राष्ट्रपति शासन लगाने का जो हथियार कांग्रेस पार्टी ने अख्तियार किया था वह 6 दिसम्बर, 1992 को भले ही गले से न उतर रहा हो परन्तु मतदान के परिणाम देखने पर एक बात जरूर साफ हो गयी कि सभी प्रान्तों में कांग्रेस ने अपनी पहले वाली स्थिति से बेहतर ही किया है।
उसने भारतीय जनता पार्टी के गढ़ हिमाचल प्रदेश व मध्य प्रदेश पर फिर अपनी वापसी दर्ज ही नहीं करायी वरन् वहां सरकार बनाने की स्थिति जुटायी। किसी के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं पड़ी उसे, लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति चाहें जितनी दयनीय हो गयी हो और वह हाशिये पर खडत्री दिखती हो परन्तु 28 विधायकों के बूते पर कांग्रेस ने मुलायम सिंह पर अंकुश लगाने का जो कार्य किया है, वह इंका की उपलब्धि ही है।
कांग्रेस में सपा-बसपा गठबंधन को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने पर जो मतीोद थे वो कांग्रेस के भविष्य को ध्यान में रखकर देखा जाए तो सही ही थे। कांग्रेस पार्टी इस सहयोग के बाद मैदान के बाहर खड़ी होगी और किसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता के लिए भले ही न हो परन्तु राष्ट्रीय पार्टी के लिए यह शर्मनाक बात है। कांग्रेसियों में सत्ता से विमुख न रह पाने की जो विवशता है उसे तो पार्टी को ध्यान में रखना ही होगा।
जनता दल का सपा-बसपा को समर्थन देना भी राजनीतिक विवशता है क्योंकि जद का राजनीतिक जीवन इसी में है कि वह उत्तर प्रदेश में मुलायम के साथ चस्पा रहे। जैसे जद को बिहार में लालू प्रसाद यादव जिंदा रखे हैं वैसे ही उत्तर प्रदेश में जद नेताओं को इस भ्रम में जीना पड़ेगा कि उन्हें मुलायम सिंह यादव जिंदा रखेंगे या रखे हुए हैं। जद नेताओं को अपनी सफलता का दर्शन सपा-बसपा गठबंधन में नहीं मुलायम सिंह में देखना होगा। इस बात को जद नेता अच्छी तरह समझते हैं तभी तो मुलायम सिंह की जीत में मण्डल की विजय मानते हैं और उसे अपने मुद्दों की जीत कहते हैं।
जद-कांग्रेस ने सरकार को समर्थन देते समय यह क्यों नहीं सोचा कि आगामी चुनावों में उसके 27 व 28 विधायक जो जीते हैं वो अपने मतदाताओं को क्या जवाब देंगे? इस बार सपा-बसपा गठबंधन को समर्थन देने से यह स्पष्ट हो गया कि नरसिंह राव उत्तर भारत में कांग्रेस को अपनी रीढ़ पर खड़ी देखना नहीं चाहते हैं और वे यह भी चाहते हैं कि कांग्रेस पार्टी के वे अन्तिम प्रधानमंत्री का इतिहास जी सकें।
इस बार के विधानसीाा चुनावों से भाजपा को एक बात का तो अहसास करना ही चाहिए कि उसे जनसंघ की तर्ज पर भाजपा चलाने की छद्म जिद से हटना होगा। भाजपा के नेताओं को यह भी स्वीकारना होगा कि उनकी सरकारों ने जनहित में कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे वो जनता से अपने कर्मों के आधार पर वोट मांग सकें। भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री सुन्दर लाल पटवा, शांता कुमार व कल्याण सिंह को जनता ने कार्य के आधार पर पूरी तौर पर अस्वीकार किया। जो स्वीकृति मिली भी वह मंदिर मुद्दे पर। मुद्दे इस देश में कांठ की हांड़ी हैं फिर भी भाजपा ने इस पर गौर नहीं किया। इस बार भाजपा ‘ओवर कांफिडेंस’ में चुनाव लड़ रही थी। उसे लगना लगा था कि उसकी सरकार बन गयी है। उसे महज औपचारिकता पूरी करनी है। चुनाव से पहले संगठनात्मक चुनाव कराकर भाजपा ने पूरे प्रदेश स्तर पर पार्टी को दो धड़ों में बांट दिया। इतना ही नहीं इस बात विश्व हिन्दू परिषद के लोग इस चुनाव में सक्रिय नहीं दिखे जबकि भाजपा पर कट्टर हिन्दूवादी होने का आरोप है। विहिप के नेता अशोक सिंघल, उमा भारती, ऋतम्भरा आदि सभी एकदम खामोश रहे, निष्क्रिय रहे। इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में पार्टी नेताओं ने पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी का कोई खासा प्रयोग नहीं किया। टिकटों के बंटवारे में भाजपा थोड़ी सी चतुराई से काम लेकर दस सीटें और हथिया सकती है। पिछला चुनाव मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में लड़ा गया था तो चुनाव की सारी तैयारियां, प्रचार-प्रसार सभी कुछ ठोस और वैज्ञानिक धरातल पर रहा था जिसका परिणाम हुआ चार राज्यों में सरकारें। इस बार आडवाणी दिलली में फंसे रहे। भाजपा ने हिन्दूवाद और मन्दिर के मुद्दे को उस तरह नहीं उभारा जैसी उससे आशा थी या जैसा उसका चरित्र अन्य सभी राजनीतिक दलों द्वारा गढ़ा और प्रस्तुत किया गया था। शिव सेना का पूरे प्रदेश में लगभग 200 जगहों पर चुनाव लड़ना भी भाजपा की इस स्थिति के लिए कुछ जिम्मेदार है।
गठबंधन सरकारों का भविष्य उत्तर प्रदेश में कभी अच्छा नहीं रहा है। कई बार तो पहली बरसी पर ही इसे बिखराव का शिकार होना पड़ा है। वैसे भी हमारी राजनीति में संतुलन साधन की बाजीगरी का समय समाप्त हो गया क्योंकि ऐसा कोई नेता नहीं है जो संतुलन साध पाने की दक्षता दिखाता हो, तभी तो इस बार जो उत्तर प्रदेश में परिणाम आये हें उससे प्रतिक्रियावादी मतदाताओं का राजनीतिक रूझान बढ़ा हुआ दिखा है। शेषन की सख्ती ने सुरक्षात्मक अहसास दिया मतदान के लिए जगह और दूसरी ओर गाड़ियों के चलने पर पाबंदी लगाकर उच्चवर्ग के लोगों को पोलिंग बूथ पर जाने के साधन से वंचित किया।
यह सरकार जिस तरह के गठबंधन से तैयार हो रही है, उससे मुलायम सिंह को अपने स्वभाव के विपरीत दबाव के तहत कार्य करना पड़ेगा क्योंकि विरोधाभासी पार्टियों व आवश्यकताओं का जमवाड़ा एक साथ लेकर सम्भव नहीं है। हर राजनीतिक पार्टियों के अपने हित के साथ-साथ उनके अपने अधिकारी हैं जिनको उचित पर पोस्टिंग, ट्रांसफर चाहिए। इससे सभी पार्टियों में टकराव होगा। उच्च पदों पर नियुक्ति के सम्बनध में भी मुलायम सिंह को काफी परेशानी झेलनी पड़ेगी क्योंकि पार्टियों के हित यहां भी टकरायेंगे, आपस में आड़े आयेंगे।
सपा को समर्थन देने वाली पार्टियां अपनी पराजय के कारण भाजपा विरोध के परिणामस्वरूप ही एकजुट हैं। भाजपा का यह नाभिकीय विरोध किसी भी पार्टी की व्यक्तिगत स्थिति को समाप्त करेगा क्योंकि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के सिवाय किसी में भी भाजपा से लड़ने की ताकत नहीं है। यह बात मुस्लिम मतों के धु्रवीकरण एवं इस बार के चुनाव परिणाम में एकदम साफ हो गयी है। यानि मुलायम सरकार का समर्थन अगर कोई भी पार्टी अपनी समाप्ति की स्थिति में करती है तभी यह समर्थन कारगर एवं दीर्घकालिक होगा।
वर्तमान सरकार अगर नकल अध्यादेश की समाप्ति करती है तो इससे क्षणिक तौर पर छात्रों को भले ही लाभ की सम्भावना दिखे परन्तु अभिभावकों के लिए यह एक गम्भीर समस्या बनकर उभरेगी और यह सरकार प्रदेश में बेरोजगारों से लड़ने के लिए कोई कारगर उपाय तैयार नहीं कर पाएगी। यह बेरोजगारी उन पढ़े-लिखे लोगों की होगी जो जितनी बड़ी डिग्रियां हासिल करते जायेंगे, उतने ही समाज के लिए अनुपयुक्त होते जायेंगे। त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स की समाप्ति अगर होती है तो उससे उत्तर प्रदेश के छात्र अन्य प्रदेशों की तुलना में उपेक्षा का शिकार होंगे क्योंकि अन्य प्रदेशों में त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स लागू होगा।
दाम के विषय में सपा ने जो भी घोषणा की है वह काफी प्रशंसनीय है क्योंकि सपा का मानना है कि मिल में बनने वाले सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमत सभी टैक्स और मुनाफे को शालि करते हुए लागत के खर्च के डेढ़ गुने से अधिक नहीं होगी। अनाज की कीमतों में दो फसलों के बीच 20 प्रतिशत से अधिक बढ़ोत्तरी न होने देने का आश्वासन भी प्रशंसनीय है।
अपनी भाषा नीति में भी सपा एक ठोस भारतीय परिवेश में खड़ी दिखी है और मुलायम सिंह ने हिन्दी के लिए खास प्रशसंनीय कार्य भी किये हैं। सपा का मानना है कि अंग्रेजी भाषा का प्रचलन गुलामी की मानसिकता का परिणाम है। यह भ्रष्टाचार एवं गैर बराबरी की जननी है। सपा अंग्रेजी के प्रयोग को सरकारी महकमों में खत्म करेगी। इसके स्थान पर हिन्दी और उर्दू की स्थापना करेगी। अंग्रेजी पढ़ने की पूरी सुविधा उपलब्ध रहेगी परन्तु उसकी अनिवार्यता समाप्त होगी।
प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में ब्लाक स्तर पर एक ब्लाक शिक्षा अधिकारी की नियुक्ति, प्रत्येक ब्लाक में एक कन्या इण्टर कालेज की स्थापना, इण्टर की पढ़ाई का रोजगारपरक होना, देश की अन्य भाषाओं की पढ़ाई भी शुरू कराना आदि प्रशंसनीय काम होंगे। भूमि सेना और साक्षर सेना का गठन और इनके लिए निर्धारित कार्य विधि एक सकारात्मक प्रयास है जिनसे सार्थक परिणाम की आशा की जा सकती है।
बाबरी मस्जिद पर सपा का यह मानना कि किसी भी पक्ष को पराजित नहीं महसूस होने दिया जाएगा, एक सार्थक सोच है परन्तु यदि इसे अमली जामा पहनाया जा सके तो, लेकिन पराजय महसूस न हो इसे बनाने के लिए किन-किन तरीकों का प्रयोग किया जाता है, यह भी तय करना पडे़गा।
उत्तराखण्ड अलग राज्य के प्रति सपा की वचनबद्धता विशेष परेशानी का कारण बन सकती है, जबकि क्षेत्रीय असमानता की समाप्ति के लिए पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड और पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए अलग से धनराशि व विशेष ध्यान देना एक उपलब्धि देगा सपा को।
बिक्रीकर की समाप्ति करना सपा के लिए सार्थक परिणाम नहीं देगा क्योंकि उत्तर प्रदेश अभी इतना सम्पन्न नहीं है कि वह इतने बड़े कर को समाप्त करके सरकार चला सके । बिक्रीकर समाप्त करने से सरकार के आय के स्रोत मरेंगे जिससे सरकारी कर्मचारियों के वेतन भुगतान आदि की भी समस्या आ सकती है। प्रदेश को के न्द्र सरकार पर ओवर ड्राफ्ट के लिए निर्भर रहना पड़ेगा। इसलिए बिक्रीकर वसूली और लागू करने के लिए कोई ठोस तरीका अपनाया जाए यही पर्याप्त है।
किसानों की पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन, भूतपूर्व सैनिकों का समान रैंक, समान पेंशन सहित मुलायम सरकार अगर यह मानते हुए कार्य करती है कि देश टूट रहा है, गरीबी, गैर बराबरी, मंहगाई, भ्रष्टाचार और जानमाल की असुरक्षा, जनता को झेलनी पड़ रही है। जनता की बुनियादी जरूरतों पर बहस बन्द हो गयी है। गरीबी खत्म करने, मंहगाई तथा भ्रष्टाचार मिटाने, नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर सृजित करने, खेती सुधारने तथा देश के सांस्कृतिक एवं भौतिक विकास की योजनाओं पर विचार-विनिमय देश की राजनीति में लुप्त हो रहा है। इसे ध्यान में रखकर मुलायम अपनी इस सरकार को दीर्घकालिक जीवन भले ही न दे पायें परन्तु लम्बे समय तक राजनीतिक हैसियत में जीने का अवसर उन्हें जरूर मिलेगा।
परन्तु, सपा को अब यह तो भूलना ही होगा कि के न्द्र की कांग्रेसी सरकार देश को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही है। जिसने विदेशी पूंजी, विदेशी कर्जे, विदेशी कम्पनियों तथा डंके ल प्रस्ताव के जरिये देश को चैराहे पर ला खड़ा किया है। जहां के वल आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्ततोगत्वा राजनीतिक गुलामी की ओर ही रास्ते जाते हैं। शान शौकत, फिजलूखर्ची, अंग्रेजी परस्ती, देश की आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों की अवहेलना करना बनायी गयी उद्योग नीति, खेती और ग्राम विकास की उपेक्षा नौजवानों का निरूपयोग तथा पश्चिमी देशों की नकल ने देश को कंगाल बनाया है। कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों एवं क्रियाकलापों से साम्प्रदायिक एवं फासिस्ट शक्तियों को पनपने का अवसर मिला।
इन सारे विरोधाभासों के बीच सरकार चलाने की बात मुलायम सरीखा अक्खड़ और जिद्दी व्यक्तित्व तो नहीं कर सकता है। एक स्थिति जरूर बन सकती है कि मुलायम सिंह यादव अपनी सरकार से जनता के लिए कुछ ऐसा कर गुजरें जिससे फिर उन्हें सरकार बनाने के लिए इन छोटी-छोटी बैसाखियों का सहारा न लेना पड़े और ऐसा करना, इस दिशा में कार्य करना ही प्रदेश की इस गठबन्धन सरकार का भविष्य तय करेगा।
उसने भारतीय जनता पार्टी के गढ़ हिमाचल प्रदेश व मध्य प्रदेश पर फिर अपनी वापसी दर्ज ही नहीं करायी वरन् वहां सरकार बनाने की स्थिति जुटायी। किसी के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं पड़ी उसे, लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति चाहें जितनी दयनीय हो गयी हो और वह हाशिये पर खडत्री दिखती हो परन्तु 28 विधायकों के बूते पर कांग्रेस ने मुलायम सिंह पर अंकुश लगाने का जो कार्य किया है, वह इंका की उपलब्धि ही है।
कांग्रेस में सपा-बसपा गठबंधन को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने पर जो मतीोद थे वो कांग्रेस के भविष्य को ध्यान में रखकर देखा जाए तो सही ही थे। कांग्रेस पार्टी इस सहयोग के बाद मैदान के बाहर खड़ी होगी और किसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता के लिए भले ही न हो परन्तु राष्ट्रीय पार्टी के लिए यह शर्मनाक बात है। कांग्रेसियों में सत्ता से विमुख न रह पाने की जो विवशता है उसे तो पार्टी को ध्यान में रखना ही होगा।
जनता दल का सपा-बसपा को समर्थन देना भी राजनीतिक विवशता है क्योंकि जद का राजनीतिक जीवन इसी में है कि वह उत्तर प्रदेश में मुलायम के साथ चस्पा रहे। जैसे जद को बिहार में लालू प्रसाद यादव जिंदा रखे हैं वैसे ही उत्तर प्रदेश में जद नेताओं को इस भ्रम में जीना पड़ेगा कि उन्हें मुलायम सिंह यादव जिंदा रखेंगे या रखे हुए हैं। जद नेताओं को अपनी सफलता का दर्शन सपा-बसपा गठबंधन में नहीं मुलायम सिंह में देखना होगा। इस बात को जद नेता अच्छी तरह समझते हैं तभी तो मुलायम सिंह की जीत में मण्डल की विजय मानते हैं और उसे अपने मुद्दों की जीत कहते हैं।
जद-कांग्रेस ने सरकार को समर्थन देते समय यह क्यों नहीं सोचा कि आगामी चुनावों में उसके 27 व 28 विधायक जो जीते हैं वो अपने मतदाताओं को क्या जवाब देंगे? इस बार सपा-बसपा गठबंधन को समर्थन देने से यह स्पष्ट हो गया कि नरसिंह राव उत्तर भारत में कांग्रेस को अपनी रीढ़ पर खड़ी देखना नहीं चाहते हैं और वे यह भी चाहते हैं कि कांग्रेस पार्टी के वे अन्तिम प्रधानमंत्री का इतिहास जी सकें।
इस बार के विधानसीाा चुनावों से भाजपा को एक बात का तो अहसास करना ही चाहिए कि उसे जनसंघ की तर्ज पर भाजपा चलाने की छद्म जिद से हटना होगा। भाजपा के नेताओं को यह भी स्वीकारना होगा कि उनकी सरकारों ने जनहित में कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे वो जनता से अपने कर्मों के आधार पर वोट मांग सकें। भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री सुन्दर लाल पटवा, शांता कुमार व कल्याण सिंह को जनता ने कार्य के आधार पर पूरी तौर पर अस्वीकार किया। जो स्वीकृति मिली भी वह मंदिर मुद्दे पर। मुद्दे इस देश में कांठ की हांड़ी हैं फिर भी भाजपा ने इस पर गौर नहीं किया। इस बार भाजपा ‘ओवर कांफिडेंस’ में चुनाव लड़ रही थी। उसे लगना लगा था कि उसकी सरकार बन गयी है। उसे महज औपचारिकता पूरी करनी है। चुनाव से पहले संगठनात्मक चुनाव कराकर भाजपा ने पूरे प्रदेश स्तर पर पार्टी को दो धड़ों में बांट दिया। इतना ही नहीं इस बात विश्व हिन्दू परिषद के लोग इस चुनाव में सक्रिय नहीं दिखे जबकि भाजपा पर कट्टर हिन्दूवादी होने का आरोप है। विहिप के नेता अशोक सिंघल, उमा भारती, ऋतम्भरा आदि सभी एकदम खामोश रहे, निष्क्रिय रहे। इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में पार्टी नेताओं ने पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी का कोई खासा प्रयोग नहीं किया। टिकटों के बंटवारे में भाजपा थोड़ी सी चतुराई से काम लेकर दस सीटें और हथिया सकती है। पिछला चुनाव मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में लड़ा गया था तो चुनाव की सारी तैयारियां, प्रचार-प्रसार सभी कुछ ठोस और वैज्ञानिक धरातल पर रहा था जिसका परिणाम हुआ चार राज्यों में सरकारें। इस बार आडवाणी दिलली में फंसे रहे। भाजपा ने हिन्दूवाद और मन्दिर के मुद्दे को उस तरह नहीं उभारा जैसी उससे आशा थी या जैसा उसका चरित्र अन्य सभी राजनीतिक दलों द्वारा गढ़ा और प्रस्तुत किया गया था। शिव सेना का पूरे प्रदेश में लगभग 200 जगहों पर चुनाव लड़ना भी भाजपा की इस स्थिति के लिए कुछ जिम्मेदार है।
गठबंधन सरकारों का भविष्य उत्तर प्रदेश में कभी अच्छा नहीं रहा है। कई बार तो पहली बरसी पर ही इसे बिखराव का शिकार होना पड़ा है। वैसे भी हमारी राजनीति में संतुलन साधन की बाजीगरी का समय समाप्त हो गया क्योंकि ऐसा कोई नेता नहीं है जो संतुलन साध पाने की दक्षता दिखाता हो, तभी तो इस बार जो उत्तर प्रदेश में परिणाम आये हें उससे प्रतिक्रियावादी मतदाताओं का राजनीतिक रूझान बढ़ा हुआ दिखा है। शेषन की सख्ती ने सुरक्षात्मक अहसास दिया मतदान के लिए जगह और दूसरी ओर गाड़ियों के चलने पर पाबंदी लगाकर उच्चवर्ग के लोगों को पोलिंग बूथ पर जाने के साधन से वंचित किया।
यह सरकार जिस तरह के गठबंधन से तैयार हो रही है, उससे मुलायम सिंह को अपने स्वभाव के विपरीत दबाव के तहत कार्य करना पड़ेगा क्योंकि विरोधाभासी पार्टियों व आवश्यकताओं का जमवाड़ा एक साथ लेकर सम्भव नहीं है। हर राजनीतिक पार्टियों के अपने हित के साथ-साथ उनके अपने अधिकारी हैं जिनको उचित पर पोस्टिंग, ट्रांसफर चाहिए। इससे सभी पार्टियों में टकराव होगा। उच्च पदों पर नियुक्ति के सम्बनध में भी मुलायम सिंह को काफी परेशानी झेलनी पड़ेगी क्योंकि पार्टियों के हित यहां भी टकरायेंगे, आपस में आड़े आयेंगे।
सपा को समर्थन देने वाली पार्टियां अपनी पराजय के कारण भाजपा विरोध के परिणामस्वरूप ही एकजुट हैं। भाजपा का यह नाभिकीय विरोध किसी भी पार्टी की व्यक्तिगत स्थिति को समाप्त करेगा क्योंकि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के सिवाय किसी में भी भाजपा से लड़ने की ताकत नहीं है। यह बात मुस्लिम मतों के धु्रवीकरण एवं इस बार के चुनाव परिणाम में एकदम साफ हो गयी है। यानि मुलायम सरकार का समर्थन अगर कोई भी पार्टी अपनी समाप्ति की स्थिति में करती है तभी यह समर्थन कारगर एवं दीर्घकालिक होगा।
वर्तमान सरकार अगर नकल अध्यादेश की समाप्ति करती है तो इससे क्षणिक तौर पर छात्रों को भले ही लाभ की सम्भावना दिखे परन्तु अभिभावकों के लिए यह एक गम्भीर समस्या बनकर उभरेगी और यह सरकार प्रदेश में बेरोजगारों से लड़ने के लिए कोई कारगर उपाय तैयार नहीं कर पाएगी। यह बेरोजगारी उन पढ़े-लिखे लोगों की होगी जो जितनी बड़ी डिग्रियां हासिल करते जायेंगे, उतने ही समाज के लिए अनुपयुक्त होते जायेंगे। त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स की समाप्ति अगर होती है तो उससे उत्तर प्रदेश के छात्र अन्य प्रदेशों की तुलना में उपेक्षा का शिकार होंगे क्योंकि अन्य प्रदेशों में त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स लागू होगा।
दाम के विषय में सपा ने जो भी घोषणा की है वह काफी प्रशंसनीय है क्योंकि सपा का मानना है कि मिल में बनने वाले सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमत सभी टैक्स और मुनाफे को शालि करते हुए लागत के खर्च के डेढ़ गुने से अधिक नहीं होगी। अनाज की कीमतों में दो फसलों के बीच 20 प्रतिशत से अधिक बढ़ोत्तरी न होने देने का आश्वासन भी प्रशंसनीय है।
अपनी भाषा नीति में भी सपा एक ठोस भारतीय परिवेश में खड़ी दिखी है और मुलायम सिंह ने हिन्दी के लिए खास प्रशसंनीय कार्य भी किये हैं। सपा का मानना है कि अंग्रेजी भाषा का प्रचलन गुलामी की मानसिकता का परिणाम है। यह भ्रष्टाचार एवं गैर बराबरी की जननी है। सपा अंग्रेजी के प्रयोग को सरकारी महकमों में खत्म करेगी। इसके स्थान पर हिन्दी और उर्दू की स्थापना करेगी। अंग्रेजी पढ़ने की पूरी सुविधा उपलब्ध रहेगी परन्तु उसकी अनिवार्यता समाप्त होगी।
प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में ब्लाक स्तर पर एक ब्लाक शिक्षा अधिकारी की नियुक्ति, प्रत्येक ब्लाक में एक कन्या इण्टर कालेज की स्थापना, इण्टर की पढ़ाई का रोजगारपरक होना, देश की अन्य भाषाओं की पढ़ाई भी शुरू कराना आदि प्रशंसनीय काम होंगे। भूमि सेना और साक्षर सेना का गठन और इनके लिए निर्धारित कार्य विधि एक सकारात्मक प्रयास है जिनसे सार्थक परिणाम की आशा की जा सकती है।
बाबरी मस्जिद पर सपा का यह मानना कि किसी भी पक्ष को पराजित नहीं महसूस होने दिया जाएगा, एक सार्थक सोच है परन्तु यदि इसे अमली जामा पहनाया जा सके तो, लेकिन पराजय महसूस न हो इसे बनाने के लिए किन-किन तरीकों का प्रयोग किया जाता है, यह भी तय करना पडे़गा।
उत्तराखण्ड अलग राज्य के प्रति सपा की वचनबद्धता विशेष परेशानी का कारण बन सकती है, जबकि क्षेत्रीय असमानता की समाप्ति के लिए पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड और पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए अलग से धनराशि व विशेष ध्यान देना एक उपलब्धि देगा सपा को।
बिक्रीकर की समाप्ति करना सपा के लिए सार्थक परिणाम नहीं देगा क्योंकि उत्तर प्रदेश अभी इतना सम्पन्न नहीं है कि वह इतने बड़े कर को समाप्त करके सरकार चला सके । बिक्रीकर समाप्त करने से सरकार के आय के स्रोत मरेंगे जिससे सरकारी कर्मचारियों के वेतन भुगतान आदि की भी समस्या आ सकती है। प्रदेश को के न्द्र सरकार पर ओवर ड्राफ्ट के लिए निर्भर रहना पड़ेगा। इसलिए बिक्रीकर वसूली और लागू करने के लिए कोई ठोस तरीका अपनाया जाए यही पर्याप्त है।
किसानों की पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन, भूतपूर्व सैनिकों का समान रैंक, समान पेंशन सहित मुलायम सरकार अगर यह मानते हुए कार्य करती है कि देश टूट रहा है, गरीबी, गैर बराबरी, मंहगाई, भ्रष्टाचार और जानमाल की असुरक्षा, जनता को झेलनी पड़ रही है। जनता की बुनियादी जरूरतों पर बहस बन्द हो गयी है। गरीबी खत्म करने, मंहगाई तथा भ्रष्टाचार मिटाने, नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर सृजित करने, खेती सुधारने तथा देश के सांस्कृतिक एवं भौतिक विकास की योजनाओं पर विचार-विनिमय देश की राजनीति में लुप्त हो रहा है। इसे ध्यान में रखकर मुलायम अपनी इस सरकार को दीर्घकालिक जीवन भले ही न दे पायें परन्तु लम्बे समय तक राजनीतिक हैसियत में जीने का अवसर उन्हें जरूर मिलेगा।
परन्तु, सपा को अब यह तो भूलना ही होगा कि के न्द्र की कांग्रेसी सरकार देश को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही है। जिसने विदेशी पूंजी, विदेशी कर्जे, विदेशी कम्पनियों तथा डंके ल प्रस्ताव के जरिये देश को चैराहे पर ला खड़ा किया है। जहां के वल आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्ततोगत्वा राजनीतिक गुलामी की ओर ही रास्ते जाते हैं। शान शौकत, फिजलूखर्ची, अंग्रेजी परस्ती, देश की आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों की अवहेलना करना बनायी गयी उद्योग नीति, खेती और ग्राम विकास की उपेक्षा नौजवानों का निरूपयोग तथा पश्चिमी देशों की नकल ने देश को कंगाल बनाया है। कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों एवं क्रियाकलापों से साम्प्रदायिक एवं फासिस्ट शक्तियों को पनपने का अवसर मिला।
इन सारे विरोधाभासों के बीच सरकार चलाने की बात मुलायम सरीखा अक्खड़ और जिद्दी व्यक्तित्व तो नहीं कर सकता है। एक स्थिति जरूर बन सकती है कि मुलायम सिंह यादव अपनी सरकार से जनता के लिए कुछ ऐसा कर गुजरें जिससे फिर उन्हें सरकार बनाने के लिए इन छोटी-छोटी बैसाखियों का सहारा न लेना पड़े और ऐसा करना, इस दिशा में कार्य करना ही प्रदेश की इस गठबन्धन सरकार का भविष्य तय करेगा।