राज्यों के चुनाव का पहला चरण पूरा हो गया। प्रत्याशी पार्टियों में तालमेल, एका विलय सब कुछ तय। नाम वापसी की निर्धारित समय सीमा समाप्त। फिर जारी हो गये घोषणा पत्रों के माध्यम से कार्यकाल के लिए आश्वासन, जनता के लिए रंगीन सपने और वरीयताओं की फेहरिस्त।
जनता दल: एकीकृत जद ने सामाजिक न्याय व आर्थिक समानता वाले 10 पृष्ठांे के अपने घोषणा पत्र में गरीबी मिटाने, कृषि एवं ग्रामीण विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देने, सामाजिक न्याय आंदोलन को तेज करने तथा निचले स्तर पर अधिकारों को विकेंद्रित करने का वादा किया है। इतना ही नहीं, जद ने अपने घोषणा पत्र में मण्डल आयोग की सिफारिशों को निजी क्षेत्र में भी लागू करने के साथ-साथ अयोध्या मसले को संविधान की धारा 138 के तहत उच्चतम न्यायालय को सौंपने की वकालत भी की है। कहा है कि धारा 143 से हल संभव नहीं है।
जद ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा, आबादी के अनुपात में अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए योजना राशि का आवंटन संसाधनों का 60 प्रतिशत कृषि एवं ग्रामीण विकास पर खर्च करने, रोजगार औद्योगीकरण तथा बिक्रीकरण की वर्तमान प्रणाली को रोकने पर भी जोर दिया है। घोषणा पत्र में केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों तथा डंके ल प्रस्ताव का भी विरोध किया गया है। कहा गया है कि इससे देश की आर्थिक आजादी खतरे में पड़ जाएगी। परंतु चंद्रशेखर की सरकार द्वारा किये गये कार्यों का जो प्रभाव देश की आर्थिक आजादी पर पड़ा था, उसका कोई जिक्र एकीकृत जद के घोषणा पत्र में कहीं नहीं है।
जद के नेताओं ने मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात करके अपने लिए वोटों की तादाद बढ़ा लेने का जो षड्यंत्र किया है, उससे निश्चित रूप से निजी उद्यमियों की इन्टरप्रिन्योरशिप घटेगी। इतना ही नहीं, मण्डल आयोग को सरकारी क्षेत्र में लागू करने की घोषणा से पिछली बार समाज में जो प्रति हिंसा उपजी थी, उसे फिर से आमंत्रित करना किसी राजनीतिक दल के लिए कितना उचित है। यह सवाल भी खड़ा कर दिया है?
एक ओर जहां राज्यों में स्वायत्तता के लिए संघर्ष व आंदोलन आम हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर किसी राजनीतिक दल द्वारा प्रशासनिक आर्थिक और सांस्कृतिक तथा भाषाई पहचान की समस्याओं को उठाने को देश की एकता और अखण्डता के सामने चुनौतियां खड़ी करने के अलावा और क्या कहा जा सकता है? यह सही है कि मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने को जद की विजय के रूप में ही स्वीकारा जाएगा और यह है भी।
जद ने अपने घोषणा पत्र में धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत के प्रति जो वचनबद्धता दोहरायी है तथा साम्प्रदायिक ताकतों से सख्ती से निपटने पर जोर दिया है, उसकी यथार्थता इसी बात से काफी स्पष्ट हो जाती है कि जद के सर्वमान्य नेता वी.पी. सिंह अपने पूरे प्रधानमंत्रित्व काल में जामा मस्जिद के चक्कर लगाते रहे। जद के घोषणा पत्र में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा का, अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने तथा उन्हें पर्याप्त रोजगार और आर्थिक अवसर उपलब्ध कराने का संकल्प और उर्दू भाषा के बारे में गुजराल समिति की रिपोर्ट शीघ्रता से लागू करने तथा उप्र में उर्दू को राज्य की दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देने का वादा है।
इतना ही नहीं, जद के घोषणा पत्र में राजनीति से साम्प्रदायिकता हल करने की भी बात है। कहा गया है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा को कुछ लोग उन्हें खुश करने की नीति कहते हैं, जिससे ऐसा लगता है जैसे अल्पसंख्यकों को उनके अधिकार इन लोगों ने भीख में दिये हों। हकीकत में अल्पसंख्यकों को ये अधिकार संविधान और जनतंत्र के तहत मिले हैं। सरकार और जनता का संवैधानिक दायित्व है कि अल्पसंख्यकों का सम्मान किया जाय। जद राज्यों को अल्पसंख्यक आयोगों को वैधानिक दर्जा देगा, उनकी सिफारिशों को प्रभावी ढंग से लागू करवाएगा। अल्पसंख्यक वित्तीय निगम बनेंगे। पुलिस और अर्धसैनिक बलों का ढांचा साझा रूप से बनाया जाएगा ताकि दंगों आदि के समय मंे इनका रूख साम्प्रदायिक न हो सके । दंगों के अपराधियों का फौरन सजा दिलाने का काम होगा। जद का यह कहना है कि साम्प्रदायिकता रोकने का सबसे सही उपाय राजनीति ही हो सकता है। एकदम बेमानी, आधारहीन और पलायनवादी है, क्योंकि हमारे राजनीतिज्ञों में इतनी ताकत नहीं है कि वे वोट की जमीन पर नैतिकता की फसल बो सकें। जयपुर में मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने अपनी एक बैठक में पूरे देश में मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की स्थापना की बात कही है। यह सवाल राजनीति के लिए खास भले न हो पर हमारी साझा संस्कृति के लिए यह काफी खास है क्योंकि इस निर्णय ने हमारे कानून, हमारे विश्वास और हमारी एकता के सामने सवाल खड़ा कर दिया है। इससे समान्तर अदालतें चलेंगी। समान्तर समाज का निर्माण होगा, लेकिन किसी भी राजनेता ने इस विषय पर नहीं बोला क्योंकि इससे वोट की फसल पर पाला गिर सकता था। कश्मीर जैसी समस्या पर नरसिंह राव की अनिर्णयात्मक स्थिति इस बात की साक्षी है कि राजनीति से साम्प्रदायिकता जैसी समस्या को हल करने की कोशिश एक कदम आगे बढ़ाकर दो कदम पीछे चलने के सिवाय कुछ नहीं है।
इतना कुछ क्या पर्याप्त नहीं है। यह समझने के लिए कि जद, अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक में विभेद कर, अल्पसंख्यकांे के वोटों में आश्वासनांे के माध्यम से सेंध लगाने की तैयारी कर रहा है। यह बात इससे और साफ हो जाती है कि आज जब हजरत बल को लेकर पूरा कश्मीर एक ऐसी स्थिति से गुजर रहा है, जिससे देश की एकता, अखण्डता व अस्मिता को धर्म की आड़ में झुकने के लिए विवश किया जा रहा है, जद का नेतृत्व इस पर मौन साधे है। साम्प्रदायिकता ताकतों से समझौता करने के बजाय केंद्र सरकार को कुरबान कर देने का बेमानी दावा करने वाले नेताओं को शर्मसार होना चाहिए क्योंकि उन्हें के न्द्र सरकार को कुरबान नहीं किया बल्कि वह परिस्थितिजन्य कुरबान हो गयी। भाजपा (जिसे वो आज घोर साम्प्रदायिक करार दे रहे हैं) से बाहर से समर्थन लेकर सरकार चलाते समय जद की अपनी साम्प्रदायिक समझ कहां लोप हो गयी थी? जद से ही टूटी सजपा ने क्या कांग्रेस से हाथ मिलाकर सत्ता का सुख पा लेने का अपना प्रयास नहीं किया। अगर भाजपा इंका साम्प्रदायिक हैं तो इनकी बैसाखियों पर सत्ता सुख लेने का सपना देखने वाली पार्टियों और लोगों को क्या कहा जाय-अवसरवादी, छविहीन, अविश्वसनीय या फिर कुछ और। इस तरह रंगीन सपना बेचकर वोट पाने का सपना रखने वाले लोग यदि राजनीति द्वारा साम्प्रदायिकता जैसी समस्या हल करने की बात करें तो मानना ही पड़ेगा कि वे लोग साम्प्रदायिकता को खत्म करने की नहीं बल्कि साम्प्रदायिकता को और अधिक फलने, फूलने और पसरने का मौका देना चाहते हैं ताकि जनता की राजनीति पर राजनीतिज्ञों पर निर्भरता बढ़े।
सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता जैसे शीर्षक से जारी एकीकृत जद के घोषणा पत्र की कलई खोलने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह मण्डल आयोग की सिफारिशों में क्रीमीलेयर को घुसाना कांग्रेस सरकार की साजिश मानती है। जबकि स्पष्ट है कि बिना क्रीमीलेयर मण्डल आयोग की उपलब्धियों का प्रभाव वैसा ही होगा, जैसा अंधा बांटे रेवड़ी, आपा आपा देय। इससे आर्थिक समानता जैसी घोषणा पूरी तौर पर बेमानी होगी। फिर जनता दल की नीतियों के समर्थन का मतलब स्थायित्व, सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, धर्म निरपेक्षता व राष्ट्रीय एकता का समर्थन कतई नहीं रह जाएगा।
1991 व 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा ने जो चुनाव घोषणा पत्र जारी किये थे, उनमें अल्पसंख्यक आयोग को कानूनी शक्ति देने सहित विशेष वित्त निगम की स्थापना व अल्पसंख्यकों के निजी व पर्सनल लाॅ में हस्तक्षेप नहीं करने जैसे मुद्दे इस बार 1993 के चुनाव में भी वैसे ही बने हंै।
अर्थव्यवस्था के संदर्भ में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण, कर संरचना की समीक्षा हेतु लम्बी अवधि योजना, बचत के उपाय, अनावश्यक आयात पर रोक संबंधी घोषणाएं पूरी तरह असफल रही हैं।
कंेद्र-राज्य सम्बन्ध के विषय मंे राष्ट्रीय मोर्चा ने अपने पिछले दोनों चुनाव घोषणा पत्रों में कहा था कि राज्यों को मजबूती प्रदान करने के लिए उन्हें आर्थिक स्वरूप से स्वायत्त बनाया जाएगा। राज्यपाल शासन व अनु. 356 की समीक्षा की जाएगी लेकिन इस दिशा में भी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की कोई उपलब्धि नहीं रही।
आरक्षण के लिए मंडल आयोग को पुरस्कार स्वरूप स्वीकार करने वाले जद नेता वी.पी. सिंह की पार्टी की आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के लिए पांच प्रतिशत आरक्षण व मंडल आयोग की सिफारिशों में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने के लिए विशेषज्ञ समिति की स्थापना की बात बेमानी होकर रह गयी है। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पूरे कार्यकाल में रोजगारपरक उद्योग ही नहीं, उद्योगों के विकास का कामकाज भी ठप रहा। जबकि कृषि आधारित छोटे-छोटे उद्योगों को उन्नत करना इसके पिछले घोषणा पत्रों का मुख्य बिन्दु था।
कृषकों, बीड़ी श्रमिकों व निर्माण में लगे मजदूरों की सुरक्षा के लिए बिल, निजी व सरकारी क्षेत्र में सभी तदर्थ श्रमिकों को नियमित करने की दिशा में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने जो काम किया, उसके परिणामस्वरूप प्रदेश में कई सरकारी क्षेत्रों के कारखाने, निजी क्षेत्र में चले गये। श्रमिकों का नियमितीकरण तो दूर उनकी भर्ती तक के लिए कोई विशेष नीति नहीं लायी गयी। एक दशक में बेरोजगारी उन्मूलन के लिए विशेष कार्यक्रम लाने की घोषणा करने वाली सरकार ने मंडल आयोग के सिवा किसी अन्य कार्य को करने की दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की। परिणामतः बेरोजगारों की संख्या में काफी इजाफा दर्ज हुआ।
शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा बजट का पचास प्रतिशत धन प्राइमरी शिक्षा पर व्यय करने का वादा करने वाली सरकार ने मात्र 20 प्रतिशत धन प्राइमरी शिक्षा पर व्यय किया और प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों के रखरखाव व स्तर में कोई सुधार नहीं हो पाया। इसी तरह बच्चों की जरूरत का धन बाल श्रम पर खर्च करने सम्बन्धी वायदे भी एकदम कागजी बनकर रह गये। फिर भी उ.प्र. जनता दल ने 19 पृष्ठ का जो घोषणा पत्र जारी किया है, उसमें शराब व लाटरी के निजी क्षेत्र में बिक्री पर प्रतिबंध, भ्रष्टाचार की समाप्ति, निचले स्तर पर लोकतंत्र की बहाली सहित, कृषि को उद्योग का दर्जा देने और गन्ने के भुगतान को वरीयता दी है। प्रदेश के हित में यह उल्लेखनीय घोषणाएं हैं। लेकिन अयोध्या मसले पर जद के घोषणा पत्र में खामोशी खासी रहस्यात्मक है। कमोबेश यह जद के पलायनवाद का खुलासा ही करती है।
जनता दल: एकीकृत जद ने सामाजिक न्याय व आर्थिक समानता वाले 10 पृष्ठांे के अपने घोषणा पत्र में गरीबी मिटाने, कृषि एवं ग्रामीण विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देने, सामाजिक न्याय आंदोलन को तेज करने तथा निचले स्तर पर अधिकारों को विकेंद्रित करने का वादा किया है। इतना ही नहीं, जद ने अपने घोषणा पत्र में मण्डल आयोग की सिफारिशों को निजी क्षेत्र में भी लागू करने के साथ-साथ अयोध्या मसले को संविधान की धारा 138 के तहत उच्चतम न्यायालय को सौंपने की वकालत भी की है। कहा है कि धारा 143 से हल संभव नहीं है।
जद ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा, आबादी के अनुपात में अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए योजना राशि का आवंटन संसाधनों का 60 प्रतिशत कृषि एवं ग्रामीण विकास पर खर्च करने, रोजगार औद्योगीकरण तथा बिक्रीकरण की वर्तमान प्रणाली को रोकने पर भी जोर दिया है। घोषणा पत्र में केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों तथा डंके ल प्रस्ताव का भी विरोध किया गया है। कहा गया है कि इससे देश की आर्थिक आजादी खतरे में पड़ जाएगी। परंतु चंद्रशेखर की सरकार द्वारा किये गये कार्यों का जो प्रभाव देश की आर्थिक आजादी पर पड़ा था, उसका कोई जिक्र एकीकृत जद के घोषणा पत्र में कहीं नहीं है।
जद के नेताओं ने मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात करके अपने लिए वोटों की तादाद बढ़ा लेने का जो षड्यंत्र किया है, उससे निश्चित रूप से निजी उद्यमियों की इन्टरप्रिन्योरशिप घटेगी। इतना ही नहीं, मण्डल आयोग को सरकारी क्षेत्र में लागू करने की घोषणा से पिछली बार समाज में जो प्रति हिंसा उपजी थी, उसे फिर से आमंत्रित करना किसी राजनीतिक दल के लिए कितना उचित है। यह सवाल भी खड़ा कर दिया है?
एक ओर जहां राज्यों में स्वायत्तता के लिए संघर्ष व आंदोलन आम हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर किसी राजनीतिक दल द्वारा प्रशासनिक आर्थिक और सांस्कृतिक तथा भाषाई पहचान की समस्याओं को उठाने को देश की एकता और अखण्डता के सामने चुनौतियां खड़ी करने के अलावा और क्या कहा जा सकता है? यह सही है कि मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने को जद की विजय के रूप में ही स्वीकारा जाएगा और यह है भी।
जद ने अपने घोषणा पत्र में धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत के प्रति जो वचनबद्धता दोहरायी है तथा साम्प्रदायिक ताकतों से सख्ती से निपटने पर जोर दिया है, उसकी यथार्थता इसी बात से काफी स्पष्ट हो जाती है कि जद के सर्वमान्य नेता वी.पी. सिंह अपने पूरे प्रधानमंत्रित्व काल में जामा मस्जिद के चक्कर लगाते रहे। जद के घोषणा पत्र में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा का, अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने तथा उन्हें पर्याप्त रोजगार और आर्थिक अवसर उपलब्ध कराने का संकल्प और उर्दू भाषा के बारे में गुजराल समिति की रिपोर्ट शीघ्रता से लागू करने तथा उप्र में उर्दू को राज्य की दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देने का वादा है।
इतना ही नहीं, जद के घोषणा पत्र में राजनीति से साम्प्रदायिकता हल करने की भी बात है। कहा गया है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा को कुछ लोग उन्हें खुश करने की नीति कहते हैं, जिससे ऐसा लगता है जैसे अल्पसंख्यकों को उनके अधिकार इन लोगों ने भीख में दिये हों। हकीकत में अल्पसंख्यकों को ये अधिकार संविधान और जनतंत्र के तहत मिले हैं। सरकार और जनता का संवैधानिक दायित्व है कि अल्पसंख्यकों का सम्मान किया जाय। जद राज्यों को अल्पसंख्यक आयोगों को वैधानिक दर्जा देगा, उनकी सिफारिशों को प्रभावी ढंग से लागू करवाएगा। अल्पसंख्यक वित्तीय निगम बनेंगे। पुलिस और अर्धसैनिक बलों का ढांचा साझा रूप से बनाया जाएगा ताकि दंगों आदि के समय मंे इनका रूख साम्प्रदायिक न हो सके । दंगों के अपराधियों का फौरन सजा दिलाने का काम होगा। जद का यह कहना है कि साम्प्रदायिकता रोकने का सबसे सही उपाय राजनीति ही हो सकता है। एकदम बेमानी, आधारहीन और पलायनवादी है, क्योंकि हमारे राजनीतिज्ञों में इतनी ताकत नहीं है कि वे वोट की जमीन पर नैतिकता की फसल बो सकें। जयपुर में मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने अपनी एक बैठक में पूरे देश में मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की स्थापना की बात कही है। यह सवाल राजनीति के लिए खास भले न हो पर हमारी साझा संस्कृति के लिए यह काफी खास है क्योंकि इस निर्णय ने हमारे कानून, हमारे विश्वास और हमारी एकता के सामने सवाल खड़ा कर दिया है। इससे समान्तर अदालतें चलेंगी। समान्तर समाज का निर्माण होगा, लेकिन किसी भी राजनेता ने इस विषय पर नहीं बोला क्योंकि इससे वोट की फसल पर पाला गिर सकता था। कश्मीर जैसी समस्या पर नरसिंह राव की अनिर्णयात्मक स्थिति इस बात की साक्षी है कि राजनीति से साम्प्रदायिकता जैसी समस्या को हल करने की कोशिश एक कदम आगे बढ़ाकर दो कदम पीछे चलने के सिवाय कुछ नहीं है।
इतना कुछ क्या पर्याप्त नहीं है। यह समझने के लिए कि जद, अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक में विभेद कर, अल्पसंख्यकांे के वोटों में आश्वासनांे के माध्यम से सेंध लगाने की तैयारी कर रहा है। यह बात इससे और साफ हो जाती है कि आज जब हजरत बल को लेकर पूरा कश्मीर एक ऐसी स्थिति से गुजर रहा है, जिससे देश की एकता, अखण्डता व अस्मिता को धर्म की आड़ में झुकने के लिए विवश किया जा रहा है, जद का नेतृत्व इस पर मौन साधे है। साम्प्रदायिकता ताकतों से समझौता करने के बजाय केंद्र सरकार को कुरबान कर देने का बेमानी दावा करने वाले नेताओं को शर्मसार होना चाहिए क्योंकि उन्हें के न्द्र सरकार को कुरबान नहीं किया बल्कि वह परिस्थितिजन्य कुरबान हो गयी। भाजपा (जिसे वो आज घोर साम्प्रदायिक करार दे रहे हैं) से बाहर से समर्थन लेकर सरकार चलाते समय जद की अपनी साम्प्रदायिक समझ कहां लोप हो गयी थी? जद से ही टूटी सजपा ने क्या कांग्रेस से हाथ मिलाकर सत्ता का सुख पा लेने का अपना प्रयास नहीं किया। अगर भाजपा इंका साम्प्रदायिक हैं तो इनकी बैसाखियों पर सत्ता सुख लेने का सपना देखने वाली पार्टियों और लोगों को क्या कहा जाय-अवसरवादी, छविहीन, अविश्वसनीय या फिर कुछ और। इस तरह रंगीन सपना बेचकर वोट पाने का सपना रखने वाले लोग यदि राजनीति द्वारा साम्प्रदायिकता जैसी समस्या हल करने की बात करें तो मानना ही पड़ेगा कि वे लोग साम्प्रदायिकता को खत्म करने की नहीं बल्कि साम्प्रदायिकता को और अधिक फलने, फूलने और पसरने का मौका देना चाहते हैं ताकि जनता की राजनीति पर राजनीतिज्ञों पर निर्भरता बढ़े।
सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता जैसे शीर्षक से जारी एकीकृत जद के घोषणा पत्र की कलई खोलने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह मण्डल आयोग की सिफारिशों में क्रीमीलेयर को घुसाना कांग्रेस सरकार की साजिश मानती है। जबकि स्पष्ट है कि बिना क्रीमीलेयर मण्डल आयोग की उपलब्धियों का प्रभाव वैसा ही होगा, जैसा अंधा बांटे रेवड़ी, आपा आपा देय। इससे आर्थिक समानता जैसी घोषणा पूरी तौर पर बेमानी होगी। फिर जनता दल की नीतियों के समर्थन का मतलब स्थायित्व, सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, धर्म निरपेक्षता व राष्ट्रीय एकता का समर्थन कतई नहीं रह जाएगा।
1991 व 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा ने जो चुनाव घोषणा पत्र जारी किये थे, उनमें अल्पसंख्यक आयोग को कानूनी शक्ति देने सहित विशेष वित्त निगम की स्थापना व अल्पसंख्यकों के निजी व पर्सनल लाॅ में हस्तक्षेप नहीं करने जैसे मुद्दे इस बार 1993 के चुनाव में भी वैसे ही बने हंै।
अर्थव्यवस्था के संदर्भ में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण, कर संरचना की समीक्षा हेतु लम्बी अवधि योजना, बचत के उपाय, अनावश्यक आयात पर रोक संबंधी घोषणाएं पूरी तरह असफल रही हैं।
कंेद्र-राज्य सम्बन्ध के विषय मंे राष्ट्रीय मोर्चा ने अपने पिछले दोनों चुनाव घोषणा पत्रों में कहा था कि राज्यों को मजबूती प्रदान करने के लिए उन्हें आर्थिक स्वरूप से स्वायत्त बनाया जाएगा। राज्यपाल शासन व अनु. 356 की समीक्षा की जाएगी लेकिन इस दिशा में भी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की कोई उपलब्धि नहीं रही।
आरक्षण के लिए मंडल आयोग को पुरस्कार स्वरूप स्वीकार करने वाले जद नेता वी.पी. सिंह की पार्टी की आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के लिए पांच प्रतिशत आरक्षण व मंडल आयोग की सिफारिशों में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने के लिए विशेषज्ञ समिति की स्थापना की बात बेमानी होकर रह गयी है। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पूरे कार्यकाल में रोजगारपरक उद्योग ही नहीं, उद्योगों के विकास का कामकाज भी ठप रहा। जबकि कृषि आधारित छोटे-छोटे उद्योगों को उन्नत करना इसके पिछले घोषणा पत्रों का मुख्य बिन्दु था।
कृषकों, बीड़ी श्रमिकों व निर्माण में लगे मजदूरों की सुरक्षा के लिए बिल, निजी व सरकारी क्षेत्र में सभी तदर्थ श्रमिकों को नियमित करने की दिशा में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने जो काम किया, उसके परिणामस्वरूप प्रदेश में कई सरकारी क्षेत्रों के कारखाने, निजी क्षेत्र में चले गये। श्रमिकों का नियमितीकरण तो दूर उनकी भर्ती तक के लिए कोई विशेष नीति नहीं लायी गयी। एक दशक में बेरोजगारी उन्मूलन के लिए विशेष कार्यक्रम लाने की घोषणा करने वाली सरकार ने मंडल आयोग के सिवा किसी अन्य कार्य को करने की दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की। परिणामतः बेरोजगारों की संख्या में काफी इजाफा दर्ज हुआ।
शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा बजट का पचास प्रतिशत धन प्राइमरी शिक्षा पर व्यय करने का वादा करने वाली सरकार ने मात्र 20 प्रतिशत धन प्राइमरी शिक्षा पर व्यय किया और प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों के रखरखाव व स्तर में कोई सुधार नहीं हो पाया। इसी तरह बच्चों की जरूरत का धन बाल श्रम पर खर्च करने सम्बन्धी वायदे भी एकदम कागजी बनकर रह गये। फिर भी उ.प्र. जनता दल ने 19 पृष्ठ का जो घोषणा पत्र जारी किया है, उसमें शराब व लाटरी के निजी क्षेत्र में बिक्री पर प्रतिबंध, भ्रष्टाचार की समाप्ति, निचले स्तर पर लोकतंत्र की बहाली सहित, कृषि को उद्योग का दर्जा देने और गन्ने के भुगतान को वरीयता दी है। प्रदेश के हित में यह उल्लेखनीय घोषणाएं हैं। लेकिन अयोध्या मसले पर जद के घोषणा पत्र में खामोशी खासी रहस्यात्मक है। कमोबेश यह जद के पलायनवाद का खुलासा ही करती है।