उपलब्धियों का शहर प्रयाग

Update:1992-09-27 12:52 IST
अपनी सोंधी और अलग किस्म की माटी के  कारण इस शहर ने जो भी और जैसे भी निर्माण किये हैं उन्हें दूर से ही पहचान लेना, अलग कर लेना मुश्किल नहीं लगता है। त्रिवेणी की गरिमा के  अहं से सराबोर इस शहर में गंगा, यमुना व सरस्वती जैसी नदियों का संगम है जिसमें सरस्वती घाट के  नाम के  अलावा सरस्वती का कोई अता-पता नहीं है परन्तु इस शहर में सरस्वती के  अदृश्य होने का जो आरोप किसी विद्वेष के  कारण लगा दिया जाता है उसे यहां स्थित ‘पूर्वांचल का आक्सर्फोड दूर करने के  लिए पर्याप्त उदाहरण दे देता है और सरस्वती के  अपने यहां दृश्य व उपस्थित होने के  कई प्रमाण सहित तर्क भी, जिसे समय-समय पर यह शहर अपनी सौंधी व विशेष किस्म की माटी से निर्मित विशेषणों व संज्ञा के  माध्यम से पेश करता रहता है। जीवन को यदि किन्ही खंडों में विभक्त करने की विवशता आन पड़े तो आध्यात्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सरीखे खडं तय करने पड़ेगें। आध्यात्म में धर्म, दर्शन व मोक्ष जैसे अनुभाग तय किए जा सकते हैं। इसलिए आध्यात्म जीवन का प्रारंभ व अंत दोनों है।
अलहवास, इलावास और इलाहाबाद वाले प्रयाग को धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो इसकी एक सम्पन्न ऐतिहासिक मोक्षदा परम्परा मिलती है। इसी क्रम में यहाँ आयोजित होने वाला कुम्भ हिन्दुओं का प्राचीनतम् जातीय सम्मेलन है। इसके  आरम्भ का निश्चित पता तो नहीं है पर किंवदन्तियों के  आधार पर आचार्य शंकर को इसका प्रतिष्टापक माना जाता है। हिन्दू काल में बौद्ध शासक हर्ष प्रति पांचवें वर्ष ‘सर्वत्याग यज्ञ’ के  रूप में इसे मनाया करता था। प्रकारान्तर ‘सर्वत्याग यज्ञ’ के  स्थान पर कुम्भ की स्थापना हुई। ‘कुम्भ’ के  आयोजन के  बारे में पौराणिक उक्ति है- पृथिव्या कुंभयोगस्य चतुर्धा भेद उच्चते। गंगाद्वारे प्रयागे च धारा गोदावरी तटे।। यानि हरद्वार, प्रयाग व नािसक में बारह-बारह वर्ष बाद कुंभ लगता है। लेकिन प्रयाग व हरद्वार में छह-छह वर्ष में अर्ध कुंभ भी लगता है। कुंभ के  आयोजन के  बारे में पौराणिक मत है कि  समुद्र मन्थन के  बाद देवताओं ने अमृत पात्र को बारह दिन तक छिपाकर रखा था। आठ दिन स्वर्ग में, चार दिन भौतिक लोक में। भौतिक लोक में उपरोक्त चार जगह ही छिपाकर रखा गया था। रेवाखण्ड, पुराण में कुम्भ की तिथियों, मासों का भी उल्लेख है जिसमें प्रयाग कुम्भ के  बारे में लिखा है -
मेषराशिगते जीवे मकरे चन्द्रभस्करो,
अमावस्या तदा योगः कुम्भस्य तीर्थ नायके ।
यानि जब मेष में बृहस्पति और चन्द्र, सूर्य मकर में पड़े तो प्रयाग में कुम्भ लगता है।
प्रयाग को षटकोण भी कहते हैं क्योंकि यहां गंगा, यमुना व संगम सभी के  दो-दो किनारे हैं। पुराणों में वर्णित है कि यहां एक रात निवास कर लेने का भी भक्ति रूपी फल मिलता है। यहाँ गंगा, यमुना व अन्तः सलीला सरस्वती इन तीनों का आध्यात्मिक महत्व तो है ही साथ ही साथ हठयोग में महत्व रखने वाली इडा, पिंगला व सुषम्ना नाड़ियों से भी इन तीनों नदियों का पर्याय जुटाया जाता है जिसमें सिद्ध व नाथ सम्प्रदाय के  लोग इडा (गंगा), पिंगला (यमुना) व सुषुम्ना (सरस्वती) से तादात्म्य स्थापित करते हैं।
प्रयाग से ही सोम, वरुण व अग्नि जैसे देवताओं का आविर्भाव हुआ। दन्त कथा है कि जो महिलाएं अपनी पीठ पर लटकने वाली वेणी का यहां दान करती हैं वे चिर सौभाग्यवती होती हैं। संगम पर वेणीदान का महात्म्य प्राचीन ग्रन्थों में भी वर्णित है। त्रिवेणी में सरस्वती का ऐश्वर्य और वीर्य, यमुना का तेज तथा गंगा का ज्ञान और बल मिलाकर 6 गुणों का समावेश है। प्रयाग के  त्रिवेणी संगम के  अधिष्टाता यहां के  13 रूपों में स्थापित वेणी माधव हैं। पùपुराण में उल्लिखित भी है कि ‘प्रयागे माधव। (प्रयाग के  देवता माधव हैं)।’
आदि कवि बाल्मीकि का भी रिश्ता त्रिवेणी से था क्योंकि रामायण में त्रिवेणी का वर्णन मिलता है। अतरसुइया में ऋषि अत्रि व उनकी पत्नी अनुसूया निवास करते थे। इसी अत्रि अनुसूइया आश्रम पर भारद्वाज ऋषि ने भी तपस्या करके  सिद्धि पायी थी। मुनि भारद्वाज वैज्ञानिक, दार्शनिक, भविष्य दृष्टा, तपस्वी और महान शिक्षक थे। यहां स्थित ‘दारागंज’ का प्राचीन नाम ‘धारागंज’ था क्योंकि यह गंगा की धारा से घिरा था। बाल्मीकि रामायण में भी इस शहर का वर्णन है जबकि कालक्रम की दृष्टि से इसका रचना काल 5000 वर्ष पूर्व माना जाता है।
विश्व के  प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद के  शाकल संहिता में भी मुनि भारद्वाज ऋषि का यशगान है।
दारागंज में नागवासुकि का मन्दिर है। जहां श्रावण सुदी पंचमी को एक मेला लगता है। प्रयाग में अक्षयवट संगम के  तट पर किले में स्थित है। किंवदन्ती है कि प्रलयकाल मंे भी इस वृक्ष का नाश नहीं होता है। इस वट वृक्ष का विस्तार पांच योजन तक एवं जटाएं पाताल लोक तक गयी हैं, यह भी माना जाता है कि इस वट वृक्ष और प्रयाग के  बारे में विष्णु भगवान ने स्वयं माना है, ‘प्रयाग मेरा क्षेत्र है, वह बैकुण्ठ से भी अधिक है, वहां अक्षय वट वृक्ष है जो मेरा आश्रय है।’ प्रयाग में भगवान विष्णु अपने सभी  आठ माधव रूपों में उपलब्ध रहते हैं। एक दन्तकथा यह भी प्रचलित है कि इस वट वृक्ष की डालियों में नदी में कूदकर आत्मघात करने वाले को मोक्ष प्राप्त होता है। इसी प्रथा पर नियंत्रण पाने के  लिए अकबर ने इस अक्षयवट को किले के  अन्दर कराया। उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का ‘वेद चिन्ह’ भी अक्षयवट ही है।
यह नगर कृष्ण भक्ति आंदोलन का भी केंद्र रहा है। क्योंकि अरैल में वल्लभाचार्य के  निवास व पंद्रह सौ में चैतन्य महाप्रभु के  भी पर्याग आगमन के  प्रमाण उपलब्ध है। यहां गौणीय मिशन मठ . श्री निंबाकाचार्य मंदिर और निंबकाचार्य आश्रम अभी भी है। योग को अगर- योग: कर्मशु कौशलम व योगः चित्त वृति निरोधः के  तहत देखा जाए। आज योग को पूरे देश में प्रचारित करने में जुटे धीरेंद्र बचारी ने झूंसी के  योगानंद आश्रम का शिष्यत्व ग्रहण किया है। वैदिक कर्मकां को जीवित रखने के  लिए त्रिपौलिया को हनुमान मंदिर का योगदान है जो आज भी हर वर्ष विद्यार्थियों का एक दल तैयार करता रहता है।
धर्म व आध्यात्म में तो यह शहर पूरे भारत का सांस्कृतिक प्रणेता व पुनरुत्थानक रहा ही है।
हिन्दी साहित्य के  लब्ध प्रतिष्टित साहित्यकारों को पहचान के  संकट से उबारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली ‘सरस्वती’ का प्रकाशन भी यहीं से ‘इण्डियन प्रेस’ द्वारा होता था जिसके  सूत्रधार सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। सरस्वती 1903 से प्रयाग से निकलती थी। इससे पहले यह 1900 से 1903 तक नागरी प्रचारणी सभा काशी में छपती थी। इण्यिन प्रेस का हिन्दी साहित्य के  विकास व उन्नयन में काफी योगदान है। यहीं से बालकों के  लिए ‘बालसखा’, ‘विज्ञान लोक’, ‘हल’ आदि पत्रिकाएं निकलती थीं। प्रकारान्तर सरस्वती के  सम्पादक ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने ‘दीदी’ निकाला जिसका ‘छिनाक अंक’ काफी लोकप्रिय रहा। हिन्दी का दूसरा साप्ताहिक पत्र ‘प्रदीप’ यहीं से बाल कृष्ण भट्ट ने निकाला था। हिन्दी साहित्य को तो इस शहर का ऋणी होना चाहिए क्योंकि साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियों के  शीर्ष पर रहे निराला, पन्त, प्रसाद, महादेवी यहीं से माटी के  निर्माण का परिणाम थे। अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती सरीखे साहित्यकार, कामिल बुल्के सरीखे हिन्दी प्रेमी भी यहीं पले और बढ़े। यहीं रहकर फिराक गोरखपुरी ने उर्दू व अंग्रेजी के  विद्वान के  रूप में अन्तराष्ट्र्रीय स्थिति हासिल की। अर्थशास्त्र को दुनिया के  पैमाने पर स्थापित करने वाले एकमात्र अर्थशास्त्री प्रो. जे.के . मेहता ने यहां का ऋण स्वीकार किया है। मृदा विज्ञान में अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान शीलधर प्रयाग की धरोहर के  रूप में ख्यात हैं। अभी कितने ही नाम छूट गये हैं, छूट जायेंगे जिनका प्रयाग स्नेह/ऋण की परम्परा में उल्लेख नहीं किया जा सका। सुब्रह्मण भारती सरीखे कितने ऐसे लोग हैं जो प्रयाग रहने और प्रयाग में रचने-बसने की अभिलाभा संजोये रह गये। इस शहर से जो एक बार जुड़ गया वह शहर के  धरोहर में आया या नहीं पर शहर उसकी स्मृतियों में एक लगाव स्थापित कर गया। हिंदी की स्थापना के  लिए और कार्य करने और जूझने के  लिए यहां पर हिंदुस्तानी व हिंदी साहित्य सम्मेलन,
जंगे आजादी के  दौरान इस शहर के  योगदान का साक्षी स्वराज भवन है। जहां से कई बार राष्ट्रीय आन्दोलन का शंखनाद किया गया। आजादी के  बाद देश सक्रिय व दिशा निर्धारक राजनीति मंे इस शहर के  प्रतिनिधि/निवासी मुख्य भूमिका में रहे। नेहरू, शास्त्री, इन्दिरा, चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह सरीखे पदाधीश भी यहीं से उभरे हैं। पार्टियों और पदों पर तो इस शहर के  लोग 50 प्रतिशत से ज्यादे अके ले भागीदारी करते रहे हैं, कर रहे हैं। किसी भी राजनीतिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक अनुष्ठान की पूर्णाहुति इस शहर के  बिना सम्भव नहीं हो पाती है क्योंकि यह शहर सम्पन्न सांस्कृतिक, आध्यात्मिक परम्परा की धरोहर समेटे है और इतिहास हो जाना, इतिहास में उत्कीर्ण हो जाना सबको भाता है। शायद ही जीवन व समाज की ऐसी कोई धारा हो जिसका कोई ठहराव, स्रोत प्रयाग में न हो। तभी तो प्रयागवासियों में एक अतिरिक्त अहं का तोष होता है और प्रयाग की माटी से निर्मित संस्कारों में विशेष पहचान के  चिन्ह। जिस शहर को देवताओं ने अपना वास, धर्म ने अपना स्थान मानकर स्वयं में गर्व का अनुभव किया हो ऐसे शहर के  बारे में यह स्वीकारने में कोई आपत्ति व विरोध नहीं होना चाहिए -
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।
(इलाहाबाद अंग्रेजी हुकूमत के  अधीन था तो मार्किस अव्वेलसली ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से भारत के  गवर्नर जनरल थे। अकबर के  समय इलाहाबाद में 10 जिले और 177 परगने थे। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के  समय जिलों की संख्या-5 और परगनों की संख्या घटकर 26 रह गयी। जिले इलाहाबाद, कड़ा, मानिकपुर, भटघोरा और कोड़ा तथा फतेहपुर हसवा के  नाम से थे। उस समय जिलों को सरकारें कहा जाता था। 1816 में किवाई परगना अवध से हटाकर इलाहाबाद जिले में शरीक किया गया। लेकिन 1825 में इलाहाबाद के  कोड़ा और कड़ा परगनों को जोड़कर फतेहपुर बना दिया गया। 1841 से 62 के  बीच इलाहाबाद की सीमा में और हेरफेर हुए। कड़ा परगना के  कुछ गांव फतेहपुर और खैरागढ़ परगना के  कुछ गांव मिर्जापुर जिला का हिस्सा बना दिये गये। इलाहाबाद के  पहले जिला अधिकारी ए.अहमूटी थे। इन्हीं के  नाम पर आबाद हुआ मोहल्ला आज मुट्ठीगंज के  नाम से जाना जाता है। 1829 में यहां डिविजनल कमिश्नरी बनी और राबर्ट बार्लो पहले कमिश्नर नियुक्त हुए। अंग्रेजी हुकूमत के  दौरान यहां का शासन बंगाल से चलता था। 1836 में 41 जिलों को जोड़कर पश्चिमोत्तर देश के  नाम से एक नया प्रांत बना। इसी प्रांत के  लेफ्टिनेंट गवर्नर के  रूप मंे सीटी मिटकाॅफ बनाये गये। उस समय इस प्रांत में झांसी और अवध के  जिले नहीं थे। लेकिन अजमेर, दिल्ली, रोहतक और गुड़गांव तथा हिसार इसी में शामिल थे और राजधानी इलाहाबाद थी। पर एक साल बाद राजधानी यहां से आगरा चली गयी। 1857 तक वहीं रही। 1857 तक यहां ब्रिटिश सेना नहीं थी। कर्नल सिम्सन की अगुवाई में देशी पलटन नंबर-6 से काम चलाया जाता था। पर 1857 के  विद्रोह के  समय तोपखाने के  60 अंग्रेजों और फिरोजपुर रेजीमंेट के  200 सिखों को यहां तैनाती दी गयी। हालांकि 1857 में मेरठ की चिंगारी इलाहाबाद तक पहुंची। रणबांकुरों ने करीब सवाल साल तक अंग्रेजांे के  लिए इलाहाबाद को भी सरदर्द बनाए रखा। आज जहां अल्फ्रेड पार्क है, उसी के  दक्षिण में मेवातियों का एक गांव शमदाबाद हुआ करता था। विद्रोह में साथ देने के  चलते अंग्रेजों ने इस गांव को जमींदोज कर दिया था। पहली नवंबर 1858 को आज जहां मिंटो पार्क है, वहीं पर तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने महारानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र पढ़कर सुनाया। इसी घोषणा के  साथ भारत का राज्य प्रबंध, जो ईस्ट इंडिया के  मार्फत होता था, वह सीधे ब्रिटेन की महारानी के  अधीन हो गया। पंडित मदन मोहन मालवीय के  उद्योग की मदद से यहां पर सफेद पत्थर का एक स्तम्भ खड़ा किया गया, जिस पर महारानी विक्टोरिया के  संदेश अंकित किये गये। 09 नवंबर 1910 को गवर्नर जनरल लार्ड मिन्टो ने इसकी आधारशिला रखी। इसीलिए इसका नाम मिंटो पार्क पड़ गया। इसी साल राजधानी इलाहाबाद आ गयी। राजधानी, गवर्नमेंट प्रेस दोनों इलाहाबाद आ गये। इलाहाबाद में पहली इमारत 1858 में चैक में तामीर हुई। जहां चुंगी का दफ्तर रहा। 1891 में काॅल्विन डिस्पेंसरी और 1898 में क्ल्ब स्थापित हुआ। 1843 में हाईकोर्ट भी इलाहाबाद से आगरा चला गया। पर 1868 मंे वापस उच्च न्यायालय इलाहाबाद में स्थापित हो गया। शुरू में हाईकोर्ट भवन बनने में सिर्फ 15 लाख रुपए खर्च हुए, जिसका उद्घाटन 27 नवंबर 1916 को वायसराय लार्ड रीडिन ने किया। आज का कीडगंज मोहल्ला भी ब्रिटिश कमांडेंट कीड के  नाम पर बसा है। जानसन गंज भी पुराने कलेक्टर विलियम जानस्टन के  नाम पर बसाया गया है। उन्होंने ही 1864 में चैक से कटरा तक की चैड़ी सड़क का निर्माण कराया था। विलियम म्योर के  समय में भी इलाहाबाद का काफी विकास हुआ। गवर्नमेंट प्रेस, कैथोलिक चर्च, बड़ा गिरजाघर इमारतें उन्होंने बनवायी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की आधारशिला भी म्योर सेन्ट्रल काॅलज के  नाम से उन्होंने ही रखी। लूकरगंज मोहल्ले का नाम भी एफ लूकर के  नाम पर हुआ। जबकि पायनियर के  संस्थापक जार्ज ऐलन के  नाम पर ऐलनगंज और म्यूनिसिपल बोर्ड के  चेयरमैन मम्फोर्ड के  नाम पर मम्फोर्डगंज बसा, जो अब सुभाषनगर हो गया है। 1909 में सोबतियाबाग में नया सिविल स्टेशन बना दिया गया है। 1929 में जीरो रोड बनी, जिसका नाम म्यूनिसिपल बोर्ड के  चेयरमैन के पी कक्कड़ के  नाम पर रखा गया। कटरा के  दक्षिण, जहां अब दरभंगा काॅलोनी है, वहां से कैथोलिक गिरजाघर तक अंग्रेजों की बस्तियां थीं। 1970 में सम्राट जार्ज पंचम के  चाचा अल्फ्रेड ड्यूक आव एडिनबरा भारत आए थे। विलियम म्योर ने उन्हें इलाहाबाद आमंत्रित किया था। उन्हांेने ही अल्फ्रेड पार्क की नींव रखी थी। 1905 में महारानी विक्टोरिया की पत्थर की मूर्ति इस पार्क में स्थापित की गयी, जो इटली से डेढ़ लाख रुपए में बनकर आई थी।

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