भारतीय प्रशासनिक सेवाओं का पर्चा एक बार फिर आउट हो गया। अबकी यह घटना दिल्ली में न घटकर इलाहाबाद में घटी। यानि रोग संक्रामक हो गया है, फैलने लगा है। वैसे हमारा उत्तर प्रदेश पर्चा आउट कराने में काफी दिनों से लगा है - सीपीएमटी व इंजीनियरिंग के पर्चे आउट कराने में तो हमें महारथ हासिल है। इसमें पर्चा आउट कराने और पर्चा क्रय करने वालों के हौंसले इतने बुलन्द हैं कि हर वर्ष फर्जी पर्चे बनाकर लाखों रुपये जुटा लेना आम बात है। फर्जी पर्चों से बचने के पीछे जो रणनीति अपनायी जाती है। वह है फर्जी पेपर बेचने वाले गिरोह का ही एक सदस्य मात्र बनकर अंतिम रात अखबारों में चला जाता है वहां उसे दिखाता है, अखबार नवीस ‘एक्सक्यूसिव’ समझ कर छाप देता है। फिर पर्चा अन्तिम समय में बदल दिया गया, जैसा आधारयुक्त तर्क देकर फर्जी पर्चे बेचने वाला खरीददार वर्ग को टाल देता है। वैसे यह तो वह वर्ग कर रहा है जो कहीं भी आधार नहीं रखता है लेकिन ऐसा नहीं कि यह घटना बार-बार हो रही हो। सचमुच पर्चे भी आउट होते हैं जिसमें अध्यापक, रजिस्टार की मिलीभगत होती है।
लोक सेवा आयोग के स्थान पर 1926 में स्थापित ‘संघ लोक सेवा आयोग’ इस दौड़ में पीछे क्यूं रहें? यह स्थिति तब है जबकि इसके सदस्यों की सेवा शर्ते राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित होती है। उसके वेतन भत्ते संचित निधि का भार होती है। वैसे तो राज्य कर्मचारियों के आचार नियम में सत्यनिष्ठा, सेवा में अनुशासन एवं राजनीति में निरपेक्षता जैसी संकल्पनाएं निर्धारित की गयी हैं जो एक मिथक है। आखिर इन नौकरियों के पर्चे आउट क्यों होते हैं ? गम्भीरता से सोचा जाय तो ‘शार्टकट संस्कृति’ इसके लिए उत्तरदायी है। ये पर्चे आम लोगों के लिए नहीं हाउट होते। उन्हीं लोगों के लिए होते हैं जो सत्यनिष्ठा, अनुशासन एवं राजनीति में निरपेक्षता जैसे आचार नियम से तथाकथित बंधे हैं।
इन नौकरियों में सुरक्षा है। इन नौकरियों को सेवाओं के स्तर पर नहीं ‘स्टेट्स सिंबल’ के स्तर पर स्वीकार किया जाने लगा है। इनमें अनन्त अधिकार की सम्भावनाएं सन्निहित हैं। प्रशासनिक अधिकारी हो जाइये बस। अब होने के लिए जो चाहिए उसे तो पूरा करना पड़ेगा। उसी को पूरा करने की परिणित है- यह पर्चा आउट कराने का क्रम। 1984 में इलाहाबाद के परीक्षा केन्द्र पर एक अभ्यर्थी की कापियां बाहर लिखने का आरोप लगा। कुछ अखबारों ने प्रशासनिक परीक्षा में जमा कापी व अभ्यर्थी की हस्तलिपि में अन्तर भी दिखाया। परिणाम हुआ वे प्रशासनिक अधिकारी हो गये जांच बैठायी गयी। जांच जारी है और वे प्रशासनिक अधिकारी ऊंचे ओहदे पर हैं फिर भी जांच में न्याय की आशा, कितना सम्भव है? जांच का परिणाम आ जाएगा और सभी लोग सम्मान से बरी कर दिये जायेंगे। इस नौकरी का इतना रुतवा हो गया है कि एक बार घुस भर जाइये फिर क्या जांच कोई आईएएस ही तो करेगा। वह सीनियर हो सकता है। फिर परिणाम तो स्वैच्कि ही होंगे।
गत वर्ष पेपर आउट हुआ इसे सरकार ने भी माना लेकिन क्या हुआ, किसी की मुअत्तली तक नहीं हुई। फिर पेपर आउट कराने की सजा पता है क्या होगा, कुछ नहीं। गत वर्ष सरकार ने निर्णय लिया कि जो घुस गये उन्हें निकाला नहीं जा सकता है और 33 वर्ष की उम्र सीमा निर्धारित कर आक्रोशित लोगों को एक अवसर भी दे दिया गया। रांची में प्रशासनिक सेवाओं के पेपर पते थे तीन साल लगातार पेपर पांच हजार रुपये में बिके यानी आईएएस होने के लिए पन्द्रह हजार रुपये से इक्कीस हजार रुपए मात्र चाहिए था। बिहार होने के नाते रेट इतना कम था।
अब तो इन नौकरियों के लिए एक दृष्टि बन गयी है। इस चक्रव्यूह में घुस जाइये फिर निकलने की जरूरत नहीं है। यह देश का सर्वाधिक चतुर वर्ग है तभी तो भाजपा सरकार में शाखा में जाने का प्रमाण पत्र इकट्ठा कर लेता है तथा सजपा व जद सरकार में घोर समाजवादी होने का। इतना ही नहीं, यह वर्ग इंका के जमाने में राजीव, इन्दिरा या राव समर्थक भी खुद को बखूबी सिद्ध कर लेता है। तभी तो आचार्य शुक्ल ने इन्हें ‘शासन सटक’ कहा है। यह वर्ग चक्रब्यूह के अभिमन्यु का हश्र देख चुका है। अगर अभिमन्यु इनकी तरह चक्रब्यूह में पड़ा रहता, बाहर निकलने की कोशिश नहीं करता तो मारा नहीं जाता अन्ततः अर्जुन आते ही। इसी तर्ज पर इस प्रशासनिक चक्रब्यूह में घुसने के लिए इन्होंने तमाम तैयारियां कर ली हैं। घुस भी जाते हैं या घुसपैठ कर लेते हैं और वहीं पड़े रहते हैं।
कई लोगों ने फर्जी आरक्षण प्रमाण पत्रों के आधार पर हरियाणा व अन्य प्रान्तों में भी इस नौकरी में घुसपैठ की। अभी भी है बदस्तूर जांच जारी है। इन सारे प्रमाणों के बाद भी इस वर्ष के पेपर आउट होने पर हमें खामोश हो जाना चाहिए था, पेपर फोटो स्टेट होने आये थे। लका परीक्षा हाल से परीक्षा समाप्त होने से पूर्व नहीं निकल सकता है पेपर आउट होने की आशंका रहती है। लेकिन पेपर इलेक्टोस्टेट हो सकता है क्योंकि इलेक्टोस्टेट होने का आदेश एक प्रशासनिक अधिकारी ने दिया था। प्रशासनिक अधिकारी कुछ भी कर सकता है फिर आदेश देना क्या है, कुछ नहीं। तभी तो बौद्धिक प्रधानमंत्री ने भी उसे जायज ठहराया, लड़कों को निराश नहीं होना चाहिए। आखिर पीएम भी तो इन्हीं अधिकारियों के चलते हैं। ये ही तो उनकी बौद्धिकता की स्थापना करते हैं फिर प्रशासनिक अधिकारी का आदेश अन्यायपूर्ण व अनौचित्यपूर्ण कैसे हो सकता है ?
यह समस्या बढ़ती जाएगी। इससे निजात मिलना मुश्किल है लेकिन अगर इस प्रशासनिक अधिकारियों के कारनामों पर सेना के कर्नल स्तर के किसी अधिकारी से जांच करायी जाय तो कुछ हल ढूंढ़ा जा सकता है। इसका विरोध यह वर्ग तो खूब करेगा लेकिन इसके पीछे यह तर्क जुटाया जा सकता है कि जब भी स्थितियां किसी शहर की, किसी प्रान्त की हद से बाहर हो जाती हैं, तो सेना बुलायी जाती है वह नियंत्रण में लाती है। फिर प्रशासनिक अधिकारियों की स्थितियाँ हद से बाहर गुजर जाये तो सेना को सौंपना क्यों नहीं चाहिए ? इससे हद पर नियंत्रण हो सकेगा, सीमा खींच सकेगी नहीं तो परम्परा बदस्तूर जारी रहेगी।
लोक सेवा आयोग के स्थान पर 1926 में स्थापित ‘संघ लोक सेवा आयोग’ इस दौड़ में पीछे क्यूं रहें? यह स्थिति तब है जबकि इसके सदस्यों की सेवा शर्ते राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित होती है। उसके वेतन भत्ते संचित निधि का भार होती है। वैसे तो राज्य कर्मचारियों के आचार नियम में सत्यनिष्ठा, सेवा में अनुशासन एवं राजनीति में निरपेक्षता जैसी संकल्पनाएं निर्धारित की गयी हैं जो एक मिथक है। आखिर इन नौकरियों के पर्चे आउट क्यों होते हैं ? गम्भीरता से सोचा जाय तो ‘शार्टकट संस्कृति’ इसके लिए उत्तरदायी है। ये पर्चे आम लोगों के लिए नहीं हाउट होते। उन्हीं लोगों के लिए होते हैं जो सत्यनिष्ठा, अनुशासन एवं राजनीति में निरपेक्षता जैसे आचार नियम से तथाकथित बंधे हैं।
इन नौकरियों में सुरक्षा है। इन नौकरियों को सेवाओं के स्तर पर नहीं ‘स्टेट्स सिंबल’ के स्तर पर स्वीकार किया जाने लगा है। इनमें अनन्त अधिकार की सम्भावनाएं सन्निहित हैं। प्रशासनिक अधिकारी हो जाइये बस। अब होने के लिए जो चाहिए उसे तो पूरा करना पड़ेगा। उसी को पूरा करने की परिणित है- यह पर्चा आउट कराने का क्रम। 1984 में इलाहाबाद के परीक्षा केन्द्र पर एक अभ्यर्थी की कापियां बाहर लिखने का आरोप लगा। कुछ अखबारों ने प्रशासनिक परीक्षा में जमा कापी व अभ्यर्थी की हस्तलिपि में अन्तर भी दिखाया। परिणाम हुआ वे प्रशासनिक अधिकारी हो गये जांच बैठायी गयी। जांच जारी है और वे प्रशासनिक अधिकारी ऊंचे ओहदे पर हैं फिर भी जांच में न्याय की आशा, कितना सम्भव है? जांच का परिणाम आ जाएगा और सभी लोग सम्मान से बरी कर दिये जायेंगे। इस नौकरी का इतना रुतवा हो गया है कि एक बार घुस भर जाइये फिर क्या जांच कोई आईएएस ही तो करेगा। वह सीनियर हो सकता है। फिर परिणाम तो स्वैच्कि ही होंगे।
गत वर्ष पेपर आउट हुआ इसे सरकार ने भी माना लेकिन क्या हुआ, किसी की मुअत्तली तक नहीं हुई। फिर पेपर आउट कराने की सजा पता है क्या होगा, कुछ नहीं। गत वर्ष सरकार ने निर्णय लिया कि जो घुस गये उन्हें निकाला नहीं जा सकता है और 33 वर्ष की उम्र सीमा निर्धारित कर आक्रोशित लोगों को एक अवसर भी दे दिया गया। रांची में प्रशासनिक सेवाओं के पेपर पते थे तीन साल लगातार पेपर पांच हजार रुपये में बिके यानी आईएएस होने के लिए पन्द्रह हजार रुपये से इक्कीस हजार रुपए मात्र चाहिए था। बिहार होने के नाते रेट इतना कम था।
अब तो इन नौकरियों के लिए एक दृष्टि बन गयी है। इस चक्रव्यूह में घुस जाइये फिर निकलने की जरूरत नहीं है। यह देश का सर्वाधिक चतुर वर्ग है तभी तो भाजपा सरकार में शाखा में जाने का प्रमाण पत्र इकट्ठा कर लेता है तथा सजपा व जद सरकार में घोर समाजवादी होने का। इतना ही नहीं, यह वर्ग इंका के जमाने में राजीव, इन्दिरा या राव समर्थक भी खुद को बखूबी सिद्ध कर लेता है। तभी तो आचार्य शुक्ल ने इन्हें ‘शासन सटक’ कहा है। यह वर्ग चक्रब्यूह के अभिमन्यु का हश्र देख चुका है। अगर अभिमन्यु इनकी तरह चक्रब्यूह में पड़ा रहता, बाहर निकलने की कोशिश नहीं करता तो मारा नहीं जाता अन्ततः अर्जुन आते ही। इसी तर्ज पर इस प्रशासनिक चक्रब्यूह में घुसने के लिए इन्होंने तमाम तैयारियां कर ली हैं। घुस भी जाते हैं या घुसपैठ कर लेते हैं और वहीं पड़े रहते हैं।
कई लोगों ने फर्जी आरक्षण प्रमाण पत्रों के आधार पर हरियाणा व अन्य प्रान्तों में भी इस नौकरी में घुसपैठ की। अभी भी है बदस्तूर जांच जारी है। इन सारे प्रमाणों के बाद भी इस वर्ष के पेपर आउट होने पर हमें खामोश हो जाना चाहिए था, पेपर फोटो स्टेट होने आये थे। लका परीक्षा हाल से परीक्षा समाप्त होने से पूर्व नहीं निकल सकता है पेपर आउट होने की आशंका रहती है। लेकिन पेपर इलेक्टोस्टेट हो सकता है क्योंकि इलेक्टोस्टेट होने का आदेश एक प्रशासनिक अधिकारी ने दिया था। प्रशासनिक अधिकारी कुछ भी कर सकता है फिर आदेश देना क्या है, कुछ नहीं। तभी तो बौद्धिक प्रधानमंत्री ने भी उसे जायज ठहराया, लड़कों को निराश नहीं होना चाहिए। आखिर पीएम भी तो इन्हीं अधिकारियों के चलते हैं। ये ही तो उनकी बौद्धिकता की स्थापना करते हैं फिर प्रशासनिक अधिकारी का आदेश अन्यायपूर्ण व अनौचित्यपूर्ण कैसे हो सकता है ?
यह समस्या बढ़ती जाएगी। इससे निजात मिलना मुश्किल है लेकिन अगर इस प्रशासनिक अधिकारियों के कारनामों पर सेना के कर्नल स्तर के किसी अधिकारी से जांच करायी जाय तो कुछ हल ढूंढ़ा जा सकता है। इसका विरोध यह वर्ग तो खूब करेगा लेकिन इसके पीछे यह तर्क जुटाया जा सकता है कि जब भी स्थितियां किसी शहर की, किसी प्रान्त की हद से बाहर हो जाती हैं, तो सेना बुलायी जाती है वह नियंत्रण में लाती है। फिर प्रशासनिक अधिकारियों की स्थितियाँ हद से बाहर गुजर जाये तो सेना को सौंपना क्यों नहीं चाहिए ? इससे हद पर नियंत्रण हो सकेगा, सीमा खींच सकेगी नहीं तो परम्परा बदस्तूर जारी रहेगी।