ताकि वोटों की फसल पर विराम लगे

Update:1992-12-06 13:10 IST
राष्ट्रीय एकता परिषद की गत 23 नवम्बर की बैठक का भाजपा व विहिप ने बहिष्कार करके  समस्याओं के  आम सहमति से हल निकालने वाली संस्था के  सम्मुख प्रश्न चिन्ह खा कर दिया है। इतना ही नहीं, मंदिर मुद्दे पर एकता परिषद की इस बैठक का बहिष्कार करते हुए भाजपा व विहिप ने इसे ‘कपटी वाद-विवाद सोसायटी’ जैसी संज्ञा देकर देश के  लोकतंत्र और संविधान के  प्रति जो निष्ठा बरती है वह एक दुःखद अध्याय है। ऐसा उस समय हुआ है जबकि 2 नवम्बर 1991 की एकता परिषद की ही बैठक में प्रदेश के  मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने विवादित ढांचे की सुरक्षा के  प्रस्ताव का समर्थन करते हुए, ढांचे के  सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ली थी। यह बात दूसरी है कि विहिप के  अशोक सिंघल ने इस आश्वासन को तथाकथित छù धर्मनिरपेक्ष तत्वों को खुश करने और अनुचित प्रश्रय देने का प्रयास बताया पर यह सिंघल की राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है और उनका बयान उनकी पार्टी के  प्रति टिप्पणी थी। अतः इसे गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। 2 नवम्बर तक जिस संस्था के  प्रति सभी राजनीतिक दलों की आस्था थी, वह अचानक मात्र 19 दिनों बाद यहां तक बिखर गयी कि भाजपा जैसे पार्टी के  राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. मुरली मनोहर जोशी ने इस बैठक को ‘राजनैतिक उद्देश्यों व निहित स्वार्थो की पूर्ति के  लिए प्रेरित बताया।’
यह सत्य है कि समस्याओं के  आम सहमति से हल के  लिए जिस संस्था का गठन किसी सैद्धान्तिक आधार पर किया गया हो, उसे राजनीतिक उद्देश्यों व निहित स्वार्थाे की पूर्ति के  लिए प्रयोग करना उचित नहीं है। लेकिन राम का राजनीति के  लिए प्रयोग करना कितना उचित है? कितना उचित है धार्मिक मुलम्मा चलाकर कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति व जद के  जामा मस्जिदी फरमान का उत्तर देना? यह सम्भव है कि लोग कट्टर मुस्लिम पंथ का जवाब उग्र हिन्दूवाद के  रूप में देना व देखना चाहते हों और शायद अल्पकाल के  लिए आवश्यक भी हो परन्तु देश किसी क्षण, काल, समय विशेष की सीमाओं में बंधकर रहने वाली संस्था नहीं है। फिर व्याप्त समस्या का समाधान समस्याएं पैदा करके  ‘लोहा-लोहे को काटता है’ की तर्ज पर करना कितना न्याय संगत है?
इस बार राष्ट्रीय एकता परिषद का बहिष्कार लालकृष्ण आडवाणी के  इशारे पर भाजपा शासित राज्यों के  मुख्यमंत्रियों ने भी किया। एक ऐसे समय जब सदन की गरिमा बनाये रखने के  लिए राजनीति के  अपराधीकरण पर चिन्ता जतायी जा रही हो वैसे में एकता परिषद जैसी सर्वमान्य संस्था का बहिष्कार करके  एक नयी परम्परा डालना किसी राष्ट्रव्यापी राजनैतिक दल के  लिए कितना सार्थक व आवश्यक है, वह भी एक ऐसी स्थिति में जबकि एकता की यह बैठक विहिप और बाबरी एक्शन कमेटी के  बीच मंदिर मुद्दे पर बातचीत विफल हो जाने के  बाद, संविधान के  अनुच्छेद 138 (2) के  तहत उच्चतम न्यायालय को यह मामला सौंपने के  के न्द्र सरकार के  प्रस्ताव को प्रदेश सरकार द्वारा खारिज कर दिये जाने के  बाद बुलायी गयी हो। इतना ही नहीं , जिस 2.77 एकड़ भूमि को गैर विवादित करार देकर प्रदेश के  मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कारसेवा करवा कर मंदिर मुद्दे की तात्कालिक गम्भीरता को कुछ वर्षो तक टालना चाहते हैं, उसके  बारे में मुख्यमंत्री को निश्चित तौर पर यह पता होगा कि इस भूखण्ड पर तीन-तीन स्थगनादेश पड़े हंै।
भाजपा ने एकता परिषद का बहिष्कार भले ही किया हो परन्तु जयललिता ने भाजपा का ‘माउथ पीस’ बनकर जिस तरह बंगारप्पा द्वारा अपने प्रति किये गये व्यवहार के  खिलाफ रोष प्रकट करते हुए भाजपाई तेवर दिखाया उससे भाजपा की अनुपस्थिति खली नहीं। क्योंकि जयललिता की भाषा, भाव और बोध सब भाजपाई था, जिसमें कट्टर मुस्लिमवाद के  खिलाफ उग्र हिन्दू पंथ को खड़ा करने का उमा भारती सरीखा तेवर दिखा। वह भी एक ऐसे दल की मुखिया द्वारा जो के न्द्र में इंका का सहयोगी दल है। जयललिता ने भाजपा व विहिप की अनुपस्थिति को यह कहकर बनाये रखा कि ‘2.77 एकड़ भूमि पर से सभी बाधायें कारसेवा हेतु हटायी जानी चाहिए। विवादित ढांचे के  सवाल को बाद के  लिए छोड़ दिया जाना चाहिए और बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावनाओं का ख्याल भी रखा जाना चाहिए।’ इतना ही नहीं, इस विवाद के  लिए उच्चतम न्यायालय की भूमिका को जयललिता ने अनावश्यक करार दिया। विहिप और भाजपा भी उपस्थित होकर इससे ज्यादे कुछ नहीं कर पाती लेकिन जयललिता की इस धारणा के  पीछे वह मंशा नहीं है जो भाजपा व विहिप की है वरन् वे बंगरप्पा और सुब्रह्मण्यम स्वामी को कांग्रेस का ‘‘प्लान्टेड मैन’ स्वीकार करते हुये कांग्रेस के  खिलाफ खड़ी होने की कोशिश में हंै।
भाजपा के  दम से जयललिता में इतना दुस्साहस भर गया कि कांग्रेस से मोहभंग का बिगुल तो उन्होंने बजाया ही, साथ ही साथ अन्नाद्रमुख के  11 सांसदों की ताकत से के न्द्र सरकार को भी चुनौती दी। इतना ही नहीं, सांसद में ‘वंदेमातरम्’ गाने को लेकर जो विवाद उठा उस मुद्दे पर भी अन्नाद्रमुक ने कांग्रेस का साथ नहीं दिया और अन्नाद्रमुख, सुलेमान सेठ, सहाबुद्दीन, जद आदि के  राजनैतिक बांझपन का शिकार हो उठी। भाजपा को जानना होगा कि यह वही ‘वन्देमातरम्’ है जिसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश का राष्ट्रीय व सांस्कृतिक प्रतीक मानता है।
एकता परिषद में जो कुछ हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि अब अपनी पसन्द के  मुद्दों पर राजनीति करने का जोर जो चल निकला है। यह सुखद नहीं होगा क्योंकि कभी अन्नाद्रमुक जद के  साथ होगी कभी कांग्रेस, रामो-वामों के  साथ और कभी रामो-वामो भाजपा के  साथ। वस्तुतः मंदिर निर्माण पर भाजपा के  तीखे तेवर का कारण मण्डल विवाद पर उच्चतम न्यायालय के  निर्णय का वी.पी. सिंह के  खाते में चला जाना है, जिससे वोट की गणित में वी.पी. सिंह मजबूत हुए। भाजपा के  सामने वी.पी. सरकार गिराने के  पीछे भी लगभग यही स्थिति भी। वैसे यह भी सत्य है कि मंदिर निर्माण हेतु ही भाजपा को जनादेश प्राप्त हुआ था और भाजपा समझ गयी है कि 16 लाख कारसेवकों के  रूप में जो वोटों की तिजोरियां हाथ लग गयी हैं, उसे बनाये रखने और बढाने का एक मात्र तरीका मंदिर निर्माण को और उकसाना है। पादुका पूजन के  असफलता के  बाद पराजय का आक्रोश जोरों पर है। भाजपा यह समझने लगी है कि पहले बिना कुछ खोये प्रदेश पा लिया गया है और अब लखनऊ खोकर हिंदी पाने का सपना पूरा किया जा सकता है क्योंकि भाजपा के  स्वदेशी व एकता यात्रा सरीखे कार्यक्रमों की असफलता अब किसी बड़़े उत्सर्ग की मांग कर रही है। सहसा भाजपा ने हिन्दू मतों की संकल्पना को झटक लिया और मंदिर मुद्दा उसकी झोली में चला गया। समय-समय पर इंका ने इस मुद्दे को अपने हथियार के  रूप में प्रयोग करने की तमाम असफल कोशिशें की। आज यह मुद्दा देश के  सामने, संविधान के  सामने और हमारी कार्यपालिका सभी के  सामने ऐसा गम्भीर हो गया है कि सभी राजनैतिक दलों की गति सांप-छछून्दर जैसी हो गयी है।
एकता परिषद की बैठक में साम्प्रदायिक सद्भाव व कानून का शासन बनाये रखने के  लिये कोई भी निर्णय लेने का अधिकार सभी राजनैतिक दलों ने प्रधानमंत्री नरसिंह राव को दे दिया है। वह चाहे प्रदेश की सरकार की बर्खास्तगी का ही क्यों न हो ? इस स्थिति में भी रामो व वामो ने के न्द्र सरकार को समर्थन देने का आश्वासन दिया है।
दूसरी ओर भाजपा के  के न्द्रीय नेताओं व प्रादेशिक नेताओं के  तेवर में काफी अन्तर है। विहिप आर-पार की लाई लने की स्थिति में है। के न्द्र सरकार का परहंस रामचन्द्र से वार्ता का प्रयास असफल हो गया है। प्रदेश के  नेता और मुख्यमंत्री कल्याण सिंह 2.77 एकड़ भूमि पर कारसेवा की अनुमति चाहते हैं। और चाहते हैं कि इसके  अधिग्रहण की वैधता की चुनौती पर शीघ्र फैसला सुना दिया जाए। पर के न्द्रीय नेतृत्व कल्याण सरकार की शहादत चाहता है। दोनों ओर एक दूसरे को कतरने-ब्यौतने की प्रक्रिया जारी है। कल्याण सिंह शहादत के  लिए एक ऐसी स्थिति बनाये रखना चाहते है कि 5 दिसम्बर तक के न्द्र सरकार को भुलावे में रखकर शहीद होने का सेहरा स्वयं बांध लें। के न्द्र, प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने या निलम्बित करने के  परिणाम की गम्भीरता से वाकिफ है। यानी टकराव के न्द्र नहीं चाहता है अगर मंदिर के  2.77 एकड़ भूमि पर कारसेवा करने की अनुमति मिल भी जाये तो क्या भाजपा विहिप से अपने सम्बन्धों और सुप्रीम कोर्ट पर अपनी आस्था को अभी स्पष्ट करके  अन्त तक स्थिर रहेगी ?
इस विवाद को सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों से देखने की जरूरत है। तभी समस्या हल हो पायेगी। इसके  लिए आवश्यक है कि 2.77 एकड़ भूमि को कारसेवा के  लिए मुक्त कर दिया जाए। विवादित ढांचे के  लिये प्रदेश सरकार को संविधान के  138 (2) पर आस्था जताकर उच्चतम न्यायालय के  निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर दोनों साथ-साथ नहीं हुआ तो भयमुक्त समाज का नारा देने वाली सरकार मंदिर निर्माण के  भूत से जाने कब तक डराती रहेगी। अब जरूरत इस बात की है कि यथास्थितिवाद की राजनीति को तलाक दे दिया जाए और राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए एक गैर राजनैतिक फैसला लिया जाए जिसमें वोट की लहलहाती फसल का कोई स्थान न हो।

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