अभी हाल के दिनों में मेरी दादी अनन्त यात्रा पर चली गयीं। पूरे एक शतक तक उनकी आंखें, उनकी काया देखती रही विस्मयकारी परिवर्तनों को। चार पीढ़ियां भोगा उन्होंने। वैसे तो दादा को गुजरे भी एक दशक हो गया। दादी के चले जाने पर दसवें दिन दसगात्र के अवसर पर सामूहिक मुण्डन संस्कार हो रहा था। मेरे सामने एक सप्ताह बाद होने वाले संघ लोक सेवा आयोग का एक साक्षात्कार का दृश्य बार-बार कौंध रहा था। स्मृतियों में साक्षात्कार की तिथि उठ आती थी। सामूहिक मुण्न में मेरा मुण्डन हो, नहीं हो जैसे संशय उगने लगे थे मेरे मन में। मेरा मन आशंकाओं से भर उठा था। बार-बार कह उठता था कि कहीं सिर मुड़ाते ही ओले न प जायें।
अपने तीस वर्षीय जीवन में अपनी गंजी चांद कभी मैने देखी नहीं थी। इसलिए मुड़ाने की हसरत भी थी, सम्भावना भी। बहाना भी। खैर, दादी के भरे पूरे परिवार में किसी ने भी हिम्मत मुण्डन संस्कार का विरोध करने की नहीं की। फिर मेरे में साहस कहां से आता। लोगों को देखकर मैं कट्टर ब्राह्मण हो गया। पारम्परिक ब्राह्मणत्व मुझमें जोर मारने लगा। हमने भी सर मुड़ा लिया।
दादी का जाना तो एक शाश्वत प्रक्रिया थी, फिर इस प्रक्रिया पर कोई दुख क्यों ? कहते हैं विदा करते समय खुश रहने पर पथ पर यात्री भी सुखी रहता है। इसी तर्क के तहत हममें दादी के जाने पर कोई वेदना नहीं थी। एक अभाव जो था भी, वह हम 70 लोगों के भरे पूरे परिवार को जोड़ने के इकलौते सम्पर्क सूत्र के टूट जाने का। अब कोई बहाना नहीं रह गया था, जो हमारी ‘न्यूक्लियर फेमली’ की संकल्पना को भेद पाता। हम भी क्या ठहरे परिवार के लिए, अपने लिए, अपनी आवश्यकताओं के लिए सब कुछ गढ़ते रहते हैं।
दादी के पूरे चार पुत्र थे। सब नौकरी पेशा। लेकिन किसी की नौकरी में इतना अवकाश नहीं था कि दादी को वर्ष में एक माह भी देता। दादी थीं बेहद जिद्दी। वह गांव छोड़ने का नाम ही नहीं लेती थीं। वह बार-बार कहतीं, ‘हम वोही मरब जहां बुउ मरल रहले।’ इसी आशय के तहत वह अपनी चारपाई रात को वहीं डालती जहां बाबा ने अपनी अन्तिम सांसें गिनी थीं। दस वर्ष मंे दादी उसी जगह पर किश्तों में कई बार मरी थीं। कई बार उसके बच्चे इस समाचार को पाकर इकट्ठा हुये थे। कई बार उसने अन्न दान किया था। गऊ दान किया था। खैर, दादी की जिद पूरी हुई, वह भी सोमवार को मरीं। एकादशी थी उस दिन। रात का वही पहर भी था। सब कुछ वैसे ही था। जैसे दादा का। अन्तर महज इतना ही था कि दादा के पास मरते समय दादी थीं और दादी के पास कोई नहीं। अपने अन्तिम दिनों में दादी की वही स्थिति रही जो कई बेटों वाली मां की होती है या दो भाइयांे वाली भैंस की हुई थी।
हां, बाल बनवाकर शुद्धि के बाद मैं संघ लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार के लिए दिल्ली आ गया। पूरे शहर में घूमा। कहीं भी मेरे जैसा सर मुड़ा कोई आदमी नहीं दिखा। कहीं भी मेरा सा-टिप्पण नहीं था। धीरे-धीरे हमें इसकी वेदना सालने लगी। मैं खोजी हो उठा। तलाशने लगा। कई दिन तक तलाशा। हिंदी के सभी व्यस्ततम बाजारों में गया। कोई नहीं मिला। यमुना के किनारे बसे कुछ गुरुओं के आंखो मंे भी गया। वहां भी कोई नहीं दिखा, परेशानी और बढ़ने लगी। मेरी जिद्द जोर पकड़ती गयी।
संघ लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार में जाते समय भी चारों ओर मेरी दृष्टि तलाश में ही भटक रही थी। साक्षात्कार में गया। वहां जाते ही मेरी मन की शंका साकार हो उठी। सबसे पहला ही सवाल पूछा गया, सिर क्यों ? मैने अपने पर हावी हुए पारम्परिक ब्राह्मणत्व को दुहराया। मेरी बात उन लोगों को नहीं भायी। परम्परा और आधुनिकता की बहस छिड़ गयी। परम्परा को पराजित होना था। पराजित हुई। मैं इस निश्चय के साथ वापस आ गया कि कुछ नहीं होना है। तयशुदा है असफलता। अब सिर मुड़ाने पर प्रायश्चित बोध उरज गया। मन छोटा हो गया। सोचने लगा काश दादी मरने की एक किश्त और जी लेतीं।
खैर, निराशा में भी अपने जैसा एक तलाश लेने की जो आशा थी वह उस समय काम आयी। उसने मुमें पुनः प्राण प्रतिष्ठा की। फिर घूमने लगा। कभी सिटी बस से। कभी स्कूटर से। कभी थ्री व्हीलर से। कहीं कुछ हाथ नहीं लगा, परन्तु मजनू के टीला पर कुछ लोग दिखे। जिनके सिर पर बाल नहीं थे। कुछ सान्त्वना मिली। पर वो लोग तिब्बती थे। बौद्ध थे। इसलिए उनसे तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाया। उन्हें अपनी अनुकृति स्वीकार नहीं पाया। तलाश फिर चल उठी। कुछ पीपल के पेड़ों पर गया। सोचा, वहां घण्टा बांधने आये लोगों में से ही कुछ मिल जाएं। कोई मिल जाए। दो-तीन दिन चर काटने के बाद भी कोई पीपल का पेड़ ऐसा नहीं मिला जिस पर घण्टा बंधा हो। सोचने लगा कि लगता है कि इस विशालकाय नगरी में लोग मरते नहीं हैं। यही यहां की बढ़ रही जनसंख्या का कारण हमें समय में आया। परन्तु इस तर्क को स्वीकार करना भी सहज नहीं था और मेरे लिए तो यह स्वीकारना असम्भव था। वैसे भी मेरा मानना है कि असम्भव कुछ नहीं है। यहां मैं असम्भव के लिए नेपोलियन से प्रभावित हूं।
मैं एक बाल काटने की दुकान पर भी गया। वहां सर मुड़ाने का रेट सबसे अधिक था। अब मेरे दिमाग में भौतिकवादी समाज का भाववादी दृष्टिकोण समझ में आया। मैं ‘अपनी’ तलाश में हिंदी के जिन-जिन स्थानों पर गया, वहां-वहां हमंे विश्व के आश्चर्य सरीखे देखा गया। पाश्चात्यीकरण लिबास में भारतीयता छिपाने की कोशिश में संलग्न बालाएं तो मेरे पांेगेपन पर एक साथ खिलखिला उठती थीं। पता नहीं उन्होंने जीवन को कैसे देखा था ? कैसे स्वीकारा था ?
हमें अब यह अहसास होने लगा कि ये हिंदी वासी लोग गुजर जाने वालों का मूल्य, बालों से या बाल की कटाई से कम मानते हैं। पर यह भी मान लेना आसान नहीं था क्योंकि हिंदी तो किसी की है ही नहीं, यहां आकर लोग निवास कर रहे हैं परन्तु हिंदी की एक खास बात तो है ही कि इसको सभी लोग ‘मेरी हिंदी मेरी शान’ फिर ‘मेरा भारत महान’ जैसे सन्दर्भो में ही लेते हैं।
एक आदमी से पूछने पर पता चला हिंदी में लोगांे को मरने की फुर्सत नहीं है। पर उन सज्जन ने जलाने के लिए निगमबोध घाट बनाया। दूसरे रोज वहां भी गया। कई लोग आए। जलाए। लाशें जो भी आयीं उनके साथ न तो ‘राम नाम सत्य’ का उद्घोष था, नहीं विछोह का दुःख किसी के चेहरे पर था। पूरी लाश पांच-दस मिनट में समाप्त। न ही मुखाग्नि और न ही कपाल क्रिया। हिंदी में लोगों को मरने की फुर्सत नहीं है जुमला सच लग गया। लाश जलाने के बाद कुछ के पीछे-पीछे उनके घर गया। घर देख आया।
दस दिन बाद उनके घर गया। न ही कोई बाल मुड़ाये था। न ही लगा कि कोई कुछ वर्ष इस घर में जीकर, इस परिवार को देकर गुजर गया।
पैसे चुक गये। कुछ उधार भी लिया परन्तु कोई नहीं मिला। सर मुड़ाने का दर्द गहरा हो गया। साक्षात्कार में सर मुड़ाते ही जो ओले पड़े थे, वह सालने लगा। अभी भी परेशान हूंँ। कुछ प्रश्न मेरे सामने अटके हैं। कई बार दिल्ली गयी पर सर मुड़ाने का दर्द बता गया। अब दिल्ली नहीं जाने का निश्चय कर लिया है, फिर भी मन के किसी कोने में यह तो छिपा ही है, कोई मुड़ा सिर दिख जाये तो दिल्ली जाने का निश्चय टूट जाएगा।
अपने तीस वर्षीय जीवन में अपनी गंजी चांद कभी मैने देखी नहीं थी। इसलिए मुड़ाने की हसरत भी थी, सम्भावना भी। बहाना भी। खैर, दादी के भरे पूरे परिवार में किसी ने भी हिम्मत मुण्डन संस्कार का विरोध करने की नहीं की। फिर मेरे में साहस कहां से आता। लोगों को देखकर मैं कट्टर ब्राह्मण हो गया। पारम्परिक ब्राह्मणत्व मुझमें जोर मारने लगा। हमने भी सर मुड़ा लिया।
दादी का जाना तो एक शाश्वत प्रक्रिया थी, फिर इस प्रक्रिया पर कोई दुख क्यों ? कहते हैं विदा करते समय खुश रहने पर पथ पर यात्री भी सुखी रहता है। इसी तर्क के तहत हममें दादी के जाने पर कोई वेदना नहीं थी। एक अभाव जो था भी, वह हम 70 लोगों के भरे पूरे परिवार को जोड़ने के इकलौते सम्पर्क सूत्र के टूट जाने का। अब कोई बहाना नहीं रह गया था, जो हमारी ‘न्यूक्लियर फेमली’ की संकल्पना को भेद पाता। हम भी क्या ठहरे परिवार के लिए, अपने लिए, अपनी आवश्यकताओं के लिए सब कुछ गढ़ते रहते हैं।
दादी के पूरे चार पुत्र थे। सब नौकरी पेशा। लेकिन किसी की नौकरी में इतना अवकाश नहीं था कि दादी को वर्ष में एक माह भी देता। दादी थीं बेहद जिद्दी। वह गांव छोड़ने का नाम ही नहीं लेती थीं। वह बार-बार कहतीं, ‘हम वोही मरब जहां बुउ मरल रहले।’ इसी आशय के तहत वह अपनी चारपाई रात को वहीं डालती जहां बाबा ने अपनी अन्तिम सांसें गिनी थीं। दस वर्ष मंे दादी उसी जगह पर किश्तों में कई बार मरी थीं। कई बार उसके बच्चे इस समाचार को पाकर इकट्ठा हुये थे। कई बार उसने अन्न दान किया था। गऊ दान किया था। खैर, दादी की जिद पूरी हुई, वह भी सोमवार को मरीं। एकादशी थी उस दिन। रात का वही पहर भी था। सब कुछ वैसे ही था। जैसे दादा का। अन्तर महज इतना ही था कि दादा के पास मरते समय दादी थीं और दादी के पास कोई नहीं। अपने अन्तिम दिनों में दादी की वही स्थिति रही जो कई बेटों वाली मां की होती है या दो भाइयांे वाली भैंस की हुई थी।
हां, बाल बनवाकर शुद्धि के बाद मैं संघ लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार के लिए दिल्ली आ गया। पूरे शहर में घूमा। कहीं भी मेरे जैसा सर मुड़ा कोई आदमी नहीं दिखा। कहीं भी मेरा सा-टिप्पण नहीं था। धीरे-धीरे हमें इसकी वेदना सालने लगी। मैं खोजी हो उठा। तलाशने लगा। कई दिन तक तलाशा। हिंदी के सभी व्यस्ततम बाजारों में गया। कोई नहीं मिला। यमुना के किनारे बसे कुछ गुरुओं के आंखो मंे भी गया। वहां भी कोई नहीं दिखा, परेशानी और बढ़ने लगी। मेरी जिद्द जोर पकड़ती गयी।
संघ लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार में जाते समय भी चारों ओर मेरी दृष्टि तलाश में ही भटक रही थी। साक्षात्कार में गया। वहां जाते ही मेरी मन की शंका साकार हो उठी। सबसे पहला ही सवाल पूछा गया, सिर क्यों ? मैने अपने पर हावी हुए पारम्परिक ब्राह्मणत्व को दुहराया। मेरी बात उन लोगों को नहीं भायी। परम्परा और आधुनिकता की बहस छिड़ गयी। परम्परा को पराजित होना था। पराजित हुई। मैं इस निश्चय के साथ वापस आ गया कि कुछ नहीं होना है। तयशुदा है असफलता। अब सिर मुड़ाने पर प्रायश्चित बोध उरज गया। मन छोटा हो गया। सोचने लगा काश दादी मरने की एक किश्त और जी लेतीं।
खैर, निराशा में भी अपने जैसा एक तलाश लेने की जो आशा थी वह उस समय काम आयी। उसने मुमें पुनः प्राण प्रतिष्ठा की। फिर घूमने लगा। कभी सिटी बस से। कभी स्कूटर से। कभी थ्री व्हीलर से। कहीं कुछ हाथ नहीं लगा, परन्तु मजनू के टीला पर कुछ लोग दिखे। जिनके सिर पर बाल नहीं थे। कुछ सान्त्वना मिली। पर वो लोग तिब्बती थे। बौद्ध थे। इसलिए उनसे तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाया। उन्हें अपनी अनुकृति स्वीकार नहीं पाया। तलाश फिर चल उठी। कुछ पीपल के पेड़ों पर गया। सोचा, वहां घण्टा बांधने आये लोगों में से ही कुछ मिल जाएं। कोई मिल जाए। दो-तीन दिन चर काटने के बाद भी कोई पीपल का पेड़ ऐसा नहीं मिला जिस पर घण्टा बंधा हो। सोचने लगा कि लगता है कि इस विशालकाय नगरी में लोग मरते नहीं हैं। यही यहां की बढ़ रही जनसंख्या का कारण हमें समय में आया। परन्तु इस तर्क को स्वीकार करना भी सहज नहीं था और मेरे लिए तो यह स्वीकारना असम्भव था। वैसे भी मेरा मानना है कि असम्भव कुछ नहीं है। यहां मैं असम्भव के लिए नेपोलियन से प्रभावित हूं।
मैं एक बाल काटने की दुकान पर भी गया। वहां सर मुड़ाने का रेट सबसे अधिक था। अब मेरे दिमाग में भौतिकवादी समाज का भाववादी दृष्टिकोण समझ में आया। मैं ‘अपनी’ तलाश में हिंदी के जिन-जिन स्थानों पर गया, वहां-वहां हमंे विश्व के आश्चर्य सरीखे देखा गया। पाश्चात्यीकरण लिबास में भारतीयता छिपाने की कोशिश में संलग्न बालाएं तो मेरे पांेगेपन पर एक साथ खिलखिला उठती थीं। पता नहीं उन्होंने जीवन को कैसे देखा था ? कैसे स्वीकारा था ?
हमें अब यह अहसास होने लगा कि ये हिंदी वासी लोग गुजर जाने वालों का मूल्य, बालों से या बाल की कटाई से कम मानते हैं। पर यह भी मान लेना आसान नहीं था क्योंकि हिंदी तो किसी की है ही नहीं, यहां आकर लोग निवास कर रहे हैं परन्तु हिंदी की एक खास बात तो है ही कि इसको सभी लोग ‘मेरी हिंदी मेरी शान’ फिर ‘मेरा भारत महान’ जैसे सन्दर्भो में ही लेते हैं।
एक आदमी से पूछने पर पता चला हिंदी में लोगांे को मरने की फुर्सत नहीं है। पर उन सज्जन ने जलाने के लिए निगमबोध घाट बनाया। दूसरे रोज वहां भी गया। कई लोग आए। जलाए। लाशें जो भी आयीं उनके साथ न तो ‘राम नाम सत्य’ का उद्घोष था, नहीं विछोह का दुःख किसी के चेहरे पर था। पूरी लाश पांच-दस मिनट में समाप्त। न ही मुखाग्नि और न ही कपाल क्रिया। हिंदी में लोगों को मरने की फुर्सत नहीं है जुमला सच लग गया। लाश जलाने के बाद कुछ के पीछे-पीछे उनके घर गया। घर देख आया।
दस दिन बाद उनके घर गया। न ही कोई बाल मुड़ाये था। न ही लगा कि कोई कुछ वर्ष इस घर में जीकर, इस परिवार को देकर गुजर गया।
पैसे चुक गये। कुछ उधार भी लिया परन्तु कोई नहीं मिला। सर मुड़ाने का दर्द गहरा हो गया। साक्षात्कार में सर मुड़ाते ही जो ओले पड़े थे, वह सालने लगा। अभी भी परेशान हूंँ। कुछ प्रश्न मेरे सामने अटके हैं। कई बार दिल्ली गयी पर सर मुड़ाने का दर्द बता गया। अब दिल्ली नहीं जाने का निश्चय कर लिया है, फिर भी मन के किसी कोने में यह तो छिपा ही है, कोई मुड़ा सिर दिख जाये तो दिल्ली जाने का निश्चय टूट जाएगा।