व्यवहारवाद के मायने

Update:1992-11-08 13:00 IST
जब किसी सैद्धान्तिक पार्टी के  प्रदेश का मुखिया ‘व्यवहारवाद’ की बात करने लगे, उसके  ‘व्यवहारवाद’ में ही उसे सिद्धांत नजर आने लगे तो एक चेतावनी की बात हो उठती है। प्रदेश के  सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की डायरी में व्यवहारिकता पर अपनी वैचारिकी प्रकट करते हुए प्रदेश के  मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की ओर से उल्लिखित है कि जिनकी आर्थिक सोच व्यवहारिक थी। वह किसी वाद के  शिकार नहीं थे। वह यथार्थवाद को मानते थे। व्यवहारवाद को मानते थे। जिन्होंने पहचाना था कि गरीबी की जड़ क्या है? उन्होंने कहा था कि गरीबी की जड़ बेरोजगारी है। उनके  नाम पर एक योजना चलायी है हमने और उसे नाम दिया है ‘दीनदयाल योजना’। हमारी परिकल्पना है एक ‘रोजगार छतरी’ बनाने की।
निःसंदेह मानवतावादी दार्शनिक को यह एक अच्छी श्रद्धांजलि है क्योंकि बेरोजगारी और जनसंख्या दो ही भारत के  लिए खतरनाक संके त वाली समस्याएं हैं। एक भी अगर दूर हो जाए तो भारत गंभीर संकट से उबर सकता है। इसलिए अगर मानवतावादी दार्शनिक पंडित दीनदयाल उपाध्याय से प्रभावित होकर मुख्यमंत्री ऐसा कर रहे हैं तो ऐसे प्रभाव की भूरि भूरि प्रशंसा होनी चाहिए लेकिन मुख्यमंत्री तो इससे भी आगे निकलते प्रतीत हुए और उन्होंने गत दिनों यह स्वीकार कर डाला कि वो स्वयं भी व्यवहारवादी हैं। कहीं यह उल्लेख में नहीं पाया गया कि दीनदयाल जी ने स्वयं को व्यवहारवादी माना हो परंतु जब वे स्वयं को व्यवहारवाद की यथार्थ परिधि में ले गये होंगे, तब व्यवहारवाद के  मायने कुछ और ही हुआ करते थे। आज जिस परिप्रेक्ष्य में मुख्यमंत्री ने स्वयं को व्यवहारवादी कहा है या जो स्थितियां चल रही हैं, उसमें व्यवहारवाद का सीधा सा अभिप्राय अवसरवाद से जुटाया जाता है। अवसरवाद यही है जहां स्वयं की स्थापना स्वयं के  हितों की पुष्टि के  लिए किसी भी स्थिति तक जाया जा सकता है लेकिन चुनाव जीतने से लेकर स्वयं को व्यवहारवादी स्वीकारने तक की मुख्यमंत्री की उपलब्धियों और बयानों में साम्य तलाशें तो उनके  व्यवहारवाद का जो स्वरूप उभरता है वह निःसंदेह अवसरवाद का ही पर्याय है।
जून 1991 में शपथग्रहण के  बाद मुख्यमंत्री अपने पूरे मंत्रिमण्डल सहित अयोध्या गये थे और वहां रामलला हम आए हैं, मंदिर यहीं बनायेंगे जैसे तुमुल घोष किया। करने के  बाद जून, 1992 में मंदिर निर्माण के  मुद्दे पर जब केंद्र सरकार और विहिप मे सीधे टकराव की स्थिति बन गयी थी और भाजपा को विहिप की तरफ से ही सम्बद्ध पार्टी थी, उस समय तक मुख्यमंत्री अपने जून, 1991 के  संकल्प को दोहराते रहे और कहा कि मंदिर निर्माण के  लिए हम सरकार की बलि चढ़ा देंगे लेकिन जब केंद्र सरकार की ओर से बिगड़ती स्थिति को देखकर धारा 356 लागू करने की धमकी केंद्रीय गृहमंत्री से प्राप्त हो गयी तो व्यवहारवादी मुख्यमंत्री ने अपना संकल्प पलटा और कहने लगे कि मंदिर बनवाने का काम तो विहिप का है। भाजपा उसमें आने वाले बाधाएं दूर करेगी। यह वही समय था जब संवैधानिक स्थिति फंस गयी थी। राष्ट्र के  उच्चतम न्यायालय ने भी केंद्र सरकार को स्थिति पर नियंत्रण करने का निर्देश लगभग दे ही दिया था। फिर तो कल्याण सिंह को व्यवहारवाद और खुला और केंद्र सरकार से संतों की वार्ता कराने लगे। संतों ने केंद्र को समय दे दिया। 6 दिसंबर की समय सीमा अभी पूरी नहीं हुई है कि कल्याण सिंह पुनः समय सीमा बढ़ाने के  लिए अपने व्यवहारवाद के  तहत वार्ता कराने के  लिए प्रयत्नशील हैं। वैसे चाहिए कि एक बार और केंद्र सरकार को अवसर दें क्योंकि अभी प्रदेश सरकार के  पास न तो गिनाने लायक कोई उपलब्धि है और न ही मंदिर के  मुद्दे पर बलि चढ़ जाने लायक अवसर। इतना ही नहीं भाजपा केंद्र में भी सच्चे और मुखर विपक्ष का दर्जा नहीं प्राप्त कर पायी, उसे अभी तक कांग्रेस के  चलते रहने देने के  लिए उत्प्रेरक की उपाधि ही मिली है।
प्रदेश में निजीकरण की संभावनाओं के  विस्तार सहित परिवहन, चीनी, उद्योग व समाज कल्याण में भी निजी क्षेत्रों का आमंत्रण भी व्यवहारवाद का ही एक हिस्सा है। कल्याण सिंह का व्यवहारवाद कितना सही है कि 25 सितम्बर की भाजपा की विशाल रैली में उन्होंने ‘मंदिर यहीं बनायेंगे’ जैसी 25 जून, 1991 की घोषणा की उससे ज्यादा ताकत से पुनरावृत्ति कर डाली। यही तो व्यवहार है कि जैसी स्थिति हो वैसी ही बात की जाये।
वर्तमान सरकार के  शासनकाल में उद्योगों का विकास अवरूद्ध हुआ है। इसे सरकार ने स्वीकार किया है। सरकार ने यह भी माना है कि इसके  लिए सरकारी विभागों की अदक्ष कार्यकुशलता दोषी है। कार्यों के  निपटान में न्याय प्रक्रिया सरीखा विलंब होता है। सरकार ने इसी स्वीकृति के  बाद से उद्यमिता विकास संस्थान को दलाली संस्कृति के  लिए उतारा जिसमें यह संस्थान बिक्रीकर, बिजली कनेक्शन, प्लाट आवंटन आदि कार्य करके  उद्योगपति को उद्योग लगाने में सहयोग करेगा। जिसके  लिए वह कुछ निश्चित राशि लेगा यानि उद्यमिता विकास संस्थान लोगों की स्थापना व विकास के  लिए सरकार की ओर से लाइजनिंग करेगा। यह भी तो व्यवहारवाद है।
आम तौर पर ही नहीं, सही तौर पर यदि व्यवहारवाद को परिभाषित किया जाय तो यही है कि समय देखकर ऐसी बात कहना जिससे सुरक्षा, समृद्धि व सुख मिले। ऐसा करना कोई सिद्धांत हो ही नहीं सकता और मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने दीनदयाल जी के  जिस व्यवहारवाद की चर्चा की है। वह मुख्यमंत्री की गलत समझ का परिणाम है। क्योंकि उन्होंने अपने ही वक्तव्य में सूचना व जनसम्पर्क की डायरी में दीनदयाल जी के  बारे में लिखते समय लिखा है, जिनकी आर्थिक सोच व्यावहारिक थी।
आर्थिक सोच व्यावहारिक हो सकती है। आर्थिक सोच व्यावहारिक होनी भी चाहिए क्योंकि भारत जैसे विकासशील देश में जहां सीमित संसाधनों में से असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति करनी हो, वहां आर्थिक व्यवहारवाद की बहुत आवश्यकता रहती है क्योंकि हमें अपनी आवश्यकताओं में भी अधिमान प्रकटित करने पड़ते हैं लेकिन सामाजिक जीवन में व्यवहारवाद का होना अवसरवाद ही है जिससे अपने पक्ष हेतु अवसर जुटाये जा सकें। जैसा संसद में कांग्रेस की आर्थिक नीतियांे पर न बोलकर संसद में कांग्रेस का विरोध न करके  पूरे राष्ट्र बंद का आयोजन और एक ऐसा आयोजन जिससे कोई पूरी सरकार शिरकत रही हो। जहां बंद के  दिन सचिवालय में कोई भी मंत्री न गया हो, वही व्यवहारवाद है। यह भी व्यवहारवाद ही है कि अपने अभ्युदय से धारा 370 के  खिलाफ लगातार बोलने वाली पार्टी जब केंद्र के  मुख्य विपक्षी दल हों तो वह संसद में धारा 370 की समाप्ति के  लिए लड़ने, बोलने व प्रस्ताव लाने की जगह अपनी पार्टी द्वारा शासित किसी राज्य से 370 की समाप्ति के  लिए प्रस्ताव पास कराकर अपरिपक्व व अशिक्षित लोकतंत्र को गुमराह करे। व्यवहारवाद तो यह भी है कि एकता यात्रा जैसा विशाल आयोजन जिसका रथी एक महामानव व महानायक जैसे विशेषणों से अलंकृत हो वह अपनी यात्रा चट्टान खिसककर रास्ते में आ जाने के  कारण स्थगित करके  सरकार पर चट्टान हटाने के  लिए दबाव डालने की जगह ध्वजारोहण के  लिए सरकारी विमान मांगे, यह व्यवहारवाद ही है क्योंकि विमान देने के  लिए सरकार मजबूर है। चट्टान हटाने के  लिए। क्योंकि नहीं, ये जन नायकों को पता नहीं है।
व्यवहारवाद के  तमाम उदाहरण हैं। कारसेवकों में शहीद जैसा उत्साह व विश्वास भरकर मुलायम सिंह सरकार के  दंभ भेदने के  दो वर्ष बाद ही उन कारसेवकों की बरसी करना भूलना भी तो यही है। क्योंकि मंदिर निर्माण से बड़ा राष्ट्र है और कई साल तो राष्ट्र निर्माण में जुटे शिल्पकारों, वास्तुकारों की शहादत भी नहीं मनायी जाती है। विहिप से मिलकर पादुका पूजन जैसा वृहत स्तरीय कार्यक्रम तैयार करवाकर उसे संचालित कराने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुख्यमंत्री ही नहीं भाजपा भी व्यवहारवाद को ठीक से समझ गयी है। तभी तो उसने धर्म से राजनीति को जोड़ने जैसा अहम कार्य किया। क्योंकि किसी सम्प्रदाय विशेष में धर्म राजनीति से बहुत दिनों से जुड़ा है। अब आवश्यकता है आर्थिक व्यवहारवाद के  मनीषी को अलग रखने की क्योंकि उसे सरकार नहीं चलानी थी और अब सरकार चलानी है। सरकारें व्यवहार से ही चलती हैं, सिद्धांत से तो पार्टियां चलती हैं। पार्टी चलाकर भाजपा व प्रदेश के  मुख्यमंत्री ने काफी देखा है और दिखाया है अब वो सरकार चला रहे हैं। चलाने की तैयारी कर रहे हैं। इसके  लिए इकलौता रास्ता शेष रह जाता है व्यवहारवादी हो जाना।

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