साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्ध चेतना के कारण प्रेमचंद ने अपने उपन्यास व कहानी के क्षेत्र में जो मानदण्ड स्थापित किये। उनका अनुसरण जारी है। इन्हीं मानदण्डों का परिणाम हुआ कि प्रेमचंद रूस के गोर्की, चीन के लु-शिन और इंग्लैण्ड के डिके न्स की श्रेणी में आ गए।
प्रेमचंद साहित्य सृजन ही नहीं करते वरन् समाज की समस्याओं से उलझते हुए भी दिखायी पड़ते हैं। उनका साहित्य ‘साहित्य समाज का दर्पण है’, का पर्याय है। उन्होंने स्वीकार किया कि साहित्यकार का लक्ष्य के वल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। उनका दर्जा इतना न गिराएं। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
साहित्य के प्रति प्रेमचंद का यह बोध उनकी साहित्य चेतना और प्रासंगिकता पर उठने वाले सवालों का जवाब देने में सक्षम है।
प्रेमचंद ने अपना लेखकीय जीवन एक उर्दू निबन्धकार एवं उर्दू कथा लेखक के रूप में आरंभ किया और जुलाई 1908 में उनका प्रथम उर्दू कहानी संग्रह ‘सोजेवतन’ प्रकाशित हुआ। तब तक वे उर्दू के स्थापित लेखक हो चुके थे। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने दिसम्बर, 1908 में सरस्वती से सोजेवतन की समीक्षा प्रकाशित की और प्रेमचंद का उल्लेख (तब प्रेमचंद नवाब राय नाम से लिखते थे) उर्दू से प्रसिद्ध लेखक के रूप में किया। इसके बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में लिखना आरंभ किया। उन्होंने सन 1907 में अपने उर्दू उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रेमा नाम से प्रकाशित किया। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर प्रेमचंद की पहली हिन्दी कहानी ‘सौत’ थी। जो सरस्वती के दिसम्बर, 1915 के अंक में प्रकाशित हुई थी। सप्तसरोज सात कहानियों का संग्रह हिन्दी पुस्तक एजंेसी कलकत्ता से 1917 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक की भूमिका प्रेमचंद के मित्र मन्नन द्विवेदी गजपुरी ने लिखी थी।
प्रेमचंद पहले कथाकार थे, जिन्होंने भारतीय जन जीवन को उनकी समग्रता से ग्रहण किया। जिनका कैनवास विस्तृत था। समाज के अन्तर्विरोध पर उनकी पकड़ थी। कहानी कला के सम्बन्ध में उनका यह मानना कि मैं जो चाहता हूं, वह यह है कि कहानियों में प्लाट जीवन से लिए जाएं ओर जीवन की समस्याओं को हल करें। कहानी से कविता का काम लेना मुझे नहीं जचता। गद्य काव्य कहानी से अधिक हृदय के तारों पर चोट करता है। क्योंकि यह तो चोट करने के लिए ही लिखा जाता है। लेकिन उसकी चोट उस संगीत की ध्वनि के सदृश है जो एक बार कान में पड़कर एक चुटकी लेकर गायब हो जाती है। कहानी अपनी आंखों के सपने चरित्रों को खेलते हुए दिखाती है। प्रेमचंद ने समाज और समाज की विसंगतियांे पर जो विचार रखे थे, उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हंैः-
प्रेमचंद का मानना था कि सारी बुराइयों की जड़ धन की असमानता है। जहां धन की कमोबेशी के आधार पर असमानता है। वह ईष्र्या, जोर, जबर्दस्ती, बेइमानी, झूठ, मिथ्या, अभियोग, आरोप, वेश्यावृत्ति, व्याभिचार और सारी दुनिया की बुराइयां अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहां धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक ही स्थिति में हैं, वहां जलन क्यों हो और जब क्यों हों? और सतीत्व विक्रय क्यों हों? झूठे मुकदमें क्यों चलें? और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों? यह सारी बुराइयां तो दौलत की ही देन हैं। पैसे के प्रसाद हैं। महाजनी सभ्यता ने इसकी सृष्टि की है, वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं वे इसे ईश्वरीय विधान समझकर अपनी स्थिति पर संतुष्ट रहें।
धर्म के नाम पर कोई संस्कृति नहीं पनपती साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप से निकलते शायद लज्जा आती है। इसलिए वह उस गधे की भांति है जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था। हिन्दू-मुसलमान अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गये कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है न हिन्दू संस्कृति न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में के वल एक संस्कृति है वह है आर्थिक संस्कृति। मगर हम आज भी हिन्दू मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।
प्रगतिशीलता के संदर्भ में साहित्यकार या कलाकार स्वभाव प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। उसी कमी को पूरा करने के लिए अपनी आत्मा बेचैन रहती है। अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छता की जिस अवस्था में देखना चाहता है वह उसे दिखायी नहीं देती। इसलिए वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अंत कर देना चाहता है। जिसे दुनिया में जीने और मरने के लिए इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाय। यही वेदना और यही भाव इसके हृदय और मस्तिष्क को सक्रिय बनाए रहता है। उसका दर्द से भरा हृदय इसे सहन नहीं कर सकता कि एक समुदाय क्यों सामाजिक विषयों और रूढ़ियों के बंधन में पड़कर कष्ट भोगता रहे। क्योंकि न ऐसे सामान इकट्ठा किये जाएं कि वह गुलामी और गरीबी से छुटकारा पा जाएं। वह इस वेदना को जितनी बेचैनी के साथ अनुभव करता है, उतना ही उसकी रचना में जोर और सच्चाई पैदा होती है।
यह सब कुछ वर्तमान स्थितियों में भी ऐसे ही पाए और देखे जाते हैं। प्रेमचंद ने वर्तमान व्यवस्था पर जो सवाल उस समय खड़ा किया था। वह आज भी जीवंत है। कर्मभूमि में प्रेमचंद ने लिखा है ‘इतनी अदालतों की जरूरत क्या, ये बड़े-बड़े महकमे किसलिए। ऐसा मालूम होता है कि गरीबों की लाश नोचने वाले गिद्धों का समूह है, जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री है। उसका स्वार्थ उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता के लक्षण हैं। गरीबों को रोटियां मयस्सर न हों। कपड़ों को तरसते हों और हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए। नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्याय है। ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें!‘
दूसरी ओर विवशता और अप्राप्ति की भाषा की समझ भी उन्हें कितनी ठीक है और मूठ कहानी लिखते समय प्रेमचंद ने दर्शाया, जिसे रोटियों के लाले हों। कपड़ों को तरसे। जिसकी आकांक्षा का भवन सदा अंधकारमय रहा हो। जिसकी इच्छाएं कभी पूरी न हुई हों। उसकी नियत बिगड़ जाए तो आश्चर्य की बात नहीं।
प्रेमचंद की डायरी के 02 जनवरी (बृहस्पति) 1936 के पृष्ठ पर प्रेमचंद ने गोदान के नायक होरी पर कर्जे का हिसाब लिखकर देखा है, जो निम्नवत् है:-
होरी पर आरंभ में कर्ज-
मंगरूशाह-60 बढ़कर हो गए 300
दुलारी-100
दातादीन-100
लगान-25
नाम अस्पष्ट-35 से 80
डायरी का यह पृष्ठ प्रेमचंद की होरी के सम्बन्ध में सबसे बड़ी चिंता को उद्घटित करता है। वे होरी को जीवन भर महाजनों और जमींदारों के कर्ज में डूबा हुआ पाते हैं और उनकी मुक्ति का मार्ग उन्हें दिखलायी नहीं देता।
प्रेमचंद महज एक अच्छे लेखक ही नहीं वरन् सम्पादक भी रहे हंै। उनके लिए हंस के प्रथम अंक के सम्पादकीय का यह अंश पर्याप्त है:-
हंस के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि उनका जन्म ऐसे शुभ अवसर पर हुआ है जब भारत में एक नए युग का आगमन हो रहा है। जब भारत पराधीनता की बेड़ियों से निकलने के लिए तड़पने लगा है। इस स्थिति की यादगार एक दिन देश में कोई विशाल रूप धारण करेगी।
कहते हैं जब श्रीरामचंद्र जी समुद्र पर पुल बांध रहे थे, उस वक्त छोटे-छोटे पशु पक्षियों ने मिट्टी ला-लाकर समुद्र को पाटने में मदद की थी। इस समय देश में उससे कहीं विकट संग्राम छिड़ा हुआ है। भारत में शान्तिमय समर की भेदी बजा दी है। हंस भी मान सरोवर की शांति छोड़कर अपनी नन्हीं सी चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिए हुए समुद्र पाटने आजादी की जंग में योग देने चला है। समुद्र का विस्तार देखकर उसकी हिम्मत छूट रही है लेकिन संघ शक्ति ने उसका दिल मजबूत कर दिया है।
प्रेमचंद को रूस में गोर्की, चीन के लु-शिन जैसा हिंदी में स्थान जरूर मिला है। परंतु प्रेमचंद की स्मृति रक्षा के लिए गोर्की और लुशिन जैसा कोई प्रयत्न नहीं किया है।
बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी ने पटना के सर्च लाइट में एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था। उसमें उनका सुझाव था कि हिन्दी, उर्दू को नजदीक लाना प्रेमचंद को सही श्रद्धांजलि है। जिस तरह हिन्दू और मुसलमान दोनों कबीर को अपना मानते थे। उसी तरह प्रेमचंद भी दोनों के हैं। हिन्दी वालों और उर्दू वालों के भी।
प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर चलने वाले विवाद पर मौन साधना ठीक नहीं होगा। प्रसिद्ध गणितज्ञ पंडित अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के जीवन काल में ही उन पर एक सवाल उठाया था कि उनका उपन्यास रंगभूमि वैनिटीफेयर का अनुवाद है। उस प्रश्न ने रंगभूमि की मौलिकता के सम्मुख प्रश्न जड़ दिया था। नंद दुलारे वाजपेयी ने तो प्रेमचंद के बारे में यह तक कहा कि प्रेमचंद के पास तात्विक जीवन दर्शन का अभाव है और वे नीति और आदर्श के जंगल में भटकते रहे हैं। परंतु नंद दुलारे वाजपेयी शायद कफन में घीसू का वह संवाद बोल गए, जिसमें प्रेमचंद ने लिखा है-यह नहीं बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे। जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते और मंदिरों में प्रसाद चढ़ाते हैं। प्रेमचंद के पात्र सामान्य व्यक्तियों के हृदय में तर्क करते हैं। वे हमारे आपके मस्तिष्क से सोचते हैं और हमारी अपनी आंखों से रोते हुए से प्रतीत होते हैं। होरी धनिया तथा गोबर की जिंदगी आम आदमी की जिंदगी है। उनका दुख-दर्द हमारी आपकी जिंदगी के बीच का है। जिसका ग्राफ प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में बड़ी खूबसूरती से खींचा है। विशेषकर नारी मन की सम-विषम परिस्थितियां, मान-अभिमान, हर्ष-उत्साह, उत्तेजना, दुख आदि तो प्रेमचंद की लेखनी की सर्वाधिक अछूती और महान उपलब्धियां हैं।
एक सबसे बड़ी खूबी, जो प्रेमचंद में देखने को मिली है, वह यह कि एक पूरे समाज को अपनी रचनाओं में पात्रों में जीते हैं। उनकी कहानियांे के विषय कहीं भी अस्वाभाविक नहीं लगते बल्कि समाज के यथार्थ से जुडे़ होते हैं। यही यथार्थ प्रेमचंद की असली पहचान है, जिसके लिए वे आद्यान्त जूझते रहे। कलम के स्तर पर, रचना के स्तर पर दबाव उन्हें कतई स्वीकार न था। यही कारण है कि उन्हें उपन्यास, कहानियों में कहीं बनावट जैसी चीज नहीं मिलती। कहीं थोपी हुई कथावस्तु का अनुभव नहीं होता। बल्कि एक सहज अनारोपित दृष्टि ही कथानक के रूप में होती है।
प्रेमचंद की चिर प्रासंगिकता है, जिसका कारण है प्रसंग नहीं बदलता है। जिस सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं से उन्हें जूझना पड़ता था, वे समस्याएं ज्यों की त्यों आज भी हैं। जब प्रसंग नहीं बदले तो प्रसंग का साहित्य अप्रासंगिकता कैसे हो जाएगा? प्रेमचंद एक सार्थक और सोद्देश्य लेखक थे। प्रेमचंद का उद्देश्य मनुष्य की नियति से जुड़ा था। उनकी कतियों, उनके संस्कारों से जुड़ा था, जो चिरंतन और शाश्वत है।
प्रेमचंद साहित्य सृजन ही नहीं करते वरन् समाज की समस्याओं से उलझते हुए भी दिखायी पड़ते हैं। उनका साहित्य ‘साहित्य समाज का दर्पण है’, का पर्याय है। उन्होंने स्वीकार किया कि साहित्यकार का लक्ष्य के वल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। उनका दर्जा इतना न गिराएं। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
साहित्य के प्रति प्रेमचंद का यह बोध उनकी साहित्य चेतना और प्रासंगिकता पर उठने वाले सवालों का जवाब देने में सक्षम है।
प्रेमचंद ने अपना लेखकीय जीवन एक उर्दू निबन्धकार एवं उर्दू कथा लेखक के रूप में आरंभ किया और जुलाई 1908 में उनका प्रथम उर्दू कहानी संग्रह ‘सोजेवतन’ प्रकाशित हुआ। तब तक वे उर्दू के स्थापित लेखक हो चुके थे। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने दिसम्बर, 1908 में सरस्वती से सोजेवतन की समीक्षा प्रकाशित की और प्रेमचंद का उल्लेख (तब प्रेमचंद नवाब राय नाम से लिखते थे) उर्दू से प्रसिद्ध लेखक के रूप में किया। इसके बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में लिखना आरंभ किया। उन्होंने सन 1907 में अपने उर्दू उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रेमा नाम से प्रकाशित किया। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर प्रेमचंद की पहली हिन्दी कहानी ‘सौत’ थी। जो सरस्वती के दिसम्बर, 1915 के अंक में प्रकाशित हुई थी। सप्तसरोज सात कहानियों का संग्रह हिन्दी पुस्तक एजंेसी कलकत्ता से 1917 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक की भूमिका प्रेमचंद के मित्र मन्नन द्विवेदी गजपुरी ने लिखी थी।
प्रेमचंद पहले कथाकार थे, जिन्होंने भारतीय जन जीवन को उनकी समग्रता से ग्रहण किया। जिनका कैनवास विस्तृत था। समाज के अन्तर्विरोध पर उनकी पकड़ थी। कहानी कला के सम्बन्ध में उनका यह मानना कि मैं जो चाहता हूं, वह यह है कि कहानियों में प्लाट जीवन से लिए जाएं ओर जीवन की समस्याओं को हल करें। कहानी से कविता का काम लेना मुझे नहीं जचता। गद्य काव्य कहानी से अधिक हृदय के तारों पर चोट करता है। क्योंकि यह तो चोट करने के लिए ही लिखा जाता है। लेकिन उसकी चोट उस संगीत की ध्वनि के सदृश है जो एक बार कान में पड़कर एक चुटकी लेकर गायब हो जाती है। कहानी अपनी आंखों के सपने चरित्रों को खेलते हुए दिखाती है। प्रेमचंद ने समाज और समाज की विसंगतियांे पर जो विचार रखे थे, उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हंैः-
प्रेमचंद का मानना था कि सारी बुराइयों की जड़ धन की असमानता है। जहां धन की कमोबेशी के आधार पर असमानता है। वह ईष्र्या, जोर, जबर्दस्ती, बेइमानी, झूठ, मिथ्या, अभियोग, आरोप, वेश्यावृत्ति, व्याभिचार और सारी दुनिया की बुराइयां अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहां धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक ही स्थिति में हैं, वहां जलन क्यों हो और जब क्यों हों? और सतीत्व विक्रय क्यों हों? झूठे मुकदमें क्यों चलें? और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों? यह सारी बुराइयां तो दौलत की ही देन हैं। पैसे के प्रसाद हैं। महाजनी सभ्यता ने इसकी सृष्टि की है, वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं वे इसे ईश्वरीय विधान समझकर अपनी स्थिति पर संतुष्ट रहें।
धर्म के नाम पर कोई संस्कृति नहीं पनपती साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप से निकलते शायद लज्जा आती है। इसलिए वह उस गधे की भांति है जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था। हिन्दू-मुसलमान अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गये कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है न हिन्दू संस्कृति न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में के वल एक संस्कृति है वह है आर्थिक संस्कृति। मगर हम आज भी हिन्दू मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।
प्रगतिशीलता के संदर्भ में साहित्यकार या कलाकार स्वभाव प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। उसी कमी को पूरा करने के लिए अपनी आत्मा बेचैन रहती है। अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छता की जिस अवस्था में देखना चाहता है वह उसे दिखायी नहीं देती। इसलिए वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अंत कर देना चाहता है। जिसे दुनिया में जीने और मरने के लिए इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाय। यही वेदना और यही भाव इसके हृदय और मस्तिष्क को सक्रिय बनाए रहता है। उसका दर्द से भरा हृदय इसे सहन नहीं कर सकता कि एक समुदाय क्यों सामाजिक विषयों और रूढ़ियों के बंधन में पड़कर कष्ट भोगता रहे। क्योंकि न ऐसे सामान इकट्ठा किये जाएं कि वह गुलामी और गरीबी से छुटकारा पा जाएं। वह इस वेदना को जितनी बेचैनी के साथ अनुभव करता है, उतना ही उसकी रचना में जोर और सच्चाई पैदा होती है।
यह सब कुछ वर्तमान स्थितियों में भी ऐसे ही पाए और देखे जाते हैं। प्रेमचंद ने वर्तमान व्यवस्था पर जो सवाल उस समय खड़ा किया था। वह आज भी जीवंत है। कर्मभूमि में प्रेमचंद ने लिखा है ‘इतनी अदालतों की जरूरत क्या, ये बड़े-बड़े महकमे किसलिए। ऐसा मालूम होता है कि गरीबों की लाश नोचने वाले गिद्धों का समूह है, जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री है। उसका स्वार्थ उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता के लक्षण हैं। गरीबों को रोटियां मयस्सर न हों। कपड़ों को तरसते हों और हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए। नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्याय है। ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें!‘
दूसरी ओर विवशता और अप्राप्ति की भाषा की समझ भी उन्हें कितनी ठीक है और मूठ कहानी लिखते समय प्रेमचंद ने दर्शाया, जिसे रोटियों के लाले हों। कपड़ों को तरसे। जिसकी आकांक्षा का भवन सदा अंधकारमय रहा हो। जिसकी इच्छाएं कभी पूरी न हुई हों। उसकी नियत बिगड़ जाए तो आश्चर्य की बात नहीं।
प्रेमचंद की डायरी के 02 जनवरी (बृहस्पति) 1936 के पृष्ठ पर प्रेमचंद ने गोदान के नायक होरी पर कर्जे का हिसाब लिखकर देखा है, जो निम्नवत् है:-
होरी पर आरंभ में कर्ज-
मंगरूशाह-60 बढ़कर हो गए 300
दुलारी-100
दातादीन-100
लगान-25
नाम अस्पष्ट-35 से 80
डायरी का यह पृष्ठ प्रेमचंद की होरी के सम्बन्ध में सबसे बड़ी चिंता को उद्घटित करता है। वे होरी को जीवन भर महाजनों और जमींदारों के कर्ज में डूबा हुआ पाते हैं और उनकी मुक्ति का मार्ग उन्हें दिखलायी नहीं देता।
प्रेमचंद महज एक अच्छे लेखक ही नहीं वरन् सम्पादक भी रहे हंै। उनके लिए हंस के प्रथम अंक के सम्पादकीय का यह अंश पर्याप्त है:-
हंस के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि उनका जन्म ऐसे शुभ अवसर पर हुआ है जब भारत में एक नए युग का आगमन हो रहा है। जब भारत पराधीनता की बेड़ियों से निकलने के लिए तड़पने लगा है। इस स्थिति की यादगार एक दिन देश में कोई विशाल रूप धारण करेगी।
कहते हैं जब श्रीरामचंद्र जी समुद्र पर पुल बांध रहे थे, उस वक्त छोटे-छोटे पशु पक्षियों ने मिट्टी ला-लाकर समुद्र को पाटने में मदद की थी। इस समय देश में उससे कहीं विकट संग्राम छिड़ा हुआ है। भारत में शान्तिमय समर की भेदी बजा दी है। हंस भी मान सरोवर की शांति छोड़कर अपनी नन्हीं सी चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिए हुए समुद्र पाटने आजादी की जंग में योग देने चला है। समुद्र का विस्तार देखकर उसकी हिम्मत छूट रही है लेकिन संघ शक्ति ने उसका दिल मजबूत कर दिया है।
प्रेमचंद को रूस में गोर्की, चीन के लु-शिन जैसा हिंदी में स्थान जरूर मिला है। परंतु प्रेमचंद की स्मृति रक्षा के लिए गोर्की और लुशिन जैसा कोई प्रयत्न नहीं किया है।
बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी ने पटना के सर्च लाइट में एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था। उसमें उनका सुझाव था कि हिन्दी, उर्दू को नजदीक लाना प्रेमचंद को सही श्रद्धांजलि है। जिस तरह हिन्दू और मुसलमान दोनों कबीर को अपना मानते थे। उसी तरह प्रेमचंद भी दोनों के हैं। हिन्दी वालों और उर्दू वालों के भी।
प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर चलने वाले विवाद पर मौन साधना ठीक नहीं होगा। प्रसिद्ध गणितज्ञ पंडित अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के जीवन काल में ही उन पर एक सवाल उठाया था कि उनका उपन्यास रंगभूमि वैनिटीफेयर का अनुवाद है। उस प्रश्न ने रंगभूमि की मौलिकता के सम्मुख प्रश्न जड़ दिया था। नंद दुलारे वाजपेयी ने तो प्रेमचंद के बारे में यह तक कहा कि प्रेमचंद के पास तात्विक जीवन दर्शन का अभाव है और वे नीति और आदर्श के जंगल में भटकते रहे हैं। परंतु नंद दुलारे वाजपेयी शायद कफन में घीसू का वह संवाद बोल गए, जिसमें प्रेमचंद ने लिखा है-यह नहीं बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे। जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते और मंदिरों में प्रसाद चढ़ाते हैं। प्रेमचंद के पात्र सामान्य व्यक्तियों के हृदय में तर्क करते हैं। वे हमारे आपके मस्तिष्क से सोचते हैं और हमारी अपनी आंखों से रोते हुए से प्रतीत होते हैं। होरी धनिया तथा गोबर की जिंदगी आम आदमी की जिंदगी है। उनका दुख-दर्द हमारी आपकी जिंदगी के बीच का है। जिसका ग्राफ प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में बड़ी खूबसूरती से खींचा है। विशेषकर नारी मन की सम-विषम परिस्थितियां, मान-अभिमान, हर्ष-उत्साह, उत्तेजना, दुख आदि तो प्रेमचंद की लेखनी की सर्वाधिक अछूती और महान उपलब्धियां हैं।
एक सबसे बड़ी खूबी, जो प्रेमचंद में देखने को मिली है, वह यह कि एक पूरे समाज को अपनी रचनाओं में पात्रों में जीते हैं। उनकी कहानियांे के विषय कहीं भी अस्वाभाविक नहीं लगते बल्कि समाज के यथार्थ से जुडे़ होते हैं। यही यथार्थ प्रेमचंद की असली पहचान है, जिसके लिए वे आद्यान्त जूझते रहे। कलम के स्तर पर, रचना के स्तर पर दबाव उन्हें कतई स्वीकार न था। यही कारण है कि उन्हें उपन्यास, कहानियों में कहीं बनावट जैसी चीज नहीं मिलती। कहीं थोपी हुई कथावस्तु का अनुभव नहीं होता। बल्कि एक सहज अनारोपित दृष्टि ही कथानक के रूप में होती है।
प्रेमचंद की चिर प्रासंगिकता है, जिसका कारण है प्रसंग नहीं बदलता है। जिस सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं से उन्हें जूझना पड़ता था, वे समस्याएं ज्यों की त्यों आज भी हैं। जब प्रसंग नहीं बदले तो प्रसंग का साहित्य अप्रासंगिकता कैसे हो जाएगा? प्रेमचंद एक सार्थक और सोद्देश्य लेखक थे। प्रेमचंद का उद्देश्य मनुष्य की नियति से जुड़ा था। उनकी कतियों, उनके संस्कारों से जुड़ा था, जो चिरंतन और शाश्वत है।