जन्म का जो सम्बन्ध मृत्यु से है। वही सम्बन्ध मिलन का विछोह से है। दोनों में कार्य कारण संबंध है। इसके आगे देखा जाये तो इसे एक क्रमागत घटना कहा जा सकता है। क्रमागत घटना कहने वाला वर्ग अनुभववादी है। विदाई का अनुभव से गहरा रिश्ता है। भारत के प्रथम नागरिक का विदाई समारोह सम्पन्न हो गया।
राष्ट्रपति पद को अलविदा करने की पूर्व संध्या राष्ट्रपति वेंकटरामण ने देश को स्वार्थपूर्ति के लिए मानवीय गुणों को तिलांजलि देने की बढ़ती प्रवृत्ति पर खेद व्यक्त किया। जबकि स्वार्थपूर्ति के लिए चन्द्रशेखर सरकार ने लोकतंत्र के साथ जो मजाक किया उसे चुपचाप गणतंत्र के प्रहरी और देश के प्रथम नागरिक होने के नाते देखते रहे ? मानवीय गुणों का जहां तक प्रश्न है पूरे पांच वर्षो के कार्यकाल में मानवता के लिये राष्ट्रपति भवन से कोई संदेश नहीं आया। वह चाहे आरक्षण में आत्मदाह कर रहे बच्चों के लिये हो। चाहे बोफोर्स के झूठे प्रचार में संलग्न नेताओं के लिए और यह मन्दिर-मस्जिद जैसे बातों पर साम्प्रदायिक हिंसात्मक प्रवृत्ति पर हो। कश्मीर, पंजाब पर भी राष्ट्रपति ने अपने नैतिक दायित्व तक का पालन नहीं किया वरन् एक रबर की मुहर बनकर आपकी निष्ठा दर्शाते रहे। धर्म के नाम पर विघटनकारी गतिविधियों से सचेत रहने के लिये आगाह करना और फिर मन्दिर-मस्जिद मुद्दे पर अध्यादेश लाना फिर वापस ले लेना मानवता एवं समाज के लिये कैसा था। खाद्यान्न की कमी पर नियन्त्रण पाने जैसे असत्य का उद्घोष किया गया जबकि अखबार भूख के कारण बच्चे बेचने और भूख से मर जाने जैसी खबरों से पटे रहते हैं। इतना ही नहीं, बिलियर्ड स्टार सतीश मोहन वाडीलाल ने भूख और प्यास से अहमदाबाद के साराभाई जनरल अस्पताल में दम तोड़ दिया जिसकी सूचना राष्ट्रपति के विदाई भाषण के चैथे दिन अखबारों में आ गयी। ऐसा नहीं कि सतीश मोहन की मृत्यु विदाई भाषण के चार दिनों में हो गयी। क्योंकि चार दिन में भूख से नहीं मरा जा सकता है। फिर खाद्यान्न की कमी पर नियन्त्रण का उद्घोष कितना सार्थक माना जाये। पूर्व राष्ट्रपति ने कृतज्ञता व्यक्त की। परन्तु पांच वर्ष के उसके शासन काल में उन्होंने ऐसा क्या किया कि जिससे 90 करोड़ भारतवासी अपने राष्ट्र के प्रथम नागरिक के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें ? एक ऐसे समय जब देश में विघटनकारी ताकतें बाहर और अन्दर दोनों तरफ से प्रभावकारी होकर भय व हिंसा का वातावरण बना रहीं हैं। अलगाववादी ताकतें विदेशी हाथों द्वारा संचालित हो रही हों फिर भी पूर्व राष्ट्रपति द्वारा भारत की असाधारण प्रगति के लिए देश की एकता और अखण्ता को श्रेय देना फिर यूरोप की भांति प्रत्येक भाषाई क्षेत्र को एक अलग देश बन जाने की बात उठना भले ही इस अलग देश की कल्पनाओं और संभावित खतरों से आगाह किया हो। यह देश के प्रति कृतज्ञता का बोध है। हमारे यहां संविधान ने भी गणतंत्र के प्रमुख के रूपों में जिस व्यक्ति की स्थापना की है वह एक ‘रबर स्टैम्प’ भर होकर रह जाता है। क्योंकि संविधान के अनुच्ेद 74 (1) में स्प किया गया है कि भारत का राष्ट्रपति अपने कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद के सलाह के अनुसार कर सकेगा। फिर प्रथम नागरिक अपने सोच, अपने कर्तव्यों के लिये मंत्रीपरिषद मुखापेक्षी बना रहता है। मंत्रीपरिषद अधिनायक व भ्र लोकतंत्र के माध्यम से निर्मित होती है। यही कारण है कि विदाई के समय भारत के प्रथम नागरिक को विदाई की संवेदना में सब कुछ कह जाना पता है। अपनी समस्त औपचारिकताओं से वह बाहर हो उठता है। अपने सारे विस्तृत दायित्व उसकी स्मृतियों में आ जाते है।
अभी नये राष्ट्रपति जो भरतीय संस्कृति व सभ्यता के वाहक बनने हैं, व दिखती भी हैं अपने राष्ट्रपति होने के बाद अपना अभिभाषण उन्होंने अंग्रेजी में देकर राष्ट्रभाषा के प्रति अपनी कृतज्ञता जतायी है। इस लक्षण के आधार पर उन्हें राष्ट्रमूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता है और यह राष्ट्रमूर्ति फिर पांच साल बाद विदाई की संवेदना में बह उठेगी राष्ट्रीय कृतज्ञता के प्रति। वैसे हमारी परम्परा रही है कि कम अभावों में भाव तथा अनुपस्थिति में उपस्थिति का मूल्यांकन करते हैं। हमारी परम्परा यह भी है कि हम स्वागत और विदाई दोनों रस्मों को एक सरीखा निभाते हैं। विदाई के समय शिकवे गिले भुला कर शेष बचे जीवन के लिये समानता जैसा भाव स्वीकार करते है। विदाई समारोह में सब लोग अपनी-अपनी बातों को प्रशंसा में तबदील कर देते हैं। गत दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एक अध्यापिका की सेवानिवृति हुयी। विदाई समारोह आयोजित हुआ। सारे लोग अपनी-अपनी शुभकामनाएं शेष बचे जीवन के लिये दे रहे थे। उन्होंने उस अध्यापिका से अपने 30 वर्ष से सुस्त पड़े पे्रम का इजहार कर ही डाला। उन्होंने अध्यापिका के छात्र जीवन से स्वयं उनका प्रशंसक व पे्रमी स्वीकार किया। विदाई समारोह गम्भीर हो उठा। अध्यापिका भी होशियार थीं उन्होंने अपने विदाई भाषण में बोलते समय- ’काश’ आपने पहले बताया होता, कह कर उन्हें सकते में डाल दिया। ’अध्यापक महोदय सकपका गये। उन्हें लगा कि कुछ भी हो जाने की सम्भावना पर मेरे मौन ने पानी फेर दिया। खैर आज वो यही सोच कर खुश हैं ‘काश’ पहले बताया होता। यानि देर की स्वीकृत भी हमारे संतोष के कारण हो सकती है।
इस घटना पर गौर करते तो हम पांच साल बाद भी भारत के राष्ट्रपति के कृतज्ञता, विदाई भाषण कर संवेदना और राष्ट्र के प्रति कुछ कर न पाने क¢ क्षोभ को भुला देना चाहिए। यह मान लेना चाहिये कि अब आगे होगा। लेकिन भारत गत आठ बार से अपने राष्ट्रपति की इस संवेदना का शिकार हो रहा है। उनके मौन और संविधान निष्टा का तार जार-जार होता जा रहा है।
भारत का राष्ट्रपति अपनी उपस्थिति अपनी संज्ञा के कारण ही जता पाने में समर्थ हो पाता है। उसका विशेषण या तो समाप्त हो जाता है या पद पर बने रहने की उसकी मंशा में दफन हो जाती है उसकी विशेषता। भारत के प्रथम नागरिक की श्रंृखला में एक-दो को छोड़कर किसी ने भी राष्ट्र की, राष्ट्रीय समस्या को, राष्ट्रीय गौरव को कुछ ऐसा नहीं दिया है, जिससे राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्य का बोध हो सके। राष्ट्र को महज कृतज्ञता नहीं चाहिए। नागरिकों का महज औपचारिकता से मन भर उठा है। उन्हें चाहिए अपने आस-पास एक सभ्य सुसंस्कृति परिवेश जिसके निर्माण से राष्ट्रपति भवन वंचित रहा है। जाना एक चिरंतन चलाने वाली प्रक्रिया है पर कुछ देकर जाना है उपलब्धि है।
विदाई के समय संवेदना ही ं काम नहीं चलेगा। अब जरूरत है, प्रसन्न्तापूर्वक विदाई की। यही ही ं पाथेय होगी। गत दिनों गोण रेलवे स्टेशन पर जब हम लोगों की ट्रेन रूकी तो बाजे के शोर से स्टेशन गूंज उठा। पता लगाने पर पता चला कि रेल डाक सेवा का, एक कर्मचारी विगत सहायक (सार्टिंग असिस्टेंट) के पद से अभी-अभी सेवामुक्त हुआ था। धोती कुर्ता पहने गले में माला सहित चेहरे पर अतिरिक्त उत्साह के साथ बगल में रामचरित मानस की एक प्रति दबाये वह अपने परिवार पथ की ओर बढ़ा जा रहा था। पूछने पर पता लगा कि उनक¢ यहां यह नियम है। वे सेवानिवृति पर रामचरित मानस देकर विदा करते हैं, जिससे वह धर्म संलग्न रहे। परम्परा बेहद पसन्द आई क्योंकि वह कुछ लेकर गया और देगा भी धर्म का परिवेश। उसने दिया भी कर्म की परम्परा। लेकिन राष्ट्रपति पद से जो भी जाता है, वह लेकर ही जाता है। देने की परम्परा डालनी होगी। जिससे कृतज्ञता एक पक्षीय न रह जाये।
राष्ट्रपति पद को अलविदा करने की पूर्व संध्या राष्ट्रपति वेंकटरामण ने देश को स्वार्थपूर्ति के लिए मानवीय गुणों को तिलांजलि देने की बढ़ती प्रवृत्ति पर खेद व्यक्त किया। जबकि स्वार्थपूर्ति के लिए चन्द्रशेखर सरकार ने लोकतंत्र के साथ जो मजाक किया उसे चुपचाप गणतंत्र के प्रहरी और देश के प्रथम नागरिक होने के नाते देखते रहे ? मानवीय गुणों का जहां तक प्रश्न है पूरे पांच वर्षो के कार्यकाल में मानवता के लिये राष्ट्रपति भवन से कोई संदेश नहीं आया। वह चाहे आरक्षण में आत्मदाह कर रहे बच्चों के लिये हो। चाहे बोफोर्स के झूठे प्रचार में संलग्न नेताओं के लिए और यह मन्दिर-मस्जिद जैसे बातों पर साम्प्रदायिक हिंसात्मक प्रवृत्ति पर हो। कश्मीर, पंजाब पर भी राष्ट्रपति ने अपने नैतिक दायित्व तक का पालन नहीं किया वरन् एक रबर की मुहर बनकर आपकी निष्ठा दर्शाते रहे। धर्म के नाम पर विघटनकारी गतिविधियों से सचेत रहने के लिये आगाह करना और फिर मन्दिर-मस्जिद मुद्दे पर अध्यादेश लाना फिर वापस ले लेना मानवता एवं समाज के लिये कैसा था। खाद्यान्न की कमी पर नियन्त्रण पाने जैसे असत्य का उद्घोष किया गया जबकि अखबार भूख के कारण बच्चे बेचने और भूख से मर जाने जैसी खबरों से पटे रहते हैं। इतना ही नहीं, बिलियर्ड स्टार सतीश मोहन वाडीलाल ने भूख और प्यास से अहमदाबाद के साराभाई जनरल अस्पताल में दम तोड़ दिया जिसकी सूचना राष्ट्रपति के विदाई भाषण के चैथे दिन अखबारों में आ गयी। ऐसा नहीं कि सतीश मोहन की मृत्यु विदाई भाषण के चार दिनों में हो गयी। क्योंकि चार दिन में भूख से नहीं मरा जा सकता है। फिर खाद्यान्न की कमी पर नियन्त्रण का उद्घोष कितना सार्थक माना जाये। पूर्व राष्ट्रपति ने कृतज्ञता व्यक्त की। परन्तु पांच वर्ष के उसके शासन काल में उन्होंने ऐसा क्या किया कि जिससे 90 करोड़ भारतवासी अपने राष्ट्र के प्रथम नागरिक के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें ? एक ऐसे समय जब देश में विघटनकारी ताकतें बाहर और अन्दर दोनों तरफ से प्रभावकारी होकर भय व हिंसा का वातावरण बना रहीं हैं। अलगाववादी ताकतें विदेशी हाथों द्वारा संचालित हो रही हों फिर भी पूर्व राष्ट्रपति द्वारा भारत की असाधारण प्रगति के लिए देश की एकता और अखण्ता को श्रेय देना फिर यूरोप की भांति प्रत्येक भाषाई क्षेत्र को एक अलग देश बन जाने की बात उठना भले ही इस अलग देश की कल्पनाओं और संभावित खतरों से आगाह किया हो। यह देश के प्रति कृतज्ञता का बोध है। हमारे यहां संविधान ने भी गणतंत्र के प्रमुख के रूपों में जिस व्यक्ति की स्थापना की है वह एक ‘रबर स्टैम्प’ भर होकर रह जाता है। क्योंकि संविधान के अनुच्ेद 74 (1) में स्प किया गया है कि भारत का राष्ट्रपति अपने कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद के सलाह के अनुसार कर सकेगा। फिर प्रथम नागरिक अपने सोच, अपने कर्तव्यों के लिये मंत्रीपरिषद मुखापेक्षी बना रहता है। मंत्रीपरिषद अधिनायक व भ्र लोकतंत्र के माध्यम से निर्मित होती है। यही कारण है कि विदाई के समय भारत के प्रथम नागरिक को विदाई की संवेदना में सब कुछ कह जाना पता है। अपनी समस्त औपचारिकताओं से वह बाहर हो उठता है। अपने सारे विस्तृत दायित्व उसकी स्मृतियों में आ जाते है।
अभी नये राष्ट्रपति जो भरतीय संस्कृति व सभ्यता के वाहक बनने हैं, व दिखती भी हैं अपने राष्ट्रपति होने के बाद अपना अभिभाषण उन्होंने अंग्रेजी में देकर राष्ट्रभाषा के प्रति अपनी कृतज्ञता जतायी है। इस लक्षण के आधार पर उन्हें राष्ट्रमूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता है और यह राष्ट्रमूर्ति फिर पांच साल बाद विदाई की संवेदना में बह उठेगी राष्ट्रीय कृतज्ञता के प्रति। वैसे हमारी परम्परा रही है कि कम अभावों में भाव तथा अनुपस्थिति में उपस्थिति का मूल्यांकन करते हैं। हमारी परम्परा यह भी है कि हम स्वागत और विदाई दोनों रस्मों को एक सरीखा निभाते हैं। विदाई के समय शिकवे गिले भुला कर शेष बचे जीवन के लिये समानता जैसा भाव स्वीकार करते है। विदाई समारोह में सब लोग अपनी-अपनी बातों को प्रशंसा में तबदील कर देते हैं। गत दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एक अध्यापिका की सेवानिवृति हुयी। विदाई समारोह आयोजित हुआ। सारे लोग अपनी-अपनी शुभकामनाएं शेष बचे जीवन के लिये दे रहे थे। उन्होंने उस अध्यापिका से अपने 30 वर्ष से सुस्त पड़े पे्रम का इजहार कर ही डाला। उन्होंने अध्यापिका के छात्र जीवन से स्वयं उनका प्रशंसक व पे्रमी स्वीकार किया। विदाई समारोह गम्भीर हो उठा। अध्यापिका भी होशियार थीं उन्होंने अपने विदाई भाषण में बोलते समय- ’काश’ आपने पहले बताया होता, कह कर उन्हें सकते में डाल दिया। ’अध्यापक महोदय सकपका गये। उन्हें लगा कि कुछ भी हो जाने की सम्भावना पर मेरे मौन ने पानी फेर दिया। खैर आज वो यही सोच कर खुश हैं ‘काश’ पहले बताया होता। यानि देर की स्वीकृत भी हमारे संतोष के कारण हो सकती है।
इस घटना पर गौर करते तो हम पांच साल बाद भी भारत के राष्ट्रपति के कृतज्ञता, विदाई भाषण कर संवेदना और राष्ट्र के प्रति कुछ कर न पाने क¢ क्षोभ को भुला देना चाहिए। यह मान लेना चाहिये कि अब आगे होगा। लेकिन भारत गत आठ बार से अपने राष्ट्रपति की इस संवेदना का शिकार हो रहा है। उनके मौन और संविधान निष्टा का तार जार-जार होता जा रहा है।
भारत का राष्ट्रपति अपनी उपस्थिति अपनी संज्ञा के कारण ही जता पाने में समर्थ हो पाता है। उसका विशेषण या तो समाप्त हो जाता है या पद पर बने रहने की उसकी मंशा में दफन हो जाती है उसकी विशेषता। भारत के प्रथम नागरिक की श्रंृखला में एक-दो को छोड़कर किसी ने भी राष्ट्र की, राष्ट्रीय समस्या को, राष्ट्रीय गौरव को कुछ ऐसा नहीं दिया है, जिससे राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्य का बोध हो सके। राष्ट्र को महज कृतज्ञता नहीं चाहिए। नागरिकों का महज औपचारिकता से मन भर उठा है। उन्हें चाहिए अपने आस-पास एक सभ्य सुसंस्कृति परिवेश जिसके निर्माण से राष्ट्रपति भवन वंचित रहा है। जाना एक चिरंतन चलाने वाली प्रक्रिया है पर कुछ देकर जाना है उपलब्धि है।
विदाई के समय संवेदना ही ं काम नहीं चलेगा। अब जरूरत है, प्रसन्न्तापूर्वक विदाई की। यही ही ं पाथेय होगी। गत दिनों गोण रेलवे स्टेशन पर जब हम लोगों की ट्रेन रूकी तो बाजे के शोर से स्टेशन गूंज उठा। पता लगाने पर पता चला कि रेल डाक सेवा का, एक कर्मचारी विगत सहायक (सार्टिंग असिस्टेंट) के पद से अभी-अभी सेवामुक्त हुआ था। धोती कुर्ता पहने गले में माला सहित चेहरे पर अतिरिक्त उत्साह के साथ बगल में रामचरित मानस की एक प्रति दबाये वह अपने परिवार पथ की ओर बढ़ा जा रहा था। पूछने पर पता लगा कि उनक¢ यहां यह नियम है। वे सेवानिवृति पर रामचरित मानस देकर विदा करते हैं, जिससे वह धर्म संलग्न रहे। परम्परा बेहद पसन्द आई क्योंकि वह कुछ लेकर गया और देगा भी धर्म का परिवेश। उसने दिया भी कर्म की परम्परा। लेकिन राष्ट्रपति पद से जो भी जाता है, वह लेकर ही जाता है। देने की परम्परा डालनी होगी। जिससे कृतज्ञता एक पक्षीय न रह जाये।