अर्थव्यवस्था में सुधार की संभावना नहीं

Update:1993-06-04 22:15 IST
भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया के  तहत वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने ब्याज की दरों में कटौती के  पुनः संके त दिए हैं। सामान्य शब्दों में ब्याज से अभिप्राय राष्ट्रीय आय के  उस भाग से है, जो वितरण की प्रक्रिया में पूंजीपति को उसकी पूंजी के  प्रतिफल के  स्वरूप में दिया जाता है। वैसे ब्याज पूंजीकोष के  बदले में मिलने वाला प्रतिफलन है। यह कोष तैयार करने के  लिए बचतकर्ता/जमाकर्ता को तरलता अधिनियम सिद्धांत के  तहत तत्कालीन आवश्यकताओं में कटौती करनी पड़ती है। ब्याज की दर, पंूजी की मांग एवं पूर्ति की दर से सीधे तौर पर जुड़ी है और पूंजी की मांग एवं पूर्ति बचत की मांग एवं  पूर्ति से सम्बद्ध है। यानी ब्याज की दरों में कटौती का परिणामस्वरूप बचतें हतोत्साहित होंगी। बचतों के  हतोत्साहित होने और दूसरी ओर मूल्य में लगातार बढ़ोत्तरी के  कारण उपभोक्ता बचत से धन निकालकर सीधे तौर पर उसे वस्तुओं की खरीदारी में निवेश/व्यय करेगा।
वास्तव में ब्याज वह कीमत है, जो बचत की पूर्ति तथा मांग के  मध्य संतुलन स्थापित करती है। बचत की पूर्ति से अभिप्राय चालू वर्ष की ऐच्छिक बचत से है। जो समाज में लोगों के  जीवन स्तर, आय की मात्रा, दूरदर्शिता और ब्याज की दर आदि पर निर्भर करती है। सामान्यतया निचली ब्याज दर पर एक और ऊंची ब्याज दर पर अधिक बचत होती है। यानी बचत की पूर्ति और ब्याज दर में सीधा सम्बन्ध होता है। यही कारण है कि बचत का पूर्ति वक्र बाएं से दाएं, ऊपर की ओर चढ़ता हुआ होता है।
पूंजी की मांग, पूंजी की उत्पादनशीलता के  कारण की जाती है, जिसका मतलब निवेश हेतु बचत की मांग से है। उत्पादक वर्ग पूंजीगत वस्तुओं में निवेश के  लिए करना चाहते हैं। ताकि वे पूंजी के  प्रयोग से अधिक उत्पादन कर सकें। किन्तु ज्यों-ज्यों पूंजी का प्रयोग बढ़ता जाता है। उसकी सीमांत उत्पादकता उत्तरोत्तर घटती जाती है। अतः पूंजी का प्रयोग उस सीमा तक होगा, जहां उसकी सीमांत उत्पादकता गिरकर ठीक ब्याज दर के  बराबर हो जाती है। जब-जब ब्याज दर गिरती है तो पूंजी की मांग बढ़ती है। यानी पूंजी की मांग एवं ब्याज दर में विपरीत सम्बन्ध है। इसी कारण पूंजी की मांग वक्र बाएं से दाएं नीचे गिरता हुआ होता है।
किसी भी समय जब बचत की पूर्ति निवेश मांग से अधिक हो जाती है। ब्याज दर का गिरना अवश्यम्भावी हो जाता है। इसके  परिणामस्वरूप एक ओर तो बचत घटने लगती है। दूसरी ओर निवेश बढ़ने लगते हैं।
ब्याज दर के  आधुनिक सिद्धांतों के  अनुसार मुद्रा की पूर्ति को विशेष महत्व नहीं दिया जाता। क्योंकि मुद्रा की पूर्ति दी गयी होती है यानी अर्थव्यवस्था में किसी भी समय मुद्रा की कुल पूर्ति को रिजर्व बैंक आॅफ इण्डिया से ज्ञात किया जा सकता है। ब्याज की दर मुद्रा की मांग पर निर्भर करती है। यदि ब्याज की दर नीची होगी अर्थात् तरलता से परित्याग का पुरस्कार कम हो जाएगा तो नकदी की कुल मात्रा, जिसे लोग अपने पास रखना चाहेंगे (अर्थात् मुद्रा की मांग) मुद्रा की कुल पूर्ति की तुलना में अधिक हो जाएगी। मुद्रा की मांग समाज के  तरलता अधिमान द्वारा शासित होती है और तरलता अधिमान व्यवसायिक उद्देश्यों से सुरक्षात्मक उद्देश्य से तथा सट्टा हेतुक मुद्रा की मांग द्वारा निर्धारित होता है।
सट्टा हेतु मुद्रा की मांग एक सर्वथा अस्थिर तत्व है, जिसे सहजता से ज्ञात नहीं किया जा सकता। ब्याज दर के  विश्लेषण में बैंक को भी एक कारक के  रूप में शामिल किया गया है, जो ऋण देय कोषांे पर निर्भर करता है। ऋण देय कोष के  अभिप्राय मुद्रा की उस मात्रा से है, जिसकी ऋण बाजार (या साख बाजार) में मांग की पूर्ति की जाती है। यानी ब्याज दर वह कीमत है, जो ऋण देय कोषों की मांग एवं पूर्ति को संतुलित कर देती है। ऋण देय कोषों की मांग या पूर्ति ब्याज सापेक्ष होती है।
ब्याज की दर निवेश व बचत सरीखे वास्तविक घटक तथा तरलता अधिमान व मुद्रा की पूर्ति सरीखे मौद्रिक घटकों पर निर्भर करती है। ब्याज की दरों में कटौती के  परिणामस्वरूप बचत हतोत्साहित होगी। बचतों के  हतोत्साहित होने से निवेश पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। मुद्रा का एक बहुत बड़ा भाग चलन में आ जाएगा। जिससे वस्तुओं की तात्कालिक मांग बढ़ेंगी। उत्पादन बढ़ेगा। रोजगार के  अवसरों में भी बढ़ोत्तरी होगी। रोजगार के  बढ़े अवसरों के  कारण लोगों के  हाथ में क्रय शक्ति आएगी। इससे अर्थव्यवस्था में तात्कालिक रूप से मंदी से उबरने के  चिन्ह परिलक्षित होने लगेंगे। लेकिन मुद्रा के  चलन वेग में बढ़ोत्तरी होने से मुद्रा स्फीतिक स्थितियां बढ़ती जाएंगी। क्योंकि ब्याज दर में कम की स्थिति में मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण कर पाना संभव नहीं होगा। इससे मुद्रा में अवमूल्यन के  स्वतःजन्य लक्षण दिखने लगेंगे। ब्याज दरों में कटौती एक ऐसे समय में की जा रही है जबकि विदेशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के  लिए भारतीय बाजार खुला है।
विकासशील देशों में प्रदर्शनकारी प्रभाव भी कम करता है, जिससे स्वदेशी वस्तुओं का पर्याप्त बाजार नहीं मिल पाता है। ऐसे में विदेशी सामानों की बिक्री/खपत बढ़ेगी और भारतीय उत्पादों के  उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि न हो पाने से अर्थव्यवस्था में मंदी पुनः प्रभावी हो जाएगी। ब्याज दरों में कटौती से निवेश पर सीधा विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः एक ओर निवेश तथा दूसरी ओर उत्पादन दोनों ही प्रभावित होंगे। परिणामतः अवमूल्यन की पुनः संभावनाएं बलवती होंगी। अर्थव्यवस्था में तीसा के  विश्वव्यापी मंदी के  लक्षण परिलक्षित होने लगेंगे।

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