उत्तर प्रदेश के स्कूलों में पठन-पाठन का माहौल बनाने, ट््यूशन और नकल पर रोक लगाने, शिक्षा में बुनियादी बदलाव के लिए लखनऊ में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के तत्वावधान में छात्र गत दिनों इकट्ठे हुए। इस रैली में प्रदेश की बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था पर चिंता जतायी गयी एवं मुलायम सिंह यादव को 25 सूत्रीय मांगपत्र दिया गया, जिसमें मानक के अनुसार 180 दिन पढ़ाई न होने शिक्षा के निजीकरण एवं व्यावसायिक शिक्षा में प्रवेश के लिए कैपिटेशन शुल्क लेने एवं परिसर को गुंडागर्दी, जातिवाद और हिंसा से बचाने आदि की मांगें शामिल थीं।
वैसे तो छात्रों मंे इस तरह के दायित्व का उठना प्रशंसनीय है। यह एक अच्छा संके त है कि हमारा युवा वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सचेत है लेकिन इस सतर्कता एवं अधिकारबद्धता के पीछे उसकी राजनीतिक कठपुतली हो जाने की विवशता है और/या अपने जीवन परिवेश के प्रति किसी श्रेष्ठ सुधार की अपेक्षा।
हमारे राजनीतिक पटल पर युवाओं के लिए किसी तरह का कोई स्थान नहीं है। यहां हर राजनीतिक पार्टियां युवा इकाई खोलकर परिसर में संगठित शक्ति की बैसाखी का सहारा लेकर युवा आक्रोश का प्रतिशोधात्मक उपयोग करती है।
युवा वर्ग की आवश्यकता सभी राजनीतिक दलों को चुनाव में ही पड़ती है, जिसमें हमारे छात्र शक्ति के रूप में प्रयुक्त होते हैं। राजीव गांधी सरकार में अठारह वर्ष के लोगों को मताधिकार का अवसर जरूर दिया, परंतु छात्रों को राजनीतिक सामाजिक सोच से अलग-थलग रखा गया, जिससे अपने मत के माध्यम से देश की जरूरत के अनुसार सरकार निर्माण में छात्र हमेशा किसी न किसी के हितों के लिए प्रयुक्त हो जाते हैं। हमारे यहां युवा एवं खेल मामलों का विभाग है। लेकिन इस विभाग में प्रतीकात्मक रूप में एक राज्यमंत्री रखने के सिवाय कोई कार्य नहीं हो पाता है, इसमें कागजों पर युवा इकट्ठे होते हैं तथा आंकड़ों में खेल लेते हैं। इस मंत्रालय का भी वास्तविक दायित्व किसी घुटे घुटाए राजनीतिज्ञ के पास होता है, जिसकी सोच एवं कार्यशैली में कई पीढ़ियों का अंतर होता है।
किसी न किसी के निहितार्थ प्रयोग होते-होते युवाओं में अपनी शक्ति का बोध तो हो गया लेकिन वे दिशाहारा हो गये। परम्परागत राजनीति में सर्वहारा का विद्रोह भूमिहीन मजदूरांे की क्रान्ति तो समझायी गयी किन्तु युवा विद्रोह की परिकल्पना न तो माक्र्स ने की और न ही लेनिन और माओ ने (तब तक) ही की थी क्योंकि सामाजिक सम्बन्धों की दृष्टि से इन्हें एक कोटि में नहीं रखा गया था।
सातवें दशक में अमरीका में छात्रों ने एक बार यहां तक कह डाला कि हम शासकों के स्वार्थ के लिए लड़ने को तैयार नहीं। सातवें दशक में ही हमारे यहां उच्च शिक्षा आयोग, अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय शोध संस्थान तथा अमरीका की फोर्ड शोध संस्था के तत्वावधान में लगभग 300 शोध परियोजनाएं आरंभ की गयी। छात्र युवा आंदोलन को समझने के लिए इन शोधों के तीन निष्कर्ष हुए।
वैसे तो बेरोजगारी एवं कुछ राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर हमारे यहां वामपंथी छात्र संगठन छुटपुट धरना प्रदर्शन करते रहते हैं। उनके प्रदर्शन को लगता है अमरीकी समाज शास्त्री लियोन्स 1965, सोमसे 1965 एवं ट्रेन्ट क्रेस 1967 के निष्कर्षों के तहत देखा जाता है। इन समाजशास्त्रियों का निष्कर्ष था कि युवा असंतोष के पक्षधर वामपंथी छात्र हैं, जो कि सुविधाजनक और सम्पन्न सामाजिक और आर्थिक परिवारों से सम्बद्ध हैं।
इस बार छात्रों ने प्रदर्शन करके सरकार को जो आगाह किया। वह निःसंदेह प्रशंसनीय है। लेकिन जब कोई सरकार नकल अध्यादेश समाप्त करने के नाम पर छात्रों का समर्थन पायी हो, उस सरकार को चेताने से क्या लाभ है। जब सरकार में मंत्रियों के लिए किसी योग्यता का निर्धारण न हो। जब शिक्षा मंत्री के लिए साक्षर होना ही एक महती उपलब्धि हो, तो ऐसी सरकार से परीक्षा की समस्या के बारे में बात करना एकदम बेमानी है। आखिर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को जब, उसकी सरकार थी, तब भी युवा एवं छात्र समस्याओं के प्रति सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था। परंतु उस समय जब भाजपा की सरकार थी, तब विद्यार्थी परिषद के लोग अपनी सरकार के मंत्री की प्रशस्ति में समय गुजार रहे थे। क्या उस समय परिसर समस्याआंे से नहीं पटा था? क्या उस समय शैक्षिणिक सत्र नहीं पिछड़े थे? क्या उस समय सरकार छात्र युवा हितों के लिए कार्य कर रही थी?
हमारा छात्र नेता छात्र नहीं रह गया है। वह अपने विश्वविद्यालय प्रवास के दौरान परीक्षाएं उत्तीर्ण करने में अपनी शर्म महसूस करता है। छात्र बने रहने के लिए वह कक्षाओं में प्रवेश बदलता रहता है। उसके लिए छात्रसंघों के पद राजनीतिक दलों के लिए प्रवेश पास हैं। इतना ही नहीं राजनीतिक पार्टियों की छात्र इकाइयों के अध्यक्ष एवं पदाधिकारियों को ही ले लें तो अस्सी प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिन्होंने पांच वर्षों में 25 विभागों/शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश जरूर लिया गया, परंतु एक भी परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की होगी।
यही कारण है कि हमारे छात्र, छात्र नेतृत्व का परिसर की ओर ध्यान तब जाता है, जब उसके राजनीतिक दल की ओर से उसे कोई संके त मिलता है, तभी वह परिसर के बिगड़े माहौल पर चिंता जताता है। विधानसभा घेरो तथा प्रदर्शन की गुहार लगाता है।
जैसे-जैसे हमारा छात्र प्रबुद्ध होता जा रहा है। वैसे-वैसे छात्र नेतृत्व लम्पट, बुद्धिहीन एवं अराजक लोगों के हाथों में पहुंचता जा रहा है। क्योंकि लोगों की राजनीति से स्वयं को अलग रखने की मंशा विस्तार पाती जा रही है। राजनीति जहां प्रबुद्ध एवं जागरूक लोगों को स्थान मिलना चाहिए। वहां यह वर्ग इससे कतरा रहा है। फिर परिसर चिंता का क्या मतलब रह जाता है? हमारा दुर्भाग्य यह है कि ऊंचे-ऊचे आदर्श किताब की वस्तु बनकर रह गये हैं। यहां भोर का पहाड़ा पढ़ने का दायित्व उन्हें दे दिया गया है, जो संस्कृत के बिस्तर पर लेट कर बेड टी की आशा करते रहते हैं। हमारा कृषि स्नातक चाहता है कि फाइलों में गेहूं बोया जाय और उसके दस्तखत से काट लिया जाय।
हमारा युवा वर्ग सरकारी नौकरियों से बेरोजगारी के आंकड़े जुटाता है। सरकारी नौकरियों के प्रति उसमें आकर्षण का कारण है-रिश्वत। क्योंकि सरकार ने भी अपने यहां नौकरियों के लिए जो पगार तय की है, उससे दो जून की रोटियांे का सूचकांक भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। फिर भी हमारा युवा वर्ग यह सोचता है कि किसी सरकारी दफ्तर में बाबूगिरी करने से दूसरों पर रौब, समाज में दबदबा और ऊपरी कमाई का अजस उसके हाथ लग जाता है।
आज जब युवा वर्ग अतीत के छात्रों की भांति कक्षा में दोहराए गए प्रवचनों को निष्ठापूर्वक उतारने को अपनी नियति नहीं बनाता। स्थापित मूल्यों और उन मूल्यों से सम्बन्धित संस्थानों को चुनौती देने में लगा है। युवाओं के सामने विशाल प्रश्न पुंज मंडरा रहा है। नौकरी, अध्यापक, विद्यार्थी संबंध, परिसर की नैतिकता, धरना-प्रदर्शन, राजनीतिक प्रतिबद्धता, पाठ्यक्रम निर्धारण, परीक्षा प्रणाली, सर्वत्र समझौता, सर्वत्र अवसर वादिता, सर्वत्र आदर्श हीनता ही उसे दिख रही है। अतः युवा पीढ़ी में विद्रोह, युवा असंतोष सर्वत्र व्याप्त चेहरों पर से नकाब हटाने का प्रयास है। शहर का
दुकानदार यदि अपना माल बेचकर रूपए में तीन अठन्नी सीधा करता है तो परीक्षा में ट्यूशन पढ़ाकर अधिक नंबर दिलाकर अध्यापक भी कम पीछे नहीं है। सर्वत्र मुनाफे का बाजार है।
हमारा युवा आंदोलन या छात्र असंतोष मूलतः विशिष्ट संस्कृति, जिसका प्रतिनिधित्व विश्वविद्यालय का संस्थापन कर रहा है और जन संस्कृति जो बहुमत के आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर रही थी। इन दोनों के मध्य परस्पर बढ़ती हुई संघर्ष एवं टकराव की कहानी है। शिक्षा से सम्बन्धित कुलपति, सचिव, निदेशक और मंत्री ने सभी ने परिसर में बढ़ती विसंगति को कानून एवं व्यवस्था के प्रश्न के रूप में उजागर किया है। फ्रांसीसी समाजशास्त्री टूरनेल ने लिखा है, ‘शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा की पूरी प्रक्रिया से वैसे ही असंबद्ध हैं, जैसे संध्या को फैक्ट्री से अपने घर जाते मजदूर अपने साथियों से असंबद्ध रहते हैं। धड़ल्ले से पढ़ाता हुआ अध्यापक अपने ही पढ़ाने से असंबद्ध है और छात्र पढ़ने से।’
सन् 1979 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जांच समिति ने स्पष्ट रूप से दुख व्यक्त करते हुए कहा था कि अधिकांश अध्यापक अपने निजी व सीमित स्वार्थों के लिए विद्यार्थियों का प्रयोग कर रहे हैं। शिक्षण संस्थान के लिए यह पतन का द्योतक है, जो वर्तमान में कैंसर से मृत्यु की घड़िया गिन रहा है।
हमारा छात्र एक ओर अवसरवादी अध्यापकों के हाथ पर चढ़ा है। दूसरी ओर उसका नेतृत्व भी अवसरवादी है, जिसका ज्वलन्त उदाहरण है लोगों के बयान एवं सत्ता का रुख देखते हुए छात्रनेताओं ने अपने राजनीतिक चोले बदले। लम्बी कुलांचे भरीं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से माक्र्सवादी पार्टी तक और वामपंथी छात्र संगठनों से कांगे्रस व भाजपा तक।
इन स्थितियों में छात्रों ने अपनी समस्याओं के लिए किसी विरोधी सरकार को मंुह बिराने के सिवाय क्या आशा की जा सकती है। परंतु ऐसी मंशा से कहीं भी जुटने पर किसी परिवर्तन की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। वरन एक कोरम पूरा हुआ मान लेना चाहिए। लेकिन कोरम पूरा करने से परिसर न ही समस्याओं से उबर सकेंगे और न ही पाठ्यक्रम विसंगतिया, छात्र अध्यापक संबंध, सत्र नियमितीकरण, बढ़ी फीस की वापसी सहित 25 सूत्रीय मांगें पूरी हो पाएंगी।
वैसे तो छात्रों मंे इस तरह के दायित्व का उठना प्रशंसनीय है। यह एक अच्छा संके त है कि हमारा युवा वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सचेत है लेकिन इस सतर्कता एवं अधिकारबद्धता के पीछे उसकी राजनीतिक कठपुतली हो जाने की विवशता है और/या अपने जीवन परिवेश के प्रति किसी श्रेष्ठ सुधार की अपेक्षा।
हमारे राजनीतिक पटल पर युवाओं के लिए किसी तरह का कोई स्थान नहीं है। यहां हर राजनीतिक पार्टियां युवा इकाई खोलकर परिसर में संगठित शक्ति की बैसाखी का सहारा लेकर युवा आक्रोश का प्रतिशोधात्मक उपयोग करती है।
युवा वर्ग की आवश्यकता सभी राजनीतिक दलों को चुनाव में ही पड़ती है, जिसमें हमारे छात्र शक्ति के रूप में प्रयुक्त होते हैं। राजीव गांधी सरकार में अठारह वर्ष के लोगों को मताधिकार का अवसर जरूर दिया, परंतु छात्रों को राजनीतिक सामाजिक सोच से अलग-थलग रखा गया, जिससे अपने मत के माध्यम से देश की जरूरत के अनुसार सरकार निर्माण में छात्र हमेशा किसी न किसी के हितों के लिए प्रयुक्त हो जाते हैं। हमारे यहां युवा एवं खेल मामलों का विभाग है। लेकिन इस विभाग में प्रतीकात्मक रूप में एक राज्यमंत्री रखने के सिवाय कोई कार्य नहीं हो पाता है, इसमें कागजों पर युवा इकट्ठे होते हैं तथा आंकड़ों में खेल लेते हैं। इस मंत्रालय का भी वास्तविक दायित्व किसी घुटे घुटाए राजनीतिज्ञ के पास होता है, जिसकी सोच एवं कार्यशैली में कई पीढ़ियों का अंतर होता है।
किसी न किसी के निहितार्थ प्रयोग होते-होते युवाओं में अपनी शक्ति का बोध तो हो गया लेकिन वे दिशाहारा हो गये। परम्परागत राजनीति में सर्वहारा का विद्रोह भूमिहीन मजदूरांे की क्रान्ति तो समझायी गयी किन्तु युवा विद्रोह की परिकल्पना न तो माक्र्स ने की और न ही लेनिन और माओ ने (तब तक) ही की थी क्योंकि सामाजिक सम्बन्धों की दृष्टि से इन्हें एक कोटि में नहीं रखा गया था।
सातवें दशक में अमरीका में छात्रों ने एक बार यहां तक कह डाला कि हम शासकों के स्वार्थ के लिए लड़ने को तैयार नहीं। सातवें दशक में ही हमारे यहां उच्च शिक्षा आयोग, अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय शोध संस्थान तथा अमरीका की फोर्ड शोध संस्था के तत्वावधान में लगभग 300 शोध परियोजनाएं आरंभ की गयी। छात्र युवा आंदोलन को समझने के लिए इन शोधों के तीन निष्कर्ष हुए।
- कुछ थोड़े से विद्यार्थी जिनकी पढ़ने मंे रूचि नहीं है, वे शैक्षणिक संस्थानों के माहौल को गंदा किए हैं।
- राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के कारण यह समस्या है।
- अध्यापक राजनीति में सक्रिय हैं, लेकिन शोध से प्राप्त निष्कर्षों से समस्या दूर करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया गया।
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वैसे तो बेरोजगारी एवं कुछ राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर हमारे यहां वामपंथी छात्र संगठन छुटपुट धरना प्रदर्शन करते रहते हैं। उनके प्रदर्शन को लगता है अमरीकी समाज शास्त्री लियोन्स 1965, सोमसे 1965 एवं ट्रेन्ट क्रेस 1967 के निष्कर्षों के तहत देखा जाता है। इन समाजशास्त्रियों का निष्कर्ष था कि युवा असंतोष के पक्षधर वामपंथी छात्र हैं, जो कि सुविधाजनक और सम्पन्न सामाजिक और आर्थिक परिवारों से सम्बद्ध हैं।
इस बार छात्रों ने प्रदर्शन करके सरकार को जो आगाह किया। वह निःसंदेह प्रशंसनीय है। लेकिन जब कोई सरकार नकल अध्यादेश समाप्त करने के नाम पर छात्रों का समर्थन पायी हो, उस सरकार को चेताने से क्या लाभ है। जब सरकार में मंत्रियों के लिए किसी योग्यता का निर्धारण न हो। जब शिक्षा मंत्री के लिए साक्षर होना ही एक महती उपलब्धि हो, तो ऐसी सरकार से परीक्षा की समस्या के बारे में बात करना एकदम बेमानी है। आखिर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को जब, उसकी सरकार थी, तब भी युवा एवं छात्र समस्याओं के प्रति सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था। परंतु उस समय जब भाजपा की सरकार थी, तब विद्यार्थी परिषद के लोग अपनी सरकार के मंत्री की प्रशस्ति में समय गुजार रहे थे। क्या उस समय परिसर समस्याआंे से नहीं पटा था? क्या उस समय शैक्षिणिक सत्र नहीं पिछड़े थे? क्या उस समय सरकार छात्र युवा हितों के लिए कार्य कर रही थी?
हमारा छात्र नेता छात्र नहीं रह गया है। वह अपने विश्वविद्यालय प्रवास के दौरान परीक्षाएं उत्तीर्ण करने में अपनी शर्म महसूस करता है। छात्र बने रहने के लिए वह कक्षाओं में प्रवेश बदलता रहता है। उसके लिए छात्रसंघों के पद राजनीतिक दलों के लिए प्रवेश पास हैं। इतना ही नहीं राजनीतिक पार्टियों की छात्र इकाइयों के अध्यक्ष एवं पदाधिकारियों को ही ले लें तो अस्सी प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिन्होंने पांच वर्षों में 25 विभागों/शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश जरूर लिया गया, परंतु एक भी परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की होगी।
यही कारण है कि हमारे छात्र, छात्र नेतृत्व का परिसर की ओर ध्यान तब जाता है, जब उसके राजनीतिक दल की ओर से उसे कोई संके त मिलता है, तभी वह परिसर के बिगड़े माहौल पर चिंता जताता है। विधानसभा घेरो तथा प्रदर्शन की गुहार लगाता है।
जैसे-जैसे हमारा छात्र प्रबुद्ध होता जा रहा है। वैसे-वैसे छात्र नेतृत्व लम्पट, बुद्धिहीन एवं अराजक लोगों के हाथों में पहुंचता जा रहा है। क्योंकि लोगों की राजनीति से स्वयं को अलग रखने की मंशा विस्तार पाती जा रही है। राजनीति जहां प्रबुद्ध एवं जागरूक लोगों को स्थान मिलना चाहिए। वहां यह वर्ग इससे कतरा रहा है। फिर परिसर चिंता का क्या मतलब रह जाता है? हमारा दुर्भाग्य यह है कि ऊंचे-ऊचे आदर्श किताब की वस्तु बनकर रह गये हैं। यहां भोर का पहाड़ा पढ़ने का दायित्व उन्हें दे दिया गया है, जो संस्कृत के बिस्तर पर लेट कर बेड टी की आशा करते रहते हैं। हमारा कृषि स्नातक चाहता है कि फाइलों में गेहूं बोया जाय और उसके दस्तखत से काट लिया जाय।
हमारा युवा वर्ग सरकारी नौकरियों से बेरोजगारी के आंकड़े जुटाता है। सरकारी नौकरियों के प्रति उसमें आकर्षण का कारण है-रिश्वत। क्योंकि सरकार ने भी अपने यहां नौकरियों के लिए जो पगार तय की है, उससे दो जून की रोटियांे का सूचकांक भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। फिर भी हमारा युवा वर्ग यह सोचता है कि किसी सरकारी दफ्तर में बाबूगिरी करने से दूसरों पर रौब, समाज में दबदबा और ऊपरी कमाई का अजस उसके हाथ लग जाता है।
आज जब युवा वर्ग अतीत के छात्रों की भांति कक्षा में दोहराए गए प्रवचनों को निष्ठापूर्वक उतारने को अपनी नियति नहीं बनाता। स्थापित मूल्यों और उन मूल्यों से सम्बन्धित संस्थानों को चुनौती देने में लगा है। युवाओं के सामने विशाल प्रश्न पुंज मंडरा रहा है। नौकरी, अध्यापक, विद्यार्थी संबंध, परिसर की नैतिकता, धरना-प्रदर्शन, राजनीतिक प्रतिबद्धता, पाठ्यक्रम निर्धारण, परीक्षा प्रणाली, सर्वत्र समझौता, सर्वत्र अवसर वादिता, सर्वत्र आदर्श हीनता ही उसे दिख रही है। अतः युवा पीढ़ी में विद्रोह, युवा असंतोष सर्वत्र व्याप्त चेहरों पर से नकाब हटाने का प्रयास है। शहर का
दुकानदार यदि अपना माल बेचकर रूपए में तीन अठन्नी सीधा करता है तो परीक्षा में ट्यूशन पढ़ाकर अधिक नंबर दिलाकर अध्यापक भी कम पीछे नहीं है। सर्वत्र मुनाफे का बाजार है।
हमारा युवा आंदोलन या छात्र असंतोष मूलतः विशिष्ट संस्कृति, जिसका प्रतिनिधित्व विश्वविद्यालय का संस्थापन कर रहा है और जन संस्कृति जो बहुमत के आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर रही थी। इन दोनों के मध्य परस्पर बढ़ती हुई संघर्ष एवं टकराव की कहानी है। शिक्षा से सम्बन्धित कुलपति, सचिव, निदेशक और मंत्री ने सभी ने परिसर में बढ़ती विसंगति को कानून एवं व्यवस्था के प्रश्न के रूप में उजागर किया है। फ्रांसीसी समाजशास्त्री टूरनेल ने लिखा है, ‘शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा की पूरी प्रक्रिया से वैसे ही असंबद्ध हैं, जैसे संध्या को फैक्ट्री से अपने घर जाते मजदूर अपने साथियों से असंबद्ध रहते हैं। धड़ल्ले से पढ़ाता हुआ अध्यापक अपने ही पढ़ाने से असंबद्ध है और छात्र पढ़ने से।’
सन् 1979 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जांच समिति ने स्पष्ट रूप से दुख व्यक्त करते हुए कहा था कि अधिकांश अध्यापक अपने निजी व सीमित स्वार्थों के लिए विद्यार्थियों का प्रयोग कर रहे हैं। शिक्षण संस्थान के लिए यह पतन का द्योतक है, जो वर्तमान में कैंसर से मृत्यु की घड़िया गिन रहा है।
हमारा छात्र एक ओर अवसरवादी अध्यापकों के हाथ पर चढ़ा है। दूसरी ओर उसका नेतृत्व भी अवसरवादी है, जिसका ज्वलन्त उदाहरण है लोगों के बयान एवं सत्ता का रुख देखते हुए छात्रनेताओं ने अपने राजनीतिक चोले बदले। लम्बी कुलांचे भरीं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से माक्र्सवादी पार्टी तक और वामपंथी छात्र संगठनों से कांगे्रस व भाजपा तक।
इन स्थितियों में छात्रों ने अपनी समस्याओं के लिए किसी विरोधी सरकार को मंुह बिराने के सिवाय क्या आशा की जा सकती है। परंतु ऐसी मंशा से कहीं भी जुटने पर किसी परिवर्तन की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। वरन एक कोरम पूरा हुआ मान लेना चाहिए। लेकिन कोरम पूरा करने से परिसर न ही समस्याओं से उबर सकेंगे और न ही पाठ्यक्रम विसंगतिया, छात्र अध्यापक संबंध, सत्र नियमितीकरण, बढ़ी फीस की वापसी सहित 25 सूत्रीय मांगें पूरी हो पाएंगी।