हजरतबल दरगाह नहीं आतंकवादियों का अड्डा बन गया था। इससे इस्लाम के एके ष्वरवाद और भाईचारे के संदेष को आघात पहुचा था, फिर भी इस्लामियत के कथित नुमाइंदों को दरगाह की पवित्रता की जरूरत थी। एक ऐसे समय, जबकि पवित्रता के लिए आतंकवादियों के खिलाफ जेहाद होना चाहिए था, सरकार से पवित्रता के रक्षा की मांग हो रही थी ? हजरतबल में जो कुछ हुआ वह पहली बार नहीं था, इससे पहले भी हजतरबल से राजनीति व उग्रवाद के माध्यम से कष्मीर के अमन-चैन में पलीता लगाया जा चुका है। कष्मीर की पूरी सियासत ही भारत विरोध का षिकार रही है।
जब तक हजरतबल प्रकरण जारी रहा तब तक पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो राष्ट्रकुल देषों के सम्मेलन सहित तमाम मंचों पर कष्मीर की स्वायत्ता एवं कष्मीर की समस्या संबंधी मुद्दे उठाती रही हैं। इतना ही नहीं, अमेरिकी विदेषी उपमंत्री सुश्री राबिन राफेल ने यहां तक कह डाला कि अमेरिका की नजर में कष्मीर का भारत में विलय स्थायी नहीं है। अमेरिका कष्मीर के राजा के विलय पत्र को मान्यता नहंी देता है। यह भारत के मूल विलय अधिनियम पर सवाल है। अमरीकी प्रतिनिधि जान मिल्टन ने पाक को आतंकवादी देष घोषित करने की जगह भारत को आड़े हाथों लिया ? राष्ट्रपति क्लिंटन ने कहा कि कष्मीर में ग्रह युद्ध चल रहा है। यद्यपि अमेरिका ने राबिन राफेल, जान मिल्टन व बिल क्लिंटन सभी के बयानों से किनारा कस लिया। फिर भी बयानों से यह साफ होने लगा है कि अमेरिका कष्मीर के मसले पर कुछ खासी दिलचस्पी ले रहा है। एक ओर अमेरिका के राजनीतिक मामलों के प्रभारी टनीफ षिमला समझौते को कष्मीर मसले का अभीष्ट निदान मांगते हैं, दूसरी ओर वे पाक द्वारा उठाए गए द्विपक्षीय वार्ता के मुद्दे का भी समर्थन करते हैं ? अमरीकी कांग्रेस में डेमोक्रेटिक सदस्य फ्रेंक पैलोन जूनियर ने हजरतबल समस्या के समाधान की तारीफ करते हुए इसे भारत की धर्मनिरपेक्षता के प्रति सार्थक पहल भले ही बताया हो परंतु वे यह कहने से नहीं चूके कि कष्मीर समस्या का समाधान षिमला समझौते के तहत भारत-पाकिस्तान के बीच सीधी बातचीत से हो। जब षिमला समझौता कष्मीर मसले को हल करने का अंतिम हथियार है तो फिर बातचीत करके पाक की द्विपक्षीय वार्ता के प्रस्ताव को ठुकराना सीधे-सीधे पाकिस्तान का पक्ष लेना है। इतना ही नहंीं, अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण उसे एक आतंकवादी देष घोषित करने की जो घोषणा की थी, उसका बिना कारण बताए ठंडे बस्ते में चला जाना अमरीका की पाकिस्तानी पक्षधरता का ही परिणाम है। अभी भी अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी का मानना है कि पंजाब व कष्मीर में आतंकवादी गतिविधियों के लिए उग्रवादियों को प्रषिक्षण व हथियार देने में पाकिस्तान गुप्तचर एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस की अहम भूमिका है। रिपब्लिकन पार्टी द्वारा ‘आतंकवाद व छद्म युद्ध’ के बारे में किए गए एक अध्ययन रिपोर्ट में यह निष्कर्ष आया कि कष्मीर में पाकिस्तान से ही बड़ी संख्या में हथियार आते हैं। 1990 के अंतिम दौर में पांच हजार कष्मीरी एवं एक अप्रैल 1991 अंत के आंकड़ों के हिसाब से दस हजार कष्मीरी पाक में आतंकवाद का प्रषिक्षण ले रहे हैं। इस रिपोर्ट के बाद भी पाक को आतंकवादी देष घोषित न करना क्या अमरीकी निष्पक्षता का प्रतीक है ? इससे यह लगने लगा है कि अमेरिका नहीं चाहता कि भारत में षांति हो। इसके लिए वह कष्मीर को हथियार बना रहा है। इस समस्या को इस्तेमाल करके सुनियोजित तरीके से वह डंके ल प्रस्ताव, मुद्राकोष व विष्व बैंक के ़ऋण के साथ भारत पर हमला करना चाहता है। इस हमलेे के खिलाफ एकजुट होकर खड़े होने की जगह हम विपरीत दिषा में बढ़ते जा रहे हैं-वर्ग में, जाति में, धर्म में, संप्रदाय एवं क्षेत्र में। हजरत मुहम्मद साहब के पवित्र स्मृति चिन्हों में दो चिन्ह भारत में मौजूद हैं। एक पवित्र बाल हजरतबल दरगाह में और दूसरा उनके पवित्र कपड़े ‘पहरान-ए-मुबारक’ महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास खुल्दाबाद में हजरत बाइन ख्वाबा के दरगाह मंे। फिर भी भारत के एक वर्ग विषेष के कुछ लोग इस्लामी देषों के फरमान का मुंह ताकते हैं ? उन्हें ‘लज्जा’ पढ़ने के बाद यह समझ में नहीं आता है कि भारत में स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा और स्वतंत्रता का परिवेष है। क्यों एक धर्मविषेष के खिलाफ लिखने के बाद ही सलमान रषदी, तस्लीमा नसरीन, मौलाना वहीदुद्दीन की हत्या का फरमान जारी हो जाता है? हिंूदी समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास लिखी जा सकती है। यह लिखा जा सकता है कि कुंआरी मां मरियम के गर्भ से ईसा मसीह का जन्म हुआ। महाभारत जारज संतानों का युद्ध है। पर इस्लाम के खिलाफ कुछ नहीं क्यों ?
मौलाना वहीदुद्दीन जो उदारवादी उलेमाओं की श्रेणी में आते हैं और कष्मीरी कट्टरवादी संगठन मौलाना वहीदुद्दीन खंा को जान से मार डालना चाहता है ? मौलाना के लिए पांच लाख रुपए का ईनाम है-यह ईनाम मुसलमान संगठन अदा करेगा। मौलाना वहीदुद्दीन की खता यही है कि उन्होंने कहा कि- ‘अपने राजनीतिक स्वार्थ या मकसद के लिए किसी धार्मिक स्थल का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।’यह सच भी है और ऐसा होने देने से रोकना भी चाहिए। वह चाहे राम राज्य या मंदिर का मसला हो और। या बाबरी मस्जिद, हजरतबल दरगाह का। धर्म की आड़ में देष व समाज से खेलने की छूट किसी को नहीं मिलनी चाहिए। सांप्रदायिकता विरोधी कमेटी यह अपील करती है बेखोफ होकर वोट दें ताकि भाजपा की मजहबी व खून-खराबे वाली पालिटिक्स को करारा जवाब मिले। उन्हें सबक मिले जो गड़े मुर्दे उखाड़ कर सूबे की तरक्की रोकना चाहते हैं। जो अवाम केा लड़ाते हुए चिल्ला रहे हैं कि - ‘अयोध्या तो एक झांकी है, मथुरा काषी बाकी है।’ यह सही है कि ऐसी राजनीतिक मंषा पराजित होनी चाहिए। पर आखिर कौन लोग यह विज्ञापन करवा रहे हंै? यह लोग रषदी, नसरीन और वहीदुद्दीन के मौत के फतवे पर खामोष क्यों हो जाते हैं ? क्यों इन्हें धर्मांे के खिलाफ बोलने में सर्वधर्म संभाव बिसर जाता है ? वे कष्मीर मसले पर पाक के हस्तक्षेप को लेकर मौन क्यों साध लेेते हैं ? उन्हें पाक के मंसूबे ध्वस्त करने के लिए कुछ कहने में गुरेज क्यों नहीं है ? वे - ‘कष्मीर हमारा अभिन्न अंग है।’ इसके लिए विज्ञापन क्यों नहीं देते? क्यांेकि पाक अमेरिकी प्रषासन के पुर्जे की तरह व्यवहार कर रहा है। पाक का रिमोट क्लिंटन प्रषासन के हाथ में है। पाक की वर्तमान आक्रामकता अमरीकी अधिकारियों की भारत विरोधी बयानांे के कारण ही है। तभी तो पाक के षहरयार खां, जान मैलट व राबिर राफेल के बयानों को उचित ठहरा रहे हैं। अमरीका यह जान चुका है कि भारत को राष्ट्र के रूप में खंडित करना संभव नहीं है। इसलिए वह भारत को नस्लों, जाितयों व धर्मांे के रूप में बांटने पर तुला है जिसके लिए वह कष्मीर नीति को आगे बढ़ाना चाहता है। मुसलमान, हिंदू और बौद्ध आदि के अलग-अलग पैमाने से कष्मीर समस्या का हल निकालने के तरीके सुझाता रहता है। जिसके लिए अमेरिका पाक को एक चैकी के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसलिए षहरयार खां दरगाह से घेराव हटाने, कष्मीर में दमन बंद करने और घाटी से भारतीय सेनाएं हटाने जैसी बातें करने मंे स्वयं को सक्षम मान रहे हैं। इस पर हमारा वह वर्ग खामोष है जो एकता परिषद जैसे सगंठन का सदस्य है। जो देष के अमन-चैन, एकता, संस्कृति और अखंडता का षुभेच्छु होने के अभिनय में सफल है। वह इसलिए नहीं बोलेगा क्योंकि उसे बुद्धिजीविता के नाम पर जीने के लिए भारी-भरकम अमेरिकी डिग्रियां चाहिए। उसे जीने के लिए चाहिए पष्चिमी सभ्यता का परिवेष।
अमेरिका कौन है जो भारत कष्मीर का अभिन्न अंग है या नहीं, यह तय करे ? उसके मानने या न मानने से हमें छअपटहाट क्यों होती है ? हम अमेरिका की दादागिरी क्यों स्वीकारते हैं ? क्यों हम उसके खिलाफ खड़े नहीं हो पाते ? क्यों नहंीं हम उसे कह पाते कि तुम्हारी चैधराहट की पंचाट पर हम कभी नहीं गए, राय नहीं मांगते। क्यों गाहे-बगाहे हमारी समस्याओं पर तुम फब्ती कस बैठते हो ? जबकि हम जानते हैं कि अमेरिका वियतनाम जैसे छोटे देष से पराजित हो चुका है। सोमालिया से घबरा कर वह अपने सैनिक वापस बुला रहा है। लीबिया का वह कुछ नहीं बिगाड़ पाया। अफगानिस्तान से वह सोवियत संघ को निकाल नहीं पाया। अगर हम ऐसे खामोष व अनिर्णय की स्थिति में बैठे रहे तो यह असंभव नहीं कि अमेरिका डंके ल प्रस्ताव, आर्थिक सहायता व कष्मीर के मसलों व समस्याओं को लेकर हमारा हाथ इतनी मजबूती से पकड़े लेगा कि अपनी इच्छा के मुताबिक जहां चाहे उसे मरोड़कर अंगूठा लगवा ले। फिर हमारे लिए भारी-भरकम अमेरिकी डिग्रियां, अमेरिकी उत्पादों का आकर्षण व पैसों पर स्वयं को बेचकर जीने का क्या कोई मतलब षेष नहीं रह जाएगा।
जब तक हजरतबल प्रकरण जारी रहा तब तक पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो राष्ट्रकुल देषों के सम्मेलन सहित तमाम मंचों पर कष्मीर की स्वायत्ता एवं कष्मीर की समस्या संबंधी मुद्दे उठाती रही हैं। इतना ही नहीं, अमेरिकी विदेषी उपमंत्री सुश्री राबिन राफेल ने यहां तक कह डाला कि अमेरिका की नजर में कष्मीर का भारत में विलय स्थायी नहीं है। अमेरिका कष्मीर के राजा के विलय पत्र को मान्यता नहंी देता है। यह भारत के मूल विलय अधिनियम पर सवाल है। अमरीकी प्रतिनिधि जान मिल्टन ने पाक को आतंकवादी देष घोषित करने की जगह भारत को आड़े हाथों लिया ? राष्ट्रपति क्लिंटन ने कहा कि कष्मीर में ग्रह युद्ध चल रहा है। यद्यपि अमेरिका ने राबिन राफेल, जान मिल्टन व बिल क्लिंटन सभी के बयानों से किनारा कस लिया। फिर भी बयानों से यह साफ होने लगा है कि अमेरिका कष्मीर के मसले पर कुछ खासी दिलचस्पी ले रहा है। एक ओर अमेरिका के राजनीतिक मामलों के प्रभारी टनीफ षिमला समझौते को कष्मीर मसले का अभीष्ट निदान मांगते हैं, दूसरी ओर वे पाक द्वारा उठाए गए द्विपक्षीय वार्ता के मुद्दे का भी समर्थन करते हैं ? अमरीकी कांग्रेस में डेमोक्रेटिक सदस्य फ्रेंक पैलोन जूनियर ने हजरतबल समस्या के समाधान की तारीफ करते हुए इसे भारत की धर्मनिरपेक्षता के प्रति सार्थक पहल भले ही बताया हो परंतु वे यह कहने से नहीं चूके कि कष्मीर समस्या का समाधान षिमला समझौते के तहत भारत-पाकिस्तान के बीच सीधी बातचीत से हो। जब षिमला समझौता कष्मीर मसले को हल करने का अंतिम हथियार है तो फिर बातचीत करके पाक की द्विपक्षीय वार्ता के प्रस्ताव को ठुकराना सीधे-सीधे पाकिस्तान का पक्ष लेना है। इतना ही नहंीं, अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण उसे एक आतंकवादी देष घोषित करने की जो घोषणा की थी, उसका बिना कारण बताए ठंडे बस्ते में चला जाना अमरीका की पाकिस्तानी पक्षधरता का ही परिणाम है। अभी भी अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी का मानना है कि पंजाब व कष्मीर में आतंकवादी गतिविधियों के लिए उग्रवादियों को प्रषिक्षण व हथियार देने में पाकिस्तान गुप्तचर एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस की अहम भूमिका है। रिपब्लिकन पार्टी द्वारा ‘आतंकवाद व छद्म युद्ध’ के बारे में किए गए एक अध्ययन रिपोर्ट में यह निष्कर्ष आया कि कष्मीर में पाकिस्तान से ही बड़ी संख्या में हथियार आते हैं। 1990 के अंतिम दौर में पांच हजार कष्मीरी एवं एक अप्रैल 1991 अंत के आंकड़ों के हिसाब से दस हजार कष्मीरी पाक में आतंकवाद का प्रषिक्षण ले रहे हैं। इस रिपोर्ट के बाद भी पाक को आतंकवादी देष घोषित न करना क्या अमरीकी निष्पक्षता का प्रतीक है ? इससे यह लगने लगा है कि अमेरिका नहीं चाहता कि भारत में षांति हो। इसके लिए वह कष्मीर को हथियार बना रहा है। इस समस्या को इस्तेमाल करके सुनियोजित तरीके से वह डंके ल प्रस्ताव, मुद्राकोष व विष्व बैंक के ़ऋण के साथ भारत पर हमला करना चाहता है। इस हमलेे के खिलाफ एकजुट होकर खड़े होने की जगह हम विपरीत दिषा में बढ़ते जा रहे हैं-वर्ग में, जाति में, धर्म में, संप्रदाय एवं क्षेत्र में। हजरत मुहम्मद साहब के पवित्र स्मृति चिन्हों में दो चिन्ह भारत में मौजूद हैं। एक पवित्र बाल हजरतबल दरगाह में और दूसरा उनके पवित्र कपड़े ‘पहरान-ए-मुबारक’ महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास खुल्दाबाद में हजरत बाइन ख्वाबा के दरगाह मंे। फिर भी भारत के एक वर्ग विषेष के कुछ लोग इस्लामी देषों के फरमान का मुंह ताकते हैं ? उन्हें ‘लज्जा’ पढ़ने के बाद यह समझ में नहीं आता है कि भारत में स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा और स्वतंत्रता का परिवेष है। क्यों एक धर्मविषेष के खिलाफ लिखने के बाद ही सलमान रषदी, तस्लीमा नसरीन, मौलाना वहीदुद्दीन की हत्या का फरमान जारी हो जाता है? हिंूदी समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास लिखी जा सकती है। यह लिखा जा सकता है कि कुंआरी मां मरियम के गर्भ से ईसा मसीह का जन्म हुआ। महाभारत जारज संतानों का युद्ध है। पर इस्लाम के खिलाफ कुछ नहीं क्यों ?
मौलाना वहीदुद्दीन जो उदारवादी उलेमाओं की श्रेणी में आते हैं और कष्मीरी कट्टरवादी संगठन मौलाना वहीदुद्दीन खंा को जान से मार डालना चाहता है ? मौलाना के लिए पांच लाख रुपए का ईनाम है-यह ईनाम मुसलमान संगठन अदा करेगा। मौलाना वहीदुद्दीन की खता यही है कि उन्होंने कहा कि- ‘अपने राजनीतिक स्वार्थ या मकसद के लिए किसी धार्मिक स्थल का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।’यह सच भी है और ऐसा होने देने से रोकना भी चाहिए। वह चाहे राम राज्य या मंदिर का मसला हो और। या बाबरी मस्जिद, हजरतबल दरगाह का। धर्म की आड़ में देष व समाज से खेलने की छूट किसी को नहीं मिलनी चाहिए। सांप्रदायिकता विरोधी कमेटी यह अपील करती है बेखोफ होकर वोट दें ताकि भाजपा की मजहबी व खून-खराबे वाली पालिटिक्स को करारा जवाब मिले। उन्हें सबक मिले जो गड़े मुर्दे उखाड़ कर सूबे की तरक्की रोकना चाहते हैं। जो अवाम केा लड़ाते हुए चिल्ला रहे हैं कि - ‘अयोध्या तो एक झांकी है, मथुरा काषी बाकी है।’ यह सही है कि ऐसी राजनीतिक मंषा पराजित होनी चाहिए। पर आखिर कौन लोग यह विज्ञापन करवा रहे हंै? यह लोग रषदी, नसरीन और वहीदुद्दीन के मौत के फतवे पर खामोष क्यों हो जाते हैं ? क्यों इन्हें धर्मांे के खिलाफ बोलने में सर्वधर्म संभाव बिसर जाता है ? वे कष्मीर मसले पर पाक के हस्तक्षेप को लेकर मौन क्यों साध लेेते हैं ? उन्हें पाक के मंसूबे ध्वस्त करने के लिए कुछ कहने में गुरेज क्यों नहीं है ? वे - ‘कष्मीर हमारा अभिन्न अंग है।’ इसके लिए विज्ञापन क्यों नहीं देते? क्यांेकि पाक अमेरिकी प्रषासन के पुर्जे की तरह व्यवहार कर रहा है। पाक का रिमोट क्लिंटन प्रषासन के हाथ में है। पाक की वर्तमान आक्रामकता अमरीकी अधिकारियों की भारत विरोधी बयानांे के कारण ही है। तभी तो पाक के षहरयार खां, जान मैलट व राबिर राफेल के बयानों को उचित ठहरा रहे हैं। अमरीका यह जान चुका है कि भारत को राष्ट्र के रूप में खंडित करना संभव नहीं है। इसलिए वह भारत को नस्लों, जाितयों व धर्मांे के रूप में बांटने पर तुला है जिसके लिए वह कष्मीर नीति को आगे बढ़ाना चाहता है। मुसलमान, हिंदू और बौद्ध आदि के अलग-अलग पैमाने से कष्मीर समस्या का हल निकालने के तरीके सुझाता रहता है। जिसके लिए अमेरिका पाक को एक चैकी के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसलिए षहरयार खां दरगाह से घेराव हटाने, कष्मीर में दमन बंद करने और घाटी से भारतीय सेनाएं हटाने जैसी बातें करने मंे स्वयं को सक्षम मान रहे हैं। इस पर हमारा वह वर्ग खामोष है जो एकता परिषद जैसे सगंठन का सदस्य है। जो देष के अमन-चैन, एकता, संस्कृति और अखंडता का षुभेच्छु होने के अभिनय में सफल है। वह इसलिए नहीं बोलेगा क्योंकि उसे बुद्धिजीविता के नाम पर जीने के लिए भारी-भरकम अमेरिकी डिग्रियां चाहिए। उसे जीने के लिए चाहिए पष्चिमी सभ्यता का परिवेष।
अमेरिका कौन है जो भारत कष्मीर का अभिन्न अंग है या नहीं, यह तय करे ? उसके मानने या न मानने से हमें छअपटहाट क्यों होती है ? हम अमेरिका की दादागिरी क्यों स्वीकारते हैं ? क्यों हम उसके खिलाफ खड़े नहीं हो पाते ? क्यों नहंीं हम उसे कह पाते कि तुम्हारी चैधराहट की पंचाट पर हम कभी नहीं गए, राय नहीं मांगते। क्यों गाहे-बगाहे हमारी समस्याओं पर तुम फब्ती कस बैठते हो ? जबकि हम जानते हैं कि अमेरिका वियतनाम जैसे छोटे देष से पराजित हो चुका है। सोमालिया से घबरा कर वह अपने सैनिक वापस बुला रहा है। लीबिया का वह कुछ नहीं बिगाड़ पाया। अफगानिस्तान से वह सोवियत संघ को निकाल नहीं पाया। अगर हम ऐसे खामोष व अनिर्णय की स्थिति में बैठे रहे तो यह असंभव नहीं कि अमेरिका डंके ल प्रस्ताव, आर्थिक सहायता व कष्मीर के मसलों व समस्याओं को लेकर हमारा हाथ इतनी मजबूती से पकड़े लेगा कि अपनी इच्छा के मुताबिक जहां चाहे उसे मरोड़कर अंगूठा लगवा ले। फिर हमारे लिए भारी-भरकम अमेरिकी डिग्रियां, अमेरिकी उत्पादों का आकर्षण व पैसों पर स्वयं को बेचकर जीने का क्या कोई मतलब षेष नहीं रह जाएगा।