किसका भारत छोड़ो...

Update:1992-08-20 16:19 IST
पिछली इंका सरकार ने स्वतंत्रता का चालीसवंा मनाया था। आज हमारे यहां भारत छोड़ो आंदोलन’ की स्वर्ण जयंती का जोर है। 9 अगस्त को हमारे प्रधानमंत्री ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की स्वर्ण जयंती का आरंभ बड़े जोष-खरोष से किया। लगा कि फिर वो एक बार स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े हैं। माइक तक गिर गया। लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि ये वही मंत्रिमंडल है जिसमें सारे के  सारे मंत्री षेयर घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को अलग नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री तक चंद्रास्वामी जैसे व्यक्ति का षिष्य होने की बात स्वीकार कर चुके  हैं। कुछ दिनों पूर्व एक राष्ट्रीय दैनिक ने राष्ट्रगीत व राष्ट्रगान जानने वाले नेताआंे का एक सर्वे किया था, जिसमें आजादी की लड़ाई लड़े , आजादी के  समय जन्में पले नेताओं की भी धारणाएं थी सिर्फ 5 प्रतिषत लोगों को यह पता था। आज इसी तर्ज पर ‘भारत छोड़ो’ का पुनः श्री गणेष किया गया है। इस उत्सव में षरीक सत्ताधारी नेताओं को स्वयं से पूछना चाहिए कि वो कितने स्वतत्रंता संग्राम सेनानियों के  बारे में जानते हैं। विस्तार से षायद अपने बारे में छोड़कर किसी के  बारे में नहीं। (अगर वे आजादी की लड़ाई लड़े हैं तो)।
इतना बड़ा आयोजन सिर्फ सत्ता में बैठे नेताओं के  लिए, सत्ता के  लिए स्वतंत्रता सेनानी के  लिए ही हो रहा है।  विपक्ष क्या स्वतंत्रता की लड़ाई लड़े नेताओं से षून्य हो गया है ? विपक्ष में ‘भारत छोड़ो’ महोत्सव के  पीछे कोई उत्साह नहीं नजर आ रहा है क्यों ?
सीधा सा उत्तर है यह कांग्रेस की सरकार का, सरकारी मीडिया का दुरुपयोग किया जा रहा है। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के  खिलाफ जंगे आजादी में अपनी कुर्बानी दी, कुछ बच गए। अंग्रेज भारतवासियों का षोषण करते थे, उनके  साथ अन्याय करते थे। इसलिए उनके  खिलाफ लड़ा गया। हमारा सेनानी विकासहीन था लेकिन यह क्या ये राजनेता जो भी सत्ता में हों या उन्होंने देष का, देष की जनता का षोषण अंग्रेजों से ज्यादा किया, कर रहे हैं। लेकिन कोई भी स्वतंत्रता, सेनानी इनकी पेंषन राषि लेना बंद नहीं कर रहा है। जबकि ये रुपए उससे ज्यादा षोषण के  हैं। जनता का ज्याद हिस्सा मारा जा रहा है। सेनानियों की लड़ाई नहीं सुतंज का जेहाद छोड़ा था, जो मिल गया। स्वतंत्रता आई होती तो आईपीसी, षिक्षा नीति, आर्थिक नीति, आदि सभी बदल गया होता। फिर सुतंज वाले लोगों द्वारा ‘भारत छोड़ो’ की स्वर्ण जयंती क्यों ?
भारत समस्याओं और प्रष्नों से भरा है। लेकिन और आष्चर्य है कि हमारे राजनीतिज्ञों के  पास उत्तरों का अभाव नहीं है। प्रष्नों से ज्यादा उत्तर हैं, हमारे देष में। ये सारे के  सारे समाधान मरे हुए हैं, ‘एक्सपायरी’ हो गए हैं। लेकिन समस्याएं जिंदा हैं। एकदम जिंदा, जीवंत। यानि मरे समाधान जीवित समस्याएं। फिर मरे और जीवित के  मध्य बातचीत कैसे हो सकती है ? हमारे षास्त्रों में सब कुछ भरा पड़ा है। सारी समस्याओं का हल है उनमें, इसी भ्रम में हम जिए जा रहे हैं। जबकि हमारी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। उत्तर हमारे पुराने हैं प्रष्न नए। कोई तालमेल नहीं बैठ रहा है। फिर भी हमें उत्तरों की आषा है ? पुराने उत्तर काम नहीं दे रहे हैं फिर भी हम देषवासियों को उन्हीं उत्तरों में से समाधान दे रहे हैं। जैसे गणित का कोई कमजोर छात्र किताब में दिए गए उत्तर पलट कर लिख दे रहा हो, हां यहां हमारी समस्याओं के  लिए महज उत्तर की नहीं बस विधि की आवष्यकता है। प्रासेस भी जरूरी है। देष में समस्याओं के  प्रति उत्तरों का दृष्टिकोण बदलता होगा। देष के  नेताओं को ‘प्रासेस-मैथड’ पर भी ध्यान देना होगा।
‘भारत छोड़ो’ का नारा देने वाले ये आज अति उत्साही दिखने वाले स्वतंत्रता सेनानी की पीढ़ी के  नेताओं को अभी भी जनता से, लोगों से यह आषा है कि उसे पहले जैसा सम्मान मिले, आखिर क्यों ? गुरू को, पिता को पहले जैसा सम्मान नहीं मिल रहा है ? फिर इन नेताओं को क्यों ? इन्होंने तो अपने आसपास ढेर सारा कीचड़ फैला रखा है घोटालों का, रिष्वत का, नैतिक पतन का और कमल खिलेगा जैसा आष्वासन हमारी भोली जनता को बंाट रहे हैं। बीस। पंद्रह वर्षों में पीढ़ियां बदल जाया करती हैं। राजनीति के  षीर्ष पर अभी भी चार-साढ़े चार पीढ़ियों के  आगे के  लोग ही हैं। फिर इन से नए समस्याओं के  समाधन के  उत्तर हैं वो समाधान करने के  षीर्ष पर हैं। फिर ‘एक्सपायरी-आउट-डेटेड’ लोगों से बेहतरी की आषा अब छोड़ दिया जाना चाहिए। अब वो कभी स्वतंत्रता दिवस की चालीसवां मनाएंगे। कभी भारत छोड़ो का पचासवां। उनके  पास तो कुछ है ही नहीं अब वो इतिहास के  साथ जुड़कर-चिपककर इतिहास हो जाने के  लिए आतुर हैं। कोई हिंदू धर्म को श्रेष्ठ इतिहास होना चाहता है। कोई स्वदेषी, कोई भारत छोड़ो के  साथ। लेकिन ये सभी लोग मरे उत्तरों से हमारा रिष्ता बरकरार रखना चाहते हंै और स्वयं समाधानों के  अहं में जीने के  आदी हो गए हैं।
ये राजनीतिज्ञ ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई’ के  प्रबल समर्थक हैं। परंतु षायद इन्हें यह नहीं मालुम कि जब दो भाई पक्के भाई हों, लड़ें और लड़ने के  बाद कोई तार्किक निष्कर्ष ना आए तो एक ही हल होता है बंटवारा। लेकिन हमारा नेता हमें मरे उत्तरों से संतुष्ट कर रहा है-‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई फिर ये दंगा क्यों’ वो यह नहीं बताने को तैयार हैं कि जब दो भाई लड़ते हैं तो सबसे खतरनाक ढंग से लड़ते हैं फिर दंगा का नाम क्यों ? क्योंकि यहां उत्तर है उनके  पास। यही कारण है कि सांप्रदायिकता का जहर समाप्त नहीं होगा।
एक और गंभीर प्रष्न हमारे सामने आता है इन सारे राष्ट्रीय महोत्सव में सत्ता ही क्यों षरीक रहती है ? और सत्ता के  बाहर के  लोग जो षामिल भी होते हैं उनमें समर्पण नहीं विद्रोह का तेवर ही होता है। प्रदेष की इंका पार्टी के  एकमात्र राष्ट्रीय छवि वाले नेता नारायण दत्त वितारी ने इलाहाबाद से ‘भारत छोड़ो आंदालन’ का प्रारंभ किया और कह बैठे ‘षहीदों ने जिस भारत की कल्पना की वह कभी नहीं बना।’ आखिर क्यों ? उनकी पार्टी कांग्रेस 40 वर्षों से लगातार षासन में है। वो भी महत्वपूर्ण पदों पर हैं। केंद्र में उनकी स्थिति चाहे जो रही हो, प्रदेष में तीन बार मुख्यमंत्री रहे चाहते तो, षहीदों की कल्पना को साकार कर सकते थे, परंतु नहीं किया। क्योंकि उन्हें भारत छोड़ो की प्रतीक्षा थी। अब पूरा आंदोलन, पूरा महोत्सव कुर्सी छोड़ो की ओर मुड़ रहा है। सुतंज की चाहत फिर सर उठा रही है। बहाना है ‘भारत छोड़ो’। ये नेता यह उत्तर देने को तैयार नहीं हैं कि भारत के  षहीदों के  सपनों का भारत क्यों नहीं बना सके । ये अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारने को तैयार नहीं है क्योंकि फिर यह बंद हो जाएगा कि ‘देष का नेता कैसा हो... जैसा हो’ ‘... तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हंै।’
कितने विवाद का विषय है कि ‘भारत छोड़ो महोत्सव’ पर भी देष के  नेता की कल्पना कुर्सी पर बैठे या कुर्सी पर रहे नेता से की जाए। षहीदों का नाम न लिया जाए। जबकि इनकी उपलब्धियों व कारगुजारियों से तार-तार हुआ भारत लोगों के  सामने है।
इलाहाबाद विवि के  प्रांगण में में षहीद पद्मधर की प्रतिमा के  आसपास मजाक हो रहा था। डा. जोषी नारायण दत्त जी को काट रहे थे और नारायण दत्त डा. जोषी को। मंच पर कब्जे की मुहिम थी। पद्मधर की श्रद्धांजलि का कैसा अनोखा तरीका निकाला, ‘भारत छोड़ो’ के  कर्णधारों ने। नए भारत के  निर्माण का ‘षिगूफा’ ‘स्लोगन’ दो दषकों से तो मैं स्वयं सुन रहा हूं। पर कुछ हुआ नहीं या हो सकता है जो हुआ है उसे हमारी जैसी आंखे देख न पा रही हों। इसमें दोष हमारी जैसी आंखों का है। इतना ही नहीं, अल्पसख्ंयकांे के  बारे में बोलते हुए हमारे प्रधानमंत्री ने कहा कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का प्रस्ताव हमारे 1942 के  प्रस्ताव में था। आखिर यह प्रस्ताव पचास वर्षों में भी पूरा नहीं हुआ। दोष किसका है। आम अल्पसख्यकों का कि उसने उस प्रस्ताव को पूरा कराने के  लिए जोर नहीं दिया। पचास सालों में प्रस्ताव का प्रस्ताव। असुरक्षा में वृद्धि। फिर भी ‘भारत छोड़ो’ का आयोजन।
अब तो इनसे यह पूछना पड़ेगा कि भारत छोड़ों क्यों ? किसका भारत छोड़ो ? कैसा भारत छोड़ो ? क्योंकि नारायण दत्त जी का भारत नरसिंह राव छोड़ें या नरसिंह राव भारत के  उन षहीदों के  सपनों का भारत छोड़ें जिसे उनकी पार्टी 40 वर्षों में पूरा नहीं कर पायी। या कि बोफोर्स, गरीबी, संाप्रदायिकता, षेयर घोटालों का भारत यह जनता छोड़े और यह विपक्ष सत्ता का भारत छोड़े, सत्ता विपक्ष का भारत छोड़े ? इन्हीं प्रष्नों को तय करने के  बाद ही भारत छोड़ो आंदोलन की सार्थकता रह जाएगी वरना फिर मरे उत्तरों पर जाने को तो हम विवष ही हैं।

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