कांग्रेस की छात्र शाखा के प्रादेशिक सम्मेलन में नामी गिरामी नेताओं की उपस्थिति के कारण पूरा का पूरा सम्मेलन छात्र समस्याओं के मूल विषय पर चर्चा किये बगैर ही समाप्त हो गया। यह सम्मेलन मठवादी एवं संतुलन साधने की बाजीगरी में लिप्त नेताओं के लिए ऐसे मंच के रूप में प्रयुक्त हुआ, जिसमें छात्र ऊर्जा एवं दिशा के लिए आवश्यक नैतिक व सामाजिक मूल्यों का कोई जिक्र नहीं हो पाया।
यह सम्मेलन का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व इस्लामिक स्टूडेन्ट मूवमेन्ट जैसे संगठनों को प्रतिक्रियावादी करार दिया गया। प्रतिबंध लगाने की मांग की गयी। एक ऐसा छात्र संगठन जिसके नेताओं में से सत्तर प्रतिशत से अधिक ऐसे नेता हैं, जिन्होंने पिछले चार वर्षों से कोई सम्मानजनक डिग्री हासिल नहीं की है। इनसे प्रतिक्रियावादी होने का अभिप्राय पूछा जाय तो बहुलांश नहीं जानते होंगे फिर भी....।
किसी भी संगठन का इतिहास देखा जाय तो उसमें प्रतिक्रियावादी तथ्य आरम्भ से निहित नहीं होते हैं। प्रकारान्तर अगर उसमें प्रतिक्रियावादी तत्व घुसपैठ या वर्चस्व कर लें तो उसके लिए संगठन को प्रतिबंधित करने की मांग करना ठीक नहीं है। प्रतिक्रियावादी शब्द भी बड़ा सापेक्ष है। छात्र राजनीति का निरपेक्ष भाव यह होना चाहिए कि प्रतिक्रियावादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए एकजुट हों, आगे आएं और उन्हें पराजित करें। परंतु ऐसा न करके पूरे के पूरे दो छात्र संगठनों से अपना राजनीतिक प्रतिशोध पूरा करने की कोशिश की गयी।
सम्मेलन में 27 सूत्रीय मांगपत्र तैयार किया गया, जिसको लेकर प्रदेश सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ने की बात कही गयी है। यह भी कहा गया है कि वर्तमान प्रदेश सरकार छात्र विरोधी है। यदि यह सब बातें इस सम्मेलन में अनिवार्यतः तय हो गयी हैं और इसके लिए कुछ करने की बात सम्मेलन में आए राजनीतिज्ञों व छात्र संगठनों के दिल में है तो सबसे पहले कांग्रेस आलाकमान प्रदेश सरकार से अपना समर्थन वापस लें। ऐसा दबाव बनाया जाना चाहिए परंतु ऐसा नहीं किया गया। और तो और विदेश राज्यमंत्री ने साफ-साफ कह दिया कि समर्थन तो वापस लिया जा सकता है परंतु अपने आप का समर्थन करने में सालो लग जायेंगे। सलमान खुर्शीद की वेदना यह बता रही है कि इस सम्मेलन में प्रदेश सरकार पर दबाव बनाने के लिए अगर कुछ भी तय किया गया तो वह सब व्यर्थ है। निरर्थक है। यही कारण है कि आरक्षण के खिलाफ सम्मेलन में आए लगभग सभी नेता बोले। परंतु आरक्षण के खिलाफ कोई प्रस्ताव पास नहीं हो पाया।
एक ओर इस छात्र सम्मेलन में मुलायम सिंह यादव सरकार को जमकर कोसा गया। दूसरी ओर सलमान खुर्शीद का समर्थन वापस लेने पर दिया गया तर्क दोनों यह बताते हैं कि इस सम्मेलन में कई नेताओं की भागीदारी कितनी बेमानी थी। किसी छात्र संगठन के लिए यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसका प्रदेश अध्यक्ष कातर भरी दृष्टि से अपने अग्रिम पंक्ति के नेताओं से यह आग्रह कर रहा हो कि मान्यवर अब हमें मुलायम की भ्रष्ट सरकार को और अधिक बर्दाश्त करने के लिए बाध्य न कीजिए।
उत्तराखण्ड में आरक्षण के सवाल पर हो रहे आंदोलनों से पूर्व नारायण दत्त तिवारी का दिल पसीज गया। क्योंकि उत्तराखण्ड से उनका क्षेत्रीय नाता है। उन्होंने भी मुलायम को कोसा। परंतु उन्हें सोचना चाहिए था कि इससे पूर्व कि मुलायम सिंह सरकार को बचाने के पीछे उन्हीं के तर्क थे, जिन्होंने राजीव गांधी को समर्थन देते रहने की राय दी थी। उनका राजनीतिक पांडित्य चाहें जो कुछ कहता हो परंतु यह कांग्रेस के लिए पिछले दशक का सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय था।
हमें आज नौजवानों को आरक्षण गुमराह करने का झुनझुना लगता है। परंतु जब उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद आरक्षण का श्रेय लेने की होड़ में कांग्रेसी धावक विजयी हो रहे थे, तब उनका बोध कहां था? इतना ही नहीं लगभग सात मास के सोच विचार के बाद के न्द्र सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण की बात स्वीकार किया। तब आरक्षण गुमराह करने वाला झुनझुना नहीं था।
महावीर प्रसाद सरीखे तटस्थ राजनीतिज्ञ सलमान खुर्शीद व नारायण दत्त जैसे राजनीतिज्ञ भी जब छात्रों का आह्वान करते हैं तो यह सीधे-सीधे छात्र अस्मिता के साथ एक क्रूर मजाक दिखता है और /या छात्रों का निहितार्थ प्रयोग के लिए आमंत्रण।
जहां सभी छात्रों को अभी शिक्षा प्रदान करने के सवाल पर बहस चल रही हो। आरक्षण की ओट लेकर 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित करके कुछ विशेष वर्ग के लोगों को पढ़ने से रोकने की मुहिम जारी हो, वहां रोजगार के मौलिक अधिकार की मांग, जहां परिसर में वर्ग भेद और जातीय ताकतें सर उठा रही हों और इसके पीछे जो लोग हैं, उन्हें सदन में संरक्षण और समर्थन देने की विवशता हो, फिर भी उसी विवश राजनीतिक दल के लोग अपनी मुट्ठियां भींचकर हवा में घूसे बरसाएं तो उसे क्या कहा जाएगा?
छात्र समस्या के रूप में कई विश्वविद्यालयों के कई-कई वर्ष से विलम्बित शैक्षणिक सत्र प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा राज्य सेवाओं का वार्षिक रूप से न कराया जाना छात्र संगठनों में गैर छात्रों की घुसपैठ सरस्वती के पावन मंदिर में जहां वीणा की झनकार सुनायी देनी चाहिए वहां शस्त्रों की चीत्कार सुनायी देना पड़ना युवा दिशाहीनता, शिक्षा के पाठ्यक्रमों, नीति निर्धारण में युवाओं की भागीदारी न होना जैसे विषय आज छात्र समस्या के रूप में हमारे सामने हैं। परंतु यह सब कुछ अछूता रह गया। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि छात्र राजनीति में छात्रों की भागीदारी नगण्य है। जो छात्र हैं भी वह महज औपचारिकता पूरी करने के लिए।
जिस देश के युवाओं के सामने श्यामपट जैसा भविष्य हो, जहां की शिक्षा में यह निहित हो कि जितना पढ़ो, उतना समाज के लिए अनुपयोगी हो जाओ। जहां शिक्षा एवं संस्कृति जैसे विषयों तथा भोर का पहाड़ा पढ़ाने का दायित्व उनका है, जो सूर्य उगने तक संस्कृृति के बिस्तर पर बेड टी की आशा में पड़े रहते हैं। वहां छात्र सम्मेलन, छात्र राजनीति अस्त्र-शस्त्र के सिवाय कुछ भी नहीं। यही तो कहा राछासं के प्रदेश अध्यक्ष ने कातर भाव से। और यही किया प्रदेश के बड़े-बड़े नेताओं ने मुलायम सिंह को कोस करके इस औपचारिकता पर विराम लगना चाहिए अन्यथा छात्र राजनीति के भटकाव का अभिशाप जीने के लिए विवश रहना पड़ेगा।
यह सम्मेलन का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व इस्लामिक स्टूडेन्ट मूवमेन्ट जैसे संगठनों को प्रतिक्रियावादी करार दिया गया। प्रतिबंध लगाने की मांग की गयी। एक ऐसा छात्र संगठन जिसके नेताओं में से सत्तर प्रतिशत से अधिक ऐसे नेता हैं, जिन्होंने पिछले चार वर्षों से कोई सम्मानजनक डिग्री हासिल नहीं की है। इनसे प्रतिक्रियावादी होने का अभिप्राय पूछा जाय तो बहुलांश नहीं जानते होंगे फिर भी....।
किसी भी संगठन का इतिहास देखा जाय तो उसमें प्रतिक्रियावादी तथ्य आरम्भ से निहित नहीं होते हैं। प्रकारान्तर अगर उसमें प्रतिक्रियावादी तत्व घुसपैठ या वर्चस्व कर लें तो उसके लिए संगठन को प्रतिबंधित करने की मांग करना ठीक नहीं है। प्रतिक्रियावादी शब्द भी बड़ा सापेक्ष है। छात्र राजनीति का निरपेक्ष भाव यह होना चाहिए कि प्रतिक्रियावादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए एकजुट हों, आगे आएं और उन्हें पराजित करें। परंतु ऐसा न करके पूरे के पूरे दो छात्र संगठनों से अपना राजनीतिक प्रतिशोध पूरा करने की कोशिश की गयी।
सम्मेलन में 27 सूत्रीय मांगपत्र तैयार किया गया, जिसको लेकर प्रदेश सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ने की बात कही गयी है। यह भी कहा गया है कि वर्तमान प्रदेश सरकार छात्र विरोधी है। यदि यह सब बातें इस सम्मेलन में अनिवार्यतः तय हो गयी हैं और इसके लिए कुछ करने की बात सम्मेलन में आए राजनीतिज्ञों व छात्र संगठनों के दिल में है तो सबसे पहले कांग्रेस आलाकमान प्रदेश सरकार से अपना समर्थन वापस लें। ऐसा दबाव बनाया जाना चाहिए परंतु ऐसा नहीं किया गया। और तो और विदेश राज्यमंत्री ने साफ-साफ कह दिया कि समर्थन तो वापस लिया जा सकता है परंतु अपने आप का समर्थन करने में सालो लग जायेंगे। सलमान खुर्शीद की वेदना यह बता रही है कि इस सम्मेलन में प्रदेश सरकार पर दबाव बनाने के लिए अगर कुछ भी तय किया गया तो वह सब व्यर्थ है। निरर्थक है। यही कारण है कि आरक्षण के खिलाफ सम्मेलन में आए लगभग सभी नेता बोले। परंतु आरक्षण के खिलाफ कोई प्रस्ताव पास नहीं हो पाया।
एक ओर इस छात्र सम्मेलन में मुलायम सिंह यादव सरकार को जमकर कोसा गया। दूसरी ओर सलमान खुर्शीद का समर्थन वापस लेने पर दिया गया तर्क दोनों यह बताते हैं कि इस सम्मेलन में कई नेताओं की भागीदारी कितनी बेमानी थी। किसी छात्र संगठन के लिए यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसका प्रदेश अध्यक्ष कातर भरी दृष्टि से अपने अग्रिम पंक्ति के नेताओं से यह आग्रह कर रहा हो कि मान्यवर अब हमें मुलायम की भ्रष्ट सरकार को और अधिक बर्दाश्त करने के लिए बाध्य न कीजिए।
उत्तराखण्ड में आरक्षण के सवाल पर हो रहे आंदोलनों से पूर्व नारायण दत्त तिवारी का दिल पसीज गया। क्योंकि उत्तराखण्ड से उनका क्षेत्रीय नाता है। उन्होंने भी मुलायम को कोसा। परंतु उन्हें सोचना चाहिए था कि इससे पूर्व कि मुलायम सिंह सरकार को बचाने के पीछे उन्हीं के तर्क थे, जिन्होंने राजीव गांधी को समर्थन देते रहने की राय दी थी। उनका राजनीतिक पांडित्य चाहें जो कुछ कहता हो परंतु यह कांग्रेस के लिए पिछले दशक का सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय था।
हमें आज नौजवानों को आरक्षण गुमराह करने का झुनझुना लगता है। परंतु जब उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद आरक्षण का श्रेय लेने की होड़ में कांग्रेसी धावक विजयी हो रहे थे, तब उनका बोध कहां था? इतना ही नहीं लगभग सात मास के सोच विचार के बाद के न्द्र सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण की बात स्वीकार किया। तब आरक्षण गुमराह करने वाला झुनझुना नहीं था।
महावीर प्रसाद सरीखे तटस्थ राजनीतिज्ञ सलमान खुर्शीद व नारायण दत्त जैसे राजनीतिज्ञ भी जब छात्रों का आह्वान करते हैं तो यह सीधे-सीधे छात्र अस्मिता के साथ एक क्रूर मजाक दिखता है और /या छात्रों का निहितार्थ प्रयोग के लिए आमंत्रण।
जहां सभी छात्रों को अभी शिक्षा प्रदान करने के सवाल पर बहस चल रही हो। आरक्षण की ओट लेकर 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित करके कुछ विशेष वर्ग के लोगों को पढ़ने से रोकने की मुहिम जारी हो, वहां रोजगार के मौलिक अधिकार की मांग, जहां परिसर में वर्ग भेद और जातीय ताकतें सर उठा रही हों और इसके पीछे जो लोग हैं, उन्हें सदन में संरक्षण और समर्थन देने की विवशता हो, फिर भी उसी विवश राजनीतिक दल के लोग अपनी मुट्ठियां भींचकर हवा में घूसे बरसाएं तो उसे क्या कहा जाएगा?
छात्र समस्या के रूप में कई विश्वविद्यालयों के कई-कई वर्ष से विलम्बित शैक्षणिक सत्र प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा राज्य सेवाओं का वार्षिक रूप से न कराया जाना छात्र संगठनों में गैर छात्रों की घुसपैठ सरस्वती के पावन मंदिर में जहां वीणा की झनकार सुनायी देनी चाहिए वहां शस्त्रों की चीत्कार सुनायी देना पड़ना युवा दिशाहीनता, शिक्षा के पाठ्यक्रमों, नीति निर्धारण में युवाओं की भागीदारी न होना जैसे विषय आज छात्र समस्या के रूप में हमारे सामने हैं। परंतु यह सब कुछ अछूता रह गया। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि छात्र राजनीति में छात्रों की भागीदारी नगण्य है। जो छात्र हैं भी वह महज औपचारिकता पूरी करने के लिए।
जिस देश के युवाओं के सामने श्यामपट जैसा भविष्य हो, जहां की शिक्षा में यह निहित हो कि जितना पढ़ो, उतना समाज के लिए अनुपयोगी हो जाओ। जहां शिक्षा एवं संस्कृति जैसे विषयों तथा भोर का पहाड़ा पढ़ाने का दायित्व उनका है, जो सूर्य उगने तक संस्कृृति के बिस्तर पर बेड टी की आशा में पड़े रहते हैं। वहां छात्र सम्मेलन, छात्र राजनीति अस्त्र-शस्त्र के सिवाय कुछ भी नहीं। यही तो कहा राछासं के प्रदेश अध्यक्ष ने कातर भाव से। और यही किया प्रदेश के बड़े-बड़े नेताओं ने मुलायम सिंह को कोस करके इस औपचारिकता पर विराम लगना चाहिए अन्यथा छात्र राजनीति के भटकाव का अभिशाप जीने के लिए विवश रहना पड़ेगा।