यह चैथी बार है कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान किसी आलोचक को भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित कर रहा है। 73 वर्षीय विजयेन्द्र स्नातक हालांकि राम विलास शर्मा और डाक्टर नगेन्द्र जैसे प्रखर आलोचकों में शुमार तो नहीं होते लेकिन उनकी हिन्दी सेवा, विद्वता और लगन पर कभी कोई सवाल नहीं खड़ा हुआ और ठीक अभी-अभी हिन्दी साहित्य के लिए जो उन्होंने काम किया है वह अविरल ही नहीं अतुलनीय भी है। हिन्दी साहित्य का नवीन इतिहास लिखकर और बिलकुल अद्यतन सूचनाएं उसमें परोस कर विजयेन्द्र स्नातक ने एक बहुत बड़ा काम किया है। इसके लिए उनकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। दिल्ली विवि के पाठ्यक्रम में हिंदी की शुरूआत कराने वाले विजयेन्द्र स्नातक वास्तव में पत्रकार बनना चाहते थे। उन्होंने दिल्ली के एक बहुत पुराने अखबार ‘नवयुग’ में बतौर उप सम्पादक कुछ समय काम भी किया लेकिन सम्पादक से उनकी पटरी नहीं बैठी सो वह कहते हैं कि ‘यह काम रचा नहीं क्योंकि सम्पादक का रवैया ठीक नहीं था। यह 1936 की बात है, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भी काम करने के लिए उन्हें बुलाया, लेकिन वहां भी उन्हें माहौल ठीक नहीं लगा तो वह वहां गये नहीं। यह 1945 की बात है।
अंततः उन्होंने हिंदी अध्यापन को ही अपनी जिंदगी और जीविका बना लिया। वह अपने पुराने दिनों को याद करते हैं और कहते हैं कि, ‘दिल्ली विवि में हिंदी को प्रवेश मैंने दिलाया। वह भी आजादी के ठीक पहले। यानि जुलाई 1947 को और 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। दिल्ली विवि का पहला हिंदी भाषा का अध्यापक हूं। मैं जिसने हिन्दी का सूत्रपात किया तब मेरे साथ सावित्री सिन्हा थीं, राके श थे पर अब इन सबका निधन हो चुका है।’ कोई 50 वर्षों से भी अधिक हिंदी भाषा के विकास से जुड़े विजयेन्द्र स्नातक दिल्ली में हिंदी अकादमी की स्थापना में भी सबसे आगे रहे।
अक्षय कुमार जैन, गोपाल प्रसाद व्यास और विजयेन्द्र स्नातक हिन्दी अकादमी की धुरी माने जाते रहे हैं। अबकी जब भारत-भारती पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो यह सुनकर उन्हें खुशी हुई। आज दिल्ली से टेलीफोन पर उन्होंने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘मेरी प्रतिक्रिया यह है कि जो पुरस्कार साहित्यकारों को दिये जाते हैं, मैं उसकी सराहना करता हूं।’ बात जब पुरस्कार समिति पर हुए विवाद को लेकर चली तो विजयेन्द्र स्नातक बोले, ‘उनकी चयन प्रक्रिया ठीक है। इस साल की चयन प्रक्रिया अच्छी है। मेरी जो सूचना है कि उन्होंने अनेक लोगों से, अनेक जगहों से नाम मंगाये तो इस बार की प्रक्रिया ठीक है और ठीक बात यह भी है कि मुझे सम्मान मिला है तो और अच्छा लगा है।’
रहीम पर कई किताबें लिखने वाले विजयेन्द्र स्नातक का कहना था कि, ‘मैं किसी खेमेबाजी में भी नहीं हूं। मेरी कोई ‘एप्रोच’ भी नहीं था, फिर भी मुझे पुरस्कार मिला है तो अच्छा तो लगेगा ही।’ उल्लेखनीय है कि आचार्य चतुरसेन शास्त्री की जीवनी लिखने वाले विजयेन्द्र स्नातक के नाम अब तक कोई 30 किताबें, जिनमें 6 किताबें सम्पादित हैं और 24 मौलिक शामिल हैं।
उनसे जब यह पूछा कि इस 2 लाख 51 हजार रूपये वाले पुरस्कार धनराशि का आखिर वह करेंगे क्या? क्या कोई योजना है? तो बोले, कोई योजना नहीं है, मैं तो खर्चा चला दूंगा, परिवार के पालन-पोषण पर खर्च करूंगा। बीमार पत्नी है उनकी दवा करा दूंगा। पौत्री है उसकी शादी व्याह को देखूंगा। हो सकता है किसी साहित्यिक संस्था को भी इस पैसे से जोड़ूंगा।
अंततः उन्होंने हिंदी अध्यापन को ही अपनी जिंदगी और जीविका बना लिया। वह अपने पुराने दिनों को याद करते हैं और कहते हैं कि, ‘दिल्ली विवि में हिंदी को प्रवेश मैंने दिलाया। वह भी आजादी के ठीक पहले। यानि जुलाई 1947 को और 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। दिल्ली विवि का पहला हिंदी भाषा का अध्यापक हूं। मैं जिसने हिन्दी का सूत्रपात किया तब मेरे साथ सावित्री सिन्हा थीं, राके श थे पर अब इन सबका निधन हो चुका है।’ कोई 50 वर्षों से भी अधिक हिंदी भाषा के विकास से जुड़े विजयेन्द्र स्नातक दिल्ली में हिंदी अकादमी की स्थापना में भी सबसे आगे रहे।
अक्षय कुमार जैन, गोपाल प्रसाद व्यास और विजयेन्द्र स्नातक हिन्दी अकादमी की धुरी माने जाते रहे हैं। अबकी जब भारत-भारती पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो यह सुनकर उन्हें खुशी हुई। आज दिल्ली से टेलीफोन पर उन्होंने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘मेरी प्रतिक्रिया यह है कि जो पुरस्कार साहित्यकारों को दिये जाते हैं, मैं उसकी सराहना करता हूं।’ बात जब पुरस्कार समिति पर हुए विवाद को लेकर चली तो विजयेन्द्र स्नातक बोले, ‘उनकी चयन प्रक्रिया ठीक है। इस साल की चयन प्रक्रिया अच्छी है। मेरी जो सूचना है कि उन्होंने अनेक लोगों से, अनेक जगहों से नाम मंगाये तो इस बार की प्रक्रिया ठीक है और ठीक बात यह भी है कि मुझे सम्मान मिला है तो और अच्छा लगा है।’
रहीम पर कई किताबें लिखने वाले विजयेन्द्र स्नातक का कहना था कि, ‘मैं किसी खेमेबाजी में भी नहीं हूं। मेरी कोई ‘एप्रोच’ भी नहीं था, फिर भी मुझे पुरस्कार मिला है तो अच्छा तो लगेगा ही।’ उल्लेखनीय है कि आचार्य चतुरसेन शास्त्री की जीवनी लिखने वाले विजयेन्द्र स्नातक के नाम अब तक कोई 30 किताबें, जिनमें 6 किताबें सम्पादित हैं और 24 मौलिक शामिल हैं।
उनसे जब यह पूछा कि इस 2 लाख 51 हजार रूपये वाले पुरस्कार धनराशि का आखिर वह करेंगे क्या? क्या कोई योजना है? तो बोले, कोई योजना नहीं है, मैं तो खर्चा चला दूंगा, परिवार के पालन-पोषण पर खर्च करूंगा। बीमार पत्नी है उनकी दवा करा दूंगा। पौत्री है उसकी शादी व्याह को देखूंगा। हो सकता है किसी साहित्यिक संस्था को भी इस पैसे से जोड़ूंगा।