भारतीयता की प्रतीक हिन्दी

Update:1996-06-20 13:25 IST
देश में अंग्रेजी हटाओ के  नाम पर जैसे-जैसे कई बार बड़े आन्दोलन खड़े किये गये हैं ? परन्तु वैसे-वैसे अंग्रेजी ने भाषा के  स्तर से पर उठकर ‘स्टेटस सिंबल’ का स्तर प्राप्त कर लिया है। वैसे भाषा के  स्तर पर अंग्रेजी की खिलाफत उचित नहीं है। हां, अंग्रेजी के  विशेषाधिकार का, उसके  बोलने की मानसिकता का विरोध लाजिमी है।
इसी आन्दोलन के  नाम पर भारत उत्तर-दक्षिण खेमों में बंट गया। भारत का एक ओर जहां पूरब  पश्चिम के  आधार पर बंटवारा विश्व स्तर पर पाया वही देश के  स्तर पर हुआ उत्तर-दक्षिण का बंटवारा दुर्भाग्यपूर्ण है। यह बंटवारा इसलिए भी उचित नहीं है क्योंकि हमने अंग्रेजी हटाओ की बात की है। अंग्रेजी मिटाओ की नहीं। फिर भी उत्तर-दक्षिण का बंटवारा किस बात का, क्यों? क्योंकि अंग्रेजी उनकी अपनी तो है नहीं।
‘अंग्रेजी हटाओ, हिन्दी लाओ’ अभियान में हिन्दी लाने के  पीछे हिन्दी को अंग्रेजी का दर्जा दिलाने की मंशा नहीं है। उसके  पीे मंशा यही है कि पूरे देश को जोने वाली भाषा कोई भारतीय भाषा ही है। अंग्रेजी नहीं। क्योंकि अंग्रेजी की कृपा से उत्तर-दक्षिण में सच्चा मेल- मिलाप नहीं होगा। अंग्रेजी वैसे भी इस देश के  8 प्रतिशत लोगों की भाषा है।
अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन जिस स्थिति में ला गया, उससे लगा कि वह भारत की मुक्ति आन्दोलन का एक हिस्सा है। लेकिन उससे मुक्ति न पाने का मुख्य कारण यह रहा है कि यह एक भारतवासी द्वारा दूसरे भारतवासी के  मध्य की लाई थी, जिसके  कारण मुक्ति नहीं मिल पायी।
कुछ लोगों ने यह तर्क दिया कि यदि भारत से अंग्रेजी हट गयी तो शेष दुनियां से वह कट सा जाएगा। उन्हें शायद यह नहीं पता कि पाक, वर्मा, लंका, घाना को छोड़कर किसी भी देश में अंग्रेजी का प्रयोग उस तरह नहीं होता है जैसा इन देशों में। तो क्या बाकी देश दुनिया से कट गये ? हमारी मानसिकता इतनी औपनिवेशिक हो गयी हैं कि हम जापान, फ्रेंच, जर्मन आदि दुनिया के  हर देश के  साथ अंग्रेजी में ही व्यवहार करते हैं जबकि विजय लक्ष्मी पण्डित रूस में राजदूत बनकर गयीं थीं तो उनके  अंग्रेजी में लिखे परिचय पत्र को स्तालिन ने उठाकर फेंक दिया और पूछा कि क्या आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है ? इसमें भी कोई सबक नहीं लिया गया और वही परम्परा आज तक जारी है ?
आज भी अंग्रेजी में समूचे विश्व को देखने की प्रक्रिया हममें जारी है। हम भूलते जा रहे हैं कि दुनिया के  पैमाने पर प्रसिद्ध रहने वाले दार्शनिक कान्ट, हीगल माक्र्स अंग्रेजी से सम्बद्ध नहीं रहे हैं। गहन और शोधपरक साहित्य फ्रांसीसी व जर्मन भाषा में अधिक है। अंग्रेजी में काफी कम है। हमें अंग्रेजी और अंग्रेजियत की नकल करने की आदत क्यों पड़ गयी है, जबकि हमें यह पता है कि जब अमरीका का अस्तित्व नहीं था, लन्दन में कुछ नहीं था उस समय हमारे यहां विक्रमादित्य का व्यवस्थित राज्य कायम था। चाणक्य लोगों को अर्थशास्त्र व राजनीतिशास्त्र की शिक्षा दे रहे थे।
अंग्रेजी हमारे यहां ‘लिक-लंग्वेज’ का भी काम नहीं कर सकती क्योंकि अंग्रेजों के  आने के  बहुत पूर्व अशोक व समुद्रगुप्त ने चक्रवर्ती सम्राट होकर पूरे भारत को अंग्रेजी की अनुपस्थिति में भी एक एकसूत्र में बांधा था। महात्मा गांधी ने पन्द्रह अगस्त 1917 को बीबीसी को दिये एक साक्षात्कार मंे कहा था कि ‘दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।’ इसके  बाद भी हमारे समाज में एक ऐसा वर्ग बता जा रहा है जो अंग्रेजी भाषा में शिक्षा को बेहद महत्वपूर्ण मानता है। उसे नहीं पता कि ‘विदेशी भाषा के  माध्यम से शिक्षा देने की पद्धति से अपार हानि होती है। मां के  दूध के  साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके  और पाठशाला के  बीच में जो मेल होना चाहिए वह विदेशी भाषा के  माध्यम से शिक्षा देने से टूट जाता है। अंग्रेजी भाषा के  माध्यम से शिक्षा देने में कम से कम 16 वर्ष लगते हैं। जबकि मातृभाषा में उसी शिक्षा को देने में मात्र दस वर्ष लगंेगे। हजारों विद्यार्थियों का छह-छह वर्ष बचाने का मतलब कई हजार वर्ष की संचित पंूजी एकत्रित कर लेना। विदेशी भाषा के  माध्यम से शिक्षा पाने में दिमाग पर जोर पता है उसे हमारे यहां के  बच्चे उठा नहीं पाते हंै। जो उठाते हैं उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। वे सारा बोझ उठाने के  लायक नहीं रह जाते हैं। जिससे हमारे अधिकतर छात्र, निकम्मे, कमजोर, निरुत्साहित, रोगी और नकलची होते जाते हैं। इससे वो एक और नयी योजनायें नहीं बना पाते बनाते हैं तो दूसरी ओर पूरा नहीं कर पाते। एक अंग्रेज ने लिखा है कि मूल लेख और सोख्ता कागज के  अक्षरों में जो भेद है वही भेद यूरोप के  और यूरोप के  बाहरी लोगों में है। अगर हम लोगों ने पचास वर्ष तक मातृभाषा द्वारा शिक्षा पायी होती तो हम कई और बसु और राय पैदा कर सकते थे। जापान ने मातृभाषा द्वारा जन जागृति की है। इसलिए दुनिया उसे अचरज भरी दृष्टि से देख रही है।
यदि यही स्थिति कायम रही तो र्ला कर्जन का यह आरोप सिद्ध हो जायेगा कि ‘शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है  वैसे चेम्सर्फो के  इस कथन को तो सच होते हमे देख ही रहे हैं कि  अंगे्रजी कुछ ही दिनों में उच्च परिवारों की भाषा बन जाएगी। आखिर इसके  बाद भी हम अंग्रेजी साम्राज्यवादी अवशेषों को क्यों ढो रहे हैं? क्यों नहीं हम ताकत जुटा पा रहे हैं कि गांधी की तर्ज पर सारे विश्व से कह सके  कि ‘पूरे विश्व से कह दो भारत अंग्रेजी नहीं जानता है।’

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