दलित साहित्य बनाम ललित साहित्य

Update:1997-10-09 19:19 IST
 
इधर पिछले कुछ अर्से से हिन्दी भाषी प्रदेशों में दलित राजनीति के  उभार के  साथ हिन्दी साहित्य में भी दलित चेतना की अनुगूंज सुनायी पड़ने लगी है। मराठी, गुजराती, तमिल एवं मलयालम भाषाओं में दलित साहित्य चेतना आन्दोलन का रूप ले चुकी है, लेकिन हिन्दी में आत्मकथ्यात्मक साहित्य से आरम्भ दलित साहित्य आज भी ठौर की तलाश में है। दलित साहित्य के  सन्दर्भ में उठे विवादों को लेकर कुछ साहित्यकारों से बातचीत की गयी। दलित लेखकों और दलित साहित्य के  गैर दलित लेखकों की दलित साहित्य के  इस विमर्श पर अलग-अलग राय है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के  अंशः
कहानीकार और हंस के  सम्पादक राजेन्द्र यादव का मानना है, ‘‘साहित्य की रचना सामाजिक विसंगतियों को लेकर ही होती है। चाहे वह सिद्ध साहित्य हो अथवा संत साहित्य। यह हमेशा दलित के  पक्ष में बोलता है। शायद यही वह है कि हिन्दी साहित्य के  रास्ते में जब-जब अवरोध आया है, उसे दलित साहित्यकारों ने ही नया मोड़ दिया। संत साहित्य का अधिकांश हिंस्सा साहित्य की दरबारी संस्कृति के  खिलाफ लिखा गया, दलितों द्वारा रचित है। आज दलित समाज के  लोग मार्मिकता के  साथ अपनी अनुभूतियां प्रस्तुत कर रहे हैं, उसे गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि आदर्श तो यही है कि आदमी अपनी बात सवयं कहे। इस आधार पर अगर दलित लेखक कहते हैं कि गैर दलित लेखक, दलितों के  - जीते हैं और इस तरह उनमें वास्तविकता भी है तो इसमें क्या गलत है? चाहे वह अमृत लाल नागर का लेखन हो या गिरिराज किशोर का। सबने गंभीरता के  साथ दलित साहित्य में योगदान किया है। परन्तु प्रस्तुति में कहीं न कहीं तो फर्क है ही और कमी भी है। इसीलिए अगर दलित साहित्यकार गैर दलित लेखकों द्वारा लिखे गये दलित साहित्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो इसका सीधा मतल है कि गैर दलित लेखकों पर उनका विश्वास नहीं है। दलित लेखक ही, दलित समाज की जिन्दगी को सचाई के  साथ उभार पाएंगे ऐसा भी मानते हैं। राजेन्द्र यादव का कहना है कि अब समय दलित साहित्य का है, कितने दिनों तक ललित साहित्य ओढ़ते-बिछाते रहेंगे।’’
लब्ध प्रतिष्ठि मराठी साहित्यकार शरणमार लिंबाले कहते हैं कि दलित समाज का उद्भव अब तक साहित्य में व्यक्त नहीं हुआ है। जाति विशेष का अनुभव है। इसीलिए यह एक व्यक्ति का होते हुए भी पूरी जाति को प्रतिनिधित्व करता है। उसकी पीड़ा और आक्रोश को प्रतिबिम्बित करता है। दलित साहित्य के  अनुभव, स्वतंत्रता, महत्वाकांक्षा से व्यक्त करते हैं। उसका स्वरूप ‘मैं’ की अपेक्षा ‘हम’ जैसा है। इसी अनुभव ने दलित लेखकों को लिखने के  लिए प्रेरित किया। दलित लेखन का ज्ञान गुलाम को गुलामी के  ज्ञान के  तरह यह ज्ञान ही दलित साहित्य का सार है। यह अन्य लेखकों की अपेक्षा दलित लेखक के  ज्ञान को अलग करता है, उसे विशिष्ट बनाता है। दलित लेखक आन्दोलन करके  लिखने वाला कार्यकर्ता कलाकार है। वह अपने साहित्य को आन्दोलन मानता है। बाबा साहेब अम्बेडकर के  विचारों से दलितों को अपनी गुलामी का अहसास हुआ। उसकी वेदना ही दलित साहित्य की जन्मदात्री है। दलित साहित्य की वेदना ‘मैं’ की वेदना नहीं है। वह बहिष्कृत समाज की वेदना है, इसीलिए इस वेदना का स्वरूप सामाजिक है।
अपने लेखन के  नाते खासे विवाद में रहे मुद्राराक्षस से जब दलित साहित्य पर विमर्श आरम्भ किया गया तो बोले, ‘कल राके श का एक प्ले हुआ था, नयी आर्थिक नीति पर। यह प्ले जिस शिल्प में हुआ वह शास्त्रीय परम्परा का नहीं है, वह दलित्य परम्परा का ही नाटक है, शिल्प है। जैसे हबीब तनवीर करते हैं। साहित्य का जो वर्तमान रूप है वह ठहरा हुआ है। यानि 35 वर्ष से कविताएं, कहानियां वैसे ही हैं जैसी 35 वर्ष पहले लिखी जा रही थीं। जाहिर है कि दूसरे क्षेत्रों में जब परिवर्तन हो चुका है साहित्य में शिल्प एवं कथ्यगत वैसा परिवत्रन होना चाहिए जैसा कला और नाटक के  क्षेत्र में हुआ है। नाटकों ने शत-प्रतिशत दलित आदिवासी मुहावरा अपनाया, वैसे ही साहित्य को भी शत-प्रतिशत दलित मुहावरा अपनाना पड़ेगा। नही ंतो ठहराव समाप्त नहीं होगा। परिवर्तन नहीं आएगा।
लखनऊ विश्वविद्यालय के  हिन्दी विभाग के  विभागाध्यक्ष और प्रयोजन मूलक हिन्दी के  क्षेत्र में काम करने वाले डाॅ. सूर्य प्रसाद दीक्षित का मानना हे, ‘‘कुल मिलाकर दलित साहित्य एक समसामयिक नारा है। वैसे तो नारे का समर्थन ही करना चाहिए, परन्तु मन यह कहता है कि हिन्दी साहित्य के  परिप्रेक्ष्य में दलित साहित्य जैसी किसी धारणा का पृृथक अस्तित्व नहीं होना चाहिए। क्योंकि हिन्दी का अधिकांश साहित्य कहीं न कहीं जन चेतना से प्रेरित है। यह अभिजात्य एवं इलिट की भाषा तो नहीं रही है। हमारे भक्ति काव्य के  अधिकतर कवि अन्त्यज और शोषित परम्परा के  रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी को सवर्णों का प्रतीक माना जाता है। परन्तु उन्होंने भी जन साधारण की पीड़ा को बेहद मार्मिक ढंग से चित्रित किया है।
दारिद दसानन दबाय दुखी दीनबन्धु, दुरित दहन देखि तुलसी हहकारी में कहा है कि दलित दारिद्र रूपी रावण ने पूरी दुनिया को दबोच लिया है, हे दीनबन्धु! इस रावण को भी मारो। हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद को छोड़कर सभी कवि जन साधारण के  बीच के  रहे हैं। रीतिकाल के  एक डेढ़ वर्षों को छोड़ दिया जाय तो हिन्दी साहित्य का लेखन मानवता से प्रेरित रहा है। निराला की स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि उनकी कथनी और करनी दोनों में दलित बोध है।
1936 में जब लखनऊ में जनवादी लेखक संघ का सम्मेलन हुआ और प्रगतिशील साहित्य की बात चली तो प्रेमचन्द ने साफ शब्दों में कहा था, साहित्य में प्रगतिशील लगाने का क्या औचित्य है? यह बात दलित साहित्य के  सन्दर्भ में भी लागू होती है। मराठी साहित्य में कहा गया है कि दलितों द्वारा दलितों के  प्रति लिखा गया साहित्य दलित साहित्य है। डाॅ. दीक्षित राज्य सरकार की ओर से जारी एक परिपत्र का हवाला देते हुए कहते हैं कि गिरिराज किशोर की परिशिष्ट डा. एच.एन. सिंह का कविता संकलन ‘दर्द के  दस्तावेज’, कहानी संकलप ‘काले हाशिये’ और ‘कठौती मंे गंगा’ किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल करने के  निर्देश जारी किये गये थे। इनमें पाठ्यक्रम के  लायक कोई पुस्तक नहीं पायी गयी। अगर दलित साहित्य जैसे आन्दोलन सफल हुए तो जातियों के  साहित्य का दौर चल निकलेगा।’’
दलित लिबरेशन फ्रंट पत्रिका से जुड़े साहित्यकार एसआर दारापुरी का कहना है कि दलित साहित्य की शुरू से ही अलग धारा रही है। इस वर्ग के  लेखक संतो ंके  रूप में अपना नजरिया पेश करते आये हैं। जिसे पहले दबाया गया। नजरअंदाज किया गया। चूंकि सवर्ण साहित्य डामिनेट करता है इसीलिए दलित साहित्य की बात करने पर शोर मचाया जा रहा है जबकि दलित वर्ग बराबर लोकगीतों, दोहों के  माध्यम से अपनी बात कहता रहा है।
दलित साहित्यकार छेदी लाल साथी बताते हैं, ‘वर्ण व्यवस्था के  आधार पर हजारों साल से जो मनोवृत्ति बनी है वह दलित साहित्य के  उभार को रोकना चाहती है। वे डा. अम्बेडकर के  जीवन की एक घटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि पांच साल की उम्र में जब डा. अम्बेडकर नाई के  यहां बाल कटाने गये तो उसने बाल काटने से मना कर दिया था। यह घटना क्या दलित साहित्य के  औचित्य को स्पष्ट नहीं करती है। दलित साहित्य के  लिए बगावत तो करनी ही पड़ेगी, लेकिन शेड्यूल कास्ट के  आदमी को अन्य वर्ग के  प्रगतिशील लोगों को भी साथ लेना ही पड़ेगा। बिना उनके  कुछ सम्भव नहीं है।
                जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के  डा. तुलसीराम दलित साहित्य को दो भागों में बांटकर देखते हैं। एक वह जो गैर दलित साहित्यकारों द्वारा लिखा गया है। दूसरा स्वयं दलितों द्वारा लिखा गया। इनका मानना है कि वेद, पुराण, महाभारत, गीता, मनुस्मृति सभी दलित विरोधी साहित्य हैं। इनका मूल आधार वर्ण व्यवस्था है। ये दलित साहित्य के  दार्शनिक और वैचारिक आधार के  स्रोत गौतम बुद्ध को मानते हैं। बुद्ध निर्वाण के  करीब छह सौ वर्ष बाद बुद्ध चरित ग्रंथ के  रचनाकार अश्वघोष पहले संस्कृत कवि थे जिन्होंने वर्ण व्यवस्था पर आक्रमण करते हुए वज्र सूची नामक काव्य ग्रंथ लिखा। डा. तुलसीराम वज्र सूची को दलित साहित्य की रचना मानते हैं। ये संत कवियों की भूमिका को ब्राम्हणवाद को मजबूत करने वाला बताते हैं। डा. तुलसीराम आधुनिक दलित साहित्य का जनक डा. अम्बेडकर को मानते हुए कहते हैं। यद्यपि डा. अम्बेडकर कोई कवि या उपन्यासकार नहीं थे, किन्तु बुद्ध के  बाद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंकने के  लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। वे बताते हैं गैर दलित लेखक दलित साहित्य लिख सकता है, परन्तु उसे हिन्दू धर्म छोड़ना होगा। यदि कोई गैर दलित गौतम बुद्ध की परम्परा में अश्वघोष बनकर आता है तो वह निश्चित रूप से दलित साहित्यकार बन सकता है न कि कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य की परम्परा में।’
कहानीकार कामतानाथ साहित्य को बांटने से अहसमत हैं। वह कहते हैं-किसी वर्ग का साहित्य नहीं हो सकता है। यह सम्भव है कि आम साहित्य में किसी वर्ग विशेष की अभिव्यक्ति न हुई हो-जैसे मजदूर आन्दोलनों और ब्यूरोक्रेसी के  कार्यप्रणाली पर प्रभावी साहित्य नहीं लिखे गये हैं। दलित साहित्य की बात करने वालों को यह तय करना चाहिए कि दलित साहित्य मात्र दलितों द्वारा लिया गया साहित्य है और /या दलितों की अभिव्यक्ति को प्रतिनिधित्व देने वाला साहित्य।
प्रगतिशील साहित्यकार वीरेन्द्र यादव कहते हैं, ‘जहां भारतीय भाषाओं में दलित चेतना की अभिव्यक्ति सृजनात्मक साहित्य के  माध्यम से हुई है वहीं हिन्दी में दलित चेतना की ठोस सृजनात्मक अभिव्यक्ति लगभग नदारद है, साहित्य एवं संस्कृति के  क्षेत्र में दलितों का, दलितों के  लिए, दलितों द्वारा का नारा एक संकीर्ण आत्मघाती प्रवृत्ति का ही परिचायक है, जो संस्कृति के  क्षेत्र में शत्रु-मित्र की पहचान को धुंधलाते हुए दलित सांस्कृतिक अभियान की गति को बाधित करता है।
दस्तावेज पत्रिका के  सम्पादक और समीक्षक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है कि हिन्दी में तो दलित साहित्य का आन्दोलन नया है। हिन्दी साहित्य में गैर दलित लेखकों ने बहुत कुछ ऐसा लिखा है, जो दलित संवेदना को बड़ी गहराई से व्यक्त करता है। जो यह झगड़ा है कि दलित ही दलित चेतना को व्यक्त कर सकता है, इस पर मेरा विश्वास नहीं है।
समीक्षक डा. दूधनाथ सिंह से जब दलित विमर्श के  बावत पूछा गया तो बोले, अरे यार! जस्ट आफ। मैं कुछ और काम कर रहा हूं। फिर भी मेरा मानना है कि दलित साहित्य के  नाम पर अगर कोई चीज होती है तो वह नारे के  रूप में होगी। अपनी पहचान बनाने के  लिए होगी। जैसे दलित, गैर दलितों के  बारे में लिखने के  अधिकारी हैं वैसे ही दलितों की संवेदना के  बारे में लिखने का अधिकारी भी गैर दलितों को क्यों नहीं होना चाहिए?
नयी कविता के  सशक्त कवि एवं चित्रकार डा. जगदीश गुप्त कहते हैं कि ‘एक साहित्यिक दृष्टि होती है दूसरी राजनीतिक दृष्टि। विभेद साहित्य में नहीं-राजनीति में होता है। दलित की बात दलित ही कहें यह संकीर्णता है, फिर भी उनका कहना है कि हम दलित हैं हमारी जीवन चर्या में जो समस्याएं प्रत्यक्षतः आयी हैं उनके  बारे में मैं कह सकता हूं, यह बात तो सही है ही।’
 

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