‘बेटी’ की जगह बनी, पर ‘बहू’ के लिए संघर्ष जारी

Update:1997-03-08 19:03 IST
‘यत्र नार्यस्त पूज्यन्ते, रमते तत्र देवताः’ जैसी उक्तियों वाले देश/समाज में कोख से कब्र तक कदम-कदम तक खड़ी मौत, अत्याचार और सदियों से यातना झेलने का दावा करने वाली आधी आबादी आज भी बराबरी के  हक की मोहताज है। आधी आबादी को चाहिए ‘राइट टू इक्विलिटी’ समानता के  इस अधिकार की मांग को ‘रेडिकल फेमिनिज्म’ कहकर उपहास करने का शगल आम हो गया है। बराबरी का अधिकार पाने के  लिए नारी संघर्ष ने जहां नारी मुक्ति आंदोलन के  माध्यम से पूरे देश में पैर पसारे, वहीं नारीवाद अति नारीवाद स्त्री अस्मिता जैसे शब्दों ने भी आकार ग्रहण किया। नारी मुक्ति आंदोलन की बात उठते ही यह सवाल हमारे सामने आता है कि नारी की मुक्ति किससे? कैसी मुक्ति? क्या नारी मुक्ति यूरोपीय देशों की तर्ज पर चाहिए? और यदि यूरोपीय देशों की तर्ज पर नारी मुक्ति का सवाल हमारे समाज में जोर पकड़े तो उसका अस्वीकृत होना अनावश्यक नहीं होगा। क्योंकि हर देश और हर समाज की अपनी अलग-अलग जरूरतें होती हैं। नारी मुक्ति के  संघर्ष में जुटी नारियों के  कार्य एवं व्यवहार पर अगर अलग से दृष्टि डाली जाय तो नारी मुक्ति का सारा फलसफा एकदम खारिज हो जाएगा। यह बात दूसरी है कि हमें बार-बार यह बताया और स्वीकार कराया जाता है कि निजी जीवन और सामाजिक जीवन को अलग-अलग चश्मे से देखा जाय। एक ऐसे देश में जहां महात्मा गांधी आदर्श हैं। जिनकी नियति और लोकप्रियता का कारण ही था निजी जीवन और सामाजिक जीवन में ऐक्य।
अब अगर नारी मुक्ति आंदोलन पर गौर करें तो कोख से कब्र तक की पूरी यात्रा में स्त्री तमाम तनावों से गुजरती है। उसके  लिए जिम्मेदार कौन है? यह तय किया जाना जरूरी है। परंतु यह प्रश्न आज भी पहले मुर्गी हुई या पहले अण्डा। प्रश्न सरीखा निरूत्तरित है। फिर भी यह प्रश्न उठता है कि स्त्री के  हालात के  लिए दोषी कौन है? स्त्रियों के  साथ होने वाले अत्याचार एवं यातना में बलात्कार को छोड़कर शेष घटनाओं में औरत ही औरत को औरत नहीं मानती है। आज महिलाओं के  मुद्दे पर सेमिनारों और गोष्ठियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। हिंदी दिवस की तरह महिला दिवस और बालिका दिवस जैसे आयोजन बढ़ रहे हैं।
आठ मार्च, 1857 को अमरीकी औरतों ने पहली बार अपने अधिकारों का सवाल खड़ा किया था, उन्होंने समान वेतन पाने, काम के  घंटे कम करने की मांग उठायी थी। अमरीकी औरतें जीतीं। तब से आज तक लगातार आठ मार्च को महिला दिवस मनाया जा रहा है। आज 140 वर्षों बाद भी महिलाओं की स्थिति कितनी बदली है यह एक विचारणीय प्रश्न है। यह सही है कि आज भी महिलाओं को पूर्ण व्यक्ति होने का दर्जा प्राप्त नहीं है। बड़े लंबे जद्दोजहद के  बाद महिलाओं ने बेटी के  रूप में थोड़ी सी जगह भले ही बना ली हो परंतु बहू के  रूप में वह चाहे अनचाहे तमाम तरीके  के  टार्चर का शिकार होती है।
भारत की जनगणना के  अनुसार देश की पूरी श्रम शक्ति का एक तिहाई महिलाएं हैं। जाहिर है यह कहते हुए हमारी सरकार आधी आबादी के  रोजनामचे का खयाल नहीं करती। महिलाओं के  पारम्परिक काम को श्रम शक्ति का हिस्सा न मानने की वजह से यह धारणा घर कर गयी है कि महिलाएं काम कम करती हैं जबकि विश्व बैंक का मानना है कि श्रम शक्ति के  रूप में महिलाएं कार्य का 51 फीसदी हिस्सा संभालती हैं।
कार्य में बढ़-चढ़कर भागीदारी के  बाद भी स्त्री यातना के  प्रसंग कम नहीं होते। स्त्रियों को हिंदी भाषी राज्यों में सर्वाधिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। बाल हत्या से लेकर भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामले में लड़कियों की भागीदारी को दोयम दर्जे में रखा जाता है। यदि कोई स्त्री संतान पैदा नहीं कर पाती है तो उसे परित्याग तक की स्थिति का सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं बेटा न जन पाने वाली स्त्रियां भी यातना का शिकार होती हैं। औरतों पर अत्याचार के  मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है और महाराष्ट्र का नंबर उसके  बाद आता है। हमारे समाज में हर 54वें मिनट में एक स्त्री के  साथ बलात्कार हो जाता है। 43वें मिनट में एक लड़की का अपहरण और 102वें मिनट में दहेज के  लिए लड़की को प्रताड़ित किये जाने की घटना घटती है। हर छठी स्त्री की मौत अपने साथ हो रहे अन्याय के  खिलाफ हो रहे विरोध के  कारण होती है। मानसिक और शारीरिक बीमारियों को हम इसके  अलग रखकर नहीं देख सकते। भारत में महिलाओं के  रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा औसतन 9 है जबकि मेडिकल साइंस के  मानकों के  अनुसार 12 होनी चाहिए। .023 फीसदी महिलाएं ही हमारे समाज में पूरी तरह स्वस्थ हैं। महिलाओं में होने वाली बीमारियां काम के  अधिक बोझ, तनाव एवं कुपोषण के  कारण होती हैं।
स्त्री भू्रण हत्या तो आम बात हो गया है। एक सर्वेक्षण के  आंकड़े के  मुताबिक लगभग 84 प्रतिशत महिलाएं डाॅक्टर भ्रूण का लिंग परीक्षण करके  उसकी हत्या करने का धंधा चला रही हैं। स्त्री भ्रूण हत्या की शुरूआत उसी मुम्बई से हुई, जहां से स्त्री शिक्षा की शुरूआत हुई। इतना ही नहीं, औरतों के  हालात में सुधार लाने के  लिए आंदोलनों की शुरूआत भी 1980 में महाराष्ट्र से ही हुई। आज भले ही नारी स्वातंत्रय का यह आंदोलन पूरे देश में पैर पसार चुका है। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि महिलाओं में साक्षरता की दर भले ही बढ़ी हो परंतु आज तक आधी आबादी का आधा हिस्सा भी साक्षर नहीं है। स्त्री की दशा का अंदाज बिगड़ते स्त्री पुरूष के  अनुपात से भी लगाया जा सकता है। 1981 की जनगणना के  अनुसार यह अनुपात 929-1000 था। उल्लेखनीय है कि जिन राज्यों में स्त्री शिक्षा की दर कम है, उसमें औरतों का अनुपात पुरूषों से कम है तथा के रल में साक्षरता अधिक है तो वहां स्त्रियों की संख्या पुरूषों से अधिक है। के रल में स्त्री-पुरूष अनुपात 1040-1000 है।
अब फिर वही सवाल उठता है कि नारी के  साथ हुई इन घटनाओं की जिम्मेदार कौन है? नारी शोषण की मानसिकता के  पीछे सच क्या है? महज पुरूष या वे औरतें भी जो औरत को औरत नहीं मानतीं। नारी स्वातंत्र्य के  आंदोलन के  जोर पकड़ने के  साथ ही साथ नारी को कमाॅडिटी के  रूप में प्रस्तुत/स्वीकार करने का चलन बढ़ा है। पूंजीवादी समाज में औरतों को माल के  साथ पेश करने का फैशन भी चल निकला। कभी साबुन के  साथ कभी टीवी कभी वाशिंग मशीन के  साथ विज्ञापन में महिलाएं तो दिखायी ही जाती थीं परंतु आज उन्हें शेविंग क्रीम और आॅफ्टर शेव के  साथ भी पेश किया जा रहा है। चाहे सौन्दर्य प्रतियोगिता में दिखाए जाने वाले देह की बात हो या उत्पादों के  बिक्री बढ़ाने के  लिए परोसे जाने का सवाल हो। मिसवल्र्ड, यूनिवर्स, मिस गोलघर, मिस घंटाघर सरीखे तमाम सौंदर्य प्रतियोगिताएं सौंदर्य को स्त्री का आदर्श बताकर स्त्री विरोधी मूल्य की स्थापना में जुटी है। यह बात इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली प्रतिभागी जानती हैं या नहीं। यह नहीं कहा जा सकता। सौंदर्य को स्त्री का आदर्श बताने वाली ताकतें स्त्री में विद्वता, स्वतंत्रता और शक्ति के  गुणों को नहीं देखना चाहती। सौंदर्य को स्त्री का आदर्श बताना महज पाखंड है। जो लोग सौंदर्य को स्त्री का आदर्श बताते हैं उनके  लिए विद्वता, स्वतंत्रता और शक्ति का होना स्त्री के  लिए घातक है। परंतु सौंदर्य को स्त्री का आदर्श स्थापित करने में महिलाएं स्वयं भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। वैसे तो प्रखर नारीवादी चिंतक उमा नेहरू ने अपने एक लेख में भारत की स्त्री का चित्रण करते हुए प्रोक्स्तस डाकू का हवाला दिया है। उन्होंने बताया कि प्रोक्स्तस डाकू के  पास एक पलंग थी, जिस पर वह भूले भटके  पथिकों को सुलाता था। किसी मुसाफिर का कद यदि पलंग से छोटा होता था तो प्रोक्स्तस उसे खींचकर पलंग के  बराबर कर देता था। अगर बड़ा हुआ तो उसका अंग काटकर अलग कर देता था। उमा नेहरू का मानना है कि हमारा भारतीय समाज स्त्री जाति के  लिए प्रोक्स्तस का एक निर्दयी पलंग है।
वैसे गंभीरता से देखा जाए तो उमा नेहरू की बात खरी नहीं उतरती है। क्योंकि हमारे समाज में नारी पूजा की स्वीकृति रही है। यह सच है कि 73वें और 74वें संविधान संशोधन के  माध्यम से महिलाओं को पंचायती राज में आरक्षण का प्राविधान किया गया है। इस संशोधन के  माध्यम से महिलाओं को पंचायती राज में आरक्षण भले ही मिल गया हो, परंतु उनकी भूमिक को अभी तक कोई महत्व नहीं मिल पाया है। पंचायती राज के  प्रभारी जार्ज मैथ्यू और उनके  दल ने जब बिहार के  कुछ गांवों का दौरा किया तो उन्हें यह देखकर बहुत कष्ट हुआ कि महिलाएं उनसे बात करने के  लिए पुरूषों के  संरक्षण में आ रही हैं। महिलाओं की यह स्थिति देखकर स्वयं मैथ्यू ने यह निष्कर्ष निकाला कि पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों के  होने से समाज और पंचायती राज व्यवस्था में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं होने वाला है।
सदन में महिलाओं के  लिए एक तिहाई आरक्षण का सवाल लटका हुआ है। इसके  पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि पंचायत राज में महिलाओं के  आरक्षण का लाभ नहीं मिला। यह बात सच भी है। परंतु देखा जाय तो नौकरियों में आरक्षण का लाभ क्रीमी लेयर ही उठा रहे हैं।
पर क्या आरक्षण खत्म कर दिया गया। परिवर्तन की जो प्रक्रिया धीरे-धीरे आती है वह दीर्घजीवी होती है। इसलिए धीरे-धीरे महिलाएं भी आरक्षण के  माध्यम से होने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकेंगी। सदन में महिला आरक्षण के  सवाल पर संसद/सदन में बैठी हुई महिलाओं की भूमिका भी पुरूष सांसदों सरीखी ही रही है।
इसलिए फिर यही सवाल उठता है कि आखिर इस लाभ से वंचित करने के  पीछे कौन है। नारी स्वातंत्र्य आंदोलन के  प्रणेताओं को जानना चाहिए कि नारी के  प्रति दृष्टिकोण में लोगों में खासा बदलाव आया है। तभी तो समाज नारियों से सीता सावित्री जैसे पुराने आदर्शों की आशा नहीं करता है। इसी के  साथ पुरूषों को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि जिन शक्तियों ने प्रजा को राजा के  सामने कर्मचारियों को मालिक के  सामने खड़ा किया है, उन्हीं शक्तियों ने स्त्री को पुरूषों के  सामने लाकर खड़ा किया है।
औरत को औरत न मानने वाली औरतों और औरत को पूर्ण व्यक्ति स्वीकार न करने वाले लोगों दोनांे को अपने नजरिये बदलने होंगे।
क्योंकि ये दोनों ताकतें महिलाओं के  साथ हो रही घटनाओं और महिलाओं के  बारे में समाज की वर्तमान मनःस्थिति के  लिए दोषी हैं। लेकिन नारी स्वातंत्र्य आंदोलन के  प्रणेताओं को यह बात जान लेनी चाहिए कि यूरोपीय समाज में नारियों के  हालात में परिवर्तन के  लिए समाज के  आर्थिक और राजनीतिक नियम जिम्मेदार हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यूरोपीय समाज में नारियों के  हालात में परिवर्तन समाज के  आर्थिक व राजनीतिक नियमों की उपज है। भारत आज यूरोपीय आर्थिक, राजनीतिक नियमों पर चलकर स्वयं को संगठित कर रहा है। ऐसे में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि स्त्रियों के  हालात में सुधार होगा और फिर साकार होगी लोफरव्यू की वह प्रार्थना स्त्री-पुरूष मंे भाईचारे का संबंध होगा। शोषण किसी का नहीं उद्देश्य होगा। दोनों सच्चे रूप से एक दूसरे का हाथ पकड़ेंगे। महिलाओं को न्यून एवं न्यूनतम जैसे सांचे में ढालकर नहीं देखा जाएगा।

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