अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह कब तक जनता में आश्वासन की रेवड़िया बांटते रहेंगे। इनके अर्थ कौशल का ही परिणाम है कि गरीब का रोटी से, हाथ का रोजगार से रिश्ता टूटता जा रहा है। बाजार विदेशी उत्पादों से पटता जा रहा है। परंतु आम हाथों में क्रय शक्ति नहीं है। ग्लोबलाइजेशन के सपने महज 10 प्रतिशत लोगों के लिए अपने हो सकते हैं। शेष भारत उससे अलग-थलग है।
मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीतियां, उदारीकरण, पेरेस्त्रोइका की ओर भारत को ले जा रही है और इसके लिए संसद और संसद के बाहर वित्त मंत्री लगातार आंकड़ों की बाजीगरी करते हुए लुभावने आश्वासन बांटते रहते हैं। यही कारण है कि इस बार का बजट गले के नीचे उतरवाने के लिए उन्हें तमाम शेरो, शायरी का सहारा लेना पड़ा।
अभी हाल में मनमोहन सिंह ने कहा कि सरकार मंहगाई नहीं बढ़ने देगी। कीमतों को काबू में रखने के पर्याप्त उपाय सरकार के पास हैं। यह बात वह वित्त मंत्री कहता हो, जिसका अपनी बैंकिंग व्यवस्था पर कोई नियंत्रण न हो। बैंकों की मिली जुगत से लगातार घोटालों का पर्दाफाश हो रहा हो। इतना ही नहीं, उन्हें जरूर पता होगा कि मूल्यों पर महज सरकार का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। वरन इसके लिए मार्केट मैके निज्म का ठीक होना जरूरी है। इस मार्केट मैके निज्म में काले बाजारिये, बिचैलिये भी आते हैं। यों भी वित्त मंत्री ने सरकारी दुकान से मिलने वाले आम जनों की आवश्यकता की वस्तुओं के मूल्यों में इतनी वृद्धि पहले ही कर दी है कि वह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो गयी है। भारत में जो बाजार तंत्र है, उसमें मूल्यों के घटने का कोई दर्शन नहीं है। भले ही मानसून चाहें जितना अच्छा हो औद्योगिक उत्पादन चाहे जितना बढ़े।
मनमोहन सिंह का यह कहना है कि छह हजार करोड़ रूपये के घाटे के बाद भी मुद्रास्फीति नहीं है। बढ़ेगी, बेहद बचकानी बात है। आखिर इस घाटे को पूरा करने के लिए वे ऐसे कौन से उपाय अपनायेंगे, जिससे मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि किये बिना घाटे को पूरा कर लें। वैसे भी वित्त मंत्री जिन आर्थिक नीतियों की वकालत में आजकल मशगूल हैं। उन नीतियों के ना ही वे कभी अध्यापक रहे हैं और न ही कभी अपने संगोष्ठियों में समर्थक। फिर भी उल-जलूल आर्थिक मान्यताओं की स्थापना में जुटे रहने के पीछे उनकी अपनी विवशताएं होंगी। अनर्गल आश्वासनों पर उपलब्धि का कोरा भ्रम नहीं जिया जा सकता है। वित्त मंत्री आर्थिक सुधार करते समय आम आदमी को न भूलने की बात कहते हैं। जबकि वे अपने उदारीकरण में सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क पर ही लगातार जोर दे रहे हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि इससे कौन से लोग सम्बद्ध हैं और इसका लाभ किन लोगों को मिलता है।
वित्तमंत्री ‘आयात बढ़ेगी और देशी उद्योगों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा’ जैसा सच तो स्वीकारते हैं। परंतु यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रदर्शन प्रभाव के कारण आयात का बढ़ना ठीक नहीं होता तथा देशी उद्योगों में प्रतिस्पर्धा की ठोस क्षमता नहीं होने के नाते हमारे उद्योग फिस तो होंगे ही साथ ही साथ लाभ का एक बड़ा हिस्सा उन देशों के पास चला जाएगा जो अपने लाभ को पूरी तौर पर यहां निवेशित नहीं करेंगे। विदेशी निवेशकर्ता अपने हितों का पहले ख्याल रखेंगे। मनमोहन सिंह को इससे सबक लेना चाहिए था कि विदेशी निवेशकर्ताओं ने शेयर बाजार में जो भी निवेश किया है वह पूरा का पूरा इक्विटी में है। ऋण पत्रों में नहीं।
मनमोहन सिंह ने बजट की इस आलोचना को गलत बताया है कि अगर औद्योगिक विकास आगे नहीं बढ़ा तो बजट प्रस्ताव मंहगाई बढ़ाने वाले साबित होंगे। इन्हें इस आलोचना को गलत बताने की जगह औद्योगिक विकास को आगे बढ़ाने की बात पर जोर देना चाहिए। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि अगर औद्योगिक विकास की दर सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 2 से 3 प्रतिशत रखी गयी होती तो मुद्रास्फीति बढ़ने जैसी स्थिति आ सकती थी। वित्तमंत्री को यह पता होना चाहिए कि औद्योगिक विकास की दर इससे अधिक नहीं हो सकती। लक्ष्य चाहें जो भी रखे जाएं। उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल 1990-91 में विकास दर 4.9 प्रतिशत निकली। जबकि मनमोहन सिंह ने इसे 5.6 प्रतिशत बताया था। 91-92 में सकल घरेलू उत्पाद में 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जबकि 92-93 की आर्थिक समीक्षा में 91-92 की विकास दर घटकर 1.2 और 93-94 की विकास दर समीक्षा में 91-91 की विकास दर 1.1 प्रतिशत रह गयी। 91-92 की आर्थिक समीक्षा के अनुसार ही 88-89 की विकास दर 10.5 प्रतिशत थी। 94-95 में वित्त मंत्री ने विकास दर 5 प्रतिशत रखा है जबकि आठवीं योजना का लक्ष्य 5.6 प्रतिशत का है।
प्रधानमंत्री नरसिंह राव के सत्ता में आने के बाद सितम्बर, 1993 तक विदेशी ऋण 72.73 प्रतिशत बढ़ गया है। इस राशि में गैर सरकारी कर्ज भी शामिल है। मार्च 94 तक सरकार पर कुल विदेशी ऋण भार 51.61 प्रतिशत बढ़ेगा। नरसिंह राव सरकार के पहले भारत पर कुल विदेशी ऋण 31 मार्च, 1991 को 161310 करोड़ रूपया था, जो 30 सितम्बर, 1993 को बढ़कर 282900 करोड़ रूपया हो गया। यानी मनमोहन सिंह के नाते ऋण भार 44.17 प्रतिशत और 14061.05 करोड़ रूपया बढ़ा, जो 31 मार्च, 1994 को 471619.37 करोड़ रूपया हो जाएगा।
1990-91 में ऋण एवं ब्याज पर क्रमशः 8180.90 करोड़ और 1809.30 करोड़ रूपये का भुगतान किया गया है, जो क्रमशः 131.04 व 114.15 प्रतिशत है। लेकिन मार्च 1995 तक यह वृद्धि देय ऋण धन में 147 प्रतिशत एवं ब्याज भुगतान में 130 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करेगी। वित्त मंत्री चाहें जो भी घोषणाएं करें परंतु 94-95 के बजट में भी 4279 करोड़ रूपये कर्ज का प्रावधान है।
मनमोहन सिंह के अर्थ कौशल के बाद भी 93-94 का बजट घाटा सकल उत्पाद का 7.3 प्रतिशत हो गया। फिर भी 94-95 में वित्तीय घाटे के स्तर को उचित सीमा के भीतर लाने का वायदा दोहराते हैं। जबकि भारत का बजटीय इतिहास साक्षी है कि बजट घाटा हमेशा बढ़ा ही है। बजट पूर्व राशन के गेहूं, चीनी, चावल, पेट्रोल, गैस आदि के मूल्यों में बढ़ोत्तरी करके पांच हजार करोड़ रूपये वसूले गये। रेल बजट में 997 करोड़ का अतिरिक्त कर फिर भी साठ अरब का घाटा। यह घाटा भी अप्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ताओं को ही देय होगा। वित्तमंत्री के आर्थिक नीतियों के उपलब्धियों का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय कृषि मंत्री बलराम जाखड़ ने कहा कि बजट के नाते ट्रैक्टरों के मूल्यों में पंद्रह हजार रूपये तक की वृद्धि होगी। तो मनमोहन सिंह ने इसका तत्काल खंडन कर दिया।
जिस वित्त मंत्री के बजट क 25 पैसे आंतरिक उधार से प्राप्त हो और 26 पैसे ऋणों के ब्याज की अदायगी पर व्यय हो, उसे अपने असली बजट को महज 49 पैसे का मानना और बताना चाहिए। इतना ही नहीं कुल सकल घरेलू उत्पाद का 53 प्रतिशत ब्याज की किश्तें चुकाने में व्यय हो जाता हो। फिर भी बजट के लक्ष्य प्राप्त करने के खोखले दावे वित्त मंत्री क्यों करते हैं। 25 पैसे जो आंतरिक उधार से प्राप्त किये जा रहे हैं, उस पर भी कम से कम का घरेलू ब्याज भी जोड़ा जाना चाहिए। वैसे किन्हीं भी स्थितियों में बजट घाटा निश्चित तौर से बढ़ जाएगा।
वित्त मंत्री ने जब सभी वस्तुओं पर सब्सिडी लगभग समाप्त कर दी है तो उन्हें न्यूनतम मजदूरी की जगह अच्छी मजदूरी जैसी संकल्पना पर जोर देना चाहिए था। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वित्त मंत्री को पता होना चाहिए कि एक अच्छे अर्थशास्त्री बनने के लिए एक अच्छा समाजशास्त्री होना भी जरूरी होना चाहिए, जिसका मनमोहन सिंह में सर्वथा अभाव है। उनका जिस समाज से सामना पड़ा है उसकी अनिवार्य आवश्यकताएं हमारी विलासिता की कोटि में आती हैं। तो ऐसे चश्मे सेदेखकर भारत का कल्याण कर पाना संभव नहीं है, जो लोग मनमोहन सिंह के उदारवाद की प्रशस्ति करने के लिए चीन का उदाहरण देते हैं। उन्हें जानना चाहिए कि चीन के विकास का कारण उदारवाद नहीं है। उदारवाद कभी भी किसी भी देश के लिए वरदान नहीं साबित हुआ है और न ही होगा। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति रीगन ने मुनाफाखोरी के दर्शन पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा था कि बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता (ऋण की पूंजी) गरीब लोगों की समृद्धि, प्रसन्नता की कुंजी नहीं है। नहीं हो सकती है। जब तक कोई राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था और वित्त व्यवस्था नहीं सुधारता तब तक विदेश की राशि कितनी विशाल क्यों न हो। देश की उन्नति के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकती।
इस तरह मनमोहन सिंह, मनमोहक आश्वासनों के बदले कब तक जनता को बेवकूफ बनाने में कामयाब होते रहे होंगे। कब तक उन सत्यों को छुपाते रहेंगे, जिसे जीने के लिए आम जनता अभिशप्त है। हमें यह पता होना चाहिए कि विदेशी कम्पनियां अब भारत को तकनीकी की जगह उत्पाद बेचना चाहती हैं। भारत इनके लिए एक बाजार है। इसमें आर्थिक उदारवाद एवं उग्र पूंजीवाद के खतरे खड़े करके मनमोहन सिंह भारतीयता के हितों पर भारतीय जीवन पद्धति पर, भारतीय सामाजिक संरचना पर तुषारापात कर रहे हैं, इससे चेतने की जरूरत है। डंके ल और गैट की स्वीकृति के पीछे मनमोहन की मंशा ही है। इसलिए डंके ल पर कुछ करने से पहले भारत को डंके ल से बचाने के लिए मनमोहन को विस्थापित करने की जरूरत है। इसके लिए सभी एकजुट होकर इन पर आक्रमण करें, तो संसद के अंदर और बाहर झूठे आंकड़े पेश करने के अभिशाप से लोगों को बचाया जा सकता है। तभी पेरेस्त्रोइका की गिरफ्त से मुक्त हुआ जा सकता है। नहीं तो मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि आर्थिक परतंत्रता से बचने का कोई विकल्प शेष नहीं दिखेगा।
मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीतियां, उदारीकरण, पेरेस्त्रोइका की ओर भारत को ले जा रही है और इसके लिए संसद और संसद के बाहर वित्त मंत्री लगातार आंकड़ों की बाजीगरी करते हुए लुभावने आश्वासन बांटते रहते हैं। यही कारण है कि इस बार का बजट गले के नीचे उतरवाने के लिए उन्हें तमाम शेरो, शायरी का सहारा लेना पड़ा।
अभी हाल में मनमोहन सिंह ने कहा कि सरकार मंहगाई नहीं बढ़ने देगी। कीमतों को काबू में रखने के पर्याप्त उपाय सरकार के पास हैं। यह बात वह वित्त मंत्री कहता हो, जिसका अपनी बैंकिंग व्यवस्था पर कोई नियंत्रण न हो। बैंकों की मिली जुगत से लगातार घोटालों का पर्दाफाश हो रहा हो। इतना ही नहीं, उन्हें जरूर पता होगा कि मूल्यों पर महज सरकार का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। वरन इसके लिए मार्केट मैके निज्म का ठीक होना जरूरी है। इस मार्केट मैके निज्म में काले बाजारिये, बिचैलिये भी आते हैं। यों भी वित्त मंत्री ने सरकारी दुकान से मिलने वाले आम जनों की आवश्यकता की वस्तुओं के मूल्यों में इतनी वृद्धि पहले ही कर दी है कि वह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो गयी है। भारत में जो बाजार तंत्र है, उसमें मूल्यों के घटने का कोई दर्शन नहीं है। भले ही मानसून चाहें जितना अच्छा हो औद्योगिक उत्पादन चाहे जितना बढ़े।
मनमोहन सिंह का यह कहना है कि छह हजार करोड़ रूपये के घाटे के बाद भी मुद्रास्फीति नहीं है। बढ़ेगी, बेहद बचकानी बात है। आखिर इस घाटे को पूरा करने के लिए वे ऐसे कौन से उपाय अपनायेंगे, जिससे मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि किये बिना घाटे को पूरा कर लें। वैसे भी वित्त मंत्री जिन आर्थिक नीतियों की वकालत में आजकल मशगूल हैं। उन नीतियों के ना ही वे कभी अध्यापक रहे हैं और न ही कभी अपने संगोष्ठियों में समर्थक। फिर भी उल-जलूल आर्थिक मान्यताओं की स्थापना में जुटे रहने के पीछे उनकी अपनी विवशताएं होंगी। अनर्गल आश्वासनों पर उपलब्धि का कोरा भ्रम नहीं जिया जा सकता है। वित्त मंत्री आर्थिक सुधार करते समय आम आदमी को न भूलने की बात कहते हैं। जबकि वे अपने उदारीकरण में सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क पर ही लगातार जोर दे रहे हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि इससे कौन से लोग सम्बद्ध हैं और इसका लाभ किन लोगों को मिलता है।
वित्तमंत्री ‘आयात बढ़ेगी और देशी उद्योगों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा’ जैसा सच तो स्वीकारते हैं। परंतु यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रदर्शन प्रभाव के कारण आयात का बढ़ना ठीक नहीं होता तथा देशी उद्योगों में प्रतिस्पर्धा की ठोस क्षमता नहीं होने के नाते हमारे उद्योग फिस तो होंगे ही साथ ही साथ लाभ का एक बड़ा हिस्सा उन देशों के पास चला जाएगा जो अपने लाभ को पूरी तौर पर यहां निवेशित नहीं करेंगे। विदेशी निवेशकर्ता अपने हितों का पहले ख्याल रखेंगे। मनमोहन सिंह को इससे सबक लेना चाहिए था कि विदेशी निवेशकर्ताओं ने शेयर बाजार में जो भी निवेश किया है वह पूरा का पूरा इक्विटी में है। ऋण पत्रों में नहीं।
मनमोहन सिंह ने बजट की इस आलोचना को गलत बताया है कि अगर औद्योगिक विकास आगे नहीं बढ़ा तो बजट प्रस्ताव मंहगाई बढ़ाने वाले साबित होंगे। इन्हें इस आलोचना को गलत बताने की जगह औद्योगिक विकास को आगे बढ़ाने की बात पर जोर देना चाहिए। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि अगर औद्योगिक विकास की दर सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 2 से 3 प्रतिशत रखी गयी होती तो मुद्रास्फीति बढ़ने जैसी स्थिति आ सकती थी। वित्तमंत्री को यह पता होना चाहिए कि औद्योगिक विकास की दर इससे अधिक नहीं हो सकती। लक्ष्य चाहें जो भी रखे जाएं। उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल 1990-91 में विकास दर 4.9 प्रतिशत निकली। जबकि मनमोहन सिंह ने इसे 5.6 प्रतिशत बताया था। 91-92 में सकल घरेलू उत्पाद में 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जबकि 92-93 की आर्थिक समीक्षा में 91-92 की विकास दर घटकर 1.2 और 93-94 की विकास दर समीक्षा में 91-91 की विकास दर 1.1 प्रतिशत रह गयी। 91-92 की आर्थिक समीक्षा के अनुसार ही 88-89 की विकास दर 10.5 प्रतिशत थी। 94-95 में वित्त मंत्री ने विकास दर 5 प्रतिशत रखा है जबकि आठवीं योजना का लक्ष्य 5.6 प्रतिशत का है।
प्रधानमंत्री नरसिंह राव के सत्ता में आने के बाद सितम्बर, 1993 तक विदेशी ऋण 72.73 प्रतिशत बढ़ गया है। इस राशि में गैर सरकारी कर्ज भी शामिल है। मार्च 94 तक सरकार पर कुल विदेशी ऋण भार 51.61 प्रतिशत बढ़ेगा। नरसिंह राव सरकार के पहले भारत पर कुल विदेशी ऋण 31 मार्च, 1991 को 161310 करोड़ रूपया था, जो 30 सितम्बर, 1993 को बढ़कर 282900 करोड़ रूपया हो गया। यानी मनमोहन सिंह के नाते ऋण भार 44.17 प्रतिशत और 14061.05 करोड़ रूपया बढ़ा, जो 31 मार्च, 1994 को 471619.37 करोड़ रूपया हो जाएगा।
1990-91 में ऋण एवं ब्याज पर क्रमशः 8180.90 करोड़ और 1809.30 करोड़ रूपये का भुगतान किया गया है, जो क्रमशः 131.04 व 114.15 प्रतिशत है। लेकिन मार्च 1995 तक यह वृद्धि देय ऋण धन में 147 प्रतिशत एवं ब्याज भुगतान में 130 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करेगी। वित्त मंत्री चाहें जो भी घोषणाएं करें परंतु 94-95 के बजट में भी 4279 करोड़ रूपये कर्ज का प्रावधान है।
मनमोहन सिंह के अर्थ कौशल के बाद भी 93-94 का बजट घाटा सकल उत्पाद का 7.3 प्रतिशत हो गया। फिर भी 94-95 में वित्तीय घाटे के स्तर को उचित सीमा के भीतर लाने का वायदा दोहराते हैं। जबकि भारत का बजटीय इतिहास साक्षी है कि बजट घाटा हमेशा बढ़ा ही है। बजट पूर्व राशन के गेहूं, चीनी, चावल, पेट्रोल, गैस आदि के मूल्यों में बढ़ोत्तरी करके पांच हजार करोड़ रूपये वसूले गये। रेल बजट में 997 करोड़ का अतिरिक्त कर फिर भी साठ अरब का घाटा। यह घाटा भी अप्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ताओं को ही देय होगा। वित्तमंत्री के आर्थिक नीतियों के उपलब्धियों का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय कृषि मंत्री बलराम जाखड़ ने कहा कि बजट के नाते ट्रैक्टरों के मूल्यों में पंद्रह हजार रूपये तक की वृद्धि होगी। तो मनमोहन सिंह ने इसका तत्काल खंडन कर दिया।
जिस वित्त मंत्री के बजट क 25 पैसे आंतरिक उधार से प्राप्त हो और 26 पैसे ऋणों के ब्याज की अदायगी पर व्यय हो, उसे अपने असली बजट को महज 49 पैसे का मानना और बताना चाहिए। इतना ही नहीं कुल सकल घरेलू उत्पाद का 53 प्रतिशत ब्याज की किश्तें चुकाने में व्यय हो जाता हो। फिर भी बजट के लक्ष्य प्राप्त करने के खोखले दावे वित्त मंत्री क्यों करते हैं। 25 पैसे जो आंतरिक उधार से प्राप्त किये जा रहे हैं, उस पर भी कम से कम का घरेलू ब्याज भी जोड़ा जाना चाहिए। वैसे किन्हीं भी स्थितियों में बजट घाटा निश्चित तौर से बढ़ जाएगा।
वित्त मंत्री ने जब सभी वस्तुओं पर सब्सिडी लगभग समाप्त कर दी है तो उन्हें न्यूनतम मजदूरी की जगह अच्छी मजदूरी जैसी संकल्पना पर जोर देना चाहिए था। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वित्त मंत्री को पता होना चाहिए कि एक अच्छे अर्थशास्त्री बनने के लिए एक अच्छा समाजशास्त्री होना भी जरूरी होना चाहिए, जिसका मनमोहन सिंह में सर्वथा अभाव है। उनका जिस समाज से सामना पड़ा है उसकी अनिवार्य आवश्यकताएं हमारी विलासिता की कोटि में आती हैं। तो ऐसे चश्मे सेदेखकर भारत का कल्याण कर पाना संभव नहीं है, जो लोग मनमोहन सिंह के उदारवाद की प्रशस्ति करने के लिए चीन का उदाहरण देते हैं। उन्हें जानना चाहिए कि चीन के विकास का कारण उदारवाद नहीं है। उदारवाद कभी भी किसी भी देश के लिए वरदान नहीं साबित हुआ है और न ही होगा। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति रीगन ने मुनाफाखोरी के दर्शन पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा था कि बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता (ऋण की पूंजी) गरीब लोगों की समृद्धि, प्रसन्नता की कुंजी नहीं है। नहीं हो सकती है। जब तक कोई राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था और वित्त व्यवस्था नहीं सुधारता तब तक विदेश की राशि कितनी विशाल क्यों न हो। देश की उन्नति के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकती।
इस तरह मनमोहन सिंह, मनमोहक आश्वासनों के बदले कब तक जनता को बेवकूफ बनाने में कामयाब होते रहे होंगे। कब तक उन सत्यों को छुपाते रहेंगे, जिसे जीने के लिए आम जनता अभिशप्त है। हमें यह पता होना चाहिए कि विदेशी कम्पनियां अब भारत को तकनीकी की जगह उत्पाद बेचना चाहती हैं। भारत इनके लिए एक बाजार है। इसमें आर्थिक उदारवाद एवं उग्र पूंजीवाद के खतरे खड़े करके मनमोहन सिंह भारतीयता के हितों पर भारतीय जीवन पद्धति पर, भारतीय सामाजिक संरचना पर तुषारापात कर रहे हैं, इससे चेतने की जरूरत है। डंके ल और गैट की स्वीकृति के पीछे मनमोहन की मंशा ही है। इसलिए डंके ल पर कुछ करने से पहले भारत को डंके ल से बचाने के लिए मनमोहन को विस्थापित करने की जरूरत है। इसके लिए सभी एकजुट होकर इन पर आक्रमण करें, तो संसद के अंदर और बाहर झूठे आंकड़े पेश करने के अभिशाप से लोगों को बचाया जा सकता है। तभी पेरेस्त्रोइका की गिरफ्त से मुक्त हुआ जा सकता है। नहीं तो मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि आर्थिक परतंत्रता से बचने का कोई विकल्प शेष नहीं दिखेगा।