बार्सिलोना से लौटा शून्य

Update:1992-08-09 12:25 IST
ओलम्पिक पदक तालिका में भारत का खाता नहीं खुल सका। खेल प्रेमियों के लिए यह निराशा का विषय जरूर है। लेकिन इसके आधार पर भारतीय खिलाड़ियों की प्रतिभा पर सवालिया निशान नहीं लगाना चाहिए। खेल प्रेमियों को एक परेशानी जरूर हुई होगी कि बार-बार पदक तालिका देखते-देखते वो थक गए होंगे। उन्हें आशा-निराशा और संभावना के मध्य कई बार जीना पड़ा होगा। लेकिन ऐसा भारत के साथ सभी क्षेत्रों में होता है। यह कुछ नया नहीं है। यह भारत की नियति है।
बार्सिलोना के 25वें ओलम्पिक में भारत से अधिकारियों सहित 84 सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल गया था, जिसमें भारत को 25 स्पर्धाओं में से 12 स्पर्धाओं में भाग लेना था, जिसमें एथलेटिक्स, बैडमिण्टन, मुक्केबाजी, जूडो, निशानेबाजी, टेबिल टेनिस, टेनिस, भारत्तोलन, नौकायन, कुश्ती, तीरंदाजी और हाॅकी स्पर्धाएं थीं। 1920 से लगातार हो रहे ओलम्पिक खेलों में एथलेटिक्स में हम कभी कोई खाता नहीं खोल पाए। उपलब्धियों के नाम पर हमने कुछ किया है तो 1960 में मिल्खा सिंह का 400 मीटर दौड़ में तीन खिलाड़ियों के साथ विश्व रिकार्ड तोड़ना। लाॅस एंजिल्स ओलम्पिक में पीटी ऊषा का कांस्य पदक से सेकेण्ड के सौंवे हिस्से से वंचित रह जाना ही उपलब्धि है। इस बार भी हमें एथलेटिक्स में सिर्फ दो खिलाड़ी बहादुर प्रसाद (5000 मीटर की लम्बी दूरी) और साइनी विल्सन (800 मीटर मध्य दूरी) में नाम दर्ज कराने के लिए भेजा था। जिससे कुछ आशा नहीं की जा सकती थी। क्योंकि इंग्लैण्ड के हैरी विल्सन जो लंबी और मध्य दूरी के प्रशिक्षक हैं। उन्होंने 1989 में भारतीय एथलेटिक्स को प्रशिक्षण देते हुए बताया था कि हमारे प्रशिक्षक तकनीकी रूप से सक्षम नहीं हैं। इसलिए भारतीय एथलेटिक्स से किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शन की आशा करना बेमानी होगी। टेनिस में अमृतराज बंधु कभी भी भारत के लिए कुछ अंतर्राष्ट्रीय सम्मान नहीं जुटा पाए। फिर ओलम्पिक जैसे महाकुंभ में उनकी आशा करना बेहतर नहीं था। बैडमिंटन, जूडो, मुक्केबाजी, भारोत्तोलन, निशानेबाजी में अपने खिलाड़ियों को भेजकर हम अपनी खेल प्रतिभाओं को विश्व प्रतियोगिता की धारा और प्रवाह से अवगत कराते हैं ताकि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बनाने की होड़ में उपस्थित रखा जा सके। हमारी अनुपस्थिति में कोई आस्था नहीं है।
बार्सिलोना में जिन प्रतियोगिताओं में पदक की आशा की जा रही थी, उनमें हमारा मुक्केबाजी का दल भी है, जिसे एशिया में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मनीला के मयूर कप में इनके प्रदर्शन ने कुछ आशा जगाई थी पर छठवें स्थान पर संतोष करना पड़ा।
तीरंदाजी में हमारी संभावनाएं लिम्बाराम से थीं। क्योंकि इन्होंने पेइचिंग ने चीनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता 92 के अंतर्गत 30 मीटर मुकाबले में अंतर्राष्ट्रीय मुकाबले की बराबरी की थी। पर लिम्बाराम भी उस बराबरी को दुहरा नहीं पाये। लिम्बाराम वैसे भी विश्व के आठ तीरंदाजों में रहे हैं। जिसे उन्होंने ओलम्पिक में भी बरकरार रखा।
पप्पू यादव, लिम्बाराम ने कुछ समय तक भारत की आशा बंधाए रखा। हाॅकी की टीम ने तो प्रदर्शन मैच में ही बुरी तरह निराश किया। हाॅकी में ओलम्पिक खेलों में भारत को पहली बार 1928 में स्वर्ण पदक मिला, जो 1960 तक बरकरार रहा। 1964 में भारत ने टोकियो ओलम्पिक में पुनः उस खोए पदक को हासिल कर लिया। लेकिन 1976 में जब से हाॅकी के मैदान को एस्ट्रोटर्फ में बदल दिया गया, तब से भारत की हार का सिलसिला चल उठा। भारत की दौड़ वहीं समाप्त हो गयी। भारत सातवें स्थान पर रहा। क्योंकि इस एस्ट्रोटर्फ पर ड्रिल करने की कलात्मक भारतीय शैली बेकार हो गयी। वैसे 1980 में माॅस्को ओलम्पिक में दिग्गज टीमों की अनुपस्थिति में हमने स्वर्ण जीत लिया था। वैसे भी परगट सिंह ब्रिटेन के मैच के पहले ही कर्ली की उपस्थिति के कारण अपनी हार यह कहकर स्वीकार कर ली थी कि डी मे कर्ली को रोक पाना असंभव है। फिर भारतीय टीम के प्रति आक्रोश व निराशा नहीं उपजनी चाहिए।
टीम ने संतोषजनक और अपेक्षित प्रदर्शन किया। किसी भी खिलाड़ी ने अपने राष्ट्रीय व पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने अपने पुराने रिकार्डों की बराबरी की है। जहां एक ओर बांस के सहारे आकाश छूने को उद्यत सरगेई, बुबका का एथलेटिक्स में जैकी जायरन कर्सी हों वहां भारतीय खिलाड़ियों की क्या बिसात ठहरती है।
जय और पराजय उपलब्धि और अनुपलब्धि ये ही जीवन के दो पक्ष हैं। सियोल ओलम्पिक में धड़कनों के धावक कार्ल लुइस क्वालीफाइंग नहीं कर पाये। इतना ही नहीं 1983, 1987 व 1991 में 110 मीटर की बाधा दौड़ की विश्व चैम्पियनशिप जीतने वाले अमरीका के ग्रेम फास्टर ओलम्पिक में प्रवेश नहीं पा सके। लाॅस एंजिल्स के चैम्पियन रोजस किंगडम भी तो बार्सिलोना जाने से चूक गए। मेरी डेकर स्लेनी और जोलाबड भी बीती कहानी बन गयी। दोनों का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। रूस के हैमर थ्रोअरयूरी से दिख जो 1976, 1980 के ओलम्पिक मंे स्वर्ण हथिया चुके हैंै। गत वर्ष विश्व चैम्पियनशिप जीती थी, वो तैयारी खेलों से ही बाहर हो गये।
हमारे खिलाड़ियों ने भारत की परम्परा को जीवित रखा है। भारतीयता को बरकरार रखा। यही क्या कम है कि हमारे खिलाड़ी से इस महाकुंभ में भौतिकवादी नहीं हो गये। उन्होंने अपनी नैतिकता बरकरार रखी।  ही ंतो क्रेट्रिन क्रेब, ग्रिट बुअर, सिल्के मोएलर, बेन जाॅनसन, बुच रेनाल्ड्स की तरह आरोपों के शिकार हो सकते थे।
एक ऐसे देश में जहां पंचवर्षीय योजना में खेल बजट मात्र 350 करोड़ का है। (जो आठवीं योजना में है)। यानी 40 करोड़ सालाना उस देश की तुलना कोरिया व चीन जैसे देशांे से की जाय, जहां खेलों पर एक हजार करोड़ रूपया खर्च होता है। इतना ही नहीं, यूरोपीय देश तो अपने पूरे बजट का दस प्रतिशत तो खेलों के लिए ही रखते हैं।
खेलों की दुनिया मंे ओलम्पिक एक मात्र ऐसा कुंभ है जो खिलाड़ियों को भौतिक महत्वाकांक्षाओं एवं उपलब्धियों की सीमाएं लांघने की प्रेरणा देता है।
अब हमारी टीम वापस आ गई है। उसमें भी निराशा और जड़ता होगी। पदक न प्राप्त करने की रिक्तता होगी। अभाव होगा। हम खेल पे्रमी हैं। तब तो हम में खेल के प्रति इतनी प्रतिक्रिया है। टीम के सदस्यों में तो खेल के प्रति प्रेम भी है। समपर्ण भी। खैर शून्य के साथ हमारी टीम वापस है। शून्य का अपना दार्शनिक महत्व है। शून्य भारत ने ही दिया था। कांस्य से बेहतर है शून्य। अब आशा है हम लोग शून्य को फिर भरने की कोशिश में संलग्न हो जायेंगे। यह शून्य हमेशा हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं ने भरा है। अब फिर अगले ओलम्पिक तक के लिए शून्य भरने में संलग्न होकर कुछ कर दिखाना है। हौसला अफजाई करना है खिलाड़ियों का और खेल प्रेमियों का भी।

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