हिन्दी साहित्य में कविता, अकविता एवं आधुनिक कविता के द्वंद के पश्चात् समीक्षा सिद्धांतों से प्रभावित हिन्दी समीक्षकों ने आधुनिक कविता समकालीन कविता व वर्तमान कविता के रूप में साहित्य चेतना को अभिव्यक्त किया।
अब उसी परम्परा को कायम रखते हुए आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता की बात की जाने लगी है। यह विवाद एक ऐसे समय आरंभ किया गया है, जब विश्व में माक्र्सवाद के वैज्ञानिक सिद्धांत अपना महत्व खो बैठेे हैं। पूरा विश्व यह मानने लगा है कि अर्थतंत्र का स्वरूप पूंजीवादी ही हो सकता है। उत्पादन की प्रक्रिया में समाजवाद का हस्तक्षेप मानने लगा है कि अर्थतंत्र का स्वरूप पूंजीवादी ही हो सकता है। उत्पादन की प्रक्रिया में समाजवाद का हस्तक्षेप उचित नहीं है। अभी तक हिंदी साहित्य को जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील साहित्य के नाम पर बांटकर बौद्धिक खेमेबाजी का निर्वाह किया जाता रहा है।
हमारे समीक्षकों की एक आदत रही है कि वे हमें हमारे इतिहास से काटने की साजिश करते रहे हैं। स्मृतियों से कट जाने के बाद जो भी मिल जाता है, उस पर संतोष करना पड़ता है। उसी को उपलब्धि के रूप में स्वीकारना पड़ता है। वही उपलब्धि लगती है। इसी नीति के तहत हमें आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता की खेमेबाजी की नैतिकता में बांधकर अब यह बताया जा रहा है कि उत्तर आधुनिकता क्या है? आचार्य शुक्ल का बरकले से प्रभावित होना क्या आधुनिकता नहीं थी। अज्ञेय का नायक, शेखर का शशि से प्रेम की स्वीकारोक्ति क्या आधुनिक नहीं थी। मुक्तिबोध व दुष्यंत कुमार की छटपटाहट धूमिल व अदम गोण्डवी का वर्तमान के प्रति विद्रोह एक नयी व्यवस्था की स्थापना की मंशा क्या आधुनिकता नहीं थी।
अगर यह आधुनिकता नहीं थी तो इसे कोई नाम क्यों नहीं दिया गया और आधुनिकता थी तो स्वीकारोक्ति न करने के पीछे हमारे समीक्षकों की मंशा क्या रही है। आधुनिकता समकालीन एवं वर्तमान सरीखे शब्दों का जितना भ्रामक प्रयोग हो सकता था, हमारे साहित्य मे किया गया। आम को आम बताने की साजिश की गयी।
अगर ऐसा नहीं तो नई कविता की स्थापना के लिए तारसप्तक जैसा सघन प्रयास करने वाले अज्ञेय को अच्छा कवि मानने की जगह अच्छा लेखक मानने के लिए पाठकों को विवश नहीं किया जाता।
मुक्तिबोध को कविता के नए प्रतिमान जैसी पुस्तक लिखकर नई कविता का सर्वश्रेष्ठ कवि स्थापित करने की कोशिश नहीं की जाती। जबकि मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में लिखा है नई कविता उनकी है, जो मिस फिट है। जो न अंतः सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं न वाह्य सामंजस्य। नई कविता के सर्वश्रेष्ठ कवि की स्थापना में लिखी गयी कविता के नए प्रतिमान गजानन के मिसफिट होने का एक उपहार तो नहीं है। गजानन के असामंजस्यता को दर्शाने का प्रतीक तो नहीं है।
इसी तरह के साहित्यिक षड्यंत्रों का परिणाम था कि निराला की वह तोड़ती पत्थर जैसी कविता को प्रगतिशील कविता कह दिया गया। उस कविता में जिसमंे नितांत रूप से यथार्थवाद भरा हो। आत्मानुभूति हो उसे प्रगतिशीलता का नाम दिया गया।
एक ओर प्रगतिशील चेतना के लिए प्रतिबद्ध से देखने वाले समीक्षकों ने गोरख पाण्डेय को भारत भूषण पुरस्कार दिलाकर उनके तेवर का बोध कराया। वहीं रूस व समाजवादी देशों में समाजवाद के ढहते ही उसे निर्णायक मण्डल द्वारा अबकी बार प्रेम पत्र की सुविधा में चिंतित मन को पुरस्कार प्रदान किया गया। आखिर इतनी तेजी से यह परिवर्तन क्यों हो गया? वही मन जो गोबर से निकाले दाने को खाने का चित्रण करने के लिए आतुर था। वही प्रतिबद्धता जो वर्तमान के प्रति विद्रोही थी। वह अब प्रेम को खोजने के लिए उसी स्तर पर बेचैन क्यों है? जबकि प्रेम तो कई दृष्टियों, कई अनुभूतियों में जीने वाले कवि अज्ञेय को हिकारत की दृष्टि से देखा गया।
साहित्य में स्तर का मानदण्ड तैयार करने के लिए पुरस्कार गढे़ गये। पुरस्कारों का हश्र क्या है? कैसे मिलते हैं? यह तो साहित्य अकादमी द्वारा मिले पुरस्कारों में उर्दू के पुरस्कार से पता चल जाएगा। अभी तक जनवादी साहित्य में लिप्त क्रैमलिन प्रेरित लेखकों का वर्ग भारत की दरिद्रता, शोषण, गरीबी, उत्पीड़न को दर्शाने में व्यस्त था। वह कहां खो गया? दर्शान में भी इन लेखकों की अपनी प्रतिबद्धता थी। इनकी दृष्टि इतिहास भेदी है। तभी तो यह लोग चित्रण करते समय आजादी पूर्व नग्नता, संकट, शोषण व वर्गभेद देख लेते थे। इन्होंने आज तक नहीं माना कि सरकार या प्रगति का कोई सम्बन्ध है। ये लोग दिल्ली में बैठकर क्रैमलिन से बातें कर लेते थे। परंतु इन्हें हमेशा गांवोें की पगडंडियां याद आती थीं। पांच सितारा संस्कृति में रहकर भी यह हमारे नंगे भूखे बच्चों को नहीं भूले थे। क्रैमलिन के इशारे पर इन्होंने कई पुरस्कारों को भारतीय साहित्य में जनवाद भर रहे थे। क्योंकि कबीर ने क्या किया, तुलसी जन सामान्य रहे या नहीं। इससे इनका सम्बन्ध नहीं रहा। ये तो सिर्फ वर्तमान को वर्तमान, साहित्य को आधुनिक साहित्य को देखने के आदी रहे। आखिर पांच सितारा संस्कृति, एयर कंडीशन व क्रैमलिन में बैठकर भारत की भुखमरी, कंगाली एवं दुराचार देख लेते हैं। यह उनका इतिहास के प्रति बोध कम है क्या? दृष्टि पर जोर पड़ता है। अतएव साहित्य को इतिहास से देखने की कोशिश क्यों करें। साहित्य को इतिहास से काटने की कोशिश होनी चाहिए। क्योंकि यदि लोग जान गए कि आचार्य शुक्ल ने बरकले से प्रभावित होने के बाद भी नए समीक्षा सिद्धांतों पर भारतीय साहित्य देशी माटी को खूब रमाया था। तो क्रैमलिन के इशारे पर समीक्षा करने की प्रतिबद्धता की कलई नहीं खुल जाएगी क्या? इसीलिए अब साजिश हो रही है स्मृतियों से कटने की। इतिहास से अलग करने की?
इसीलिए वही वर्ग बौद्धिक चेतना से से संप्रक्त वही रैकेट, उत्तर आधुनिकता की बहस चला रहा है। उत्तर आधुनिकता के आधार पर आधुनिकता को विस्मृत करना चाहता है। वर्ना आधुनिकता के नाम पर उन्होंने जो किया, उसकी कलई खुल जाएगी। यह वर्ग परिभाषा तैयार किए बिना, मानदंड बनाए बिना, महज शब्द गढ़ता है। उसमे पाठकों व जिज्ञासुओं को फंसाए रखना चाहता है।
उनसे जब पूछा गया तो उत्तर आधुनिकता क्या है? तो बोले उत्तर आधुनिकता नहीं है वह और कुछ भी तो हो सकता है। मेरे पास पेन नही है। इससे यह अभिप्राय क्यों जुटाया जा रहा है कि सबके पास पेन है।
इस षडयंत्र से साहित्य को बचाने की जरूरत है। क्योंकि ये लोग उत्तर आधुनिकता की मुहिम ज्यादा दिन नहीं चला पायेंगे। क्योंकि अब कोई क्रैमलिन तैयार नहीं है। अपने पर संकट उठाकर भारतीय साहित्य में छेद, घुसपैठ करने की?
लोग हश्र देख चुके हैं। हमें तो डर है कि उत्तर आधुनिकता का मायावी स्वरूप जल्दी बिखर जाएगा। यह बालू के घरौंदे बनाने जैसा है। जब तक हाथ बालू के नीचे रहेगा, तब तक घरौंदा दिखेगा, परंतु हाथ हटाना ही पड़ेगा। परंतु हाथ तो बालू के नीचे रखने के लिए बना है। दूसरे कोई तैयार नहीं है। जो अब अपना हाथ बालू के नीचे रखे। कोई क्रैमलिन मठाधीश भी प्लास्टिक के हाथ अब नही भेजेगा। वह सहम गया है। भारतीय साहित्य का तेवर उसका स्थायित्व वह देख चुका है।
मास्को ने रूपये सिर्फ वामपंथी पार्टियों को ही नहीं दिये। वामपंथी समीक्षकों की दुकानें भी उन्हीं रूपये के अंशों से फलती फूलती व सजती हैं।
देश को देश की अर्थव्यवस्था बचाने के लिए विदेशी मुद्रा की आवश्यकता है। हमारी सरकार इसे आज समझी है। परंतु क्रैमलिन इसे बहुत पहले समझ गया था। उसने हमारे साहित्य में संेध मारने की कोशिश की, पर हम जो ठहरे सम्पन्न आर्थिक ऐतिहासिक धरोहर के धनी। हमारी विरासत बहुत प्रेरणाप्रद है। तभी तो भारत के प्रति विद्वेष करने वाले इकबाल को यह कहना पड़ा कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों से था ये दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा।
यह कहा ही नहीं, वरन पाक बंटने के बाद भी इकबाल उसे बदलने का साहस नहीं जुटा पाये। आज हम फिर उसी अपनी कविता को पा गये हैं, जिसे निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत, माचवे, विश्वनाथ तिवारी, रविन्द्र भ्रमर ने अपनी आत्मानुभूति, आत्म घटित से लिखा है। कोई प्रतिबद्धताएं उनके मन में छायावाद प्रगतिवाद, प्रयोगवाद के प्रति कभी नहीं रहीं। अपनी उस कविता अपने उस साहित्य को संजोने की जिम्मेदारी अब हमारी है। नहीं तो दुकानें खोलने, बौद्धिक खेमेबाजी करने का अभ्यास यह समीक्षक वर्ग उत्तरोत्तर आधुनिकता की बात में साहित्य को उलझा देगा। उत्तरोत्तर फिर उत्तर उत्तरोत्तर जैसे शब्द गढ़ देगा और अपनी साहित्यिक दुकान चलाता रहेगा।
हमारा समीक्षक पाश्चात्य देश से पाश्चात्य समीक्षकों से एवं अंग्रेजी से डरा रहता है। प्रभावित रहता है। उसी लबादे को वह हूबहू ओढ़ लेना चाहता है। तभी तो अंगे्रजी का रोमेटिज्म, प्रोग्रेसिज्म हमारे समीक्षा पद्धति में चार दशक बाद आए अब वह समीक्षक वर्ग निराश है। दिग्भ्रमित है। उत्तर आधुनिकता की बहस में उलझा कर वह अपने लिए अमरीका की मुंह किए खड़ा आश्रय खोज रहा है।
अमरीका भी फंसा है। राष्ट्रपति चुनाव हैं, नहीं तो वह यह अवसर नहीं चूकता। ये लोग अमरीकी न हो जाएं। क्रैमलिन का स्थान व्हाइट हाउस न ले ले इससे सचेत रहकर अपने माटी, अपने इतिहास, अपनी संस्कृति व अपने बोध के लिए उनसे संघष करना है। अपने साहित्य को बौद्धिक खेमेबाजी से बचाना है। अपने लेखकों की संवेदना को संजोकर रखने की महज जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। वर्ना राजनीतिज्ञ देश को, समाज को जाति, धर्म, भाषा के नाम पर भी साजिश करके जो नहीं कर पाए उसे यह वर्ग व्हाइट हाउस क्रैमलिन के आभासांे के तहत कर उठेगा। हम साहित्य में बंट गए तो फिर नहीं जुट पायेंगे। क्योंकि साहित्य संवेदना का परिणाम होता है।
संवेदनाओं का मरना उतना घातक नहीं है, जितना उनका बंट जाना। पंजाब बंटवारा तो फिलहाल रूक गया। जम्मू को तो सेना बचा लेगी। पर संवेदनाओं को, साहित्य को कौन रोकेगा? कौन बचाएगा?
उत्तर आधुनिकता उत्तरोत्तर आधुनिकता की मुहिम के खिलाफ खड़े होकर अपनी संस्कृति, साहित्य को जीवेम सरदः शतः बनाना है।
अब उसी परम्परा को कायम रखते हुए आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता की बात की जाने लगी है। यह विवाद एक ऐसे समय आरंभ किया गया है, जब विश्व में माक्र्सवाद के वैज्ञानिक सिद्धांत अपना महत्व खो बैठेे हैं। पूरा विश्व यह मानने लगा है कि अर्थतंत्र का स्वरूप पूंजीवादी ही हो सकता है। उत्पादन की प्रक्रिया में समाजवाद का हस्तक्षेप मानने लगा है कि अर्थतंत्र का स्वरूप पूंजीवादी ही हो सकता है। उत्पादन की प्रक्रिया में समाजवाद का हस्तक्षेप उचित नहीं है। अभी तक हिंदी साहित्य को जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील साहित्य के नाम पर बांटकर बौद्धिक खेमेबाजी का निर्वाह किया जाता रहा है।
हमारे समीक्षकों की एक आदत रही है कि वे हमें हमारे इतिहास से काटने की साजिश करते रहे हैं। स्मृतियों से कट जाने के बाद जो भी मिल जाता है, उस पर संतोष करना पड़ता है। उसी को उपलब्धि के रूप में स्वीकारना पड़ता है। वही उपलब्धि लगती है। इसी नीति के तहत हमें आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता की खेमेबाजी की नैतिकता में बांधकर अब यह बताया जा रहा है कि उत्तर आधुनिकता क्या है? आचार्य शुक्ल का बरकले से प्रभावित होना क्या आधुनिकता नहीं थी। अज्ञेय का नायक, शेखर का शशि से प्रेम की स्वीकारोक्ति क्या आधुनिक नहीं थी। मुक्तिबोध व दुष्यंत कुमार की छटपटाहट धूमिल व अदम गोण्डवी का वर्तमान के प्रति विद्रोह एक नयी व्यवस्था की स्थापना की मंशा क्या आधुनिकता नहीं थी।
अगर यह आधुनिकता नहीं थी तो इसे कोई नाम क्यों नहीं दिया गया और आधुनिकता थी तो स्वीकारोक्ति न करने के पीछे हमारे समीक्षकों की मंशा क्या रही है। आधुनिकता समकालीन एवं वर्तमान सरीखे शब्दों का जितना भ्रामक प्रयोग हो सकता था, हमारे साहित्य मे किया गया। आम को आम बताने की साजिश की गयी।
अगर ऐसा नहीं तो नई कविता की स्थापना के लिए तारसप्तक जैसा सघन प्रयास करने वाले अज्ञेय को अच्छा कवि मानने की जगह अच्छा लेखक मानने के लिए पाठकों को विवश नहीं किया जाता।
मुक्तिबोध को कविता के नए प्रतिमान जैसी पुस्तक लिखकर नई कविता का सर्वश्रेष्ठ कवि स्थापित करने की कोशिश नहीं की जाती। जबकि मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में लिखा है नई कविता उनकी है, जो मिस फिट है। जो न अंतः सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं न वाह्य सामंजस्य। नई कविता के सर्वश्रेष्ठ कवि की स्थापना में लिखी गयी कविता के नए प्रतिमान गजानन के मिसफिट होने का एक उपहार तो नहीं है। गजानन के असामंजस्यता को दर्शाने का प्रतीक तो नहीं है।
इसी तरह के साहित्यिक षड्यंत्रों का परिणाम था कि निराला की वह तोड़ती पत्थर जैसी कविता को प्रगतिशील कविता कह दिया गया। उस कविता में जिसमंे नितांत रूप से यथार्थवाद भरा हो। आत्मानुभूति हो उसे प्रगतिशीलता का नाम दिया गया।
एक ओर प्रगतिशील चेतना के लिए प्रतिबद्ध से देखने वाले समीक्षकों ने गोरख पाण्डेय को भारत भूषण पुरस्कार दिलाकर उनके तेवर का बोध कराया। वहीं रूस व समाजवादी देशों में समाजवाद के ढहते ही उसे निर्णायक मण्डल द्वारा अबकी बार प्रेम पत्र की सुविधा में चिंतित मन को पुरस्कार प्रदान किया गया। आखिर इतनी तेजी से यह परिवर्तन क्यों हो गया? वही मन जो गोबर से निकाले दाने को खाने का चित्रण करने के लिए आतुर था। वही प्रतिबद्धता जो वर्तमान के प्रति विद्रोही थी। वह अब प्रेम को खोजने के लिए उसी स्तर पर बेचैन क्यों है? जबकि प्रेम तो कई दृष्टियों, कई अनुभूतियों में जीने वाले कवि अज्ञेय को हिकारत की दृष्टि से देखा गया।
साहित्य में स्तर का मानदण्ड तैयार करने के लिए पुरस्कार गढे़ गये। पुरस्कारों का हश्र क्या है? कैसे मिलते हैं? यह तो साहित्य अकादमी द्वारा मिले पुरस्कारों में उर्दू के पुरस्कार से पता चल जाएगा। अभी तक जनवादी साहित्य में लिप्त क्रैमलिन प्रेरित लेखकों का वर्ग भारत की दरिद्रता, शोषण, गरीबी, उत्पीड़न को दर्शाने में व्यस्त था। वह कहां खो गया? दर्शान में भी इन लेखकों की अपनी प्रतिबद्धता थी। इनकी दृष्टि इतिहास भेदी है। तभी तो यह लोग चित्रण करते समय आजादी पूर्व नग्नता, संकट, शोषण व वर्गभेद देख लेते थे। इन्होंने आज तक नहीं माना कि सरकार या प्रगति का कोई सम्बन्ध है। ये लोग दिल्ली में बैठकर क्रैमलिन से बातें कर लेते थे। परंतु इन्हें हमेशा गांवोें की पगडंडियां याद आती थीं। पांच सितारा संस्कृति में रहकर भी यह हमारे नंगे भूखे बच्चों को नहीं भूले थे। क्रैमलिन के इशारे पर इन्होंने कई पुरस्कारों को भारतीय साहित्य में जनवाद भर रहे थे। क्योंकि कबीर ने क्या किया, तुलसी जन सामान्य रहे या नहीं। इससे इनका सम्बन्ध नहीं रहा। ये तो सिर्फ वर्तमान को वर्तमान, साहित्य को आधुनिक साहित्य को देखने के आदी रहे। आखिर पांच सितारा संस्कृति, एयर कंडीशन व क्रैमलिन में बैठकर भारत की भुखमरी, कंगाली एवं दुराचार देख लेते हैं। यह उनका इतिहास के प्रति बोध कम है क्या? दृष्टि पर जोर पड़ता है। अतएव साहित्य को इतिहास से देखने की कोशिश क्यों करें। साहित्य को इतिहास से काटने की कोशिश होनी चाहिए। क्योंकि यदि लोग जान गए कि आचार्य शुक्ल ने बरकले से प्रभावित होने के बाद भी नए समीक्षा सिद्धांतों पर भारतीय साहित्य देशी माटी को खूब रमाया था। तो क्रैमलिन के इशारे पर समीक्षा करने की प्रतिबद्धता की कलई नहीं खुल जाएगी क्या? इसीलिए अब साजिश हो रही है स्मृतियों से कटने की। इतिहास से अलग करने की?
इसीलिए वही वर्ग बौद्धिक चेतना से से संप्रक्त वही रैकेट, उत्तर आधुनिकता की बहस चला रहा है। उत्तर आधुनिकता के आधार पर आधुनिकता को विस्मृत करना चाहता है। वर्ना आधुनिकता के नाम पर उन्होंने जो किया, उसकी कलई खुल जाएगी। यह वर्ग परिभाषा तैयार किए बिना, मानदंड बनाए बिना, महज शब्द गढ़ता है। उसमे पाठकों व जिज्ञासुओं को फंसाए रखना चाहता है।
उनसे जब पूछा गया तो उत्तर आधुनिकता क्या है? तो बोले उत्तर आधुनिकता नहीं है वह और कुछ भी तो हो सकता है। मेरे पास पेन नही है। इससे यह अभिप्राय क्यों जुटाया जा रहा है कि सबके पास पेन है।
इस षडयंत्र से साहित्य को बचाने की जरूरत है। क्योंकि ये लोग उत्तर आधुनिकता की मुहिम ज्यादा दिन नहीं चला पायेंगे। क्योंकि अब कोई क्रैमलिन तैयार नहीं है। अपने पर संकट उठाकर भारतीय साहित्य में छेद, घुसपैठ करने की?
लोग हश्र देख चुके हैं। हमें तो डर है कि उत्तर आधुनिकता का मायावी स्वरूप जल्दी बिखर जाएगा। यह बालू के घरौंदे बनाने जैसा है। जब तक हाथ बालू के नीचे रहेगा, तब तक घरौंदा दिखेगा, परंतु हाथ हटाना ही पड़ेगा। परंतु हाथ तो बालू के नीचे रखने के लिए बना है। दूसरे कोई तैयार नहीं है। जो अब अपना हाथ बालू के नीचे रखे। कोई क्रैमलिन मठाधीश भी प्लास्टिक के हाथ अब नही भेजेगा। वह सहम गया है। भारतीय साहित्य का तेवर उसका स्थायित्व वह देख चुका है।
मास्को ने रूपये सिर्फ वामपंथी पार्टियों को ही नहीं दिये। वामपंथी समीक्षकों की दुकानें भी उन्हीं रूपये के अंशों से फलती फूलती व सजती हैं।
देश को देश की अर्थव्यवस्था बचाने के लिए विदेशी मुद्रा की आवश्यकता है। हमारी सरकार इसे आज समझी है। परंतु क्रैमलिन इसे बहुत पहले समझ गया था। उसने हमारे साहित्य में संेध मारने की कोशिश की, पर हम जो ठहरे सम्पन्न आर्थिक ऐतिहासिक धरोहर के धनी। हमारी विरासत बहुत प्रेरणाप्रद है। तभी तो भारत के प्रति विद्वेष करने वाले इकबाल को यह कहना पड़ा कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों से था ये दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा।
यह कहा ही नहीं, वरन पाक बंटने के बाद भी इकबाल उसे बदलने का साहस नहीं जुटा पाये। आज हम फिर उसी अपनी कविता को पा गये हैं, जिसे निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत, माचवे, विश्वनाथ तिवारी, रविन्द्र भ्रमर ने अपनी आत्मानुभूति, आत्म घटित से लिखा है। कोई प्रतिबद्धताएं उनके मन में छायावाद प्रगतिवाद, प्रयोगवाद के प्रति कभी नहीं रहीं। अपनी उस कविता अपने उस साहित्य को संजोने की जिम्मेदारी अब हमारी है। नहीं तो दुकानें खोलने, बौद्धिक खेमेबाजी करने का अभ्यास यह समीक्षक वर्ग उत्तरोत्तर आधुनिकता की बात में साहित्य को उलझा देगा। उत्तरोत्तर फिर उत्तर उत्तरोत्तर जैसे शब्द गढ़ देगा और अपनी साहित्यिक दुकान चलाता रहेगा।
हमारा समीक्षक पाश्चात्य देश से पाश्चात्य समीक्षकों से एवं अंग्रेजी से डरा रहता है। प्रभावित रहता है। उसी लबादे को वह हूबहू ओढ़ लेना चाहता है। तभी तो अंगे्रजी का रोमेटिज्म, प्रोग्रेसिज्म हमारे समीक्षा पद्धति में चार दशक बाद आए अब वह समीक्षक वर्ग निराश है। दिग्भ्रमित है। उत्तर आधुनिकता की बहस में उलझा कर वह अपने लिए अमरीका की मुंह किए खड़ा आश्रय खोज रहा है।
अमरीका भी फंसा है। राष्ट्रपति चुनाव हैं, नहीं तो वह यह अवसर नहीं चूकता। ये लोग अमरीकी न हो जाएं। क्रैमलिन का स्थान व्हाइट हाउस न ले ले इससे सचेत रहकर अपने माटी, अपने इतिहास, अपनी संस्कृति व अपने बोध के लिए उनसे संघष करना है। अपने साहित्य को बौद्धिक खेमेबाजी से बचाना है। अपने लेखकों की संवेदना को संजोकर रखने की महज जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। वर्ना राजनीतिज्ञ देश को, समाज को जाति, धर्म, भाषा के नाम पर भी साजिश करके जो नहीं कर पाए उसे यह वर्ग व्हाइट हाउस क्रैमलिन के आभासांे के तहत कर उठेगा। हम साहित्य में बंट गए तो फिर नहीं जुट पायेंगे। क्योंकि साहित्य संवेदना का परिणाम होता है।
संवेदनाओं का मरना उतना घातक नहीं है, जितना उनका बंट जाना। पंजाब बंटवारा तो फिलहाल रूक गया। जम्मू को तो सेना बचा लेगी। पर संवेदनाओं को, साहित्य को कौन रोकेगा? कौन बचाएगा?
उत्तर आधुनिकता उत्तरोत्तर आधुनिकता की मुहिम के खिलाफ खड़े होकर अपनी संस्कृति, साहित्य को जीवेम सरदः शतः बनाना है।