शांति सुरक्षा के बल के गठन से एक नयी अशांति को आमंत्रण

Update:1994-04-24 13:37 IST
देश भर में साम्प्रदायिक दंगों की लगातार बढ़ रही घटनाओं पर चिंता जताने का कोरम पूरा करके  हमारे राजनीतिज्ञ लगातार अपने लिए कुर्सी का हित सिद्ध करते रहे हैं। नागरिकों को आदमी नहीं वोटों की शक्ल में बांटा गया। बंटते-बंटते आम आदमी में कुनबा परस्ती इतनी बढ़ गयी कि उसे एक दूसरे से बंधने के  लिए कभी राम की जरूरत पड़ी। कभी अल्लाह की। कभी उर्दू की। कभी हिन्दी की। कभी क्षेत्रवाद की और कभी जातिवाद का अमला बांटो और राज करो, काम में लाया गया।
पूरा का पूरा समाज स्वहित बोधी और आरोपी शक्ल अख्तियार करने लगा। इसी का परिणाम हुआ कि भारत पाक विभाजन के  समय जितने लोग साम्प्रदायिक हिंसा की बलि चढ़े उससे कहीं ज्यादे ही लोग स्वतंत्र भारत में साम्प्रदायिक दंगों के  शिकार हुए। इन दंगों में अल्पसंख्यकों की एक ओर से लगातार हमारे सुरक्षा बलों पर आरोप लगाया जाता रहा है। दंगों के  नियंत्रण के  लिए आमतौर पर लगायी जाने वाली पीएसी को संदह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। अल्पसंख्यकों की ओर से यह कहा जाता है कि पीएसी हिन्दु बाहुल्य है। इसलिए पीएसी अल्पसंख्यकांे के  लिए विरूद्ध काम करने की मुहिम चलाती है न कि दंगों के  शमन की नीति पर काम करती है। परिणामतः अल्पसंख्यक हितों के  प्रबल विरोधी के  रूप में स्वयं को खड़ा करने वाली सरकार ने उप्र विधानसभा में शांति सुरक्षा अधिनियम, 1994 का प्रस्ताव रखा और सदन के  सर्वथा विरोधी आक्षेपी वातावरण के  बाद भी इसे पास करा लिया गया।
इस प्रस्ताव के  पक्ष में बोलते हुए सदन में मुख्यमंत्री ने जो तर्क दिये, वो बेहद बौने थे तथा औचित्य के  प्रश्न को सही ढंग से पूरा करने में असमर्थ भी। मुख्यमंत्री ने कहा कि जो के वल हिंदी की बात करता है वही हिन्दी का दुश्मन है। अगर उनके  इसी तर्क को एकदम वैसे ही मान लिया जाय तो क्या यह सही नहीं लगता कि जो शान्ति की बात करता है, वही शान्ति का दुश्मन है। शांति के  नाम पर जिस तरह शांति सुरक्षा बल के  गठन की बात की जा रही है, उससे एक बात तो एकदम साफ हो उठती है कि मुख्यमंत्री यह मान चुके  हैं कि उनके  पास उपलब्ध पुलिस बल तथा के न्द्रीय सहायता बल शांति कायम करने में सर्वथा असमर्थ रहे हैं। जबकि हमारे यहां पुलिस बल का काम ही लाॅ एण्ड आॅर्डर की स्थिति को बहाल करना है।
मुख्यमंत्री को यह जानना और समझना चाहिए कि शांति बल द्वारा शांति बहाली इसी कानून एवं व्यवस्था की स्थिति का एक अंश है। अगर वे ऐसा मानने और स्वीकार करने को तैयार नहीं है तो उनके  इस शांति बल के  गठन से एक नयी अशांति के  हाथ लगने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
इस शांति सुरक्षा बल के  गठन में प्रदेश सरकार को 112.50 करोड़ रूपये खर्च करने पड़ेंगे। उसके  बाद भी मुख्यमंत्री बेहद आधारहीन बातें करते समय सदन के  प्रति अपने दायित्व को भूलकर यहां तक कह डालते हैं कि नए सुरक्षा बल के  गठन से अतिरिक्त वित्तीय भार नहीं बढ़ेगा।
शांति सुरक्षा बल विधेयक में इस संविधान एवं समाज विरोधी बातों की प्रतिकूलता तो एकदम साफ दिखती है। मुख्यमंत्री का यह कहना कि सुरक्षा बल में भर्ती के  लिए हिंदी के  अतिरिक्त दूसरी भारतीय भाषाएं जानने वालों को वरीयता दी जाएगी। हिंदी भाषा का सरासर अपमान है और सरकार को यह समझना चाहिए कि उप्र में ऐसा कुछ भी नहीं है कि दक्षिण भारतीय लोग आकर यहां नौकरी करें। वह भी शांति सुरक्षा बल में। फिर अन्य भारतीय भाषाओं के  माध्यम से अन्य उर्दू दां लोगों के  प्रवेश द्वार खोलने के  लिए क्या ऐसा नहीं किया जा रहा है। सरकार के  इस बयान से तो लगता है कि सरकार यह मान बैठी है कि शांति की स्थापना का काम गैर हिंदी भाषी लोग ज्यादा ठीक से कर सकते हैं। हिंदी भाषियों की तुलना में अगर हिंदू लोगों का प्रतिनिधि होने का आरोप पीएसी पर है तो क्या शांति सुरक्षा बल में अगर उर्दू दां लोग ज्यादा प्रवेश पा जाएं तो उन्हें क्या अल्पसंख्यक प्रतिनिधि नहीं मानेंगे। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि अब आदमी के  साम्प्रदायिक और गैर साम्प्रदायिक होने की बात भाषाओं के  माध्यम से तय की जाएगी। लीजिए अब आदमी की जगह भाषाओं को साम्प्रदायिक बनाने का काम हमारी सरकार के  हाथों में है। शांति सुरक्षा बल के  गठन के  समय लगता है सरकार अल्पसंख्यकों की ओर से लगातार हो रही उस मांग को पूरा करने के  लिए प्रतिबद्ध बैठी थी, जिससे पीएसी में अल्पसंख्यकों के  अनुपात बढ़ाने की बात अल्पसंख्यक नेताओं की ओर से बार-बार उठायी जा रही थी। हमारी प्रदेश सरकार इस दिशा में भी इतनी दक्ष निकली कि उसने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण एक कदम आगे बढ़कर कर दिया। अनुपात बढ़ाने की जगह समानान्तर बल गठित करके ।
इस विधेयक में त्याग पत्र न देने की विवशता संविधान सम्मत नहीं है। दुनिया में उप्र जितने बड़े कई देश हैं और हमारे यहां इस महत्वपूर्ण प्रदेश की सरकार का आलाकमान त्याग पत्र न देने की विवशता वाला एक विधेयक लाता है तो इसे बंधुआ मजदूरी नहीं तो और क्या कहेंगे।
कांग्रेस ने इस विधेयक का सदन में स्वागत किया है। कांग्रेस का ऐसा करना इसलिए भी क्षम्य है क्योंकि अब कोई व्यक्ति मृत्यु शैय्या पर हो तो उसके  तमाम अपराध भी भूले जा सकते हैं। इतना ही नहीं कांग्रेसी धर्म निरपेक्षता का पैमाना यही है कि उच्चतम न्यायालय के  निर्णय के  बाद भी उसे हिन्दू स्त्री के  पेट की ओर मुस्लिम स्त्री के  पेट में लगातार भेद दिखा तथा पूरी की पूरी संसद कठमुल्लाओं के  आगे घुटने टेक दिये। कांग्रेस ने ही राम मंदिर का ताला खुलवाया फिर शिलान्यास करवाया। फिर शिलान्यास रुकवाया। ऐसे सारे धर्मनिरपेक्ष कार्यों की दायिनी कांग्रेस पार्टी ने राजीव गांधी के  नेतृत्व में एक चुनाव आरएसएस के  साथ मिलकर लड़ा था तथा बसंत साठे की पत्नी के  माध्यम से राजीव गांधी का एक पत्र संघ की एक बड़ी बैठक में पढ़ा गया था। यह उपलब्धि पाने वाले राजीव गांधी एक मात्र व्यक्ति थे। यही कांग्रेस पार्टी है, जिसके  प्रधानमंत्री ने छह दिसम्बर 1992 को अपने राष्ट्रीय प्रसारण में अयोध्या में मस्जिद बनाने की बात कही थी। इसी पार्टी के  बड़े नेता अयोध्या के  विवादित ढांचे से राम मंदिर का प्रसाद लेकर कई बार लौटे हैं। अतएव कांग्रेस ऐसी बातें करे तो हमें ज्यादा खेद नहीं होना चाहिए। कांग्रेस के  नेता अगर सदन में बैठकर सुरक्षा बलों के  पक्ष में बोलें तो उससे सरकार को सतर्क रहना चाहिए। क्योंकि इनकी धर्म निरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की परिभाषा अब किसी से छिपी नहीं रह गयी है। अपनी इन्हीं दोमुही बातों के  कारण तिरस्कार दर तिरस्कार भोगने को ये अभिशप्त हैं और रहेंगे भी। अगर शांति सुरक्षा बल में कांग्रेसी दृष्टि के  धर्म निरपेक्ष लोग शामिल किये जायेंगे तो यह बात तय शुदा है कि अशांति को आमंत्रण देने का एक शांतिपूर्ण प्लेटफार्म हम तैयार कर रहे हैं।
वैसे बयानों के  स्तर पर सरकार चाहें जो कहने को जबर्दस्ती का लाभ उठा ले। परंतु यह सच है कि अल्पसंख्यक समुदाय की बहुत दिनों से लम्बित पड़ी मांग पीएसी पर उनके  अविश्वास की परिणति है। यह विधेयक जिसके  माध्यम से सरकार हमें पुलिस बलों और अर्द्धपुलिस बलों के  आधार पर विभाजित करेगी। डर दिखाएगी तथा शासन करती रहेगी। उसे नहीं पता कि शिवपतिया काण्ड में जिले के  सभी प्रमुख अधिकारी दलित वर्ग के  ही तो थे और अयोध्या के  विवादित ढांचे को गिराते समय अयोध्या का जिला मजिस्ट्रेट किसी पंडे की जाति का तो नहीं था। इसलिए जातीय आधार पर अधिकारियों की नियुक्ति का फार्मूला कोई कारगर तरीका नहीं है। क्यांेकि सरकार की कोई जाति नहीं होती है और न ही होनी चाहिए। जातियां धर्म एवं सम्प्रदाय हमारी समस्याओं के  समाधान नहीं हो सकते हैं और न ही हैं। क्योंकि बसपा-सपा गठबध्ंान वाली सरकार के  पहले दलित, उत्पीड़न की घटनाओं की आड़ लेकर उत्पीड़न रोकने के  लिए कठिन कानून बना दिये गये थे। परंतु इस सरकार में दलित उत्पीड़न उस दृष्टि एवं स्थितियों में नहीं हुआ, जिसके  लिए सरकार ने कानून बनाया था। वरन पिछड़ांे से दलित उत्पीड़न हुआ। ऐसा जानना महज इसलिए जरूरी है क्योंकि जातियां और सम्प्रदाय किसी समस्या का अंततः कोई निष्कर्ष नहीं है। ऐसा मानने वाले लोग नई समस्याओं को जनने की उपलब्धि जी कर भय एवं असुरक्षा की बैसाखी के  सहारे सरकार चलाना चाहते हैं और चलाते भी हैं। उन्हें पता है बंदर और बिल्लियों की रोटी की कथा। वह बार-बार बराबर करने के  अधिकार का लाभ उठाते हुए अपना पेट भरते रहते हैं। इसलिए ऐसी किसी योजना की आड़ में हमारे समाज में अमन चैन का सपना बेचने वाले लोग बेहद बेइमान और बहुरूपिये हैं। इतना ही नहीं, हमें अपने राजनीतिज्ञों को देखते-देखते यह तो सब समझ ही लेना चाहिए कि हमारा सामाजिक कल्याण राजनीतिज्ञों से संभव नहीं है। ये तो समस्याओं के  जनक हैं और समस्याएं ये नहीं जनंेगे तो इन्हें रोटी को बराबर करने का अधिकार कैसे मिलेगा? और बरारी के  अधिकार के  बाद ये गैर बराबरी की फसल बोयेंगे, जो भी समस्याएं हमारे देश व प्रदेश में राजनीति के  हत्थे चढ़ी, उसके  श्रेष्ठ एवं सम्भावना सम्पन्न परिणाम नहीं आए।

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