राजनीति का सत्य से कोई रिश्ता नहीं है यह बात महात्मा गांधी के ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ की प्रशंसा करने और इसे प्रचारित करने वाले लोग भी मानने लगे हैं। किसी पुराने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य या गांधीवादी से मिलिए, मिलते ही वह जमाने पर तमाम तोहमत धर देगा। जो कुछ वो कहेगा - बबाएगा, उसमें उसे ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ के लिए एक प्रायश्चित होगा, एक ऐसा बोध होगा, जिसमें सत्य के प्रायश्चित होगा, एक ऐसा बोध होगा, जिसमें सत्य के प्रायश्चित जैसी संवेदना घुट-घुटकर मर गयी होगी या अन्तिम सांसे गिनती होगी। इस सत्य के साथ प्रयोग को आप अगर अंगीकार करने का स्वांग भी उसके सामने कर देंगे तो वह कह उठेगा-
युग बदला तुम बदलो अपनी निष्ठाएं
देखो दूर दिशा में
प्राची लाल हो गयी
तम की सकल सम्पदा भी
कंगाल हो गयी।
यदि प्रतीकों और बिम्बों में विश्वास हो तो ‘तम’ को वह ‘सत्य’ से स्वीकारता और मानता होगा यानि सत्य की सम्पदा कंगाल है। यह बोध है क्यों ? किन स्थितियों ने इस बोध को भरा ? इसके लिए उत्तरदायीकरण क्या-क्या या कौन-कौन है ?
इन प्रश्नों को विस्तार से काटने की साजिश के परिणामस्वरूप ही यह जुमला चल निकला है - ‘प्यार व राजनीति में सब कुछ जायज है।’ प्यार मानवता को जोता है। मानवता को मानवीय मूल्यों से बांधता है। राजनीति - हमारे समाज की निर्मात्री है। हमारे परिवेश की। हमारे उन परम्परा और रूढ़ियों की स्थापना की जिसके खिलाफ हमें खड़े होना है या जिसके लिए हमें खड़े होना है। राजनीति जो आदमी के लिए बाहरी परिवेश का निर्माण करती है। प्यार जो व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व में सृजन, संवेदना व रचनाधर्मिता जागृत करता है, इन दोनों में सब कुछ जायज है क्यों ? यह हमें पथभ्रष्ट करने से तरीका है। यही तरीका आज हमारे राजनीतिज्ञों ने अख्तियार कर लिया है, तभी तो मतदाता एवं नेता के बीच एक खास संस्कृति उभरी - ‘उपभोक्ता संस्कृति।’ उपभोक्ता संस्कृति का एक विशिष्ट अंग है - विज्ञापन। विज्ञापन दावे, रंगीन सपने बेचने का दूसरा नाम है। तभी तो हमारा राजनीतिज्ञ, हमारी राजनीतिक पार्टियां भी बेचने लगी हैं - रंगीन सपने।
राजनीति हो गयी है - वीर भोग्या, धूर्त भोग्या। वीर यानि जिसकी लाठी उसकी भैंस। आज वीर को अकल बड़ी या भैंस में से भैंस बड़ी नजर आ रही है। धूर्त वो वह है जो मिल-जुलकर गणतंत्र को गुणतंत्र के साथ चलने देना नहीं चाहते। वे गणतंत्र को भीतंत्र में तब्दील करने पर आमदा हैं। ये जनता के लिए जनता से चुनी सरकार के हिमायती हैं। जनता वह जनता जो आवश्यकताओं के आगे निरीह खड़ी हो। जिसे रोटी के सामने वोट की कीमत पर अहसास मत हो। भ्रष्टाचार, शिष्टाचार सा दिखे। नेताओं की आचार संहिता नहीं है? राजनीति का प्रयोग शिखण्डी के तौर पर किया जा रहा है, क्योंकि इससे ही सत्य रूपी भीष्म को पराजित किया जा सकता है। तभी तो इन्हें कुल मिलाकर एक आशाजनक भविष्य नजर आता है, उसकी और बढ़ने का आह्वान देते हैं, निमंत्रण देते हैं। समूचे देश व समूचे समाज के कल्याण का सपना बेचते हैं फिर भी आशीर्वाद की आशा? भविष्य को सिर्फ एक आशा और अवसर नहीं होना चाहिए - ये शब्द भयंकर हैं। भ्रामक हैं और मायावी भी। कबीर ने कहा है - ‘आप ठके सुख होते हैं और ठगे दुःख होय’ तभी तो हमारा मतदाता ठगाने की कला जीना ज्यादा पसन्द करता है और हमारा नेता ठगने के नायाब तरीके ईजाद करता रहता है।
राजनीति ने मनुष्य का अपनी क्षमता को विकसित होने का, खिलने का, परितृप्ति लाने का कभी मौका नहीं दिया है। राजनीतिज्ञों का अल्पमत सदयों से पूरे समाज को गुलाम बनाये हैं। इस अल्पमत के प्रभावपन से उबरना होगा, क्योंकि यह अल्पमत ही ‘सत्य के साथ प्रयोग’ पर प्रायश्चित बोध के लिए जिम्मेदार है। यह चुनाव का समय है। हम एक आमूल रूपांतरण की स्थिति में खड़े हैं। हम ऐसे लोग, ऐसा समाज निर्मित कर सकते हैं जो निश्छल हो, स्वतंत्र हो, स्वतंत्र व निश्छल होने मंे लोगों की मदद करे। जो हमारी सृजनात्मकता के लिए पोषण हो। ‘गरिमा’, ‘सम्मान’ प्राप्त करे और प्रदान करने में मदद करे। यही होना चाहिए हमारी राजनीति का, राजनीतिज्ञ का घोषणा-पत्र, क्योंकि हम जिस चुनौती भरी स्थिति में जी रहे हैं, उसमें हमें यही चाहिए वर्ना हमें भी-‘युग बदला तुम बदलो अपनी निष्ठाएं’ जैसी उक्ति को विरासत में स्थानान्तरित करना पड़ेगा।
हमारी यह मान्यता स्थापना का आकार ग्रहण कर लेगी कि राजनीति का सत्य से रिश्ता नही।है। एक बार एक धर्म गुरु बोल रहे थे कि एक आदमी अपने जीवन में ज्यादे से ज्यादे 10 प्रतिशत झूठ बोल सकता है। उन्होंने कहा कि आदमी से उसका नाम पूछें तो वह दूसरे का नाम नहंी बतायेगा। उसे भूख लगी हो और खाना मिले तो वह खाना खाएगा, झूठ नहीं। पर स्थितियां बदल गयी हैं। आदमी अपना नाम बदलने को तैयार है। झूठ खाने को तैयार है। ये चुनौतियां हमारे सामने सुरसा के मुंह की तरह बती जा रही है। कोई हनुमान नहीं है जो इनके सामने अणिमा, लघिमा व महिमा जैसी शक्तियां जताकर पार कर सकें।
‘उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम।’सूक्ति, हमारे आत्मा की ‘मार्चिंग टयून’ है, लेकिन क्षुद्रता जनित दंभ के कारण हमें ठगा गया, जिससे लोकतंत्र की असत्यता को अपनी अकर्मण्यता और पाषाण के विस्तार में परिणत होने में नहीं रोक पाये। राजनीतिक ढांचे में फंसी एक बड़ी आबादी, जिसका इस धरती में भावनात्मक लगाव है। वह इस देश के भविष्य को निखारने के लिए भले ही मैदान में न कूद पडे़, पर उसके अन्दर भारत के भविष्य को लेकर बेचैनी जरूर है। इस बेचैनी को समाप्त करने के लिए कहीं विकास का नारा है, कहीं स्थायित्व का, कहीं जो कहा सो किया, कहीं सामाजिक न्याय का।
आर्थिक प्रक्रिया को लोग विकास कहते हैं। वस्तुतः यह विकास है नहीं क्योंकि आर्थिक प्रक्रिया रंगीन पैके जिंग है जिसे मिसनोमर (मिथ्या नाम) भी कहते हैं। आर्थिक प्रक्रिया चिरंतन घटित होती हैं तभी तो माक्र्स की यह उक्ति अभी तक सार्थक बनी हुई है कि - ‘सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक चरों पर निर्भर करते हैं।’ आर्थिक प्रक्रिया विकास नहीं है। फिर भी विकास की बात। विकास होता तो हम पर बढ़ा ऋण बोझ, प्रतिकूल भुगतान संतुलन आदि नहीं रहता।
सच देखा जाये तो विकास, स्थायित्व जो कहा सो किया, सामाजिक न्याय यह सब कुछ हमारे राजनीतिज्ञों की ‘सेल्समैनशिप’ का परिणाम है। हमारे यहां आज अगड़े हैं, पिछड़े हैं। हिन्दू हैं - मुसलमान हैं, भारतीय नहीं हैं। राजनीति उग्रवादियों व साम्प्रदायिक तत्वों के हाथों का खिलौना बन गयी है। हमने जो लोकतंत्र अपनाया है उसमें हम भूल गये कि लोकतंत्र में अधिकारों के साथ-साथ जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। हमारे कर्तव्य हमारे लिए गौण हो उठे हैं। शताब्दी अन्तिम पाव पर है। नयी सदी दस्तक दे रही है पर इसके लिए जो तैयाारी होनी चाहिए थी वह दिखायी नहीं पड़ रही है। बस स्थिति यह है कि-
किसी आने वाले तूफां का रोना रोकर।
नाखुदा ने मुझे साहिल पर डुबोना चाहा।
हमारा समाज अपने अनिवार्य एवं सम्भव दोनों तरह के भविष्य से कटा हुआ है। अनिवार्य भविष्य इक्कीसवीं सदी के नाम पर हम ढोते जा रहे हैं और सम्भव भविष्य पर जुलाई, 91 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से लिया गया ऋण व दिसम्बर 1992 में अयोध्या में घटना हुई इससे हम ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तर्ज पर गये दूसरे के कारण हमें मध्यकालीन इतिहास को सामाजिक स्थिति की ओर लौटना पड़ा और यह हमारा लौटना और मुद्राकोष के कारण आर्थिक गुलामी की शर्तों को स्वीकारना हमारे सम्भव भविष्य के सामने यक्ष प्रश्न है।
राष्ट्रवाद के समानान्तर हिन्दू राष्ट्रवाद व मुस्लिम राष्ट्रवाद की दो समानान्तर उपधाराएं उपजीं। इसमें विविधता में एकता का भारत टूटा। राष्ट्रवाद बहुसंख्यक का पर्याय हो गया। राम मंदिर का ताला खोलकर ऐसी स्थिति पैदा की गयी जिससे लगने लगे कि भारतीय राष्ट्रवाद मायने हिन्दूवाद। यह करने देने मंे कांग्रेस ने भी सहयोग दिया परन्तु आज वही अपने वोटों के खिसकने के कारण इस धर्मनिरपेक्षता पर प्रहार मानती एवं स्वीकारती है। राजनीज्ञिों का एक बहुत बड़ा वर्ग ‘पे-आफ’ खाने वालों में बदल गया है।
भ्रष्टाचार-अनाचार, दुराचार के लिए तर्क तलाशे जाने लगे हैं। तर्क तैयार भी हैं। क्योंकि आदमी बुद्धिजीवी हो गया है। उसकी बुद्धिजीविता इस हद तक बढ़ गयी है कि वह लाइन में लगकर वोट देने में शर्म महसूस करता है और फिर पांच साल तक सरकार की आलोचना करने का अधिकार जताता है।
हमारी सारी समस्या, सत्य के साथ हुए प्रयोग की पराजय के पीछे है - बुद्धिजीविता। हमारा दोहरापन। अमरीका में क्लिंटन इस आश्वासन पर सत्ता में आते हैं कि वे पहली महान्यायवादी महिला नियुक्त करेंगे। उन्होंने ऐसा किया, लेकिन बाद में पता चला कि इस महान्यायवादी ने ह वर्ष पूर्व गैरनामंकित नौकरानी को अपने यहां नौकरी पर रखा था, जिससे अमरीकी कानून का उल्लंघन हुआ, महिला ने अपना नामांकन वापस ले लिया।
सोचना होगा हमारे काम करने, सोचने की क्षमता भी पश्चिमी देशों की तर्ज पर होनी चाहिए सिर्फ जीवन जीने की क्षमता नहीं। यह नहीं कर पाये तो हमें महज इस पर संतोष करना पड़ेगा कि देश टूट रहा है। गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, गैरबराबरी और असुरक्षा के बीच जनता कराह रही है हर राजनीतिक दल जुट करके फसाद और जोड़-तोड़ की सियासत करते रहेंगे। देश की आजादी और टुकड़े-टुकड़े हो जाने की कीमत पर भी भारतीयता, राष्ट्रवाद जारी रहेगा।
युग बदला तुम बदलो अपनी निष्ठाएं
देखो दूर दिशा में
प्राची लाल हो गयी
तम की सकल सम्पदा भी
कंगाल हो गयी।
यदि प्रतीकों और बिम्बों में विश्वास हो तो ‘तम’ को वह ‘सत्य’ से स्वीकारता और मानता होगा यानि सत्य की सम्पदा कंगाल है। यह बोध है क्यों ? किन स्थितियों ने इस बोध को भरा ? इसके लिए उत्तरदायीकरण क्या-क्या या कौन-कौन है ?
इन प्रश्नों को विस्तार से काटने की साजिश के परिणामस्वरूप ही यह जुमला चल निकला है - ‘प्यार व राजनीति में सब कुछ जायज है।’ प्यार मानवता को जोता है। मानवता को मानवीय मूल्यों से बांधता है। राजनीति - हमारे समाज की निर्मात्री है। हमारे परिवेश की। हमारे उन परम्परा और रूढ़ियों की स्थापना की जिसके खिलाफ हमें खड़े होना है या जिसके लिए हमें खड़े होना है। राजनीति जो आदमी के लिए बाहरी परिवेश का निर्माण करती है। प्यार जो व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व में सृजन, संवेदना व रचनाधर्मिता जागृत करता है, इन दोनों में सब कुछ जायज है क्यों ? यह हमें पथभ्रष्ट करने से तरीका है। यही तरीका आज हमारे राजनीतिज्ञों ने अख्तियार कर लिया है, तभी तो मतदाता एवं नेता के बीच एक खास संस्कृति उभरी - ‘उपभोक्ता संस्कृति।’ उपभोक्ता संस्कृति का एक विशिष्ट अंग है - विज्ञापन। विज्ञापन दावे, रंगीन सपने बेचने का दूसरा नाम है। तभी तो हमारा राजनीतिज्ञ, हमारी राजनीतिक पार्टियां भी बेचने लगी हैं - रंगीन सपने।
राजनीति हो गयी है - वीर भोग्या, धूर्त भोग्या। वीर यानि जिसकी लाठी उसकी भैंस। आज वीर को अकल बड़ी या भैंस में से भैंस बड़ी नजर आ रही है। धूर्त वो वह है जो मिल-जुलकर गणतंत्र को गुणतंत्र के साथ चलने देना नहीं चाहते। वे गणतंत्र को भीतंत्र में तब्दील करने पर आमदा हैं। ये जनता के लिए जनता से चुनी सरकार के हिमायती हैं। जनता वह जनता जो आवश्यकताओं के आगे निरीह खड़ी हो। जिसे रोटी के सामने वोट की कीमत पर अहसास मत हो। भ्रष्टाचार, शिष्टाचार सा दिखे। नेताओं की आचार संहिता नहीं है? राजनीति का प्रयोग शिखण्डी के तौर पर किया जा रहा है, क्योंकि इससे ही सत्य रूपी भीष्म को पराजित किया जा सकता है। तभी तो इन्हें कुल मिलाकर एक आशाजनक भविष्य नजर आता है, उसकी और बढ़ने का आह्वान देते हैं, निमंत्रण देते हैं। समूचे देश व समूचे समाज के कल्याण का सपना बेचते हैं फिर भी आशीर्वाद की आशा? भविष्य को सिर्फ एक आशा और अवसर नहीं होना चाहिए - ये शब्द भयंकर हैं। भ्रामक हैं और मायावी भी। कबीर ने कहा है - ‘आप ठके सुख होते हैं और ठगे दुःख होय’ तभी तो हमारा मतदाता ठगाने की कला जीना ज्यादा पसन्द करता है और हमारा नेता ठगने के नायाब तरीके ईजाद करता रहता है।
राजनीति ने मनुष्य का अपनी क्षमता को विकसित होने का, खिलने का, परितृप्ति लाने का कभी मौका नहीं दिया है। राजनीतिज्ञों का अल्पमत सदयों से पूरे समाज को गुलाम बनाये हैं। इस अल्पमत के प्रभावपन से उबरना होगा, क्योंकि यह अल्पमत ही ‘सत्य के साथ प्रयोग’ पर प्रायश्चित बोध के लिए जिम्मेदार है। यह चुनाव का समय है। हम एक आमूल रूपांतरण की स्थिति में खड़े हैं। हम ऐसे लोग, ऐसा समाज निर्मित कर सकते हैं जो निश्छल हो, स्वतंत्र हो, स्वतंत्र व निश्छल होने मंे लोगों की मदद करे। जो हमारी सृजनात्मकता के लिए पोषण हो। ‘गरिमा’, ‘सम्मान’ प्राप्त करे और प्रदान करने में मदद करे। यही होना चाहिए हमारी राजनीति का, राजनीतिज्ञ का घोषणा-पत्र, क्योंकि हम जिस चुनौती भरी स्थिति में जी रहे हैं, उसमें हमें यही चाहिए वर्ना हमें भी-‘युग बदला तुम बदलो अपनी निष्ठाएं’ जैसी उक्ति को विरासत में स्थानान्तरित करना पड़ेगा।
हमारी यह मान्यता स्थापना का आकार ग्रहण कर लेगी कि राजनीति का सत्य से रिश्ता नही।है। एक बार एक धर्म गुरु बोल रहे थे कि एक आदमी अपने जीवन में ज्यादे से ज्यादे 10 प्रतिशत झूठ बोल सकता है। उन्होंने कहा कि आदमी से उसका नाम पूछें तो वह दूसरे का नाम नहंी बतायेगा। उसे भूख लगी हो और खाना मिले तो वह खाना खाएगा, झूठ नहीं। पर स्थितियां बदल गयी हैं। आदमी अपना नाम बदलने को तैयार है। झूठ खाने को तैयार है। ये चुनौतियां हमारे सामने सुरसा के मुंह की तरह बती जा रही है। कोई हनुमान नहीं है जो इनके सामने अणिमा, लघिमा व महिमा जैसी शक्तियां जताकर पार कर सकें।
‘उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम।’सूक्ति, हमारे आत्मा की ‘मार्चिंग टयून’ है, लेकिन क्षुद्रता जनित दंभ के कारण हमें ठगा गया, जिससे लोकतंत्र की असत्यता को अपनी अकर्मण्यता और पाषाण के विस्तार में परिणत होने में नहीं रोक पाये। राजनीतिक ढांचे में फंसी एक बड़ी आबादी, जिसका इस धरती में भावनात्मक लगाव है। वह इस देश के भविष्य को निखारने के लिए भले ही मैदान में न कूद पडे़, पर उसके अन्दर भारत के भविष्य को लेकर बेचैनी जरूर है। इस बेचैनी को समाप्त करने के लिए कहीं विकास का नारा है, कहीं स्थायित्व का, कहीं जो कहा सो किया, कहीं सामाजिक न्याय का।
आर्थिक प्रक्रिया को लोग विकास कहते हैं। वस्तुतः यह विकास है नहीं क्योंकि आर्थिक प्रक्रिया रंगीन पैके जिंग है जिसे मिसनोमर (मिथ्या नाम) भी कहते हैं। आर्थिक प्रक्रिया चिरंतन घटित होती हैं तभी तो माक्र्स की यह उक्ति अभी तक सार्थक बनी हुई है कि - ‘सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक चरों पर निर्भर करते हैं।’ आर्थिक प्रक्रिया विकास नहीं है। फिर भी विकास की बात। विकास होता तो हम पर बढ़ा ऋण बोझ, प्रतिकूल भुगतान संतुलन आदि नहीं रहता।
सच देखा जाये तो विकास, स्थायित्व जो कहा सो किया, सामाजिक न्याय यह सब कुछ हमारे राजनीतिज्ञों की ‘सेल्समैनशिप’ का परिणाम है। हमारे यहां आज अगड़े हैं, पिछड़े हैं। हिन्दू हैं - मुसलमान हैं, भारतीय नहीं हैं। राजनीति उग्रवादियों व साम्प्रदायिक तत्वों के हाथों का खिलौना बन गयी है। हमने जो लोकतंत्र अपनाया है उसमें हम भूल गये कि लोकतंत्र में अधिकारों के साथ-साथ जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। हमारे कर्तव्य हमारे लिए गौण हो उठे हैं। शताब्दी अन्तिम पाव पर है। नयी सदी दस्तक दे रही है पर इसके लिए जो तैयाारी होनी चाहिए थी वह दिखायी नहीं पड़ रही है। बस स्थिति यह है कि-
किसी आने वाले तूफां का रोना रोकर।
नाखुदा ने मुझे साहिल पर डुबोना चाहा।
हमारा समाज अपने अनिवार्य एवं सम्भव दोनों तरह के भविष्य से कटा हुआ है। अनिवार्य भविष्य इक्कीसवीं सदी के नाम पर हम ढोते जा रहे हैं और सम्भव भविष्य पर जुलाई, 91 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से लिया गया ऋण व दिसम्बर 1992 में अयोध्या में घटना हुई इससे हम ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तर्ज पर गये दूसरे के कारण हमें मध्यकालीन इतिहास को सामाजिक स्थिति की ओर लौटना पड़ा और यह हमारा लौटना और मुद्राकोष के कारण आर्थिक गुलामी की शर्तों को स्वीकारना हमारे सम्भव भविष्य के सामने यक्ष प्रश्न है।
राष्ट्रवाद के समानान्तर हिन्दू राष्ट्रवाद व मुस्लिम राष्ट्रवाद की दो समानान्तर उपधाराएं उपजीं। इसमें विविधता में एकता का भारत टूटा। राष्ट्रवाद बहुसंख्यक का पर्याय हो गया। राम मंदिर का ताला खोलकर ऐसी स्थिति पैदा की गयी जिससे लगने लगे कि भारतीय राष्ट्रवाद मायने हिन्दूवाद। यह करने देने मंे कांग्रेस ने भी सहयोग दिया परन्तु आज वही अपने वोटों के खिसकने के कारण इस धर्मनिरपेक्षता पर प्रहार मानती एवं स्वीकारती है। राजनीज्ञिों का एक बहुत बड़ा वर्ग ‘पे-आफ’ खाने वालों में बदल गया है।
भ्रष्टाचार-अनाचार, दुराचार के लिए तर्क तलाशे जाने लगे हैं। तर्क तैयार भी हैं। क्योंकि आदमी बुद्धिजीवी हो गया है। उसकी बुद्धिजीविता इस हद तक बढ़ गयी है कि वह लाइन में लगकर वोट देने में शर्म महसूस करता है और फिर पांच साल तक सरकार की आलोचना करने का अधिकार जताता है।
हमारी सारी समस्या, सत्य के साथ हुए प्रयोग की पराजय के पीछे है - बुद्धिजीविता। हमारा दोहरापन। अमरीका में क्लिंटन इस आश्वासन पर सत्ता में आते हैं कि वे पहली महान्यायवादी महिला नियुक्त करेंगे। उन्होंने ऐसा किया, लेकिन बाद में पता चला कि इस महान्यायवादी ने ह वर्ष पूर्व गैरनामंकित नौकरानी को अपने यहां नौकरी पर रखा था, जिससे अमरीकी कानून का उल्लंघन हुआ, महिला ने अपना नामांकन वापस ले लिया।
सोचना होगा हमारे काम करने, सोचने की क्षमता भी पश्चिमी देशों की तर्ज पर होनी चाहिए सिर्फ जीवन जीने की क्षमता नहीं। यह नहीं कर पाये तो हमें महज इस पर संतोष करना पड़ेगा कि देश टूट रहा है। गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, गैरबराबरी और असुरक्षा के बीच जनता कराह रही है हर राजनीतिक दल जुट करके फसाद और जोड़-तोड़ की सियासत करते रहेंगे। देश की आजादी और टुकड़े-टुकड़े हो जाने की कीमत पर भी भारतीयता, राष्ट्रवाद जारी रहेगा।