।
शिशु-कन्या क्रूरता की कहानी शुरू होती है उसके जन्म के बाद। गत शताब्दी में इनके वध की कुरीति तो समाप्त हुई, पर इस शताब्दी के वर्तमान चरण में गर्भावस्था में कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक दुर्घटना के बाद भी स्वीकृत हो उठा। एक ओर सती प्रथा के विरूद्ध संसद ने एक्ट पास किया दूसरी ओर जन्म से पूर्व ही नारी का अदृश्य वध सामाजिक चेतना के विकृत स्वरूप को छिपाए जा रहा है। जीवन के लिए लड़की शिशु का संघर्ष उसके भाई से अधिक कठिन होता जा रहा है।
सम्पूर्ण विश्व में जिन नन्हें बालकों को भावी राष्ट्र तथा विश्व का निर्माता कहा जाता है और जिनके कलयाण के लिए राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित सम्मेलनों में लम्बी-चैड़ी चर्चाएं आयोजित की जाती हैं, वे आज भी बड़े पैमाने पर अमानवीय यातनाओं के शिकार बन रहे हैं। भूखे पेट की अग्नि शांत करने के लिए कभी उन्हें भारी-भरकम बोझ को उठाना पड़ता है, कभी झिड़कियां सहनी पड़ती हैं और कभी निर्जीव वस्तुओं की तरह बिकना पड़ता है।
नन्हें बालकों को जो यातनाएं सहनी पड़ती हैं उनमें सर्वाधिक कष्टप्रद और चिन्तनीय है उनका वस्तुओं के समान क्रय-विक्रय और उसी रूप में उनका उपयोग। यौन शोषण केन्द्रों पर भी बालकों की जबरदस्त मांग होती है। इसमें लड़के और लड़की में कोई अन्तर नहीं होता। कहीं-कहीं तो बाल वेश्या के रूप में लड़कों की कीमत लड़कियों से भी अधिक होती है।
जुलाई, 1989 में नार्वे सरकार ने बाल वेश्याओं पर एक रपट तैयार की थी और उसे संयुक्त राष्ट्र कार्य दल को पेश किया गया था कि विश्वभर में प्रतिवर्ष लगभग दस लाख बच्चों को सेक्स बाजार में झोंक दिया जाता है। अकेले पेरिस शहर में पांच हजार लड़के तथा तीन हजार लड़कियां वेश्यावृत्ति में संलग्न हैं। लेबनान में कई गिरोह बच्चों के व्यापार में लगे हुए हैं। चीन में बच्चों की खरीद-फरोख्त का धन्धा काफी समय से चल रहा है। चाहे फिर वहां कम्युनिस्ट शासन ही क्यों न हो।
बच्चों के क्रय-विक्रय का यह विश्वव्यापी धन्धा अक्सर वैध रूप में किया जाता है। ऊपरी तौर पर बच्चों को केवल गोद लिया जाता है। जो बच्चों के माता-पिता की सहमति से होता है। स्वीडन में इस धन्धों से सम्बन्धित एक अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय भी है। इसकी स्थापना 1969 में हुई थी। 21 देशों में इसकी शाखाएं तथा 9 हजार से भी अधिक परिवार इसके सदस्य हैं।
बच्चों के क्रय-विक्रय का यह धन्धा भारत में काफी जोर शोर से चल रहा है। बच्चों का अपहरण तो काफी बड़ी संख्या में किया ही जाता है इसके अलावा माता-पिता से उनके बच्चों को भी खरीद लिया जाता है। भूखे पेट की आग माता-पिता को अपने बच्चे बेचने को विवश कर देती है।
विभिन्न साधनों से प्राप्त कुछ बच्चों का विदेशों में विशेष रूप से अरब देशों में निर्यात कर दिया जाता है। वहां उनका यौन शोषण तो होता ही है और तरह-तरह के शोषण भी किये जाते हैं। इस सम्बन्ध में अरब देशों में प्रचलित ऊंटों की दौड़ प्रसिद्ध है जिसमें ऊंट जब दौड़ के लिए तैयार होते हैं तो उनके स्वामी अरब शेख अपने-अपने ऊंटों की पीठ पर पांच-छह वर्ष के नन्हें बालकों को मजबूती से बांध देते हैं। अक्सर उन बच्चों के चाकू या छुरे से घाव करके उनमें नमक, मिर्च लगाया जाता है, जब ऊंट भागते हैं तो ये बच्चे डर एवं दर्द के कारण चिल्लाते हैं जिससे ऊंट की गति बढ़ जाती है।
एक शोध पत्र के अनुसार अन्य वस्तुओं की मण्डियों के समान भारत मेें भी बच्चों के क्रय-विक्रय के लिए कई मण्डियां हैं। वे हैं-धौलपुर(राजस्थान), बसई (उत्तर प्रदेश), जगलपीगु और हैदराबाद (आंध्रप्रदेश), पुणे (महाराष्ट्र), मुजफ्फरपुर (बिहार), भुवनेश्वर (उड़ीसा) तथा मण्डी (हिमाचल प्रदेश) आदि।
विकासशील देशों में सातवें और आठवें दशक में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। मगर अब यह प्रवृत्ति घट रही है। इसलिए सबके लिए शिक्षा पर मार्च 1990 में थाईलैंड में प्रथम विश्व सम्मेलन हुआ लेकिन इसका परिणाम भी ढाक के तीन पात ही हुआ।
दुनिया के सबसे गरीब 37 देशों में पिछले दशक में स्कूलों पर प्रति व्यक्ति व्यय लगभग 25 प्रतिशत घटा है। हर पांच देशों में से प्राथमिक स्कूलों की संख्या में वास्तविक गिरावट आयी है। भारत में तो बढ़ती आबादी और बढ़ते शिक्षा व्यय के अनुपात पर ध्यान दें तो सरकार किसी भी छात्र को साक्षर कर पाने तक का संसाधन आवंटित नहीं कर पाती हैं जबकि प्रौढ़ शिक्षा परियोजना के नाम पर धन की बंदरबाट जारी रहती है। अगर प्रौढ़ शिक्षा के पूरे बजट को प्राथमिक शिक्षा में जोड़ दिया जाय तो बच्चों के स्कूल के पलायन कर जाने की स्थिति आर्थिक संकट के कारण जो होती है वह समाप्त हो जाती है। यह कितना हास्यास्पद है कि आम आदमी शहरों में बच्चों की शिक्षा पर अपनी आय का लगभग 15-20 प्रतिशत भाग व्यय करता है जबकि सरकार का शिक्षा व्यय अभी तक बमुश्किल दो अंकों में प्रवेश कर पाया है।
बच्चों की उभरती पीढ़ी को संरक्षण देने के नैतिक पहल के अतिरिक्त उसका एक सुदृढ़ आर्थिक पक्ष भी है। यूनिसेफ के अर्थशास्त्री डा. रिचर्ट जाॅली का मानना है आर्थिक उन्नति में भौतिक पूंजी से कहीं बड़ा महत्व मानव पूंजी का है। इसलिए पोषण, बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य के रूप में मानव पूंजी का निवेश स्थगित नहीं किया जा सकता। यह निवेश या तो उपयुक्त समय होना चाहिए या कभी नहीं। छोटे बच्चों के लिए दूसरा मौका नहीं होता। इसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया कि 9वें दशक में मानव में पूंजी निवेश घटा है। जिसका असर इक्कीसवीं सदी में जाकर इस तरह प्रकट होगा कि बच्चों का न तो शारीरिक विकास हो पाएगा न पर्याप्त शिक्षा मिलेगी। इससे बचने का एक ही उपाय है-असुरक्षित बच्चों की रक्षा के लिए उन पर और अधिक धन खर्च किया जाय। प्रौढ़ समाज की ज्यादतियों और गलतियों से होने वाले भीषण परिणामों की बच्चों की रक्षा की जानी चाहिए। फिर यह मुद्दा चाहें हिंसा को हो या आर्थिक कुप्रबंधन से होने वाले तरह-तरह के प्रभावों का।
राजनैतिक दृष्टिकोण से यह इतना सरल नहीं है कि प्राथमिकताएं बदलकर शहरी अस्पतालों की जगह ग्रामीण चिकित्सालय या राष्ट्रीय विमान सेवाओं की जगह स्थानीय बस सेवाएं या बड़े-बड़े सभागारों की जगह मामूली प्राथमिक स्कूल खोले जायें। या राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली लोगों की विभिन्न अपेक्षाओं को गौण बनाकर बहुसंख्यक गरीब लोगों की अनेक आकांक्षाओं की पूर्ति की जाय। इसलिए यह समय है कि विकासशील देश ऐसी योजनाएं बनाएं ताकि प्राथमिक शिक्षा व प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जा सके। कम लागत पर पानी व सफाई की व्यवस्था की जा सके। राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम चलाये जा सकें। प्रत्येक सरकार अपने देश में कोई उच्च स्तरीय प्राधिकरण बच्चों के लिए लोकपाल यानि अम्बुडस्मन की नियुक्ति करें।
विश्व में और विशेषकर भारत में आज भी बच्चों की स्थिति आज तक चिंतनीय हैं। जब तक इस स्थिति में बड़े पैमाने पर सुधार नहीं होता तब तक बाल दिवस, बालिका वर्ष, फिर बच्चों के कल्याण हेतु बने यूनिसेफ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के आयोजनों का कोई मतलब नहीं रह जाता।