भाजपा सरकार ने अभी हाल में नाम बदलने की अपनी घोषित व प्रतिबद्ध नीति के तहत दो और शहरों इलाहाबाद व फैजाबाद के नाम बदल डाले, यह उस स्थिति के बाद हुआ जबकि मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर दीन दयाल नगर करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा गया था। जिसे के न्द्र सरकार ने कुछ आपत्तियों सहित अस्वीकार कर दिया है। राज्य सरकार ने उन आपत्तियों का उत्तर देते हुए प्रस्ताव को फिर वापस भेजा है जो केंद्र सरकार के पास अभी तक लम्बित पड़ा है। इतना ही नहीं प्रदेश सरकार यह भी जानती है कि उसके इस तरह के निर्णय के पीछे केंद्र सरकार का समर्थन होना भी जरूरी है। फिर भी यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है। गत दिनों भाजपा सरकार ने अपनी ताकत को प्रदर्शित करने के लिए जो रैली की थी उसमें भी उसने बेगम हजरत महल पार्क को उर्मिला वाटिका के रूप में प्रचारित किया। इस परिवर्तन के पीछे भाजपा की मंशा क्या है यह तो सच-सच अगर बोल सकें तो भाजपाई ही बता सकते हैं परन्तु जो लक्षित होता है वह है भाजपा का महाकाव्य काल की ओर वापस लौटना तथा मानस के पात्रों, स्थानों के प्रति अतिरिक्त व्यामोह। यदि भाजपा ऐसा करना ही चाहती है तो उसे अपनी हिन्दूवादी मानसिकता से भी मुक्ति पाना जरूरी होगा क्योंकि भारत में जिस संविधान के तहत जिस संविधा के लिए ये सरकारें काम कर रही हैं उसमें किसी भी सरकार को ऐसी इजाजत नहीं प्राप्त है। वैसे तो संविधान पर भी सवाल खड़ा करके इस प्रश्न से बचा जा सकता है लेकिन इन स्थितियों में बजाय छोटे-छोटे परिवर्तन के संवैधानिक परिवर्तन की अनिवार्यता पर बल देकर उसके पीछे मजबूत तर्क व प्रमाण जुटाने जाने चाहिए। परन्तु इसकी जगह भाजपा जनता से प्रदेश के बाद देश की गद्दी मांगने की तैयारी कर रही है उसे नहीं पता कि प्रदेश की गद्दी में ‘सबको परखा बार-बार, हमको परखें एक बार’ का नारा मतदाताओं को याद है। इस एक बार ही परखने में भाजपाई नियंत्रण खो बैठे। किवंदती यह है कि नदी में डूबने से बचाये जाने पर प्रसन्न होकर हुमायूं ने एक भिश्ती को एक दिन का शासक बना दिया ओर भिश्ती ने अपनी पहचान बनाने के लिए चमड़े के सिक्के चलवा दिये। ताकि उसकी उपस्थिति इतिहास में दर्ज रह सके । उसी तर्ज पर भाजपा स्थानों के नाम बदलकर अपनी उपस्थिति इतिहास में दर्ज कराने की जरूरत अगर महसूस करती हो तो उसके लिए यह परिवर्तन स्वीकार जा सकता है। उसका लक्ष्य सिद्ध तो हो जाएगा क्योंकि वह भिश्ती अगर चमड़े का सिक्का नहीं चलाता तो उसे शायद इतिहास में स्थान नहीं मिलता और लोग भूल गये होते कि कोई भिश्ती भी शासक रहा है। दोनों में एक और साम्य है कि भिश्ती भी जानता था कि वह जो सिक्का चला रहा है उसे हुमायूं मान्यता नहीं देगा और भाजपा भी जानती है कि उसके परिवर्तन पर केंद्र सरकार की मुहर नहीं लग पाएगी लेकिन प्रतिबद्धताएं हैं तो हैं, रहेंगी भी परन्तु एक बात भिश्ती भूल गया कि उसके चमड़े का सिक्का चलाने से कुछ मश्क बन नहीं पायी होगी, कुछ पुरानी कट गयी होंगी, फलतः कितने हाथों को रोजगार मिलने की सम्भावना नष्ट हो गयी होगी। यह भी सम्भावना मर गयी होगी कि कोई भिश्ती पानी भरने नदी के किनारे जाये, किसी राजा को बचाये व राजा बन जाये। अगर भाजपा इसी तर्ज पर सोचने लगे तो उसे समझ में आ जाएगा कि वह जिस मानस के पात्रों को स्थापित करने की कोशिश कर रही है वो पूर्व ही स्थापित है, वे मानव के रोम-रोम में रचे-बसे हैं। भाजपा की स्थापना के प्रयास से लोग कटे ही हैं उन पात्रों से, पात्रों की संज्ञा से, पात्रों के विशेषण से। भाजपा को यह मुगालता नहीं होना चाहिए कि फैजाबाद का नाम साके त और इलाहाबाद का प्रयागराज कर देने से जनता की मानसिकता पर कोई विशेष प्रभाव पड़ जाएगा क्योंकि कुम्भ में इलाहाबाद और नवरात्रि में अयोध्या मेले के रूप में यह जनता का जो समागम होता है उसे, उस समागम की मानसिकता को यह परिवर्तन प्रभावित नहीं कर पाएगा और राजनीति कभी भीधम्र को प्रभावित नहीं कर पाती है। धर्म चाहे राजनीति को प्रभावित कर ले क्योंकि धर्म का सम्बन्ध पारलौकिक जगत से है तो राजनीति का भौतिक जगत से। जहां राजनीति का क्षेत्र समाप्त होता है वहां से धर्म की शुरूआत होती है। यह परिवर्तन भाजपा कर रही है इस कारण जादे डरने और चिन्तन करने की जरूरत है क्योंकि अगर चोर चोरी करता है, पाकिट मारने वाला पाकिट मार लेता, इंजीनियर गाड़ी ठीक कर लेता, इस पर सोचना चाहिए क्योंकि ये तो अपनी विशेषणों की पुनरावृत्ति ही कर रहे हैं लेकिन जब कोई ईमानदार आदमी चोरी कर ले, इंजीनियर डाक्टरी कर बैठे लेखक दुकानदारी करे, आदि तो चिन्तन का मुद्दा उठ खड़ होता है उसी तरह किसी प्रान्त का मुखिया राजनीति में धर्म का प्रयोग व उपयोग करने लगे तो बात वास्तव में गम्भीर हो उठती है और सरकार की मंशा पर सवाल उठाने लगते हैं। जैसे धारा 370 की समाप्ति भाजपा के लिए जनसंघ के जमाने से ही एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है और नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में अटल बिहारी बाजपेयी ने 370 पर अपना एक बहुत ही सारगर्भित अभिभाषण संसद में दिया था जिसमें आज की स्थितियों के लिए पहले ही आगाह किया गया है और अटल बिहारी बाजपेयी ने आज के कश्मीर की सम्भावनाओं पर उसी भाषण में खुलासा किया था। पर सरकार चेती नहीं। जब भाजपा ने एकता यात्रा निकाली तो भी 370 की समाप्ति की भाजपाई मंशा सराहनीय लगी भले ही यात्रा की एक कमजोर परिणति हुई हो और यात्रा के जननायक मुरली मनोहर जोशी के चेहरे पर भय व आशंका के चिन्ह साफ-साफ दिखाई पड़ रहे हों परन्तु जब मध्य प्रदेश विधानसभा से धारा 370 को समाप्त करने के लिए भाजपा ने प्रस्ताव पास कराया तो उसकी मंशा पर सवाल खड़ा हो गया क्योंकि जनता जानती है कि धारा 370 विधानमण्डलों की सीमाओं के बाहर है। इतना ही नहीं संसद में विरोधी दल की भूमिका में रह रही, भाजपा ने इस बार 370 की समाप्ति के लिए मजबूती से अपनी बात नहीं रखी जबकि वह दबाव भी बना लेने की स्थिति में है।
नाम बदलने के पीछे भाजपा सरकार का यह तर्क है कि इलाहाबाद का नाम मुगलकाल में तब पड़ा था जब अकबर का साम्राज्य था। इसके पहले यह शहर प्रयाग के नाम से जाना जाता था। इसी तरह फैजाबाद का नामकरण बाबर के शासनकाल में होने की बात कल्याण सिंह सरकार मान रही है। राज्य सरकार का कहना है कि अकबर और बाबर के शासनकाल से पहले इन शहरों के नाम प्रयोग व साके त थे। साके त नाम के पीछे सरकार यह मानती है कि बौद्धग्रन्थों में इसका सबसे पहले उल्लेख मिलता है और गुप्तकाल के समय भी साके त के रूप में इसका उल्लेख आता है। चीनी यात्री ‘तालमी’ ने इसे ‘सागेद’ लिखा भी है वैसे आमतौर पर साके त की पहचान अयोध्या से की जाती है। मैथलीशरण गुप्त ने अपने साके त महाकाव्य में स्वर्ग को जाती हुई जिस साके त को दिखाया है वह अयोध्या ही है फिर अयोध्या व फैजाबाद का एक साथ तादात्म्य का अभिप्राय? बेगम हजरत महल पार्क को उर्मिला वाटिका बनाये जाने की प्रक्रिया के तहत भारत के आजादी की लड़ाई में बेगम हजरत महल की भूमिका व सहयोग को भुलाने या नकारने की साजिश क्यों? क्या बेगम हजरत को इतना भी अधिकार नहीं रहा कि वो इस आजाद भारत में एक स्थान पा सकें। हम पुराने युग की ओर लौट रहे हैं यह हर्ष का विषय कुछ लोगों के लिए हो सकता है क्योंकि युग की वापसी शुभ नहीं होती है और एक ऐसी मंशा के तहत जहां इस तरह की प्रतिबद्धताएं हैं। बनारस का नाम वाराणसी करने का जो उदाहरण दिया जा रहा है उसमें भाषाई सुधार का उद्देश्य था लेकिन इन परिवर्तनों में ऐसा नहीं है।
करीब सेदेखने में यह मानसिकता उद्घाटन व शिलान्यास पत्थरों के लगाये जाने वाली ही है। जिससे ताकि सनद रहे को बनाये रखा जाए। उस देश में जहां राष्ट्रगान जार्ज पंचम की प्रशस्ति हो वहां इन छोटे-छोटे परिवर्तनों में उलझ कर रह जाना ठीक नहीं होगा और यदि यह परम्परा जारी रही, जिसमें लखनऊ को लक्ष्मणपुरी करने का अगला लक्ष्य निर्धारित किया गया है तो यह भिश्ती वाली घटना की पुनरावृत्ति ही कही जाएगी लेकिन भिश्ती राजा था जहां जनता को स्वतंत्रता नहीं थी। यहां लोकतंत्र में जनतंत्र प्रभावी है फिर परिणाम गंभीर आने की सम्भावनाएं बढ़ जाएंगी। वैसे सत्ता व सरकार को ऐसी मानसिकता से इतर काम करने की जरूरत है। अगर कुछ परिवर्तन अनिवार्य हो ही जाए तो मुट्ठी भर बुद्धिजीवियों की अखबारी मांगों के आधार पर न करके उस स्थान की जनता से पूछ लिया जाना चाहिए वहां जनमत सर्वेक्षण करा लिया जाना चाहिए क्योंकि बुद्धिजीवियों जैसी बिकाऊ कौमों, वर्गों का कोई विश्वास नहीं होता और यह वह वर्ग है जो लोकतंत्र के परिवर्तन के बड़े-बड़े मंसूबों और सम्भावनाओं पर लम्बी-लम्बी बहस के बाद भी वोट देने इसलिए नहीं जाता है क्योंकि वह बुद्धिजीवी है। बुद्धिजीवी होने की सार्थकता के तहत व सरकार विरोधी व सरकार समर्थक रूख अख्तियार कर बुद्धि पर जीवित रहता है और इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है कि गोरखपुर, फैजाबाद स्नातक क्षेत्र के स्नातकों के मतों का हर ग्यारहवां मत अवैध निकला, यह अनुपात आम चुनाव के अवैध मतों से काफी आगे निकल गया है। ऐसे ही बुद्धिजीवियों के मांग पर किये जा रहे ये परिवर्तन कितने प्रभावी और उपयोगी होंगे यह समय बताएगा पर आज इसके पीछे की बुद्धिजीवी मंशा अपने लिए यथेष्ट और संतोषजनक तर्क सहित खड़ी नहीं हो पा रही है।
नाम बदलने के पीछे भाजपा सरकार का यह तर्क है कि इलाहाबाद का नाम मुगलकाल में तब पड़ा था जब अकबर का साम्राज्य था। इसके पहले यह शहर प्रयाग के नाम से जाना जाता था। इसी तरह फैजाबाद का नामकरण बाबर के शासनकाल में होने की बात कल्याण सिंह सरकार मान रही है। राज्य सरकार का कहना है कि अकबर और बाबर के शासनकाल से पहले इन शहरों के नाम प्रयोग व साके त थे। साके त नाम के पीछे सरकार यह मानती है कि बौद्धग्रन्थों में इसका सबसे पहले उल्लेख मिलता है और गुप्तकाल के समय भी साके त के रूप में इसका उल्लेख आता है। चीनी यात्री ‘तालमी’ ने इसे ‘सागेद’ लिखा भी है वैसे आमतौर पर साके त की पहचान अयोध्या से की जाती है। मैथलीशरण गुप्त ने अपने साके त महाकाव्य में स्वर्ग को जाती हुई जिस साके त को दिखाया है वह अयोध्या ही है फिर अयोध्या व फैजाबाद का एक साथ तादात्म्य का अभिप्राय? बेगम हजरत महल पार्क को उर्मिला वाटिका बनाये जाने की प्रक्रिया के तहत भारत के आजादी की लड़ाई में बेगम हजरत महल की भूमिका व सहयोग को भुलाने या नकारने की साजिश क्यों? क्या बेगम हजरत को इतना भी अधिकार नहीं रहा कि वो इस आजाद भारत में एक स्थान पा सकें। हम पुराने युग की ओर लौट रहे हैं यह हर्ष का विषय कुछ लोगों के लिए हो सकता है क्योंकि युग की वापसी शुभ नहीं होती है और एक ऐसी मंशा के तहत जहां इस तरह की प्रतिबद्धताएं हैं। बनारस का नाम वाराणसी करने का जो उदाहरण दिया जा रहा है उसमें भाषाई सुधार का उद्देश्य था लेकिन इन परिवर्तनों में ऐसा नहीं है।
करीब सेदेखने में यह मानसिकता उद्घाटन व शिलान्यास पत्थरों के लगाये जाने वाली ही है। जिससे ताकि सनद रहे को बनाये रखा जाए। उस देश में जहां राष्ट्रगान जार्ज पंचम की प्रशस्ति हो वहां इन छोटे-छोटे परिवर्तनों में उलझ कर रह जाना ठीक नहीं होगा और यदि यह परम्परा जारी रही, जिसमें लखनऊ को लक्ष्मणपुरी करने का अगला लक्ष्य निर्धारित किया गया है तो यह भिश्ती वाली घटना की पुनरावृत्ति ही कही जाएगी लेकिन भिश्ती राजा था जहां जनता को स्वतंत्रता नहीं थी। यहां लोकतंत्र में जनतंत्र प्रभावी है फिर परिणाम गंभीर आने की सम्भावनाएं बढ़ जाएंगी। वैसे सत्ता व सरकार को ऐसी मानसिकता से इतर काम करने की जरूरत है। अगर कुछ परिवर्तन अनिवार्य हो ही जाए तो मुट्ठी भर बुद्धिजीवियों की अखबारी मांगों के आधार पर न करके उस स्थान की जनता से पूछ लिया जाना चाहिए वहां जनमत सर्वेक्षण करा लिया जाना चाहिए क्योंकि बुद्धिजीवियों जैसी बिकाऊ कौमों, वर्गों का कोई विश्वास नहीं होता और यह वह वर्ग है जो लोकतंत्र के परिवर्तन के बड़े-बड़े मंसूबों और सम्भावनाओं पर लम्बी-लम्बी बहस के बाद भी वोट देने इसलिए नहीं जाता है क्योंकि वह बुद्धिजीवी है। बुद्धिजीवी होने की सार्थकता के तहत व सरकार विरोधी व सरकार समर्थक रूख अख्तियार कर बुद्धि पर जीवित रहता है और इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है कि गोरखपुर, फैजाबाद स्नातक क्षेत्र के स्नातकों के मतों का हर ग्यारहवां मत अवैध निकला, यह अनुपात आम चुनाव के अवैध मतों से काफी आगे निकल गया है। ऐसे ही बुद्धिजीवियों के मांग पर किये जा रहे ये परिवर्तन कितने प्रभावी और उपयोगी होंगे यह समय बताएगा पर आज इसके पीछे की बुद्धिजीवी मंशा अपने लिए यथेष्ट और संतोषजनक तर्क सहित खड़ी नहीं हो पा रही है।