शार्टकट का अर्थशास्त्र

Update:1992-09-06 12:48 IST
वर्तमान नगरीय संस्कृति ने सर्वाधिक अगर कुछ दिया है तो वह है तेज रफ्तार, तेज आवाज शीघ्र प्यार व ‘इंस्टेंट संस्कृति’। नगरीय संस्कृति ने हमारा जीवन के  प्रति दृष्टिकोण बदल दिया है। हमें अपनी प्राप्ति अपनी उपलब्धियों के  लिए ‘शार्टकट’ का रास्ता अख्तियार करने की ओर उन्मुख किया है। यह भी सही है कि इस नगरीय, महानगरीय संस्कृति ने हमें संचार व यातायात के  साधनों में विकास के  माध्यम से काफी करीब, पास-पास किया लेकिन इस संस्कृति का नकारात्मक पक्ष यह रहा कि पास-पास आये लोग साथ-साथ नहीं रहे गये।
अभी कुछ दिनों पूर्व तक लखन में एक व्यवसायी आधे-अधूरे दामों पर सामान बेचने या देने का कार्य करता था। उसका धंधा कई माह फूला-फला भी और अन्ततः उसे पलायित होना पा, पुलिसिया मिलीभगत के  परिणामस्वरूप उस व्यवसायी पवन को बिना किसी दण्ड के  फरार होने की मुहलत मिल गयी। इस पर ‘शार्टकट’ के  माध्यम से अपने घरों को फ्रिज, टीवी, कार, मोटरसाइकिल और अन्य सामानों से भरने के  इच्ुक लोगों में कुहराम मच गया। उन्होंने पुलिस पर रुपये लेकर भगाने का आरोप लगाया। अन्ततः दरोगा की लाइन हाजिरी हुई। वो लोग जो ‘शार्टकट’ के  माध्यम से भौतिकवादी वस्तुओं की प्राप्ति कर लेना चाह रहे थे उन्हें स्वयं से यह पूछना चाहिए कि जब वो जानते थे और जानते हैं भी कि उनके  द्वारा मांगी जाने वाली वस्तुएं उन मूल्यों पर पूरे बाजार तंत्र में कहीं भी नहीं मिल सकती तो ये लोग मांग क्यों रहे थे ? कौन सी नैतिकता, कौन सा अर्थशास्त्र इन लोगों को यह समा रहा था कि इन्हंे ले लेना चाहिए और अगर ये लोग रातों-रात अपने घरों को सजा करके  अपने पोसी को ईष्र्या जनित मनोविकार में ढालना चाह रहे थे या अपनी उपलब्धि पर गर्वोत्ती कर इतराने का ‘शार्टकटीय अर्थशास्त्र’ तय कर रहे थे तो जो कुछ हुआ वह बुरा नहीं कहा जाएगा। वह होना आवश्यक था और तर्कसंगत भी। वह यह तबका है जो पूरे जीवन निष्ठे बैठकर अफीमची की तरह ‘शेख चिल्ली’ की कहावतों को मन में रखते हुए ‘अलादीन के  चिराग’ की फिराक में हैं। इससे ‘अलादीन का चिराग’ तो मिलने से रहा और यह वर्ग कभी भी अपने श्रम से उन इच्ति वस्तुओं को खरीद नहीं सकता था जिसकी उसने बुकिंग करा रखी थी।
अरे भाई ! अगर 21 दिनों में आधे मूल्य पर कार लेने की तैयारी कर रहे थे, मन बना रहे थे तो 30 दिनों बाद पगार और वह भी जीवन-यापन स्तर से कम मिलने वाली, के  प्रतिफल में हमारा दरोगा रिश्वत लेकर पवन को फरार हो जाने देता है तो उसका दोष नहीं होना चाहिए क्योंकि अर्थशास्त्र का सिद्धान्त है कि ‘लाभ जोखिम का प्रतिफल होता है’ वैसे भी उसकी लाइन हाजिरी के  पीछे तर्क नैतिकता या रिश्वत का न होकर यह रहा है कि उस बड़ी राशि का बंदरबांट क्यों नहीं हुआ? लेकिन ‘शार्टकट’ के  माध्यम से अलादीन के  चिराग के  खोजी तबके  को अपने गिरेबान में ढांककर फिर दरोगा या किसी पर आरोप लगाना चाहिए। सरकारी ओहदे और वर्दियों में जो भी रुपयों के  प्रति वही ललक बनी है। इन्हें आदमीसे इतर क्यों देखा जाता है और इनके  पास तो अवसर भी ज्यादे हैं।
एक बार यात्रा के  समय रात का आरक्षण नहीं था पांच लोग टीटी के  पीछे-पीछे पचास रुपये तक का आमंत्रण लेकर फिर रहे थे अन्ततः उसने दो को सीट और तीन को डिब्बे में बने रहने की अनुमति सहित जमीन पर सोने की बात कही। उसने रुपये ले लिए फिर हम लोग आपस में यह बात करने लगे कि यह गलत हुआ आरक्षण चार्ज तो 24 रुपये ही था। तीन लोगांे की शिकायत यह थी कि जमीन क्यों सुलभ करायी गयी। बर्थ क्यों नहीं ? खैर ! बहुत सोने पर मेरे दिमाग में यह आया कि जिस टीटी के  पास रिश्वत लेने के  पांच अवसर थे उससे हम ईमानदार होने की अपेक्षा कर रहे हैं और हमें अपने ही श्रम से अर्जित पैसा देने में ईमानदारी क्यों नहीं करनी चाहिए। इसी तरह हम मध्यम तबके  के  लोग निम्न तबके  की मानसिकता लेकर उच्च तबके  का भौतिकवादी सुख प्राप्त करना चाह क्यों रहे हैं ? वैसे हमारे यहां समाज में सुविधाएं भले ही उच्च तबके  की हों लेकिन मानसिकता सर्वथा निम्न तबके  की ही अभी तक हैं क्योंकि हमें देश काल, परिस्थितियों का ध्यान नहीं रहता है। मूलतः हम बहु आयामी जीवन जीने की कोशिश में ‘मल्टी फोल्डेड’ जीवन जीने लगते हैं।
पवन की घटना कोई नयी नहीं है, गोरखपुर और इलाहाबाद के  लोग इसी तरह की ठगी के  शिकार हो चुके  हैं। अखबारों ने इसे खूब छापा भी लेकिन यातायात व संचार माध्यमों से पास-पास आये हम लोग कोई सीख नहीं ले पाये। क्योंकि हमारी नैतिकता मर गयी है। वर्जना टूट गयी है। हमें सुविधाये चाहिए। हम सुविधा को सुख मान बैठे हैं। सन्तोष से हमने तलाक ले रखा है। सफलता हमारे मूल्यांकन का मानदण्ड हो गयी है वह सफलता चाहे जैसे भी आयी हो। हम गांधी के  देश में रहने वाले लोग गांधी के  साधन व साध्य की सुचिता से इतर होकर माक्र्स द्वारा प्रतिपादित लक्ष्य प्राप्ति के  लिए किसी भी साधन के  प्रयोग के  सिद्धान्त को अपना जीवन दर्शन मान बैठे हैं ?
माक्र्स के  ही अनुसार ‘थीसिस’, ‘एंटी थिसिस’, तब ‘सिनथिसिस’ की बात हो जाती है परन्तु हम ‘मल्टीफोल्ड’ होकर भी ‘सिनथीसिस’ की संकल्पना से दूर हैं। यह ‘शार्टकट’ का पागलपन हममें क्यों है? इस पर सोचने का हमारे पास समय नहीं है। समय नहीं है कि बहाने तले हम सोचने के  मुद्दे से दूर होते जा रहे हैं। हम जीवन के  गम्भीर निर्णयों पर भी सोचने की जगह सीधे करने और अपने पक्ष के  परिणाम की प्रत्याशा में लगे रहते हैं। ऐसे लोग व्यसनी हैं। उन्हें व्यसन है वह चाहे पैसे का हो और चाहे  और चाहे....। इन व्यसनी लोगों को उनके  व्यसन के  लिए आमंत्रित कर दीजिए फिर देखिए उनके  पास कितना समय है। कैसे वो खाली हो लेते हैं। यह महज इसलिए होता है क्योंकि उनके  व्यसन के  लिए आपका आमंत्रण है। मुफ्त का है। ‘शार्टकट’ से ही उन्हें अपना व्यसन मिल रहा है। परमुखापेक्षिता उनकी बलवती होती है। यही आम लोगों की परेशानी का कारण है। आम आदमी आज इसलिए परेशान नहीं है कि भारत का राष्ट्रपति, मंत्री, प्रशासनिक अधिकारी क्या कर रहा है, ऐसा क्यों कर रहा है? वरन वह इसलिए परेशान है कि वह क्यों नहीं है, राष्ट्रपति, मंत्री, अधिकारी आदि इत्यादि। आज के  समय में ईमानदार वही है जिसे बेईमानी के  अवसर उपलब्ध नहीं हैं। आम आदमी की परेशानी का कारण है कि क्यों नहीं वह भ्रष्ट आचरण कर पा रहा है ? क्यों अगला या दूसरा आदमी कर रहा है ? यह आम आदमी वर्ग यह मानने को भी तैयार नहीं है कि एक व्यक्ति किसी जगह है तो उसमें कुछ है तभी वो वहां है। वह हममे नहीं है। यह आम वर्ग खास में छिद्रान्वेषण करने की ताक में है। यही करता है। आम वर्ग हमेशा परेशानी में रहता है, रहेगा भी। कभी वह लक्ष्य प्राप्त हो पाने की परेशानी जियेगा, कभी प्राप्त हो जाने के  बाद उसे संजोकर रख न पाने की परेशानी ढोयेगा, कभी वह अपने आस-पास के  लोगों द्वारा जिये और पाये जा रहे अवसरों के  ईष्र्या की परेशानी में रहेगा।
इन सबका कारण ‘शार्टकट’ का अर्थशास्त्र है जिसके  कारण हम अपना सम्मान, आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और मानवता का विनाश करने पर तुले हैं। इसलिए अनन्त अवसर और सम्भावनायें ‘शार्टकट’ के  ना उपलब्ध होने पर भ्रष्ट होने वाले से इमानदार होने की प्रत्याशा ढोकर अपने पास उपस्थित अवसरों को ही ईमानदारी से ‘शार्टकट’ से दूर रखने में जुड़े।

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