यह दुनिया-हमें मंजूर नहीं। भूख से तड़प कर मरने की तात्कालिक लाचारी तो नहीं परन्तु अब घुटन और मनहूसियत से तिल-मिलाकर मरने की लाचारी सामने आयी। हम एक नया जहान बनायेंगे, जहां इंसान की इंसानियत बेनकाब होकर सामने आएगी। यह कैसा होगा? कैसा बनेगा? हमें नहीं मालूम पर यह मालूम है कि यह ऐसा नहीं होगा।
फ्रांस के सोरोवाॅन शहर की दीवारों पर कोयलें से लिखे ये वाक्य किसी को भी समूल झकझोर देते हैं। वैसे तो इन वाक्यों में सपाट तौर पर कोई सार्थक परिणाम नहीं है परन्तु आज यह भारत के लिए, भारत के हर युवा के लिए उसकी अन्तश्चेतना का दर्शन है।
यह फ्रांस का दर्शन आज भारत के लोगों के लिए आत्म-घटित हो उठा है। यही दर्शन भारत में लोकतंत्र का आधार हैै। जिसका लाभ उठा करके हमारे नेतृत्व हमारे जनमानस को सर्वदा और सर्वथा दिशाहारा करता रहता है। कभी मुद्दों की राजनीति। कभी राजनीति का मुद्दा। कभी एकता विश्वास। कभी विश्वास की एकता। यही वो सारे दर्शन है, जिनसे हमारे मतदाता के सामने रंगीन सपनों की हकीकत बिकती है।
चुनाव सन्निकट है फिर सत्ता पर धावा बोलने का सिलसिला शुरू। जनता दल और इससे टूटे अन्य दलों में ‘परिवार’-‘जद परिवार’ की संवेदनात्मक सोच समा गयी ? हर बार सुबह का भूला शाम को (चुनाव के समय) घर चला आता है फिर उसे भूला कैसे स्वीकारेंगे ? ध्रुवीकरण जारी है। इससे पहले 1977 एवं 90 के ध्रुवीकरण के परिणाम अभी विस्मृत नहीं है। फिर भी यह एका क्यों? किसके खातिर? बार-बार टूटना.. फिर जुड़ना फिर टूटना.. फिर जुड़ना। हमारे राजनीतिज्ञ की प्रकृति है। वह सत्ता के लिए कहीं तक कभी भी जाने को तैयार है। कभी वह व्यापारी हित की बात करेगा और कहेगा-‘जो व्यापारी हित की बात करेगा वही देश पर राज करेगा।’ व्यापारी हित है क्या-लाभ। माक्र्स और लोहिया का मानना है कि लाभी शोषण का प्रतिफलन है। फिर कैसा और क्यों व्यापारी हित ?
कभी वह किसान हित की बात करके ऋण माफी का एलान कर देगा। ऋण माफी से किसान सीधे तौर पर चाहे जितने संतोष महसूस करें परन्तु उन पर रूपये का भार ऋण से अधिक पाता है। बस फर्क इतना ही है कि वह भार किश्तोें में होता है, एकमुश्त नहीं। खाद के मूल्य कम हों, किसान को उसके उत्पादों का उचित मूल्य मिले। किसाने के उत्पाद का मूल्य मिले। किसानांे के उत्पाद का मूल्य मांग, पूर्ति से निर्धारित हो, इसकी जगह हमारा नेतृत्व ऋण माफी का एलान करता है। कितना दुभाग्यनूर्ण है कि रिजर्व बैंक की अनदेखी कर सत्ता के बाहर से ऋण माफी का एलान! इससे जाहिर है कि अर्थतंत्र कुर्सी के आगे बौना है।
कभी मन्दिर का उद्घोष जिससे मुस्लिम वोट बैंक की तर्ज पर हिन्दू वोट बैंक का निर्माण हो सके । जामा मस्जिद कर तरह एक फरमान जारी करने का तख्त निर्माण का सपना? कभी ‘मण्डल राज’ लागू करने की प्रतिबद्धता। ये धारणाएं कितनी सामाजिक व शैक्षिक वगों के पिछड़ेपन से जुड़ी है-साफ हैं। क्योंकि मण्डल के बच्चे की मां व धाय की स्वीकृति बढ़ती जा रही है। भारत में भूख है - गरीबी है-बेरोजगारी है ये तो रहेगी ! इन सबका कारण है-जनसंख्या। जनसंख्या का सम्बन्ध आपसे है। हमसे है। नेता जी से नही। फिर नेतृत्व को इन चिन्ता क्यो? जितने लोग होगंें उतनी जरूरते बढ़ेगी। संसाधन समिति है। आवश्यकता-विहीनता गौण है। फिर बराबर की भागेदारी के लिए बिल्लियों की रोटी बन्दर के हिस्से में जाती रहेगी। बन्दरबांट जारी रहेगा। यह हमारे लोकतंत्र में बन्दरबंाट हमेशा चलता रहेगा। यहीं चलता रहा है परन्तु यह बन्दरबंाट की परम्परा वोटों में न हो इस पर विराम लगाने के लिए जरूरी है- एका। यह किसी सिद्धान्त पर नहीं। किसी मूल्य पर नहीं। यह है सत्ता की चमक के लिए। कुर्सी के ताकत के लिए। एक ओर मन्दिर बनाने का उद्घोष। दूसरी ओर मण्डल राज स्थापना में रोटी के रंगीन सपने। ना रोटी पूरी और ना ही मंदिर। हर आदमी जीवन में दो स्तरों पर जीता है - बुद्धि के स्तर पर, हृदय के स्तर पर। हमारी यही विशेषता रही है कि हम अपने समाज में हृदय जीवी रहे हैं और प्रगति के लिए बुद्धिजीवी।
मुद्दों की राजनति व राजनीति का मुद्दा बनाने में हमारी हृदयजीविता मरी, कुटिल बुद्धिजीविता बड़ी है। तभी तो तीन बार मुख्यमंत्री रहे नेतृत्व के विकास यात्राएं निकालने पर कोई सवाल खड़ा नहीं कर पाते हैं। धर्म आदमी के जीवन के लिए अफीम होता है ऐसा मानने वाले माक्र्सवादियांे के दुर्गा पूजनोत्सव पर मौन साधा जाता है। ‘नरसिंह’ का सच क्या है यह नहीं पूछा/जाना जाता?
प्रधानमंत्री नरसिंह राव का धर्म विधेयक ठण्डे बस्ते में चला गया, परन्तु नरसिंह राव चाहते हैं- इमाम बुखारी का फतावा? इसके लिए प्रधानमंत्री के पुत्र राजेश्वर राव व गृह राज्यमंत्री राजेश पायलट कई चर जामा मस्जिद के काट चुके हैं। राजेश्वर राव प्रधानमंत्री के तरफ से जामा मस्जिद के मरकज को मानते हैैं? आखिर शाही इमाम से इस तरह कर मिन्नतें क्यों? क्योंकि आदमी को आदमी के रूप में देखने की आदत नहीं रह गयी, राजनेता की दृष्टि आदमी के लिए ‘वेट-बोधी’ हो गयी है। राजनीतिज्ञ मूलतः गहरे में स्वार्थी होते हैं, हो उठे हैं। उन्हें अपनी कमजोरी का हीनता का, शक्तिहीनता का बोध होता रहता है परन्तु वे आम जन को यह विश्वास दिलाने में सिद्धहस्त होते हैं कि वे उनकी जरूरतों का पूरा करेगें, उनकी समस्याएं दूर करेंगे। फिर जनता से एक आपसी समझौता हो जाता है। नेता के हाथ में सत्ता/ताकत आ जाती है, ताकत आते ही वह अपने सारे आश्वासन भूल जाता है। सत्ता का वोट बैंक के लिए उपयोग करने लगता है। क्योंकि वह सत्ता छोड़ना नहीं चाहता, अपदस्थ होने पर उसको अपनी रिक्तता, हीनता और नपुंसकता का सामना करना पड़ता है।
हमारी विवशता है कि लोकतंत्र में ताकत दे तो सकते हैं, परन्तु लेने का अधिकार, लेने की शक्ति हममें नहीं है। हमारे सामने लोकतंत्र का जो स्वरूप रखा गया वह थोथा है। कोरा है उससे कोई स्थाई भला नहीं है। हमें जरूरत है-‘गुणतंत्र की’। मात्र गणतंत्र की नहीं। क्यांेकि हमारी समस्याएं गुणतंत्र संपन्न आदमी ही हल कर सकता है। क्योंकि गुणतंत्र समाज की संरचना को, शासन की संरचना को, शिक्षा की संरचना को रूपांतरित करने का सम्पूर्ण कार्यक्रम है। गुणतंत्र से ही परिवर्तन सम्भव है। हमारे राजनेताओं में इसी गुणतंत्र का गुणतंत्रात्मकता का अभाव है। इसलिए फ्रांस के सोरोवाॅन शहर की दिवारों पर लिखा दर्शन हमारा आत्म घटित हो उठा है। इसलिए यह अभिलाषाएं अभी तक शेष है-‘हम एक नया जहान बनाएंगे यह कैसा होगा? कैसे बनेगा? हमंे नहीं मालूम, पर यह मालूम है कि यह ऐसा नहीं होगा।
फ्रांस के सोरोवाॅन शहर की दीवारों पर कोयलें से लिखे ये वाक्य किसी को भी समूल झकझोर देते हैं। वैसे तो इन वाक्यों में सपाट तौर पर कोई सार्थक परिणाम नहीं है परन्तु आज यह भारत के लिए, भारत के हर युवा के लिए उसकी अन्तश्चेतना का दर्शन है।
यह फ्रांस का दर्शन आज भारत के लोगों के लिए आत्म-घटित हो उठा है। यही दर्शन भारत में लोकतंत्र का आधार हैै। जिसका लाभ उठा करके हमारे नेतृत्व हमारे जनमानस को सर्वदा और सर्वथा दिशाहारा करता रहता है। कभी मुद्दों की राजनीति। कभी राजनीति का मुद्दा। कभी एकता विश्वास। कभी विश्वास की एकता। यही वो सारे दर्शन है, जिनसे हमारे मतदाता के सामने रंगीन सपनों की हकीकत बिकती है।
चुनाव सन्निकट है फिर सत्ता पर धावा बोलने का सिलसिला शुरू। जनता दल और इससे टूटे अन्य दलों में ‘परिवार’-‘जद परिवार’ की संवेदनात्मक सोच समा गयी ? हर बार सुबह का भूला शाम को (चुनाव के समय) घर चला आता है फिर उसे भूला कैसे स्वीकारेंगे ? ध्रुवीकरण जारी है। इससे पहले 1977 एवं 90 के ध्रुवीकरण के परिणाम अभी विस्मृत नहीं है। फिर भी यह एका क्यों? किसके खातिर? बार-बार टूटना.. फिर जुड़ना फिर टूटना.. फिर जुड़ना। हमारे राजनीतिज्ञ की प्रकृति है। वह सत्ता के लिए कहीं तक कभी भी जाने को तैयार है। कभी वह व्यापारी हित की बात करेगा और कहेगा-‘जो व्यापारी हित की बात करेगा वही देश पर राज करेगा।’ व्यापारी हित है क्या-लाभ। माक्र्स और लोहिया का मानना है कि लाभी शोषण का प्रतिफलन है। फिर कैसा और क्यों व्यापारी हित ?
कभी वह किसान हित की बात करके ऋण माफी का एलान कर देगा। ऋण माफी से किसान सीधे तौर पर चाहे जितने संतोष महसूस करें परन्तु उन पर रूपये का भार ऋण से अधिक पाता है। बस फर्क इतना ही है कि वह भार किश्तोें में होता है, एकमुश्त नहीं। खाद के मूल्य कम हों, किसान को उसके उत्पादों का उचित मूल्य मिले। किसाने के उत्पाद का मूल्य मिले। किसानांे के उत्पाद का मूल्य मांग, पूर्ति से निर्धारित हो, इसकी जगह हमारा नेतृत्व ऋण माफी का एलान करता है। कितना दुभाग्यनूर्ण है कि रिजर्व बैंक की अनदेखी कर सत्ता के बाहर से ऋण माफी का एलान! इससे जाहिर है कि अर्थतंत्र कुर्सी के आगे बौना है।
कभी मन्दिर का उद्घोष जिससे मुस्लिम वोट बैंक की तर्ज पर हिन्दू वोट बैंक का निर्माण हो सके । जामा मस्जिद कर तरह एक फरमान जारी करने का तख्त निर्माण का सपना? कभी ‘मण्डल राज’ लागू करने की प्रतिबद्धता। ये धारणाएं कितनी सामाजिक व शैक्षिक वगों के पिछड़ेपन से जुड़ी है-साफ हैं। क्योंकि मण्डल के बच्चे की मां व धाय की स्वीकृति बढ़ती जा रही है। भारत में भूख है - गरीबी है-बेरोजगारी है ये तो रहेगी ! इन सबका कारण है-जनसंख्या। जनसंख्या का सम्बन्ध आपसे है। हमसे है। नेता जी से नही। फिर नेतृत्व को इन चिन्ता क्यो? जितने लोग होगंें उतनी जरूरते बढ़ेगी। संसाधन समिति है। आवश्यकता-विहीनता गौण है। फिर बराबर की भागेदारी के लिए बिल्लियों की रोटी बन्दर के हिस्से में जाती रहेगी। बन्दरबांट जारी रहेगा। यह हमारे लोकतंत्र में बन्दरबंाट हमेशा चलता रहेगा। यहीं चलता रहा है परन्तु यह बन्दरबंाट की परम्परा वोटों में न हो इस पर विराम लगाने के लिए जरूरी है- एका। यह किसी सिद्धान्त पर नहीं। किसी मूल्य पर नहीं। यह है सत्ता की चमक के लिए। कुर्सी के ताकत के लिए। एक ओर मन्दिर बनाने का उद्घोष। दूसरी ओर मण्डल राज स्थापना में रोटी के रंगीन सपने। ना रोटी पूरी और ना ही मंदिर। हर आदमी जीवन में दो स्तरों पर जीता है - बुद्धि के स्तर पर, हृदय के स्तर पर। हमारी यही विशेषता रही है कि हम अपने समाज में हृदय जीवी रहे हैं और प्रगति के लिए बुद्धिजीवी।
मुद्दों की राजनति व राजनीति का मुद्दा बनाने में हमारी हृदयजीविता मरी, कुटिल बुद्धिजीविता बड़ी है। तभी तो तीन बार मुख्यमंत्री रहे नेतृत्व के विकास यात्राएं निकालने पर कोई सवाल खड़ा नहीं कर पाते हैं। धर्म आदमी के जीवन के लिए अफीम होता है ऐसा मानने वाले माक्र्सवादियांे के दुर्गा पूजनोत्सव पर मौन साधा जाता है। ‘नरसिंह’ का सच क्या है यह नहीं पूछा/जाना जाता?
प्रधानमंत्री नरसिंह राव का धर्म विधेयक ठण्डे बस्ते में चला गया, परन्तु नरसिंह राव चाहते हैं- इमाम बुखारी का फतावा? इसके लिए प्रधानमंत्री के पुत्र राजेश्वर राव व गृह राज्यमंत्री राजेश पायलट कई चर जामा मस्जिद के काट चुके हैं। राजेश्वर राव प्रधानमंत्री के तरफ से जामा मस्जिद के मरकज को मानते हैैं? आखिर शाही इमाम से इस तरह कर मिन्नतें क्यों? क्योंकि आदमी को आदमी के रूप में देखने की आदत नहीं रह गयी, राजनेता की दृष्टि आदमी के लिए ‘वेट-बोधी’ हो गयी है। राजनीतिज्ञ मूलतः गहरे में स्वार्थी होते हैं, हो उठे हैं। उन्हें अपनी कमजोरी का हीनता का, शक्तिहीनता का बोध होता रहता है परन्तु वे आम जन को यह विश्वास दिलाने में सिद्धहस्त होते हैं कि वे उनकी जरूरतों का पूरा करेगें, उनकी समस्याएं दूर करेंगे। फिर जनता से एक आपसी समझौता हो जाता है। नेता के हाथ में सत्ता/ताकत आ जाती है, ताकत आते ही वह अपने सारे आश्वासन भूल जाता है। सत्ता का वोट बैंक के लिए उपयोग करने लगता है। क्योंकि वह सत्ता छोड़ना नहीं चाहता, अपदस्थ होने पर उसको अपनी रिक्तता, हीनता और नपुंसकता का सामना करना पड़ता है।
हमारी विवशता है कि लोकतंत्र में ताकत दे तो सकते हैं, परन्तु लेने का अधिकार, लेने की शक्ति हममें नहीं है। हमारे सामने लोकतंत्र का जो स्वरूप रखा गया वह थोथा है। कोरा है उससे कोई स्थाई भला नहीं है। हमें जरूरत है-‘गुणतंत्र की’। मात्र गणतंत्र की नहीं। क्यांेकि हमारी समस्याएं गुणतंत्र संपन्न आदमी ही हल कर सकता है। क्योंकि गुणतंत्र समाज की संरचना को, शासन की संरचना को, शिक्षा की संरचना को रूपांतरित करने का सम्पूर्ण कार्यक्रम है। गुणतंत्र से ही परिवर्तन सम्भव है। हमारे राजनेताओं में इसी गुणतंत्र का गुणतंत्रात्मकता का अभाव है। इसलिए फ्रांस के सोरोवाॅन शहर की दिवारों पर लिखा दर्शन हमारा आत्म घटित हो उठा है। इसलिए यह अभिलाषाएं अभी तक शेष है-‘हम एक नया जहान बनाएंगे यह कैसा होगा? कैसे बनेगा? हमंे नहीं मालूम, पर यह मालूम है कि यह ऐसा नहीं होगा।