इन्तजार कीजिए...कब तक?

Update:1997-06-29 19:28 IST
अब मैं रिटायर होना चाहता हूं। किताबें पढ़ना चाहता हूं और ऐसा जीवन जीना चाहता हूं, जिस पर सिर्फ मेरा नियंत्रण हो। जो जी में आए वही करूं, के वल अपनी मर्जी से। यह सब चाहते हुए और ऐसा करने के  लिए अवसर का इंतजार करते हुए एसपी सिंह अनंत यात्रा पर चले गये। अनंत यात्रा पर जाना और इतनी ख्वाहिशें छोड़कर, वह भी एक ऐसी शख्सियत का जो महज कल तक का इंतजार करने का विश्वास दिलाकर विदा लेता था। उसी ने अलविदा कह दिया। इसी के  साथ खत्म हो गया इंतजार कीजिए.. कल तक का जुमला। टुच्चेपन को उदात्त विचार बनाकर स्वयं महानता मढ़ लेने वाले लोगों के  खिलाफ लगातार जद्दोजहद करते हुए भी एसपी सिंह कभी चूके  नहीं। उन्होंने अपने जीवन से दोस्तों और निजी दुःख को दूर रखा। मण्डल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का समय हो रहा हो या बाबरी मस्जिद, रामजन्म भूमि के  विवादित ढांचे को ढहाने की घटना, इन सब पर एसपी सिंह एकदम अलग खड़े थे।
खबरें अभी और भी हैं, देखते रहिए आज तक, जुमले को पहचान दी थी सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने। उन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया व प्रिन्ट मीडिया की साख बढ़ायी थी। उनके  पास हिंदी पत्रकारिता की स्थापना में गारा माटी बनने का अतीत था। तो उसे ग्लैमर देने का वर्तमान भी। वह अपने पीछे छोड़ गये। प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तक की अपनी उपस्थिति की खासी दस्तक दर्ज करायी थी। उन्होंने ‘धर्मयुग’, ‘रविवार’ सरीखी पत्रिकाओं व ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे अखबार के  माध्यम से पत्रकारिता को तेवर और तल्खी भी दी थी। पत्रकारिता जैसे सार्वजनिक काम में रहने के  बाद भी वे अपनी जिन्दगी में पूरी तरह से निजी रहे। जीवन में पूरी तरह से प्राइवेसी के  वे कायल थे। प्रोफेशन और प्राइवेसी के  घालमेल से पूरे जीवन में वे हमेशा दूर रहे। यही कारण है कि वे गदहिया, गोल से टीवी टुडे के  कार्यकारी प्रोड्यूसर तक की अपनी यात्रा बताने में नहीं हिचकते थे। इस वृतांत को लोग चाहें जैसे लेते रहें परंतु उन्होंने इसे स्वयं को अतीत से जुड़ने का आधार माना। तीन दिसम्बर 1948 को जन्मे चमरा मास्टर से अक्षर ज्ञान पाने वाले एसपी सिंह ने कक्षा चार तक की पढ़ाई अपने गांव में प्राइमरी पाठशाला से पूरी की थी। इसके  बाद वे कलकत्ता अपने दादा के  पास चले गये। वहां जाकर उन्होंने चैबीस परगना जिले के  गरोसिटा इलाके  की प्राथमिक पाठशाला में तीसरी कक्षा में प्रवेश लिया। यहीं से 62 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। मैट्रिक के  बाद अचानक इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई करने के  लिए इन्हें सेंट पाॅल में दाखिल कराया गया। भाषा की परेशानी के  कारण इण्टरमीडिएट मात्र तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो सके । कलकत्ता के  ही सुरेन्द्रनाथ कालेज से स्नातक किया और यहीं कम्युनिस्ट आंदोलन में कूद पड़े। यहीं उन्होंने पहली बार छात्रसंघ की पत्रिका का सम्पादन किया। हिंदी से एमए करने के  साथ ही साथ उन्होंने कानून की भी पढ़ाई की। फिर इसी कालेज में प्रवक्ता बने। 1972 में टाइम्स आॅफ इण्डिया समूह में प्रशिक्षु पत्रकार के  रूप में परीक्षा के  माध्यम से प्रवेश किया। चार माह बाद ही धर्मयुग में उप सम्पादक बने। 1977 में वे ‘रविवार’ के  सहायक सम्पादक और इसी वर्ष छह माह बाद सम्पादक बना दिये गये। पहली फरवरी, 1985 को वे नवभारत टाइम्स के  मुम्बई संस्करण के  स्थानीय सम्पादक बने। फिर कार्यकारी सम्पादक बनकर इसी समाचार पत्र में दिल्ली आ गये। उन्होंने नवभारत टाइम्स छोड़ दिया। 94 तक फ्रीलांस जर्नलिस्ट रहे। इसी साल ‘टेलीग्राफ’ के  राजनीतिक संपादक बना दिये गये। जुलाई 95 में इंडिया टुडे के  भाषाई संस्करणों के  कार्यकारी सम्पादक और फिर टीवी टुडे के  कार्यकारी प्रोड्यूसर के  रूप में उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने गौतम घोष द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘पार’, प्रेम कपूर की फिल्म ‘क्षितिज’, मृणाल सेन की फिल्म ‘तस्वीर अपनी अपनी’ और जेनेसिस की पटकथा लिखी। गौतम घोष की दूसरी फिल्म ‘अंतर्जली यात्रा’ की भी पटकथा एसपी सिंह ने लिखी थी।
कुछ ही दिनों पूर्व एक प्रमुख दैनिक को दिये गये अपने साक्षात्कार में एसपी सिंह हिंदी पत्रकारिता पर बेबाक और बेलगाम बोले। उन्होंने कहा, सच तो यह है कि हिंदी पत्रकारिता अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। हालांकि पेशे के  रूप में अभूतपूर्व वृद्धि के  कारण हिंदी पत्रकारिता में बड़ी मात्रा में खरपतवार आ गये हैं। परंतु वे इस स्थिति को स्थायी नहीं मानते थे। वे पत्रकारिता के  साहित्य से जिन रिश्तों की स्थापना की बात साहित्यकार करते हंै, उससे इत्तेफाक नहीं करते थे। वे वर्तमान समय को हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णयुग मानते थे। पत्रकारिता की ओट से किये जा रहे छल छद्म के  भी वे खासे विरोधी थे। वे कहते थे पत्रकारिता कस्बे से राजधानी तक दलाली और ठेके दार का लाइसेंस दे देती है। यह कहकर उन्हांेने पत्रकारिता के  इस सच को उजागर करने का साहस किया था। यह बात तय होने से पहले ही एसपी सिंह चले गये। पत्रकारिता के  साथ मिशन और प्रोफेशन के  घालमेल के  भी वे खिलाफ थे। पत्रकारिता को मिशन मानना उन्हें स्वीकार नहीं था। सरकारी सुविधाएं लेकर निकलने वाले अखबारों और खबर लिखने वाले पत्रकारों से मिशन की बात सोचना ही वे बेइमानी मानते थे।
वे एक राजनैतिक पार्टी के  रूप में आरोप को सही मानते थे कि मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है। अंर्तमुखी स्वभाव के  एसपी सिंह के  पूरे जीवन में महज एक ही मित्र रहा, ऐसा वे कहते  थे। वे भोजपुरी को एक ऐसी दबंग संस्कृति मानते थे, जो आसपास की संस्कृति को निगल जाती है। वे प्रेम के  लिए तरह-तरह के  कांड रखने के  पक्षधर नहीं थे। स्वयं को अनरोमांटिक मानने वाले एसपी सिंह ने प्रेम विवाह तो किया ही था साथ ही अपने पीछे इस नश्वर संसार में वे कुछ छोड़ गये हंै तो वह है उनकी अपनी प्रेम शिखा।
खुद को यारबाज कहने से कतराने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह का सच यह है कि वे यार बाॅस थे। उनकी सहजता और निश्छलता ही उन्हें यार बाॅस बनाती थी। जब वह कुर्सी पर बैठते थे तो वह स्नाॅब हो जाते थे। कहूं कि लगभग कुर्सी के  होकर रह जाते थे और तब वह उतना खुलते नहीं थे, जितना दोस्तों की महफिल में, दोस्तों की महफिलों में गले में हाथ डालकर बतियाने लगते थे और छूटते ही बलियाटिक हिंदी पर उतर आया करते थे। ऐसे जैसे वह किसी खोल से बाहर आ गये हों। एसपी सिंह की सफलता के  पीछे लोग चाहें जो भी कारण तलाशें परंतु कुर्सी पर कुर्सी का हो जाना ही उनकी सफलता का सच था।
एसपी सिंह अंर्तविरोधों को छोड़ दें तो निश्चित रूप से वे बहुत भावुक और सजग किस्म के  व्यक्ति थे। खासकर रविवार का उनका कार्यकाल सचमुच अविस्मरणीय है। रविवार के  मार्फत उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को जो नया तेवर और भाषा की अनूठी तल्खी दी। हिंदी पत्रकारिता को गुरु गंभीर्य खोल से बाहर निकालकर उसको विस्तृत फलक दिया। सीधी सच्ची और सरल भाषा दी। वह हमेशा याद की जाएगी। एसपी ने रविवार के  मार्फत एक काम यह भी किया कि बिल्कुल नए-नए लोगों को लिखने का मौका दिया। फ्रीलांसरों की एक लंबी फौज उन्होंने खड़ी कर दी, जिनमें से आजकल कई लोग प्रतिष्ठित पत्रकार बन चुके  हैं। कम से कम रविवार में वह जब तक रहे, तब तक बहुत आग्रह से काम किया। चाहे कोई हो, चाहे जहां की रिपोर्ट हो वह इस पर गौर नहीं करते थे। रिपोर्ट कैसी है और सच्ची है कि नहीं, इस पर गौर करते थे। शायद यही कारण था कि रविवार गांव-गांव तक पहुंचा लेकिन एसपी सिंह के  रविवार छोड़ने के  कुछ ही दिनों बाद रविवार बंद भी हो गया, तो लोगों ने इसको एक त्रासदी के  रूप में लिया। पत्रकारिता के  शीर्ष पर बैठने के  बाद आदमी जब अचानक बाहर हो जाता है, तो लोग उसे व्यतीत के  हवाले कर देते हैं। लेकिन एसपी व्यतीत में नहीं गये उन्होंने एक लड़ाई भी लड़ी, भले ही वह छद्म ही साबित हुई। लेकिन अपने अखबार मालिक के  खिलाफ उन्होंने संसद तक हल्ला मचवाया।
सुरेन्द्र प्रताप सिंह हिंदी पत्रकारिता और भाषाई पत्रकारिता के  जबर्दस्त पक्षधर थे। हालांकि उन्होंने टेलीग्राफ जैसे अंग्रेजी अखबार में भी काम किया। लेकिन जब इंडिया टुडे का हिंदी संस्करण निकला था तो उन्होंने एक लेख लिखकर यह बात साबित की थी कि साबित क्या स्थापित की थी कि अंग्रेजी पत्रकारिता कितनी खोखली है। उन्होंने एक नहीं कई अखबारों का हवाला दिया था। वह चाहे बिहार का अखफोड़वा कांड हो, अंतुले कांड या कमला कांड सभी की उन्होंने धज्जियां उड़ा दी थीं और कहा था कि यह सभी रिपोर्ट अंग्रेजी अखबारों में छपने के  बाद भले ही जानी गयी, लेकिन सच्चाई यह है कि इन घटनाओं की रिपोर्ट सबसे पहले वहां के  स्थानीय भाषाई अखबारों में छपी। वह चाहे मैथिली अखबार रहा हो या मराठी। इन भाषाई अखबारों से रिपोर्ट उठाकर अंग्रेजी अखबारों ने फालोअप किया। लेकिन यह बात छुपाकर कि फालोअप है। अंग्रेजी अखबारों ने इसे ओरिजिनल स्टोरी के  तौर पर लिखा। जबकि सच्चाई इसके  विपरीत थी। ठीक वैसे ही जैसे सचमुच एसपी सिंह ने अपने जीवन में सबसे अच्छा काम रविवार में किया। लेकिन जाने गये वह आजतक के  मार्फत। जब कि ‘आजतक’ एक मायने में ‘रविवार’ का ही

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