एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बहाने संस्कृति पर एक बार फिर जबरदस्त चर्चा है। तर्क और वितर्क जारी है। सरकारी खर्चे पर होने वाले कार्यक्रमों के लिए सीमा रेखा खींची जा रही है। सांस्कृतिक कार्यक्रम करने वाला संगठन है- सहमत। सहमत वामपंथी समझ का एक ऐसा मंच है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की स्वअर्थी स्वीकृति है। यह स्वीकृति इस हद तक है कि ये लोग बुर्जुगुआ और कामरेड सरीखे तमाम शब्दों पर यह अपना कापीराइट समझते हैं। राष्ट्रीयता के प्रति इनके वामपंथी दलांे की धारणा इतनी बलवती है कि लालकिले पर इन्हें आज तक तिरंगा नहीं सुहाया। ये लालकिले पर लाल निशान देखने के अभ्यस्त हैं। 1962 मंे चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया तो इन्हें भारत आक्रमणकारी दिखा। चीन नहीं। इसलिए कि वहां माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी की छाया सत्ता को संचालित कर रही थी। चीन के थ्यानमैन चैक पर लोकतंत्र की गुहार करते छात्रों पर गोली चलाना इन्हें तानाशाही नहीं लगा। महज इसलिए क्योंकि सोवियत संघ और चीन सरीखे वामपंथी विचारधारा वाले देशों से इनकी सांस्कृतिक व साहित्यिक खेमेबाजी की दुकानें चला करती थीं । यही वजह है कि ये लोगांे के ध्यानाकर्षण के लिए हमेशा एक न एक नए विवाद को जन्मते रहे हैं।
यथा- साहित्य में कभी प्रगतिवाद, कभी जनवाद और कभी उत्तर आधुनिकतावाद। इससे हमें हमारे समृद्ध व्यतीत से काटने की इनकी साजिशें सफल होती रही हैं। इनसे पूछा जाए कि आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता क्या है ? तो ये नित्तरित हो जाएंगे। निरूत्तरित हुए भी हैं। परंतु इन्हें एक बहस चलानी है। मठों पर बैठे रहना है। आज कल इन लोगों को कबीर में सर्वाधिक जनवाद नजर आ रहा है। कबीर के हठयोग की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति ये करना चाहते हैं। कबीर को इन्होंने ढाल बनाया है। इन्हें शायद पता न हो कि कबीर न हिंदू थे न मुसलमान। वह एक आदमी थे और ये वामपंथी। इनकी नजर में दक्षिणपंथी व्यक्ति वामपंथी नहीं बन सकता। वामपंथी को कांग्रेस, भाजपाई कुछ भी बनने की छूट है। वामपंथ में जाने के बाद तो सभी पंथों के लिए पथ स्वतः खुल जाता है। वामपंथ में आपको एक ऐसा पारस स्पर्श कर लेता है। जिससे आप में सर्वव्यापकता समा जाती है।
इस संगठन को सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए सहयोग करने वाली संस्था है- भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्रालय। यह आम धारणा है कि राजनीति में धर्म का प्रयोग नहीं होना चाहिए। ऐसी आम स्वीकृति कांग्रेस में भी है। तभी तो धर्म विधेयक संसद में कांग्रेस की ओर से पेश किया गया। हालांकि इस सत्य से भी आंख नहीं चुराया जा सकता है कि पिछले एक दशक में भारत को धर्म और राजनीति के गंदे खेल के परिणामस्वरूप कई हादसों से गुजरना पड़ा है। क्योंकि राजनीतिक दलों ने धर्म को इतने संकीर्ण और स्वहितपोषी अर्थ में देखा, अपनाया और प्रस्तुत किया कि धर्म का असली स्वरूप व कामकाज बिगड़ गया। इसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी सत्तारू कांग्रेस की है। इसकी दो वजहें है। पहली, सबसे अधिक समय तक देश पर कांग्रेस ने राज किया। दूसरी, धर्म विधेयक वही लेकर आई है। इस सवाल पर कांग्रेस हमेशा हिप्पोक्रेसी की स्थिति में रही है। उसकी इसी भूमिका का प्रभाव देश और समाज के हित में घातक हुआ । इसी का परिणाम है कि 15 अगस्त को अयोध्या में सहमत को मुक्तनाद कार्यक्रम करने का अवसर मिला। सहमत यानि सफदर हाशमी के संर्षों को आगे बाकर उनके लक्ष्यों की स्थापना का मंच। हाशिम को सच्ची श्रृद्धांजलि देने का प्लेटफार्म। लेकिन अब सहमत जनवाद के नाम पर हाशमी के सपनों पर पलीता लगाने का काम कर रहा है। तभी तो उसकी जो राजनीतिक प्रतिबद्धता कभी कम्युनिस्ट पार्टी से थी वह कांग्रेस में अर्जुन सिंह खेमे से हो रही है। यह अर्जुन सिंह के सपनों को साकार करने वाली एक बुद्धिजीवी संस्था के रूप में काम कर रही है। बुद्धिजीविता में तर्क प्रधान होता है। तर्क में कु भी संभव है। इसी कारण से राजनीति में धर्म के दुरुपयोग को रोकने संबंधी विधेयक का प्रस्ताव तैयार करते समय अयोध्या में मुक्तनाद कार्यक्रम करने की अनुमति सहमत को दी गई। जिसके तहत सहमत ने पोस्टर प्रदर्शनी लगाई। जिस पर संसद से सड़क तक तमाम विवाद हुए। मुक्तनाद के प्रायोजक अर्जुन सिंह ने भी बाद में पोस्टरों से असहमति जताई। लेकिन इसी के साथ उन्होंने कहा कि कुछ कलाकारांे ने इस देश में सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में लोगों को शिक्षित करने का जो प्रयास किया है। उस प्रयास को समाप्त करने के लिए यह विवाद खड़ा किया जा रहा है। अर्जुन सिंह की दृष्टि में राम और सीता के बीच भाई-बहन का रिश्ता होना और इक्षवाकुवंश में भाई-बहन की शादी का प्रमाण होना सांप्रदायिक सदभाव की दिशा में सार्थक पहल है। इसे साबित करने के लिए जातक कथाओं का सहारा लेना। जातक कथाओं के बहाने आस्थाओं के उपहास का अवसर किसी को नहीं मिलना चाहिए। सहमत के पोस्टरों में अयोध्या को अयुधिया लिख कर इसे युद्धविहीन बताना तभी अपनी सार्थकता खो देता है जब पोस्टरों में राम को सीता का भाई बता दिया जाता है। क्योंकि जातक कथाओं के मार्फत जुटाए गए इस सत्य से एक धर्म विशेष पर न क¢वल हमला होता है बल्कि उसकी धार्मिक भावनाएं भी आहत होती है।
क्योंकि इसके लिए बौद्ध जातक कथाओं तथा दशरथ जातक कथाओं की बात कही गई है। लेकिन सवाल यह उठता है कि इन्हें तुलसीकृत राम चरित मानस और बाल्मीकी कृत रामायण से ज्यादा महत्वपूर्ण व प्रमाणि बौद्ध जातक कथाएं क्यों लगीं ? यह इनका शरारतपूर्ण रवैया नहीं तो क्या है ? फिर अपनी सफाई में सहमत का यह कहना कि जो पोस्टर प्रदर्शनी लगी उसकी सामग्री का सहमत से कोई ताल्लुक नहीं है ? यह यहमत निष्कर्ष नहीं है। तो आखिर जातक कथाओं को दर्शाना और खोज कर अयोध्या जैसे संवेदनशील स्थानों पर पोस्टर प्रदर्शनी लगाना किसका निष्कर्ष है। भाजपा ने छह दिसंबर को जो किया वही सहमत के लोग करना चाह रहे हैं। भाजपा को जनसमुदाय मिल गया। इन्हें जनमानस नहीं मिला। दोनांे के लक्ष्य थे हिंसा, उपद्रव और विवादित ढांचे पर प्रभुत्व की बरकरारी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद योगेंद्र झा ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि मुक्तनाद के जरिए जानबूकर उपद्रव कराने की कोशिश की गई। कुछ प्रगतिशील इतिहासकार प्राचीन भारतीय इतिहास को पश्चिमी संदर्भ में देखना चाहते हैं।
सहमत में सभी अंग्रेज दा लोग हैं। इनके परिचय, पोस्टर और सोच सभी अंग्रेजियत भरे हैं। इसमें पाश्चात्यपन है। ये भाई-बहन को ब्रदर-सिस्टर कहते हैं। सिस्टर- ब्रदर से उन आत्मीय रिश्तों का बोध हमारी संस्कृति में नहीं हो पाता जो विवाह करने से रोक¢। प्रेमचंद, गोर्की और लूसिन को अपनी पैतृक विरासत मानने वाले साहित्य और संस्कृति में खेमेबाजी की नैतिकता काल निर्वाह कर रहेे ये सांस्कृतिक वेत्ता कैसे कहेंगे कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। इनके लिए यह स्वीकार पाना कहां संभव है - सारे जहां से अच हिंदुस्ता हमारा। इसकी स्वीकृति होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि इन्हें दार्शनिकों व समाज विज्ञानियों के रूप में कार्ल माक्र्स, लेनिनऔर माओ- त्से-तुंग को स्वीकारने का पाठ पढ़ाया जाता है।
लेकिन इन प्रगतिशील पाश्चात्य इतिहासकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि बौद्ध एवं जैन, सनातन धर्म के प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप जन्में। प्रतिक्रियावादी धर्मों के निष्कर्ष कितने उपयोगी और प्रभावी होने चाहिए। हिंदू धर्म शास्त्रों में क्षेपकों के लिए बौद्ध धर्म कितना दोषी है। यह इन इतिहासकारांे की नजर से नहीं बचा होगा। सीता की अग्निपरीक्षा, सीता निर्वासन और धोबी का वक्तव्य आदि ऐसे ही क्षेपकों में ही हंै। ये क्षेपक इसलिए हैं ताकि लोगों को राम को मर्यादा की संपूर्णता के आम स्वीकृति के बोध से काटा जाए। अयोध्या प्रदर्शनी में 83 कथा पट थे। जिसमें एक ही विवादास्पद हुआ। यह प्रदर्शनी त्रिमूर्ति में दिल्ली में लगी। संसद में चर्चा हुई तो सहमत के लोगों ने पोस्टर हटाने के बजाए प्रदर्शनी हटाई। यानि इनकी मंशा भी बौद्धों की तरह पुराने क्षेपकों को जारी रखकर भारत के सांस्कृतिक एक्य को समाप्त करने या ठेस पहुंचाने की थी। सहमत के एक प्रवक्ता ने इस लड़ाई को लड़ने के लिए राजनीतिक संयोग का अभाव स्वीकारा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इनके पास संस्कृति को देखने और समने का नजरिया राजनीति है। सहमत के लोग राहुल सांकृत्यायन की बोल्गा से गंगा तक को इतिहास मान बैठे हैं। भाई-बहन के विवाद की पहली कथा वेद के यम- यमी संवाद में है। पर वहां भी यम अस्वीकर करता है। गल्प कथाएं संस्कृति का अंग नहीं होती है । सहमत राजनीति के रूप में अपना प्रयोग कराना चाहती है। अगर ऐसा नहीं था तो समाज के लिए प्रतिबद्ध ये कलाकार आम नागरिकों जैसे आकर किसी साधारण स्टेज पर कार्यक्रम दे सकते थे। पर ऐसा नहीं हुआ। इन्होंने अर्जुन सिंह की शरण ली ? क्यांेकि इन्हंे नदी के बीच में एक मंच चाहिए था। रात को नौका विहार का सुख भी। यहां की गरीब जनता को मुंह चिढ़ाना था। राजनीति के बिना कुछ भी संभव नहीं। राजनीति अब इनकी चेरी है या ये राजनीति के यह कहना मुश्किल हो गया है। इस लिए यह संदेह गहरा रहा है कि क्या पता कल बुद्धिवाद के ये ठेेक¢दार हस्ताक्षर अभियान चलाकर यह घोषित कर दें कि देश के सांप्रदायिक सौहार्द के लिए अर्जुन सिंह का प्रधानमंत्री बनना जरूरी है। क्योंकि इनमें सर्वाधिक समाज बोध है। वह भी इस हद तक कि इन्हांेने शाहबानों क¢स पर चुप्पी साध ली थी। सांप्रदायिक सौहार्द इनमें इस हद तक कूट-कूट कर भरा है कि इन्हंे हिंदू के पेट की समस्या और मुसलमान के पेट की समस्या अलग अलग नजर आती है। बुद्धि से खतरे फैलाना उनकी मंशा है। यही इनकी मुहिम है। इन्हें बौद्ध जातक कथाएं याद हैं। ऐसे लचर प्रतिबद्धता वाले लोगों को सफदर हाशमी जैसे प्रतिबद्ध व जनोन्मुखी कलाकार का नाम बेचने का अधकिार नहीं होना चािहए। परंतु इन्हें रोक¢गा कौन ? क्योंकि राजननीति की ताकत इन्हें पता है। इन्हें पता हंै कि राजनीति से चिपके रहा जाए तो सब कुछ संभव है।
हाशमी को हल्ला बोल जैसी अभिव्यक्ति पर मृत्यु का वरण करना पड़ा। आरोप कांग्रेस पर था। आज सहमत के लोग कांग्रेस के साथ हैं। घिनौनी अभिव्यक्ति की ओट लेकर उट-पटांग स्थापना में जुटे हैं। वे कहते पाए जा सकते हैं कि उठाने ही होंगे खतरे अभिव्यक्ति के तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सभी। इनके सभी अपने में इनके स्व का बोध नहीं होता है क्योंकि इनके लिए सितारा देवी अगर ठुमकि चलत रामचंद्र... गाएं तो धर्मनिरपेक्षता है। सोनल मान सिंह नृत्य करें तो सांप्रदायिकता। आवाणी जय श्रीराम कहें तो सांप्रदायिक हैं। हरिकिशन सिंह सुरजीत दुर्गा पूजा उत्सवों में जाएं तो वे धर्मनिरपेक्ष ? क्योंकि दुर्गा पूजा उत्सवों में जब वे जाते हैं तो ये उत्सव सांस्कृतिक आयोजन बन जाता है। अन्य लोग जाते हैं तो धार्मिक अनुष्ठान।
कबीर पद चिन्ह यात्रा के दौरान इन लोगों का असली चरित्र उजागर हुआ। कबीर यात्रा में इनके सहयोगियों ने गोरखपुर में मांस भक्षण किया। चाइनिज चोखा इन्हें चाहिए था। इंडियन डिश की इनकी मांग नहीं थी। ये भूल गए कि कबीर दास ने लिखा था - बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल। जो नर बकरी खात हैं ताको कौन हवाल। मुक्तनाद के नाम पर कबीर के राम को गालियां दे रहे हैं। उनकी नई स्थापनाएं करने में जुटे हैं। इससे अच्छी सांस्कृतिक श्रृद्धांजलि क्या हो सकती है। सचमुच मुक्तनाद के आयोजन के लिए इससे अच्छा कोई पर्याय या अवसर इन्हें नहीं मिल सकता था। मुक्त होकर नाद करने का अवसर ये लोग नहीं चूके । इनकी दृष्टि में कलाकार स्वतंत्र है। संस्कृति का निर्वचन अपने ढंग से कर सकता है। परंतु इनके इतिहास बोध से यह उतर गया कि हर समाज की एक जातीय चेतना होती है। उससे खेलने का हक किसी को नहीं होना चाहिए और न ही है। सलमान रुश्दी को इसका परिणाम अभी तक जीना पड़ रहा है। इस पर बयान देकर सहमत विश्वव्यापी होने की उपलब्धि क्यों नहीं उठाना चाह रही है।
यथा- साहित्य में कभी प्रगतिवाद, कभी जनवाद और कभी उत्तर आधुनिकतावाद। इससे हमें हमारे समृद्ध व्यतीत से काटने की इनकी साजिशें सफल होती रही हैं। इनसे पूछा जाए कि आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता क्या है ? तो ये नित्तरित हो जाएंगे। निरूत्तरित हुए भी हैं। परंतु इन्हें एक बहस चलानी है। मठों पर बैठे रहना है। आज कल इन लोगों को कबीर में सर्वाधिक जनवाद नजर आ रहा है। कबीर के हठयोग की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति ये करना चाहते हैं। कबीर को इन्होंने ढाल बनाया है। इन्हें शायद पता न हो कि कबीर न हिंदू थे न मुसलमान। वह एक आदमी थे और ये वामपंथी। इनकी नजर में दक्षिणपंथी व्यक्ति वामपंथी नहीं बन सकता। वामपंथी को कांग्रेस, भाजपाई कुछ भी बनने की छूट है। वामपंथ में जाने के बाद तो सभी पंथों के लिए पथ स्वतः खुल जाता है। वामपंथ में आपको एक ऐसा पारस स्पर्श कर लेता है। जिससे आप में सर्वव्यापकता समा जाती है।
इस संगठन को सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए सहयोग करने वाली संस्था है- भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्रालय। यह आम धारणा है कि राजनीति में धर्म का प्रयोग नहीं होना चाहिए। ऐसी आम स्वीकृति कांग्रेस में भी है। तभी तो धर्म विधेयक संसद में कांग्रेस की ओर से पेश किया गया। हालांकि इस सत्य से भी आंख नहीं चुराया जा सकता है कि पिछले एक दशक में भारत को धर्म और राजनीति के गंदे खेल के परिणामस्वरूप कई हादसों से गुजरना पड़ा है। क्योंकि राजनीतिक दलों ने धर्म को इतने संकीर्ण और स्वहितपोषी अर्थ में देखा, अपनाया और प्रस्तुत किया कि धर्म का असली स्वरूप व कामकाज बिगड़ गया। इसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी सत्तारू कांग्रेस की है। इसकी दो वजहें है। पहली, सबसे अधिक समय तक देश पर कांग्रेस ने राज किया। दूसरी, धर्म विधेयक वही लेकर आई है। इस सवाल पर कांग्रेस हमेशा हिप्पोक्रेसी की स्थिति में रही है। उसकी इसी भूमिका का प्रभाव देश और समाज के हित में घातक हुआ । इसी का परिणाम है कि 15 अगस्त को अयोध्या में सहमत को मुक्तनाद कार्यक्रम करने का अवसर मिला। सहमत यानि सफदर हाशमी के संर्षों को आगे बाकर उनके लक्ष्यों की स्थापना का मंच। हाशिम को सच्ची श्रृद्धांजलि देने का प्लेटफार्म। लेकिन अब सहमत जनवाद के नाम पर हाशमी के सपनों पर पलीता लगाने का काम कर रहा है। तभी तो उसकी जो राजनीतिक प्रतिबद्धता कभी कम्युनिस्ट पार्टी से थी वह कांग्रेस में अर्जुन सिंह खेमे से हो रही है। यह अर्जुन सिंह के सपनों को साकार करने वाली एक बुद्धिजीवी संस्था के रूप में काम कर रही है। बुद्धिजीविता में तर्क प्रधान होता है। तर्क में कु भी संभव है। इसी कारण से राजनीति में धर्म के दुरुपयोग को रोकने संबंधी विधेयक का प्रस्ताव तैयार करते समय अयोध्या में मुक्तनाद कार्यक्रम करने की अनुमति सहमत को दी गई। जिसके तहत सहमत ने पोस्टर प्रदर्शनी लगाई। जिस पर संसद से सड़क तक तमाम विवाद हुए। मुक्तनाद के प्रायोजक अर्जुन सिंह ने भी बाद में पोस्टरों से असहमति जताई। लेकिन इसी के साथ उन्होंने कहा कि कुछ कलाकारांे ने इस देश में सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में लोगों को शिक्षित करने का जो प्रयास किया है। उस प्रयास को समाप्त करने के लिए यह विवाद खड़ा किया जा रहा है। अर्जुन सिंह की दृष्टि में राम और सीता के बीच भाई-बहन का रिश्ता होना और इक्षवाकुवंश में भाई-बहन की शादी का प्रमाण होना सांप्रदायिक सदभाव की दिशा में सार्थक पहल है। इसे साबित करने के लिए जातक कथाओं का सहारा लेना। जातक कथाओं के बहाने आस्थाओं के उपहास का अवसर किसी को नहीं मिलना चाहिए। सहमत के पोस्टरों में अयोध्या को अयुधिया लिख कर इसे युद्धविहीन बताना तभी अपनी सार्थकता खो देता है जब पोस्टरों में राम को सीता का भाई बता दिया जाता है। क्योंकि जातक कथाओं के मार्फत जुटाए गए इस सत्य से एक धर्म विशेष पर न क¢वल हमला होता है बल्कि उसकी धार्मिक भावनाएं भी आहत होती है।
क्योंकि इसके लिए बौद्ध जातक कथाओं तथा दशरथ जातक कथाओं की बात कही गई है। लेकिन सवाल यह उठता है कि इन्हें तुलसीकृत राम चरित मानस और बाल्मीकी कृत रामायण से ज्यादा महत्वपूर्ण व प्रमाणि बौद्ध जातक कथाएं क्यों लगीं ? यह इनका शरारतपूर्ण रवैया नहीं तो क्या है ? फिर अपनी सफाई में सहमत का यह कहना कि जो पोस्टर प्रदर्शनी लगी उसकी सामग्री का सहमत से कोई ताल्लुक नहीं है ? यह यहमत निष्कर्ष नहीं है। तो आखिर जातक कथाओं को दर्शाना और खोज कर अयोध्या जैसे संवेदनशील स्थानों पर पोस्टर प्रदर्शनी लगाना किसका निष्कर्ष है। भाजपा ने छह दिसंबर को जो किया वही सहमत के लोग करना चाह रहे हैं। भाजपा को जनसमुदाय मिल गया। इन्हें जनमानस नहीं मिला। दोनांे के लक्ष्य थे हिंसा, उपद्रव और विवादित ढांचे पर प्रभुत्व की बरकरारी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद योगेंद्र झा ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि मुक्तनाद के जरिए जानबूकर उपद्रव कराने की कोशिश की गई। कुछ प्रगतिशील इतिहासकार प्राचीन भारतीय इतिहास को पश्चिमी संदर्भ में देखना चाहते हैं।
सहमत में सभी अंग्रेज दा लोग हैं। इनके परिचय, पोस्टर और सोच सभी अंग्रेजियत भरे हैं। इसमें पाश्चात्यपन है। ये भाई-बहन को ब्रदर-सिस्टर कहते हैं। सिस्टर- ब्रदर से उन आत्मीय रिश्तों का बोध हमारी संस्कृति में नहीं हो पाता जो विवाह करने से रोक¢। प्रेमचंद, गोर्की और लूसिन को अपनी पैतृक विरासत मानने वाले साहित्य और संस्कृति में खेमेबाजी की नैतिकता काल निर्वाह कर रहेे ये सांस्कृतिक वेत्ता कैसे कहेंगे कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। इनके लिए यह स्वीकार पाना कहां संभव है - सारे जहां से अच हिंदुस्ता हमारा। इसकी स्वीकृति होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि इन्हें दार्शनिकों व समाज विज्ञानियों के रूप में कार्ल माक्र्स, लेनिनऔर माओ- त्से-तुंग को स्वीकारने का पाठ पढ़ाया जाता है।
लेकिन इन प्रगतिशील पाश्चात्य इतिहासकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि बौद्ध एवं जैन, सनातन धर्म के प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप जन्में। प्रतिक्रियावादी धर्मों के निष्कर्ष कितने उपयोगी और प्रभावी होने चाहिए। हिंदू धर्म शास्त्रों में क्षेपकों के लिए बौद्ध धर्म कितना दोषी है। यह इन इतिहासकारांे की नजर से नहीं बचा होगा। सीता की अग्निपरीक्षा, सीता निर्वासन और धोबी का वक्तव्य आदि ऐसे ही क्षेपकों में ही हंै। ये क्षेपक इसलिए हैं ताकि लोगों को राम को मर्यादा की संपूर्णता के आम स्वीकृति के बोध से काटा जाए। अयोध्या प्रदर्शनी में 83 कथा पट थे। जिसमें एक ही विवादास्पद हुआ। यह प्रदर्शनी त्रिमूर्ति में दिल्ली में लगी। संसद में चर्चा हुई तो सहमत के लोगों ने पोस्टर हटाने के बजाए प्रदर्शनी हटाई। यानि इनकी मंशा भी बौद्धों की तरह पुराने क्षेपकों को जारी रखकर भारत के सांस्कृतिक एक्य को समाप्त करने या ठेस पहुंचाने की थी। सहमत के एक प्रवक्ता ने इस लड़ाई को लड़ने के लिए राजनीतिक संयोग का अभाव स्वीकारा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इनके पास संस्कृति को देखने और समने का नजरिया राजनीति है। सहमत के लोग राहुल सांकृत्यायन की बोल्गा से गंगा तक को इतिहास मान बैठे हैं। भाई-बहन के विवाद की पहली कथा वेद के यम- यमी संवाद में है। पर वहां भी यम अस्वीकर करता है। गल्प कथाएं संस्कृति का अंग नहीं होती है । सहमत राजनीति के रूप में अपना प्रयोग कराना चाहती है। अगर ऐसा नहीं था तो समाज के लिए प्रतिबद्ध ये कलाकार आम नागरिकों जैसे आकर किसी साधारण स्टेज पर कार्यक्रम दे सकते थे। पर ऐसा नहीं हुआ। इन्होंने अर्जुन सिंह की शरण ली ? क्यांेकि इन्हंे नदी के बीच में एक मंच चाहिए था। रात को नौका विहार का सुख भी। यहां की गरीब जनता को मुंह चिढ़ाना था। राजनीति के बिना कुछ भी संभव नहीं। राजनीति अब इनकी चेरी है या ये राजनीति के यह कहना मुश्किल हो गया है। इस लिए यह संदेह गहरा रहा है कि क्या पता कल बुद्धिवाद के ये ठेेक¢दार हस्ताक्षर अभियान चलाकर यह घोषित कर दें कि देश के सांप्रदायिक सौहार्द के लिए अर्जुन सिंह का प्रधानमंत्री बनना जरूरी है। क्योंकि इनमें सर्वाधिक समाज बोध है। वह भी इस हद तक कि इन्हांेने शाहबानों क¢स पर चुप्पी साध ली थी। सांप्रदायिक सौहार्द इनमें इस हद तक कूट-कूट कर भरा है कि इन्हंे हिंदू के पेट की समस्या और मुसलमान के पेट की समस्या अलग अलग नजर आती है। बुद्धि से खतरे फैलाना उनकी मंशा है। यही इनकी मुहिम है। इन्हें बौद्ध जातक कथाएं याद हैं। ऐसे लचर प्रतिबद्धता वाले लोगों को सफदर हाशमी जैसे प्रतिबद्ध व जनोन्मुखी कलाकार का नाम बेचने का अधकिार नहीं होना चािहए। परंतु इन्हें रोक¢गा कौन ? क्योंकि राजननीति की ताकत इन्हें पता है। इन्हें पता हंै कि राजनीति से चिपके रहा जाए तो सब कुछ संभव है।
हाशमी को हल्ला बोल जैसी अभिव्यक्ति पर मृत्यु का वरण करना पड़ा। आरोप कांग्रेस पर था। आज सहमत के लोग कांग्रेस के साथ हैं। घिनौनी अभिव्यक्ति की ओट लेकर उट-पटांग स्थापना में जुटे हैं। वे कहते पाए जा सकते हैं कि उठाने ही होंगे खतरे अभिव्यक्ति के तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सभी। इनके सभी अपने में इनके स्व का बोध नहीं होता है क्योंकि इनके लिए सितारा देवी अगर ठुमकि चलत रामचंद्र... गाएं तो धर्मनिरपेक्षता है। सोनल मान सिंह नृत्य करें तो सांप्रदायिकता। आवाणी जय श्रीराम कहें तो सांप्रदायिक हैं। हरिकिशन सिंह सुरजीत दुर्गा पूजा उत्सवों में जाएं तो वे धर्मनिरपेक्ष ? क्योंकि दुर्गा पूजा उत्सवों में जब वे जाते हैं तो ये उत्सव सांस्कृतिक आयोजन बन जाता है। अन्य लोग जाते हैं तो धार्मिक अनुष्ठान।
कबीर पद चिन्ह यात्रा के दौरान इन लोगों का असली चरित्र उजागर हुआ। कबीर यात्रा में इनके सहयोगियों ने गोरखपुर में मांस भक्षण किया। चाइनिज चोखा इन्हें चाहिए था। इंडियन डिश की इनकी मांग नहीं थी। ये भूल गए कि कबीर दास ने लिखा था - बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल। जो नर बकरी खात हैं ताको कौन हवाल। मुक्तनाद के नाम पर कबीर के राम को गालियां दे रहे हैं। उनकी नई स्थापनाएं करने में जुटे हैं। इससे अच्छी सांस्कृतिक श्रृद्धांजलि क्या हो सकती है। सचमुच मुक्तनाद के आयोजन के लिए इससे अच्छा कोई पर्याय या अवसर इन्हें नहीं मिल सकता था। मुक्त होकर नाद करने का अवसर ये लोग नहीं चूके । इनकी दृष्टि में कलाकार स्वतंत्र है। संस्कृति का निर्वचन अपने ढंग से कर सकता है। परंतु इनके इतिहास बोध से यह उतर गया कि हर समाज की एक जातीय चेतना होती है। उससे खेलने का हक किसी को नहीं होना चाहिए और न ही है। सलमान रुश्दी को इसका परिणाम अभी तक जीना पड़ रहा है। इस पर बयान देकर सहमत विश्वव्यापी होने की उपलब्धि क्यों नहीं उठाना चाह रही है।