लखनऊ से प्रकाशित 1932 के ‘सुधा’ मासिक में समाहित ‘नवीन काव्य’ शीर्षक अपनी टिप्पणी में निराला जी ने ऐसा वाक्य लिखा, जिसके पीछे उनका निजी काव्य चिंतन निहित था।
काव्य प्राणों की सृष्टि है। सीधे प्राणों पर उसका असर पड़ता है। प्राणों से सीमा बंधनों को छोड़कर बीज के अंकुर से फूटकर बाहर से विस्तार को अपनी छाया द्वारा समाहित कर रहा है। खड़ी बोली का काव्य अब उसके भविष्य की सुखद शीतलता वर्तमान के प्रसार को देखकर समझ में आ जाती है। कविता वृक्ष के रूपक में मैने इस बात को रेखांकित किया है, जो स्वतंत्र विस्तार चाहता है पर खड़ी बोली की कविता में कहीं-कहीं छोड़कर कल्पना और भावों को परिपक्वता नहीं आयी। यही कारण है कि खड़ी बोली के काव्य को बाहरी सुविधाएं न मिलने के कारण भीतरी बड़ी-बड़ी अंतःप्रेरणाएं नहीं मिलीं। यदि किसी तरह कोई प्राप्त भी करता है तो दूसरों के अज्ञान के प्रतिघातों से वह निरस्त हो जाता है। फिर ऊंची सृष्टि का हौसला जाता रहा है। निराला जी ने यह बात निजी संदर्भ में विशेषकर कही है। क्योंकि हिन्दी के क्षेत्र में होने पर वे बंगला भाषा की विश्व चेतना से परिचित थे। रवीन्द्र की पाश्चात्य देश में मान्यता उन्हें प्रभावित कर रही थी। वे स्वयं को इस विषम स्थिति से उबारने का मार्ग खोज रहे थे।
दलबंदीः निराला की दलबंदी को हीन दृष्टि से देखते थे। उनका कहना है-हिंदी की अभी यह प्राथमिक दशा है। इस अज्ञान के कर्मकाण्ड में ज्ञान कांड पीछे पड़ जाता है। विजय दलबंदी की होती है। दल बांध कर रहना जानवरों का स्वभाव है। मनुष्यों में भी विकासवाद के अनुसार जानवरों के स्वभाव मौजूद रहते हैं, जो समय पाकर तत्काल विकसित हों, मनुष्य को पशु बना डालते हैं। सच्चा साहित्य इससे दूर, काव्य बहुत ही दूर है। आज दलबंदी प्रगतिशीलता का पर्याय बन गयी है।
काव्य और आलोचक: निराला जी ने अपने समय के आलोचकों की ना समझी पर कठोरतम व्यंग्य किये हैं। कहीं उन्होंने अपने पत्रों में आचार्य जानकी बल्लभ को लिखा था-हिंदी के आलोचक परले सिरे के उजबक हैं।
काव्य की बारीकियां समझने के लिए कवि से अधिक समर्थ होना चाहिए। ऐसा हमारे साहित्य में नहीं। पुरानी लीकें पीटना भी पशु स्वभाव में दाखिल है। मनुष्य वह है जो वृहत्तर विषय को देखकर अपना स्वभाव बदल दे। आध्यात्मिक स्तर पर भी स्वभाव को सर्वोपरि माना गया है। ‘स्वभावो, मूर्धिनि वर्तते।’
‘अपने लिए हमें उतनी चिंता नहीं, जितनी साहित्यकों के मस्तिष्क की दुर्दशा के लिए।’ उक्त नवीन काव्य शीर्षक में निराला जी ने अपने को द्वितीय पुरूष मानकर लिखा है।
आज निराला जी को न समझकर भी लोग समझते हैं, तब किसी तरह नहीं समझते थे। तब ‘मतवाला’ भी नहीं निकला था। ऐसे ही और भी अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएं प्रसिद्धि पत्रों से वापस आ जाती थीं। निराला जी की ‘अधिवास’ कविता ‘सरस्वती’ से वापस आयी। (माधुरी के पहले साल की बात है)। हमने उसे मुखपृष्ठ पर निकाला और भी अनेक रचनाएं हमने उसी वर्ष निकालीं जिनमें ‘तुम और मैं’ हमें बहुत पसंद आयी थी।
संसार को ज्ञान धारा के साथ प्रत्येक साहित्य और साहित्यकों का सम्बन्ध है। हम अनुवादक होकर दूसरों के ज्ञान का सहारा भला लेते रहे, पर जब तक हम अपने साहित्य के भीतर संसार की भावनाओं के मुकाबले अपने साहित्यिक विचार नहीं रखेंगे। हमारे साहित्य की कद्र न होगी। इसी भावना और विचारों की किरण हमारे काव्य के आकाश में निकली है। (नई कविता) ये 1932 के ‘सुधा’ के सम्पादकीय का असंकलित अंश।’
निराला जी ने ‘धोखा’ शब्द को कई जगह प्रयुक्त किया है। जैसे ‘अपने ही छिद्रों को भरने की कोशिश कर रहे हैं और लोगों को धोखा दे रहे हैं।’ फिर उन्होंने लिखा ‘पर धोखा सब विषयों में चलता है। चरित्र पर भी चल रहा है।’
‘जन चरित्र को अजन्मा-चरित्र बनाकर चरित्र लेखक यह नहीं समझते कि वे चरित्र के सम्बन्ध में स्वप्न देख रहे हैं। जिसे अयोनि कहा है, बिल्कुल अक्लेय वही हो सकता है, जो किसी योनि में है। वह कितनी ही विशद और पवित्र योनि में क्यों न हो, वह अजन्मा की तरह निर्मल नहीं हो सकता। ईश्वर ने पेट में डालने और निकालने की राहें तैयार कर चरित्र के सम्बन्ध में ऊंची आवाज निकालने वाली जुबान ही रोक दी है।’ इसी जगह उन्होंने चरित्र में धोखे की बात कही है।
‘व्यास से बड़ा शायद ही कोई कवि संसार में दूसरा हुआ है। वह अपने व्यास अर्थ की तरह महान है। उन्हें हम लोग अवतार मानते हैं पर वो हैं योजन-गंधा के लड़के जो एक मल्लाह के यहां पाली गयी। जिसके पिता हैं पाराशर मुनि और पीछे वही उसके भोग करने वाले अर्थात् पिता-पुत्री के सहयोग से व्यास जी उत्पन्न हुए।’
भारतीय पुराण ने सरस्वती को इसी तरह के सम्बन्ध से सम्बद्ध किया है। आदि पिता और आदि पुत्री का सम्बन्ध अनिवार्य रहा होगा। ब्रम्हा के द्वारा सरस्वती को पत्नी के रूप में ग्रहण करना इसी तरह की पौराणिक कल्पना है। शैव परम्परा में शिव और पार्वती परस्पर बहन माने गये हैं। वहां भी आदि पुरूष और आदि नारी का सम्बन्ध परिभाषेय रहा होगा। ‘कामायनी’ में मनु को यज्ञात्र से उत्पन्न श्रद्धा भी इसी तरह की स्थिति उत्पन्न करती है। इड़ा तो सरस्वती का ही पर्याय है और सारस्वत प्रदेश ही उसका साम्राज्य है। मनु का इड़ा पर अधिकार करना पिता द्वारा पुत्री को सहधर्मिणी बनाने जैसा है। निराला जी ने पिता-पुत्री के सहयोग से व्यास की उत्पत्ति पर व्यंग्य करते हुए हिन्दी कविता की एक ब्रजभाषा की उक्ति उल्लिखित है-
लाज की बात मैं कासे कहौं सखि,
कन्त के कन्त, पिता के पिता।
‘इसमें ऋषि - चरित्र है। साधारण मनुष्य चरित्र नहीं। सीता जी के सामने भारतीय सभी पतिव्रता म्लान हैं।’
वाल्मीकि ने सीता के द्वारा जो मर्म वचन कहलाया है उसे तुलसीदास प्रत्यक्ष नहीं कह सके । जब लक्ष्मण राम के पास जाने को तैयार नहीं हुए तो निराला जी ने लिखा-
‘तू मुझे रखना चाहता है इसीलिए नहीं जा रहा है।’ वाल्मीकि की पंक्ति है-
‘ममहेतो प्रतिच्छन्न प्रयुक्तो भरतेन वा।’
तू मेरी ओर आकृष्ट है, या तुझे भरत ने भी साथ भेजा है जिससे राम के न रहने की सूचना उन्हें मिल जाये। चरित्र का श्याम श्वेत रूप स्वाभाविक है। वह आदर्श को मानते हुए भी यथार्थ की उपेक्षा नहीं करता।
वाल्मीकि रामायण में राम के द्वारा अत्यन्त कठोर शब्द कहलाये गये हैं जिन्हें तुलसी ने ‘कहे कछुक दुर्वाद’ कहकर छोड़ दिया है पर वाल्मीकि द्वारा बहुत विस्तार से उसे प्रयुक्त कराया गया है। निराला जी ने निष्कर्ष के रूप में कवि और चित्रकार में अभेद मानते हुए लिखा-
‘चित्रकार ने इतने बड़े नारी चरित्र पर इतना ही मानसिक पतन दिखाया हे, पर दिखाना हे, नहीं तो चरित्र पूरा न होता’
यहां भी निराला जी ने लिखा-
‘लेखकों ने जनता को ‘धोखा’ नहीं दिया। जीवन के उत्थान और पतन का सच्चा रहस्या समझा दिया है जो उत्थान और पतन से रहित है वह पूर्ण है। वह जीव कोटि में नहीं आ सकता। उत्थान और पतन के भीतर से वही आदर्श है। जब मनुष्य-मनुष्य को आदर्श समझकर पकड़ता है तब भूलता है। आदर्श अजन्मा है। सब तरह की शुद्धि उसी से निकलती है और पतन मनुष्य का सांसारिक भोग रूप है। इस संदर्भ में भारतीय साहित्य का आंकलन करते हुए निराला जी ने लिखा-‘भारतीय साहित्य ऐसे विपरीत भावों से भरा है।’ मानस में लिखा है-‘एक भरत कर सम्मत कहहीं। एक उदास भाव सुनि रहहीं।’ भरत जैसे आदर्श चरित्र के विषय में भी तुलसी ने जनमत को उपेक्षित नहीं किया। रजक-लप्रसंग भी ऐसा ही है।’
भारतीय दर्शन ने ईश्वर और ब्रम्ह में अंतर माना है। ईश्वर सर्व शक्तिमान है किन्तु ब्रम्ह निष्क्रिय होकर के वल विराटता का द्योतक है। बल्लभाचार्य जी ने उसे विरूद्ध धर्माश्रम निरूपित किया है। अर्थात् परस्पर विरोधी तत्व जिसमें एकात्म हो जाये वही ब्रम्ह है। निराला जी इस तत्व को भली-भांति जानते थे इसलिए उन्होंने मानव चरित्र के विषय में आदर्श और यथार्थ की भूमिका प्रस्तुत की है। उनका कथा-साहित्य इसका प्रमाण है जिसमें उपन्यास भी है और कहानियां भी हैं।
‘मनुष्य का लक्ष्य पतन कभी नहीं रहा लिखा है, मन की स्वाभाविक ऊध्र्वगति है।’ सामान्यतया मैं भी मानता हूं कि दीपशिखा की भांति मनुष्य का स्वभाव ऊध्र्वगामी है, किन्तु मैथिलीशरण गुप्त का कथन भी उपेक्षणीय नहीं। उन्होंने ‘साके त’ में लिखा है। ‘ऊपर नीचे सर्वत्र तुल्य गति मन की’ दो महाकवियों की जीवन दृष्टि का यह अन्तर मुझे रोचक लगा। शरतचन्द्र ने अपने वृहद् उपन्यास का नाम ‘चरित्रहीन’ रखा, किन्तु उनका आशय कुछ भिन्न ही था। इन्द्रिय ज्ञान का सहारा लेना चरित्रहीन होना है। ऐसा मानना चरित्र के प्रति भिन्न दृष्टि अपनाना है। निराला जी ने इस पर व्यंग्य करते हुए लिखा-
‘महाशय यदि चरित्र का ढोल पीटते चलें, तो क्या यह समझने वाले नहीं हैं कि उन्हीं के गले में कितने पोल हैं। हमारा मतलब चरित्र का तात्विक चित्रण करना है। असच्चरित्रता का प्रचार नहीं। जनसमूह की रूचि का एक उत्तरदायित्व है हमारे पास। हम बगुले भक्तों की तरह इंगित कर रहे हैं कि आपके शास्त्र भी कुछ कहते हैं। जनचरित्र से जन समूह फिर जन रूच तक की यात्रा है जनवाद। यानी जनता की दृष्टि से जीवन का देखना।
‘रचना रूप’ नामक 1933 में लिखे गये ‘सुधा’ के सम्पादकीय में निराला जी ने रचना रूप शीर्षक से कुछ मार्मिक बातें कहीं हैं-
‘सृष्टि का अर्थ नवीनता है जहां यह पृष्ट-प्रेषण में बदला कि सारी मौलिकता का नाश समझिए। मौलिक के नाश का अर्थ है मस्तिष्क का नाश और मस्तिष्क का नाम पराधीनता मस्तिष्क का दूसरों के वश में होना।’
निराला जी ने प्रायः नवीनता और मौलिकता का परस्पर सम्बद्ध माना है जिसके अनेक प्रमाण हैं। यह कहना कठिन है कि वे नवीनता को अधिक महत्व देते थे या मौलिकता को। वस्तुतः उनकी दृष्टि में दोनों अन्योन्याश्रित हैं। ‘उर्वरता’ भी एक शब्द है जो पृथ्वी के उर्वर होने का द्योतक है। समाज की नयी कल्पना जिस आधार पर होती है वह रचनाभाव कहलता है। उनका कहना है-
‘प्रकृति इतिहास द्वारा इन कर्मों का साक्ष्य देती है। जब रचना-भाव की तरह पहुंचती है। तभी वह आत्मा, प्राण तथा अवयवों से सजीव होकर साहित्य में जीवन संचार करता है। हमारे साहित्य को सभी दिशाएं पतित भूमि की तरह अनुर्वर हैं।’
‘रचना सौष्ठव’ नामक ऐसी ही अन्य सम्पादकीय में उन्होंने भले-बुरे दोनों प्रकार की दृश्यों की महत्ता प्रतिपादित की है। उदाहरणार्थ द्रष्टव्य है-
‘रचयिता को दोनों की रचना में एक सी ही शक्ति लगानी पड़ती है।... एक ही आत्म समुद्र के दोनों अमृत और विष की तरह मिले हुए हैं। तब उस विष की परिव्यक्त सघन नीलिमा भी नभ की श्याम-शोभा बनती है। भले चित्र के भीतरी वर्णन का निकटतर सम्बन्ध आत्मा से ही होगा, यह लिखना दिरूक्ति है।’
निष्कर्ष रूप में वे लिखते हैं कि रचना क्रम में चिन्तन द्वारा मौलिक उत्पत्ति और रचना-शक्ति का विकास स्वतः हो जाता है-
‘यही कला के मिश्रण का स्थल है। यह मिश्रण प्रति चरित्र में भी रहता है।... यह प्राकृतिक संघर्ष हर चित्रण में जीवन और मृत्यु की तरह रहता है। इसके परिपाक कला का उत्कर्ष साधन है।... सच्चा कलाविद् ही इस मौके की पहचान रखता है।... कारण पैदा करने वाला कलाकार ही है। वह एक प्रवाह की गति करने के लिए कारण पैदा करता है ओर गति विपर्यय ही बढ़ने का कारण है उनका टेढ़ापन कलापूर्ण प्रगति।’
यहां निराला जी ने गंगा जैसी बड़ी नदी का उदाहरण लिया है जिसमें अनेक नदी नाले और उपनदियां मिलती रहती हैं और सर्वत्र वह वक्र गति से बढ़ती हुई समुद्र में समाप्त होती है।
‘रचना कल्याणकारिणी होनी चाहिए। फूलों की अनेक सुगंधों की तरह कल्याण के रूप में भी हैं। समष्टि की एक मांग होती है। वह समूह की मांग से बड़ी है।’
यहां निराला जी ने नवीनता को अभिव्यक्ति के सामाजिक संदर्भ से जोड़ दिया है। साहित्य ऐसे स्थल पर यदि गरीबों को वर्ण विचार छोड़कर खिलाता है तो यह नयी सूझ है। साहित्य को नयी शक्ति मिलती है। समाज में एक नवीनता आती है। निराला जी ऐसे कार्य को सुकृत्य मानते हैं और उसे नयी बात समझते हैं। ‘हम पक्ष में भी हैं वैपक्ष्य में भी। जहां तक हमें औचित्य देख पड़ेगा, हम पक्ष में हैं, जहां तक हमें उस औचित्य को ले जाना होगा। यहां यदि विपक्षता है तो वैपक्ष्य में।’
साहित्य का एक सिद्धान्त ‘औचित्य सिद्धांत’ भी है। कदाचित निराला जी उसमें विशेष समर्थक नहीं क्योंकि वे मनस्तत्व पर बल देते हैं जो नये युग की मानसिकता का सूचक है। अंत में वे स्थित प्रज्ञ तक पहुंच जाते हैं और भारतीय रचनाकार को मुक्ति की दिशा में पहुंचा देते हैं। लेखकों का धर्म, सम्प्रदाय, जाति और रूढ़ियों के बन्धनों में बंधा रह जाना उन्हें अभीष्ट नहीं। (निराला रचनावली के खंड 5 पर आधारित)।
निराला के स्वगत-
कवि स्वाभावतः अपने अंतरंग जीवन में विशेष संवेदनशील एवं सक्रिय रहता है, पर निराला इस विशेष से भी कुछ अधिक विशेष थे। वे रचना के क्षणों में ही आत्मके न्द्रित नहीं होते थे। इतर समय में भी बहुधा वैसे ही अंतर्लीन दिखायी देते थे। अपने अंतिम दिनों में वे और भी अधिक आत्ममुखर हो गये थे जिस वातावरण में थे, उसमें उनके स्वर प्रायः गूंजते रहते थे। दारागंज की गलियों ने उन्हें सुना है, कमलाशंकर के घर की दीवारों, दीवारों के कान उनसे अच्छी तरह परिचित रहे हैं। आते-जाते भी उनकी गूंज और अनुगूंज का अनुभव कर लेता।
निराला का यह स्वगत संभाषणक्रम अेके ले में तो प्रायः चलता ही रहता था, पर लोगों की उपस्थिति में वे अपने से कहते रहते थे, वह सर्वथा निरर्थक या पागल का प्रलाप मात्र हो-यह कहना मेरे लिए संभव नहीं है, क्योंकि मैंने कई बार उनके स्वगतों में गहरी किन्तु अस्फुट अर्थपूर्णता का अनुभव किया है।
उन्हें शब्द कभी उबलते हुए पानी की तरह, कभी बहती हुई तेज धार की तरह और कभी ज्वालामुखी से रिसते हुए लावे की तरह प्रतीत होते थे। संगति-असंगति का विचार करके उन्हें उच्चारित किया जाता हो, ऐसा नहीं लगता था। कोई व्यवस्था कोई उक्रम भी उनमें नहीं झलकता था, पर वे सर्वथा असंगत या निरर्थक भी नहीं जान पड़ते थे, क्योंकि एक उन्मेष, एक प्रखरता, एक आत्मबोध की प्रवृत्ति और कभी-कभी जिसे कविता में भी नहीं कहा जा सकता, उसे कह जाने की उत्कृष्ट इच्छा उसमें झलकती थी। किसी अवांछित स्थिति की प्रतिक्रिया, किसी पूर्व प्रसंग का संदर्भ किसी क्षति की पूर्ति का प्रयास, अहंभाव पर ठेस देने वाले अनुभव के विरूद्ध रह-रह कर जागरूक होने वाला स्वाभिमान अपने को छिपाने या कुछ अन्य बताने की चेष्टा, मन के भीतरी साक्ष्य में बाधक बाहरी व्यक्ति या स्थिति के प्रति तीव्र उपेक्षा भाव, आशंका या कल्पित भय और कुछ जीवन व्यापी विसंगतियों, जटिलताओं तािा असहनीय वेदनाओं की मिली-जुली अभिव्यक्ति भी उनमें रहती थी। उच्चारण मंे मुक्त छंद का सा प्रवाह और चिंतनशीलता की मुद्रा, फड़के हुए होंठ, अधखुली आंखें, उलझे हुए के श या कभी घुंटी हुई चांद, माथे पर पड़ती त्योरियां, ऊंची-नीची होती हुई भौंहें, लहराता हुआ अधोवस्त्र-यह सब भी उनके स्वागतों के साथ लगा रहा है, जिसे भूल पाना मेरे लिए संभव नहीं है।
जिन दिनों मैं ‘मोती महल’ में रहता था और उनके यहां प्रायः आता-जाता था मैंने कई बार सोचा कि उनके स्वागतों को लिखता चलूं, पर उनका स्मरण रख पाना और घर आकर तद्वत लिख लेना दैनदिन व्यापारों में कहां संभव हो पाता है फिर भी दो एक बार के प्रयास का फल यहां प्रस्तुत कर रहा हूं निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व में रूचि रखने वालोां को उनके यह स्वगत पर्याप्त रूचिकर लगेंगे और जिनहोंने उन्हें सुना होगा उनको परिचित भी प्रतीत होंगे। निराला के साथ साथ कागज कलम लेकर चलने और उनके कहे अधकहे को नोट करते जाने की चेष्टा मैंने कभी नहीं की, क्योंकि उसमें अपनी खैरियत मनाने की भी स्थिति आ सकती थी। कमला भाई ने भी कुछ नोट किया या शिवगोपाल आदि उनके पास अधिक बैठने वालों में से किसी ने कुछ टांका यह भी मुझे ज्ञात नहीं है।
जो पंक्तियां नीचे उद्धत कर रहा हूं वे मेरी कविता की उस कापी में लिखी गयी है, जिसे मैंने 1949-50 तक इस्तेमाल किया। तारीख 17-7 दी हुई है। आगे के पृष्ठों पर कई जगह तारीख के साथ सन् 49 भी लिख है। अतः मैं अनुमान लगाता हूं कि यह पहला स्वगत मैंने 19-7-49 को नोट किया होगा और दूसरा उसी के कुछ दिनों बाद। उसमें तिथि अंकित नहीं है, परन्तु क्रम से वह परवर्ती ही सिद्ध होता है। संभव हे, दोनों स्वगत कुछ बाद के हों, क्योंकि उनके साथ कोई वर्ष अंकित न होने से किसी भी तिथि पर आग्रह करना कठिन है।
(1) सभी कुछ पाॅलिटिक्स है-पाॅलिटिक्स मैं भी जानता हूं- हर तरफ आदमी छूटे हुए हें कोई भी राज छिपा नहीं है-
वेद स्वयं प्रमाण हैं, होंगे-वेद के प्रमाण हम हैं, हम।
हिसाब-किताब अलजेबरे में नहीं रखा जाता-अर्थमेटिक में रखा जाता है, पर अर्थमेटिक हाईस्कूल तक रहती है-
आगे अलजेबरा, टिगनामेट्री, अर्थमेटिक में पेमेंट करने वाले अर्थमेटिक ही जानते हैं, बस।
मेरा चेहरा देखते हो-ये सारे निशान गोलियां के निशान हैं-सैकड़ों गोलियां इसके पार जा चुकी हैं, और तुम्हारे माथे पर जो यह निशान है-यह भी गोली का ही होगा-तुम्हारे भी गोली लगी होगी-मगर अब-अब तो गोलियां लगेंगी पर निशान भी नहीं पड़ेगा।
दुनिया गोली-गोली की है-मेरे पास न गोली, न गोला। अपनी तो लेखनी रानी है-जब जी चाहा छेड़ दिया-चलने लगी। गोली-गोलों वाली दुनिया से कुछ मतलब नहीं।
(2) (पूर्व स्थिति निराला जी के एक परिचित उनको अपने यहां निमंत्रित करने गये, क्योंकि उनके यहां भगवती चरण वर्मा आदि कुछ साहित्यिक आ रहे थे। उन्होंने कहा दो तरह से। वह आपके दर्शनों को उत्सुक हैं, आप देशी आम खाइएगा। निराला जी ने उनकी बात सुनकर बोले, बोलते गये...।
आम हर किस्म का मेरे पास ही रहता है, खास की बात कीजिए। वो लोग दर्शन करना चाहते हैं तो यहां भी आ सकते हैं। और आप जानते हैं जहां मैं रहता हूं वहां पहरा रहता है। मैं आपके घर कैसे जा सकता हूं। (फिर छत देखकर बोले)
जर्रे-जर्रे में मेरे लिए जगह है-क्या आप चाहते हैं कि मैं धर लिया जाऊं-आपके घर भी वैसा ही होगा। वहां जाकर मैं बंध जाऊंगा और मैं बंधकर किसी से बात नहीं करना चाहता। मैं आपकी जगह जाऊंगा, मुझे आपकी सी बात कहनी होगी। मैं क्यों कहूं। एक वक्त था कि मैं आपके यहां जाकर खुलकर बैठता था, चाय पीता था। आप मेरे आत्मीय हैं, पर अब जमाना बदल गया है-आदमी गिर गया है-मुझे किसी भी दायरे में रहना पसंद नहीं। (उन साहब से एक बार फिर बोले)।
मैं पहलवान हूं-बचपन से पहलवानी करता आया हूं। लखनऊ से कलकत्ते के दंगलों में लड़ा हूं। कितने ही को पछड़ा है मैने, पर घर की तरफ से रोक दिया गया और रोक लगी कि चीज गयी।
(पश्चात दशा-बुलाने वाले सज्जन अब तक धैर्य और साहस दोनो खो चुके थे। विनम्र भाव से प्रणाम किया धीरे से खिसक गये।)
निराला जके जटिल मनस्तल के नीचे से उभर कर ऊपर आये इस खनिज पदार्थ में कई वाक्य ऐसे हें, जो हीरे की कनी की तरह चमकदार और मूल्यवान दिखायी देते हैं।
जानकी वल्लभ शास्त्री द्वारा प्रकाशित निराला के पत्रों, डा0 रामविलास शर्मा की लिखी जीवनी तथा ‘आत्महंता आस्था’ और ‘महाप्राण निराला’ जैसे नये पुराने आलोचना ग्रंथों से कवि का जो तेजस्वी दृढ़ और विचित्र व्यक्तित्व सामने आता हे, न के वल उससे संगति प्रतीत होती है, वरन् वे उनके समग्र कृतित्व को सूत्रबद्ध करने की शक्ति रखते हैं। यथा-
मुझे किसी भी दायरे में रहना पसंद नहीं। अपनी तो लेखनी रानी है जब जी चाहा छेड़ दिया, चलने लगी।
गोले-गोलियांे वाले संदर्भ में ‘तुम्हारे माथे पर जो निशान हैं’ कहकर जिसकी ओर उनके द्वारा संके त किया गया है, वह शायद मैं ही हूं, क्योंकि वाकई मेरे माथे पर बायीं ओर छुटपन में लगी चोट का निशान मौजूद है। अतिरिक्त आत्मीयतावश उन्हांेने अपनी बात को मर्मस्पर्शी बनाने में उसे भी इस्तेमाल कर लिया। आज के विषाक्त माहौल मंे जब मैं निहत्थी भीड़ पर लाठी डंडे बरसते और गोलियां चलते देखता हूं और पाता हूं कि फिर भी जनता अनुद्वेलित है, बुद्धिजीवी किंकर्तव्य विमूढ़ हैं तथा राजनीतिक दल एक दूसरे पर दोषारोपण करते नहीं थकते, तो मुझको लगता है कि निराला का कहा सच निकल रहा है-‘गोलियां लगेंगी पर निशान भी नहीं पड़ेगा।’
उन्हें बराबर लगता था कि विद्रोह को कुचलने के लिए सत्ता निरंतर सजग रहती है। निराला की चिंता, यह आशंका व्यक्तिगत सुरक्षा तक सीमित नहीं कही जा सकती। उसमें देश के स्वातंत्रय-संघर्ष की पूरी चेतना विद्यमान है।
मैं उनका यह जीवट पत्र कभी नहीं भूलूंगा, जो उन्होंने बीमारी की हालत में भी मार्फिया का इंजेक्शन देकर जबर्दस्ती अस्पताल ले जाने वालों के विरूद्ध दोनों हाथों से अपना तख्त कसकर पकड़ते हुए दिखाया था। आखिर सबके सब उन्हें खींचतान कर हार ही तो गये थे। उनका वह निर्णय विवेकपूर्ण था या नहीं, मैं इस बहस में नहीं पड़ता। मुझे तो उनकी अदम्य संकल्प शक्ति और असाधारण दृढ़ता एवं संवेदनशीलता भुलाये नहीं भूलती। मृत्यु लड़ाएगी तुझसे जब पंजा वही कवि लिख सकता है जो अपनी पहलवानी को जीवन के अंत तक, यानी देह के शिथिल हो जाने के बाद भी, मानसिक धरातल पर एक निष्ठा के साथ, बड़े से बड़े संदर्भ में सार्थक बनाये रख सका हो। (डा. जगदीश गुप्त/25एसएम-जे/नयी कविता और निराला साहित्य के व्यापक संदर्भ में)
दलबंदीः निराला की दलबंदी को हीन दृष्टि से देखते थे। उनका कहना है-हिंदी की अभी यह प्राथमिक दशा है। इस अज्ञान के कर्मकाण्ड में ज्ञान कांड पीछे पड़ जाता है। विजय दलबंदी की होती है। दल बांध कर रहना जानवरों का स्वभाव है। मनुष्यों में भी विकासवाद के अनुसार जानवरों के स्वभाव मौजूद रहते हैं, जो समय पाकर तत्काल विकसित हों, मनुष्य को पशु बना डालते हैं। सच्चा साहित्य इससे दूर, काव्य बहुत ही दूर है। आज दलबंदी प्रगतिशीलता का पर्याय बन गयी है।
काव्य और आलोचक: निराला जी ने अपने समय के आलोचकों की ना समझी पर कठोरतम व्यंग्य किये हैं। कहीं उन्होंने अपने पत्रों में आचार्य जानकी बल्लभ को लिखा था-हिंदी के आलोचक परले सिरे के उजबक हैं।
काव्य की बारीकियां समझने के लिए कवि से अधिक समर्थ होना चाहिए। ऐसा हमारे साहित्य में नहीं। पुरानी लीकें पीटना भी पशु स्वभाव में दाखिल है। मनुष्य वह है जो वृहत्तर विषय को देखकर अपना स्वभाव बदल दे। आध्यात्मिक स्तर पर भी स्वभाव को सर्वोपरि माना गया है। ‘स्वभावो, मूर्धिनि वर्तते।’
‘अपने लिए हमें उतनी चिंता नहीं, जितनी साहित्यकों के मस्तिष्क की दुर्दशा के लिए।’ उक्त नवीन काव्य शीर्षक में निराला जी ने अपने को द्वितीय पुरूष मानकर लिखा है।
आज निराला जी को न समझकर भी लोग समझते हैं, तब किसी तरह नहीं समझते थे। तब ‘मतवाला’ भी नहीं निकला था। ऐसे ही और भी अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएं प्रसिद्धि पत्रों से वापस आ जाती थीं। निराला जी की ‘अधिवास’ कविता ‘सरस्वती’ से वापस आयी। (माधुरी के पहले साल की बात है)। हमने उसे मुखपृष्ठ पर निकाला और भी अनेक रचनाएं हमने उसी वर्ष निकालीं जिनमें ‘तुम और मैं’ हमें बहुत पसंद आयी थी।
संसार को ज्ञान धारा के साथ प्रत्येक साहित्य और साहित्यकों का सम्बन्ध है। हम अनुवादक होकर दूसरों के ज्ञान का सहारा भला लेते रहे, पर जब तक हम अपने साहित्य के भीतर संसार की भावनाओं के मुकाबले अपने साहित्यिक विचार नहीं रखेंगे। हमारे साहित्य की कद्र न होगी। इसी भावना और विचारों की किरण हमारे काव्य के आकाश में निकली है। (नई कविता) ये 1932 के ‘सुधा’ के सम्पादकीय का असंकलित अंश।’
निराला जी ने ‘धोखा’ शब्द को कई जगह प्रयुक्त किया है। जैसे ‘अपने ही छिद्रों को भरने की कोशिश कर रहे हैं और लोगों को धोखा दे रहे हैं।’ फिर उन्होंने लिखा ‘पर धोखा सब विषयों में चलता है। चरित्र पर भी चल रहा है।’
‘जन चरित्र को अजन्मा-चरित्र बनाकर चरित्र लेखक यह नहीं समझते कि वे चरित्र के सम्बन्ध में स्वप्न देख रहे हैं। जिसे अयोनि कहा है, बिल्कुल अक्लेय वही हो सकता है, जो किसी योनि में है। वह कितनी ही विशद और पवित्र योनि में क्यों न हो, वह अजन्मा की तरह निर्मल नहीं हो सकता। ईश्वर ने पेट में डालने और निकालने की राहें तैयार कर चरित्र के सम्बन्ध में ऊंची आवाज निकालने वाली जुबान ही रोक दी है।’ इसी जगह उन्होंने चरित्र में धोखे की बात कही है।
‘व्यास से बड़ा शायद ही कोई कवि संसार में दूसरा हुआ है। वह अपने व्यास अर्थ की तरह महान है। उन्हें हम लोग अवतार मानते हैं पर वो हैं योजन-गंधा के लड़के जो एक मल्लाह के यहां पाली गयी। जिसके पिता हैं पाराशर मुनि और पीछे वही उसके भोग करने वाले अर्थात् पिता-पुत्री के सहयोग से व्यास जी उत्पन्न हुए।’
भारतीय पुराण ने सरस्वती को इसी तरह के सम्बन्ध से सम्बद्ध किया है। आदि पिता और आदि पुत्री का सम्बन्ध अनिवार्य रहा होगा। ब्रम्हा के द्वारा सरस्वती को पत्नी के रूप में ग्रहण करना इसी तरह की पौराणिक कल्पना है। शैव परम्परा में शिव और पार्वती परस्पर बहन माने गये हैं। वहां भी आदि पुरूष और आदि नारी का सम्बन्ध परिभाषेय रहा होगा। ‘कामायनी’ में मनु को यज्ञात्र से उत्पन्न श्रद्धा भी इसी तरह की स्थिति उत्पन्न करती है। इड़ा तो सरस्वती का ही पर्याय है और सारस्वत प्रदेश ही उसका साम्राज्य है। मनु का इड़ा पर अधिकार करना पिता द्वारा पुत्री को सहधर्मिणी बनाने जैसा है। निराला जी ने पिता-पुत्री के सहयोग से व्यास की उत्पत्ति पर व्यंग्य करते हुए हिन्दी कविता की एक ब्रजभाषा की उक्ति उल्लिखित है-
लाज की बात मैं कासे कहौं सखि,
कन्त के कन्त, पिता के पिता।
‘इसमें ऋषि - चरित्र है। साधारण मनुष्य चरित्र नहीं। सीता जी के सामने भारतीय सभी पतिव्रता म्लान हैं।’
वाल्मीकि ने सीता के द्वारा जो मर्म वचन कहलाया है उसे तुलसीदास प्रत्यक्ष नहीं कह सके । जब लक्ष्मण राम के पास जाने को तैयार नहीं हुए तो निराला जी ने लिखा-
‘तू मुझे रखना चाहता है इसीलिए नहीं जा रहा है।’ वाल्मीकि की पंक्ति है-
‘ममहेतो प्रतिच्छन्न प्रयुक्तो भरतेन वा।’
तू मेरी ओर आकृष्ट है, या तुझे भरत ने भी साथ भेजा है जिससे राम के न रहने की सूचना उन्हें मिल जाये। चरित्र का श्याम श्वेत रूप स्वाभाविक है। वह आदर्श को मानते हुए भी यथार्थ की उपेक्षा नहीं करता।
वाल्मीकि रामायण में राम के द्वारा अत्यन्त कठोर शब्द कहलाये गये हैं जिन्हें तुलसी ने ‘कहे कछुक दुर्वाद’ कहकर छोड़ दिया है पर वाल्मीकि द्वारा बहुत विस्तार से उसे प्रयुक्त कराया गया है। निराला जी ने निष्कर्ष के रूप में कवि और चित्रकार में अभेद मानते हुए लिखा-
‘चित्रकार ने इतने बड़े नारी चरित्र पर इतना ही मानसिक पतन दिखाया हे, पर दिखाना हे, नहीं तो चरित्र पूरा न होता’
यहां भी निराला जी ने लिखा-
‘लेखकों ने जनता को ‘धोखा’ नहीं दिया। जीवन के उत्थान और पतन का सच्चा रहस्या समझा दिया है जो उत्थान और पतन से रहित है वह पूर्ण है। वह जीव कोटि में नहीं आ सकता। उत्थान और पतन के भीतर से वही आदर्श है। जब मनुष्य-मनुष्य को आदर्श समझकर पकड़ता है तब भूलता है। आदर्श अजन्मा है। सब तरह की शुद्धि उसी से निकलती है और पतन मनुष्य का सांसारिक भोग रूप है। इस संदर्भ में भारतीय साहित्य का आंकलन करते हुए निराला जी ने लिखा-‘भारतीय साहित्य ऐसे विपरीत भावों से भरा है।’ मानस में लिखा है-‘एक भरत कर सम्मत कहहीं। एक उदास भाव सुनि रहहीं।’ भरत जैसे आदर्श चरित्र के विषय में भी तुलसी ने जनमत को उपेक्षित नहीं किया। रजक-लप्रसंग भी ऐसा ही है।’
भारतीय दर्शन ने ईश्वर और ब्रम्ह में अंतर माना है। ईश्वर सर्व शक्तिमान है किन्तु ब्रम्ह निष्क्रिय होकर के वल विराटता का द्योतक है। बल्लभाचार्य जी ने उसे विरूद्ध धर्माश्रम निरूपित किया है। अर्थात् परस्पर विरोधी तत्व जिसमें एकात्म हो जाये वही ब्रम्ह है। निराला जी इस तत्व को भली-भांति जानते थे इसलिए उन्होंने मानव चरित्र के विषय में आदर्श और यथार्थ की भूमिका प्रस्तुत की है। उनका कथा-साहित्य इसका प्रमाण है जिसमें उपन्यास भी है और कहानियां भी हैं।
‘मनुष्य का लक्ष्य पतन कभी नहीं रहा लिखा है, मन की स्वाभाविक ऊध्र्वगति है।’ सामान्यतया मैं भी मानता हूं कि दीपशिखा की भांति मनुष्य का स्वभाव ऊध्र्वगामी है, किन्तु मैथिलीशरण गुप्त का कथन भी उपेक्षणीय नहीं। उन्होंने ‘साके त’ में लिखा है। ‘ऊपर नीचे सर्वत्र तुल्य गति मन की’ दो महाकवियों की जीवन दृष्टि का यह अन्तर मुझे रोचक लगा। शरतचन्द्र ने अपने वृहद् उपन्यास का नाम ‘चरित्रहीन’ रखा, किन्तु उनका आशय कुछ भिन्न ही था। इन्द्रिय ज्ञान का सहारा लेना चरित्रहीन होना है। ऐसा मानना चरित्र के प्रति भिन्न दृष्टि अपनाना है। निराला जी ने इस पर व्यंग्य करते हुए लिखा-
‘महाशय यदि चरित्र का ढोल पीटते चलें, तो क्या यह समझने वाले नहीं हैं कि उन्हीं के गले में कितने पोल हैं। हमारा मतलब चरित्र का तात्विक चित्रण करना है। असच्चरित्रता का प्रचार नहीं। जनसमूह की रूचि का एक उत्तरदायित्व है हमारे पास। हम बगुले भक्तों की तरह इंगित कर रहे हैं कि आपके शास्त्र भी कुछ कहते हैं। जनचरित्र से जन समूह फिर जन रूच तक की यात्रा है जनवाद। यानी जनता की दृष्टि से जीवन का देखना।
‘रचना रूप’ नामक 1933 में लिखे गये ‘सुधा’ के सम्पादकीय में निराला जी ने रचना रूप शीर्षक से कुछ मार्मिक बातें कहीं हैं-
‘सृष्टि का अर्थ नवीनता है जहां यह पृष्ट-प्रेषण में बदला कि सारी मौलिकता का नाश समझिए। मौलिक के नाश का अर्थ है मस्तिष्क का नाश और मस्तिष्क का नाम पराधीनता मस्तिष्क का दूसरों के वश में होना।’
निराला जी ने प्रायः नवीनता और मौलिकता का परस्पर सम्बद्ध माना है जिसके अनेक प्रमाण हैं। यह कहना कठिन है कि वे नवीनता को अधिक महत्व देते थे या मौलिकता को। वस्तुतः उनकी दृष्टि में दोनों अन्योन्याश्रित हैं। ‘उर्वरता’ भी एक शब्द है जो पृथ्वी के उर्वर होने का द्योतक है। समाज की नयी कल्पना जिस आधार पर होती है वह रचनाभाव कहलता है। उनका कहना है-
‘प्रकृति इतिहास द्वारा इन कर्मों का साक्ष्य देती है। जब रचना-भाव की तरह पहुंचती है। तभी वह आत्मा, प्राण तथा अवयवों से सजीव होकर साहित्य में जीवन संचार करता है। हमारे साहित्य को सभी दिशाएं पतित भूमि की तरह अनुर्वर हैं।’
‘रचना सौष्ठव’ नामक ऐसी ही अन्य सम्पादकीय में उन्होंने भले-बुरे दोनों प्रकार की दृश्यों की महत्ता प्रतिपादित की है। उदाहरणार्थ द्रष्टव्य है-
‘रचयिता को दोनों की रचना में एक सी ही शक्ति लगानी पड़ती है।... एक ही आत्म समुद्र के दोनों अमृत और विष की तरह मिले हुए हैं। तब उस विष की परिव्यक्त सघन नीलिमा भी नभ की श्याम-शोभा बनती है। भले चित्र के भीतरी वर्णन का निकटतर सम्बन्ध आत्मा से ही होगा, यह लिखना दिरूक्ति है।’
निष्कर्ष रूप में वे लिखते हैं कि रचना क्रम में चिन्तन द्वारा मौलिक उत्पत्ति और रचना-शक्ति का विकास स्वतः हो जाता है-
‘यही कला के मिश्रण का स्थल है। यह मिश्रण प्रति चरित्र में भी रहता है।... यह प्राकृतिक संघर्ष हर चित्रण में जीवन और मृत्यु की तरह रहता है। इसके परिपाक कला का उत्कर्ष साधन है।... सच्चा कलाविद् ही इस मौके की पहचान रखता है।... कारण पैदा करने वाला कलाकार ही है। वह एक प्रवाह की गति करने के लिए कारण पैदा करता है ओर गति विपर्यय ही बढ़ने का कारण है उनका टेढ़ापन कलापूर्ण प्रगति।’
यहां निराला जी ने गंगा जैसी बड़ी नदी का उदाहरण लिया है जिसमें अनेक नदी नाले और उपनदियां मिलती रहती हैं और सर्वत्र वह वक्र गति से बढ़ती हुई समुद्र में समाप्त होती है।
‘रचना कल्याणकारिणी होनी चाहिए। फूलों की अनेक सुगंधों की तरह कल्याण के रूप में भी हैं। समष्टि की एक मांग होती है। वह समूह की मांग से बड़ी है।’
यहां निराला जी ने नवीनता को अभिव्यक्ति के सामाजिक संदर्भ से जोड़ दिया है। साहित्य ऐसे स्थल पर यदि गरीबों को वर्ण विचार छोड़कर खिलाता है तो यह नयी सूझ है। साहित्य को नयी शक्ति मिलती है। समाज में एक नवीनता आती है। निराला जी ऐसे कार्य को सुकृत्य मानते हैं और उसे नयी बात समझते हैं। ‘हम पक्ष में भी हैं वैपक्ष्य में भी। जहां तक हमें औचित्य देख पड़ेगा, हम पक्ष में हैं, जहां तक हमें उस औचित्य को ले जाना होगा। यहां यदि विपक्षता है तो वैपक्ष्य में।’
साहित्य का एक सिद्धान्त ‘औचित्य सिद्धांत’ भी है। कदाचित निराला जी उसमें विशेष समर्थक नहीं क्योंकि वे मनस्तत्व पर बल देते हैं जो नये युग की मानसिकता का सूचक है। अंत में वे स्थित प्रज्ञ तक पहुंच जाते हैं और भारतीय रचनाकार को मुक्ति की दिशा में पहुंचा देते हैं। लेखकों का धर्म, सम्प्रदाय, जाति और रूढ़ियों के बन्धनों में बंधा रह जाना उन्हें अभीष्ट नहीं। (निराला रचनावली के खंड 5 पर आधारित)।
निराला के स्वगत-
कवि स्वाभावतः अपने अंतरंग जीवन में विशेष संवेदनशील एवं सक्रिय रहता है, पर निराला इस विशेष से भी कुछ अधिक विशेष थे। वे रचना के क्षणों में ही आत्मके न्द्रित नहीं होते थे। इतर समय में भी बहुधा वैसे ही अंतर्लीन दिखायी देते थे। अपने अंतिम दिनों में वे और भी अधिक आत्ममुखर हो गये थे जिस वातावरण में थे, उसमें उनके स्वर प्रायः गूंजते रहते थे। दारागंज की गलियों ने उन्हें सुना है, कमलाशंकर के घर की दीवारों, दीवारों के कान उनसे अच्छी तरह परिचित रहे हैं। आते-जाते भी उनकी गूंज और अनुगूंज का अनुभव कर लेता।
निराला का यह स्वगत संभाषणक्रम अेके ले में तो प्रायः चलता ही रहता था, पर लोगों की उपस्थिति में वे अपने से कहते रहते थे, वह सर्वथा निरर्थक या पागल का प्रलाप मात्र हो-यह कहना मेरे लिए संभव नहीं है, क्योंकि मैंने कई बार उनके स्वगतों में गहरी किन्तु अस्फुट अर्थपूर्णता का अनुभव किया है।
उन्हें शब्द कभी उबलते हुए पानी की तरह, कभी बहती हुई तेज धार की तरह और कभी ज्वालामुखी से रिसते हुए लावे की तरह प्रतीत होते थे। संगति-असंगति का विचार करके उन्हें उच्चारित किया जाता हो, ऐसा नहीं लगता था। कोई व्यवस्था कोई उक्रम भी उनमें नहीं झलकता था, पर वे सर्वथा असंगत या निरर्थक भी नहीं जान पड़ते थे, क्योंकि एक उन्मेष, एक प्रखरता, एक आत्मबोध की प्रवृत्ति और कभी-कभी जिसे कविता में भी नहीं कहा जा सकता, उसे कह जाने की उत्कृष्ट इच्छा उसमें झलकती थी। किसी अवांछित स्थिति की प्रतिक्रिया, किसी पूर्व प्रसंग का संदर्भ किसी क्षति की पूर्ति का प्रयास, अहंभाव पर ठेस देने वाले अनुभव के विरूद्ध रह-रह कर जागरूक होने वाला स्वाभिमान अपने को छिपाने या कुछ अन्य बताने की चेष्टा, मन के भीतरी साक्ष्य में बाधक बाहरी व्यक्ति या स्थिति के प्रति तीव्र उपेक्षा भाव, आशंका या कल्पित भय और कुछ जीवन व्यापी विसंगतियों, जटिलताओं तािा असहनीय वेदनाओं की मिली-जुली अभिव्यक्ति भी उनमें रहती थी। उच्चारण मंे मुक्त छंद का सा प्रवाह और चिंतनशीलता की मुद्रा, फड़के हुए होंठ, अधखुली आंखें, उलझे हुए के श या कभी घुंटी हुई चांद, माथे पर पड़ती त्योरियां, ऊंची-नीची होती हुई भौंहें, लहराता हुआ अधोवस्त्र-यह सब भी उनके स्वागतों के साथ लगा रहा है, जिसे भूल पाना मेरे लिए संभव नहीं है।
जिन दिनों मैं ‘मोती महल’ में रहता था और उनके यहां प्रायः आता-जाता था मैंने कई बार सोचा कि उनके स्वागतों को लिखता चलूं, पर उनका स्मरण रख पाना और घर आकर तद्वत लिख लेना दैनदिन व्यापारों में कहां संभव हो पाता है फिर भी दो एक बार के प्रयास का फल यहां प्रस्तुत कर रहा हूं निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व में रूचि रखने वालोां को उनके यह स्वगत पर्याप्त रूचिकर लगेंगे और जिनहोंने उन्हें सुना होगा उनको परिचित भी प्रतीत होंगे। निराला के साथ साथ कागज कलम लेकर चलने और उनके कहे अधकहे को नोट करते जाने की चेष्टा मैंने कभी नहीं की, क्योंकि उसमें अपनी खैरियत मनाने की भी स्थिति आ सकती थी। कमला भाई ने भी कुछ नोट किया या शिवगोपाल आदि उनके पास अधिक बैठने वालों में से किसी ने कुछ टांका यह भी मुझे ज्ञात नहीं है।
जो पंक्तियां नीचे उद्धत कर रहा हूं वे मेरी कविता की उस कापी में लिखी गयी है, जिसे मैंने 1949-50 तक इस्तेमाल किया। तारीख 17-7 दी हुई है। आगे के पृष्ठों पर कई जगह तारीख के साथ सन् 49 भी लिख है। अतः मैं अनुमान लगाता हूं कि यह पहला स्वगत मैंने 19-7-49 को नोट किया होगा और दूसरा उसी के कुछ दिनों बाद। उसमें तिथि अंकित नहीं है, परन्तु क्रम से वह परवर्ती ही सिद्ध होता है। संभव हे, दोनों स्वगत कुछ बाद के हों, क्योंकि उनके साथ कोई वर्ष अंकित न होने से किसी भी तिथि पर आग्रह करना कठिन है।
(1) सभी कुछ पाॅलिटिक्स है-पाॅलिटिक्स मैं भी जानता हूं- हर तरफ आदमी छूटे हुए हें कोई भी राज छिपा नहीं है-
वेद स्वयं प्रमाण हैं, होंगे-वेद के प्रमाण हम हैं, हम।
हिसाब-किताब अलजेबरे में नहीं रखा जाता-अर्थमेटिक में रखा जाता है, पर अर्थमेटिक हाईस्कूल तक रहती है-
आगे अलजेबरा, टिगनामेट्री, अर्थमेटिक में पेमेंट करने वाले अर्थमेटिक ही जानते हैं, बस।
मेरा चेहरा देखते हो-ये सारे निशान गोलियां के निशान हैं-सैकड़ों गोलियां इसके पार जा चुकी हैं, और तुम्हारे माथे पर जो यह निशान है-यह भी गोली का ही होगा-तुम्हारे भी गोली लगी होगी-मगर अब-अब तो गोलियां लगेंगी पर निशान भी नहीं पड़ेगा।
दुनिया गोली-गोली की है-मेरे पास न गोली, न गोला। अपनी तो लेखनी रानी है-जब जी चाहा छेड़ दिया-चलने लगी। गोली-गोलों वाली दुनिया से कुछ मतलब नहीं।
(2) (पूर्व स्थिति निराला जी के एक परिचित उनको अपने यहां निमंत्रित करने गये, क्योंकि उनके यहां भगवती चरण वर्मा आदि कुछ साहित्यिक आ रहे थे। उन्होंने कहा दो तरह से। वह आपके दर्शनों को उत्सुक हैं, आप देशी आम खाइएगा। निराला जी ने उनकी बात सुनकर बोले, बोलते गये...।
आम हर किस्म का मेरे पास ही रहता है, खास की बात कीजिए। वो लोग दर्शन करना चाहते हैं तो यहां भी आ सकते हैं। और आप जानते हैं जहां मैं रहता हूं वहां पहरा रहता है। मैं आपके घर कैसे जा सकता हूं। (फिर छत देखकर बोले)
जर्रे-जर्रे में मेरे लिए जगह है-क्या आप चाहते हैं कि मैं धर लिया जाऊं-आपके घर भी वैसा ही होगा। वहां जाकर मैं बंध जाऊंगा और मैं बंधकर किसी से बात नहीं करना चाहता। मैं आपकी जगह जाऊंगा, मुझे आपकी सी बात कहनी होगी। मैं क्यों कहूं। एक वक्त था कि मैं आपके यहां जाकर खुलकर बैठता था, चाय पीता था। आप मेरे आत्मीय हैं, पर अब जमाना बदल गया है-आदमी गिर गया है-मुझे किसी भी दायरे में रहना पसंद नहीं। (उन साहब से एक बार फिर बोले)।
मैं पहलवान हूं-बचपन से पहलवानी करता आया हूं। लखनऊ से कलकत्ते के दंगलों में लड़ा हूं। कितने ही को पछड़ा है मैने, पर घर की तरफ से रोक दिया गया और रोक लगी कि चीज गयी।
(पश्चात दशा-बुलाने वाले सज्जन अब तक धैर्य और साहस दोनो खो चुके थे। विनम्र भाव से प्रणाम किया धीरे से खिसक गये।)
निराला जके जटिल मनस्तल के नीचे से उभर कर ऊपर आये इस खनिज पदार्थ में कई वाक्य ऐसे हें, जो हीरे की कनी की तरह चमकदार और मूल्यवान दिखायी देते हैं।
जानकी वल्लभ शास्त्री द्वारा प्रकाशित निराला के पत्रों, डा0 रामविलास शर्मा की लिखी जीवनी तथा ‘आत्महंता आस्था’ और ‘महाप्राण निराला’ जैसे नये पुराने आलोचना ग्रंथों से कवि का जो तेजस्वी दृढ़ और विचित्र व्यक्तित्व सामने आता हे, न के वल उससे संगति प्रतीत होती है, वरन् वे उनके समग्र कृतित्व को सूत्रबद्ध करने की शक्ति रखते हैं। यथा-
मुझे किसी भी दायरे में रहना पसंद नहीं। अपनी तो लेखनी रानी है जब जी चाहा छेड़ दिया, चलने लगी।
गोले-गोलियांे वाले संदर्भ में ‘तुम्हारे माथे पर जो निशान हैं’ कहकर जिसकी ओर उनके द्वारा संके त किया गया है, वह शायद मैं ही हूं, क्योंकि वाकई मेरे माथे पर बायीं ओर छुटपन में लगी चोट का निशान मौजूद है। अतिरिक्त आत्मीयतावश उन्हांेने अपनी बात को मर्मस्पर्शी बनाने में उसे भी इस्तेमाल कर लिया। आज के विषाक्त माहौल मंे जब मैं निहत्थी भीड़ पर लाठी डंडे बरसते और गोलियां चलते देखता हूं और पाता हूं कि फिर भी जनता अनुद्वेलित है, बुद्धिजीवी किंकर्तव्य विमूढ़ हैं तथा राजनीतिक दल एक दूसरे पर दोषारोपण करते नहीं थकते, तो मुझको लगता है कि निराला का कहा सच निकल रहा है-‘गोलियां लगेंगी पर निशान भी नहीं पड़ेगा।’
उन्हें बराबर लगता था कि विद्रोह को कुचलने के लिए सत्ता निरंतर सजग रहती है। निराला की चिंता, यह आशंका व्यक्तिगत सुरक्षा तक सीमित नहीं कही जा सकती। उसमें देश के स्वातंत्रय-संघर्ष की पूरी चेतना विद्यमान है।
मैं उनका यह जीवट पत्र कभी नहीं भूलूंगा, जो उन्होंने बीमारी की हालत में भी मार्फिया का इंजेक्शन देकर जबर्दस्ती अस्पताल ले जाने वालों के विरूद्ध दोनों हाथों से अपना तख्त कसकर पकड़ते हुए दिखाया था। आखिर सबके सब उन्हें खींचतान कर हार ही तो गये थे। उनका वह निर्णय विवेकपूर्ण था या नहीं, मैं इस बहस में नहीं पड़ता। मुझे तो उनकी अदम्य संकल्प शक्ति और असाधारण दृढ़ता एवं संवेदनशीलता भुलाये नहीं भूलती। मृत्यु लड़ाएगी तुझसे जब पंजा वही कवि लिख सकता है जो अपनी पहलवानी को जीवन के अंत तक, यानी देह के शिथिल हो जाने के बाद भी, मानसिक धरातल पर एक निष्ठा के साथ, बड़े से बड़े संदर्भ में सार्थक बनाये रख सका हो। (डा. जगदीश गुप्त/25एसएम-जे/नयी कविता और निराला साहित्य के व्यापक संदर्भ में)