देश की आजादी के बाद से ही प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए वोट देने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। इसके साथ मजहबी उन्माद, जातीय खेमेबाजी और क्षेत्रीय सवाल खड़े किये गये। जद के संगठन से पहले तक भारत का अल्पसंख्यक समुदाय कांग्रेस के वोट बैंक के रूप में माना जाता था। वीपी सिंह सरकार के समय मंदिर मुद्दे के कारण भारतीय राजनीति में जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना इमाम बुखारी की खासी पकड़ बढ़ी। बड़े-बड़े नेता उनके सामने अपनी फरियाद लेकर गये। इमाम के राजनीति में प्रवेश का प्रभाव यह हुआ कि मुस्लिम तुष्टिकरण के विपरीत उग्र हिन्दूवाद का धु्रवीकरण बढ़ने लगा। इमाम के हस्तक्षेप से यह बात बहुसंख्यक लोगों के मन में पैठने लगी कि अल्पसंख्यकों की राजनीति मतदान के पहले पड़ने वाले जुम्मे को मस्जिद में तय होती है। यानी राजनीति का के न्द्र अल्पसंख्यकों ने मस्जिदों को बना रखा है।
यह बात इसलिए बलवती हुई क्योंकि पिछले एक दशक में किसी भी मुस्लिम नेता ने बेरोजगारी, गरीबी, बीमारी जैसी समस्या को नहीं उठाया। राजनीतिक पार्टियों में कठमुल्लाओं, मुस्लिम नेताओं का तुष्टिकरण किया। आम मुसलमानों का नहीं। आम मुसलमान को हमेशा चहारदीवारी में कैद रखा गया। कभी संरक्षण से और कभी आरोप से कठमुल्लाओं का राजनीतिक पार्टियों ने तुष्टिकरण किया। वे लोग जो मुस्लिम समाज को तथाकथित नेतृत्व देने का दंभ भरते हैं वो लोग आम लोगों के बीच से विकसित न होकर थोपे गये होते हैं। इन्हीं लोगों के कारण मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ हिन्दू फासिस्ट शक्तियों का धु्रवीकरण हुआ। इन्हीं लोगों ने समान सिविल कोर्ट का विरोध किया। परिणामतः मुसलमानों ने मुस्लिम पर्सनल लाॅ का समर्थन किया। वैसे भी पर्सनल लाॅ का कोई भी औचित्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि हम लोग जिस समय में जी रहे हैं, उसमें हमारे साथ-साथ और पास-पास रहने के कारण सबकी समस्याएं एक जैसी हैं। हमें एक जैसी समस्या से निजात चाहिए। संरक्षण या आरोप देकर आपसी बंटवारा विभाजन नहीं। जब दोनों की समस्याएं एक हैं तो दोनों को एक जैसा नेतृत्व मिलना चाहिए।
मुसलमानों को यह नहीं समझना चाहिए कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ उनके पास एक ढाल है, जिसे छोड़ना उचित नहीं है। यह तब तक नहीं हो सकता। जब तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय किसी हिन्दू कुलपति की और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय किसी मुस्लिम कुलपति को नहीं स्वीकार करेगा, जब तक वक्फ बोर्ड जैसे विषय किसी सम्प्रदाय के अधीन होंगे।
मुसलमानों को ऐसे नेताओं से बचना होगा जो सस्ते नारे और जज्बाती भाषण देकर लोगों को हांकते हैं। मुसलमानों को वहां ले जाकर खड़ा कर देते हैं, जहां हिन्दू फासिस्ट शक्तियां उनका शिकार करती हैं। किन्तु आम मुस्लिम नेतृत्व यही चाहता है कि इसी का लाभ उठाकर कभी मसूद के सामने शाकिर को खड़ा करने की चाल चलता है और कभी बुखारी के कहने पर रास में दो सांसद बना दिये जाते हंै।
लोग कहते हैं कि हमारे देश में साम्प्रदायिकता बहुत है। राजनेता साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़े होने के लिए युवा शक्ति का आह्वान भी करते हैं। परंतु मैं समझता हूं कि हमारे देश में साम्प्रदायिकता उतनी नहीं है, जितना कहा जाता है। यही कारण है कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने का आह्वान करने वाले लोग ही हर बार दंगे के जिम्मेदार ठहराये जाते हैं। चाहें वह मेरठ का दंगा हो या मलियाना का। अतः मुसलमानों को आम व्यक्तियों में से आम समस्याओं पर बोलने और लड़ने वाला नेतृत्व तलाशना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आम मुसलमानों की स्थिति अलबर्ट कामो की उस कहानी के स्वामी सरीखा हो जाएगी जिसमें एक स्वामी अपनी स्थितियों से ऊबकर कहीं और जा रहा है। और अपने सेवक से कहता है कि मैं यहां से जा रहा हूं। सेवक पूछता है कि मालिक आप लेकिन जा कहां रहे हैं? इसके जवाब में मालिक कहता है तुम क्या यह बात नहीं समझ सकते कि मैं यहां से जा रहा हूं और यही वह जगह है जहां मैं जा रहा हूं।
यह बात इसलिए बलवती हुई क्योंकि पिछले एक दशक में किसी भी मुस्लिम नेता ने बेरोजगारी, गरीबी, बीमारी जैसी समस्या को नहीं उठाया। राजनीतिक पार्टियों में कठमुल्लाओं, मुस्लिम नेताओं का तुष्टिकरण किया। आम मुसलमानों का नहीं। आम मुसलमान को हमेशा चहारदीवारी में कैद रखा गया। कभी संरक्षण से और कभी आरोप से कठमुल्लाओं का राजनीतिक पार्टियों ने तुष्टिकरण किया। वे लोग जो मुस्लिम समाज को तथाकथित नेतृत्व देने का दंभ भरते हैं वो लोग आम लोगों के बीच से विकसित न होकर थोपे गये होते हैं। इन्हीं लोगों के कारण मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ हिन्दू फासिस्ट शक्तियों का धु्रवीकरण हुआ। इन्हीं लोगों ने समान सिविल कोर्ट का विरोध किया। परिणामतः मुसलमानों ने मुस्लिम पर्सनल लाॅ का समर्थन किया। वैसे भी पर्सनल लाॅ का कोई भी औचित्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि हम लोग जिस समय में जी रहे हैं, उसमें हमारे साथ-साथ और पास-पास रहने के कारण सबकी समस्याएं एक जैसी हैं। हमें एक जैसी समस्या से निजात चाहिए। संरक्षण या आरोप देकर आपसी बंटवारा विभाजन नहीं। जब दोनों की समस्याएं एक हैं तो दोनों को एक जैसा नेतृत्व मिलना चाहिए।
मुसलमानों को यह नहीं समझना चाहिए कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ उनके पास एक ढाल है, जिसे छोड़ना उचित नहीं है। यह तब तक नहीं हो सकता। जब तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय किसी हिन्दू कुलपति की और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय किसी मुस्लिम कुलपति को नहीं स्वीकार करेगा, जब तक वक्फ बोर्ड जैसे विषय किसी सम्प्रदाय के अधीन होंगे।
मुसलमानों को ऐसे नेताओं से बचना होगा जो सस्ते नारे और जज्बाती भाषण देकर लोगों को हांकते हैं। मुसलमानों को वहां ले जाकर खड़ा कर देते हैं, जहां हिन्दू फासिस्ट शक्तियां उनका शिकार करती हैं। किन्तु आम मुस्लिम नेतृत्व यही चाहता है कि इसी का लाभ उठाकर कभी मसूद के सामने शाकिर को खड़ा करने की चाल चलता है और कभी बुखारी के कहने पर रास में दो सांसद बना दिये जाते हंै।
लोग कहते हैं कि हमारे देश में साम्प्रदायिकता बहुत है। राजनेता साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़े होने के लिए युवा शक्ति का आह्वान भी करते हैं। परंतु मैं समझता हूं कि हमारे देश में साम्प्रदायिकता उतनी नहीं है, जितना कहा जाता है। यही कारण है कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने का आह्वान करने वाले लोग ही हर बार दंगे के जिम्मेदार ठहराये जाते हैं। चाहें वह मेरठ का दंगा हो या मलियाना का। अतः मुसलमानों को आम व्यक्तियों में से आम समस्याओं पर बोलने और लड़ने वाला नेतृत्व तलाशना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आम मुसलमानों की स्थिति अलबर्ट कामो की उस कहानी के स्वामी सरीखा हो जाएगी जिसमें एक स्वामी अपनी स्थितियों से ऊबकर कहीं और जा रहा है। और अपने सेवक से कहता है कि मैं यहां से जा रहा हूं। सेवक पूछता है कि मालिक आप लेकिन जा कहां रहे हैं? इसके जवाब में मालिक कहता है तुम क्या यह बात नहीं समझ सकते कि मैं यहां से जा रहा हूं और यही वह जगह है जहां मैं जा रहा हूं।