भारतीय परम्परा में कविता कहानी से शुरू होती है। अच्छा गद्य कहीं न कहीं एक अच्छी कविता है और अच्छी कविता कहीं न कहीं एक अच्छा गद्य। कविता एक एसेंस का नाम है। एक एलिमेंट है। एक मूर्ति शिल्प में भी कविता हो सकती है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक सुन्दर जूते में। कविता के बारे में ये विचार हंै ‘अनुभव के आकाश में चांद’ कविता संग्रह पर ’97 का साहित्य अकादमी पुरस्कार पाये लीलाधर जगूड़ी के । जगूड़ी से इस अवसर पर राष्ट्रीय सहारा के योगेश मिश्र/महेश पाण्डेय ने लम्बी बातचीत की। बातचीत में जगूड़ी कई बार टोलियों के फोन पर बधाई के सिलसिले के कारण प्रश्न से इतर खड़े हो उठते थे। फिर स्वयं को बांध कर उत्तर को समेटते हुए जगूड़ी ने कई बार टोलियों में आये मोहल्ले वालों की बधाई स्वीकार करने की औपचारिकता भी निभायी। यशपाल, भगवती चरण वर्मा, कुंवर नारायण और श्रीलाल शुक्ल के बाद लखनऊ में साहित्य अकादमी का यह पुरस्कार पाने वाले जगूड़ी ने बातचीत में अंग्रेजी भाषा को साहित्य अकादमी पुरस्कार न दिये जाने को रेखांकित किया। अखबारों में छपी खबरों को पढ़कर फोन पर बधाईयों का सिलसिला पूरी बातचीत में साक्षात्कार से ज्यादा प्रभावी रहा। अखबारों की खबरों की कतरब्योंत होती रही। तमाम सवालों से रू-ब-रू लीलाधर जगूड़ी से बातचीत के मुख्य अंश प्रस्तुत हैं....
साहित्य अकादमी पुरस्कार की घोषणा पर आपको कैसा लगा?
देखिए, पुरस्कार मिलने पर किसको अच्छा नहीं लगता, किसे अच्छा नहीं लगेगा। साहित्य अकादमी पुरस्कार का महत्व इसलिए ज्यादा है क्योंकि वह भारत की लोकतांत्रिक जनता और जनतांत्रिक शासन की तरफ से स्थापित अकादमी की तरफ से दिया जाता है।
इससे पहले भी आप कई बार पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं जैसे रघुवीर सहाय सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का पुरस्कार आदि इन पुरस्कारों के अनुभवों में क्या अन्तर है?
हां, अंतर है। जरूर है। सबसे पहले चीज तो यह है कि साहित्य एके डमी के पुरस्कार अभी तक निर्विवाद रहे हैं और उनकी चयन प्रक्रिया के बारे में बहुत कम संदेह व्यक्त किया गया है। अपनी बात साफ करते हुए उन्होंने जोड़ा संदेह तो व्यक्त किया गया है परन्तु, संदेह की वजह मूलतः सम्भवतः यह रही है कि हिन्दी क्षेत्र की विराटता और हिन्दी बोलने वालों की संख्या को देखते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार आधे भारत में एक वर्ष में के वल एक व्यक्ति को दिया जाता है जबकि शेष आधे भारत में लगभग 20-25 लेखक पुरस्कृत होते हैं। अपनी बात को जोड़ते हुए जगूड़ी ने कहा आधे भारत से मेरा मतलब भारत के उन पांच बड़े सूबों से है, जिनमें हिन्दी बोली जाती है। जनसंख्या व क्षेत्र की दृष्टि से देखा जाये तो यह पुरस्कार संख्या की दृष्टि से हिन्दी के लिए बहुत कम महसूस होता है। हिन्दी मंे इस पुरस्कार के लिए बहुत कम महसूस होता है। हिन्दी में इस पुरस्कार को विधाओं पर आधारित होना चाहिए। एक पुरस्कार कविता व नाटक पर, दूसरा कहानी व उपन्यास पर, तीसरा पुरस्कार यात्रा वृतांत, संस्मरण, आलोचना, रिपोर्ताज, निबंध आदि विधाओं पर दिया जाना चाहिए। अगर हिन्दी में साहित्य अकादमी के पुरस्कार विधाओं पर आधारित नहीं होंगे तो अच्छे साहित्य को समय से चिन्हित नहीं किया जा सके गा। यद्यपि पुरस्कार मिलने से ही कोई साहित्य अच्छा नहीं हो जाता।
सुना जाता है कि आपके पिछले कविता संग्रह ‘भय भी शक्ति देता है’ पर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने की चर्चा थी। खैर चलिए, आप क्या यह मानते हैं कि आज आपको जो पुरस्कार मिला वह सही समय पर है या देर से?
एक रचनाकार के रूप में अपनी हर रचना या किताब से मोह होना बहुत स्वाभाविक है। पुरस्कार से अधिक खुशी मुझे तब होती है जब कोई एक अच्छी पंक्ति दिमाग में आ जाये। एक अच्छा विचार और विम्ब, कथ्य का मिल जाना सबसे बड़ी उपलब्धि या पुरस्कार मैं समझता हूँ। फिर भी पुरस्कार जब मिल जाये तभी उसको सही समय पर मिला हुआ मानना चाहिए। क्योंकि हिन्दी में विचार को कम महत्व दिया जाता है लेखक की उम्र को अधिक। जबकि भारत की दूसरी भाषाओं में साहित्य अकादमी पुरस्कार 25 वर्ष से लेकर 35 वर्ष की उम्र तक के लेखकों को प्राप्त हो जाता है। वहां लेखकों को बूढ़े होने का इंतजार इसलिए नहीं करना पड़ता क्यांेकि वहां लेखकों की तादाद और प्रतियोगिता दोनों कम है।
आपका जीवन बेहद संघर्षों में बीता। आज आप सफलता के मुकाम पर हैं? क्या संघर्षों को भूलना चाहते हैं या शक्ति ग्रहण करना चाहते हैं?
मैं तो सफलता के मुकाम पर पहुंचा हुआ स्वयं को नहीं महसूस करता क्योंकि पुरस्कार प्राप्त करना सफलता नहीं है। संघर्षों ने शक्ति दी है और विपत्तियों ने मेरे जीवन में हमेशा एक नया द्वार खोला है।
जब आपने लिखना शुरू किया तो वह अकविता का दौर था, जिसे अराजक कविता का दौर भी कहा जाता है। आपकी कविता इस आन्दोलन के संदर्भ में कहां खड़ी थी?
अकविता एक ऐतिहासिक भूमिका है। एक नकली शब्दाडम्बरों से भरी कविता के विरूद्ध उसने भले ही असली शब्द पैदा नहीं किये पर नकली शब्दों की हवा निकाल दी। अकविता मनुष्य को सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में के न्द्र बनाकर रखकर लिखी जा रही थी। उसके चारो ओर का परिवेश, समाज, उसका बम्हाण्डीय दायित्व इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था। जो खोखले मनुष्य की ऐन्द्रिय चेतना को न भाषा दे सकी थी न मनुष्य को। मैंने सबसे पहले अकविता के विरूद्ध लिखना और बोलना शुरू किया। और अपने विचारों की पुष्टि ने सुमित्रानन्दन पंत की कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत करके अकवितावादियों को जवाब दिया। पंत की कविताएं अगर सरल भाषा में समझ ली जाये तो अकविता वालों का जो दैहिक चिंतन है उसके वह काफी निकट ही नहीं बल्कि उससे कहीं तीव्रतर संवेना की भी प्रतीति कराती है। धूमिल ने अकविता को तोड़ा और उसे समाजोन्मुखी अनुभवों की भाषा दी।
अभी आपने नकली शब्दों की बात उठायी है इसका क्या मायने है?
नकली शब्दों से मेरा आशय उन शब्दों से है जो जीवन के गहरे अनुभवों से न बने हों।
पहले आप गढ़वाली में लिखते थे फिर कट से गये ऐसा क्यों हुआ?
देखिए, गढ़वाली एक बोली है, भाषा नहीं है। गढ़वाली और कुमाऊंनी का कोई प्रमाणिक व्याकरण नहीं है। उसका जीवन और समाज इतना सीमित है कि तमाम बातें कहने के लिए बाहर आना ही पड़ता है। यह बात दूसरी है कि गढ़वाली लोकगीतों में शक्ति है। इनमें अनुभव का गहरा स्पर्श है लेकिन महज लोकगीतों से ही भाषा समृद्ध नहीं होती है। भाषा तब समृद्ध होती है जब जीवन का व्यापार बढ़ता है। पहाड़ी क्षेत्र में जीवन का व्यापार आजादी के बाद से सिर्फ दस प्रतिशत बढ़ पाया है। जब तक जीवन और जगत का व्यापार बहुत नहीं बढ़ेगा तब तक भाषा में नये शब्द नहीं पैदा होंगे।
आजादी के बाद से पहाड़ों पर एकमात्र चिंता चिपको आन्दोलन के रूप में दिखायी दी। शराबबंदी के खिलाफ भी आंदोलन तो हुए लेकिन इन पर लोकगीत नहीं लिखे गये? लोक कवि पैदा हुए, लोक कविताएं प्रकाशित हुईं? एक ऐसा समाज जो स्वयं को लोकगीतों पर जीवित रखे हुए था उसके स्वपर में चिपको आंदोलन और शराब बंदी जैसे मुद्दे नहीं आये।
आपकी कविता पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव है, साहित्य में यूरोपीय संस्कृति का प्रभाव कम नहीं है। दोनों काव्य संस्कृतियों के बारे में आपके तुलनात्मक विचार क्या हैं?
मैं बिल्कुल नहीं मानता कि मेरी कविता पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव है। क्यांेकि भारतीय संस्कृति स्थिर चीज तो है नहीं। वैसे भी संस्कृति स्थिरता की चीज नहीं होती। कोई भी संस्कृति दूसरी संस्कृतियों से परिसंवाद करती है। परिणामतः दोनों संस्कृतियों में गुणात्मक परिवर्तन होते रहते हैं। लेकिन एक बात सच है कि जो आवाज आवाज ही, भारतीय संस्कृति में दुनिया के दूसरी संस्कृतियों से रही है वैसा दुनिया के अन्य संस्कृतियों में कम ही देखने को मिलती है। यही कारण है कि भारतीय भूखण्ड पर जितनी भाषाएं हैं वे भी एक दो शताब्दी में अपना रूप बदल लेती हैं। आप पायेंगे कि सौ साल पहले की हिन्दी आज की हिन्दी जैसी नहीं थी। आज की हिन्दी में कई संस्कृतियों की छाप है। इसीलिए मेरी कविता में भारतीय संस्कृति की पुरानी स्मृतियां आज के हिन्दी में ही सम्भवतः घटित होती हैं।
आप बहुचर्चित लम्बी कविताआंे के कवि माने जाते हैं। जैसा कि आपका संग्रह ‘महाकाव्य के बिना’ प्रकाशित भी हुआ है। लम्बी कविताओं के बारे में आपके क्या विचार हैं?
लम्बी कविता हिन्दी में अपेक्षाकृत अन्य आन्दोलनों से कुछ ज्यादा पुराना है। लम्बी कविता 1525 से हिन्दी में शुरू हुई, ऐसा मेरा मानना है। 1525 में सुदामा चरित नामक कविता नरोत्तमदास ने लिखी थी वह कविता अवधी और हिन्दी भाषाओं में है जो न तो महाकाव्य है न खण्ड काव्य। बल्कि अपने विकास में मुझे यह हिन्दी की लम्बी कविता का प्रारम्भिक माॅडल लगती है। तुलसीदास भी नरोत्तमदास के बाद के कवि हैं। बल्कि एक स्तर पर उन्हें बाद के होते हुए भी समकालीन कहा जा सकता है। मुझे तो लम्बी कविताएं महाकाव्य एवं खण्ड काव्य का विकल्प लगती हैं।
आज की कविता में लम्बी कविताएं नहीं लिखी जा रहीं। इसका कोई सामाजिक कारण है या लेखकों की असमर्थता?
मैंने तो लम्बी कविताएं प्रायः इसलिए भी लिखी हैं कि मैं जब अपने पहाड़ी क्षेत्रों में पढ़ाता था। तो मुझे रोज लगभग 20 किमी पैदल जाना और आना पड़ता था। इस यात्रा में कविताएं सोचता था और सोचते-सोचते कविताओं का रूपाकार भी लम्बा हो जाता था। मेरी कविताओं का आकार लखनऊ आने के बाद छोटा हुआ है क्योंकि पैदल चलने की सम्भावनाएं नष्ट हो गयी हैं। तेज गति से चलने वाले वाहनों पर आखिर कितना सोचा जा सकता है।
आपके बारे में कहा जाता है कि उपभोक्ता संस्कृति के संकट को सबसे शिद्दत और गहराई से आपने रेखांकित किया है, इस पर आपकी क्या राय है?
सच पूछिए तो मुझे ऐसा नहीं लगता। मुझे तो लगता है कि मैं उपभोक्ता संस्कृति का सबसे ज्यादा शिकार हूं। भला उसे मैं कैसे सबसे ज्यादा समझ सकता हूं अगर समझता तो शिकार होने से बचता नहीं क्या?
आज के समाज के मुख्य संकट कौन-कौन से हैं?
सच कहा जाये तो आज के समाज का एक ही संकट है सिद्धांत-शून्यता।
आज की कविता कहां खड़ी है और इक्कीसवीं शताब्दी की कविता के बारे में आपकी क्या राय है?
आज कविता वहां खड़ी है जहां आज का जीवन और समाज खड़ा है। 21वीं सदी में कविता की मनुष्य को सबसे ज्यादा जरूरत होगी, क्योंकि कविता भाषा में शब्दों की मितव्ययिता, संशलिष्टता और सूत्रात्मकता को बनाये रखने का सबसे सरल माध्यम है।
हिन्दी साहित्य में दलित चेतना का सवाल गम्भीर रूप लेता जा रहा है। दलित साहित्य के बारे में आपकी क्या राय है?
हिन्दी समाज स्वयं बहुत दलित मनोवृत्ति का समाज रहा है। बावजूद इसके इसमें वर्ण व्यवस्था का भी जबर्दस्त हाथ है। दलित कोई जाति नहीं होती, मनोवृत्ति है और दलित मनोवृत्ति का साहित्य हिन्दी में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
आपकी कविताओं में पहाड़ बहुत हैं। पहाड़ के सुख-दुख बहुत ज्यादा प्रकट हुए हैं?
पहाड़ तो जीवनभर मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे और पहाड़ों के बीच पैदा हुआ हूं तो कुछ विशेष लगाव पहाड़ों से होना लाजमी है। एक डाक्टर ने मेरे गाल ब्लैडर का आपरेशन करके कहा, पहाड़ में पैदा हुए हो, पेट में भी पत्थर लिये घूमते हो।
आजकल कहानी और कविता के विवाद का सवाल गहराता जा रहा है और यह कहा जाने लगा है कि अब कहानी के न्द्र में है और कविता हाशिये पर। इस बारे में आपकी क्या राय है?
देखिए, कविता और कहानी का जन्म एक साथ ही हुआ है। भारतीय परम्परा में कविता कहानी से ही शुरू होती है। रामायण को सबसे पहला काव्य माना जाता है। उस कविता में राम की कथा है जो लोग कविता और कहानी में अन्तर समझते हैं वे अनुभव के मर्म को नहीं समझते हैं। वे विधा की चिन्ता करने हैं, विचार की नहीं। विधाएं परस्पर एक दूसरे की पूरक होती हैं, शत्रु नहीं। एक अच्छा गद्य कहीं न कहीं एक अच्छी कविता है और एक अच्छी कविता कहीं न कहीं एक अच्छा गद्य है। कुछ लोग टेढ़ी-मेढ़ी दो पंक्तियों को कविता समझते हैं और सीधा-सीधा जो कुछ लिखा हो उसे गद्य। सच पूछिए तो कविता एक ‘एसेंस’ का नाम है। एक ‘एलिमेंट’ का नाम है। अर्थात् कविता सार तत्व का नाम है। सार तत्व जहां भी हो वह कविता है। सारतत्व का सौन्दर्य गद्य और पेंटिंग को भी आकर्षक बनाता है। एक मूर्ति शिल्प में कविता हो सकती है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक सुन्दर जूते में। कविता के वल शब्दों में ही नहीं होती, वह दृश्य में भी हो सकती है, देखने वालों में दृष्टि चाहिए।
और कुछ.......?
मैं यह जानना चाहता हूं कि हिन्दी समाज पढ़ने-लिखने से दूर क्यों होता जा रहा है? हिन्दी भाषी परिवारों में अच्छी किताबों की उपस्थिति और इनके सौन्दर्य को न जानने की जो स्थितियां हैं वो चिन्ताजनक हैं। मैं चाहता हूं कि हिन्दी समाज अच्छी कविताओं को ढूंढ़कर पढ़े तभी दुःसाहसिक प्रकाशकों का अधिक कीमत वसूलने का दुःसाहस टूटेगा।
साहित्य अकादमी पुरस्कार की घोषणा पर आपको कैसा लगा?
देखिए, पुरस्कार मिलने पर किसको अच्छा नहीं लगता, किसे अच्छा नहीं लगेगा। साहित्य अकादमी पुरस्कार का महत्व इसलिए ज्यादा है क्योंकि वह भारत की लोकतांत्रिक जनता और जनतांत्रिक शासन की तरफ से स्थापित अकादमी की तरफ से दिया जाता है।
इससे पहले भी आप कई बार पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं जैसे रघुवीर सहाय सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का पुरस्कार आदि इन पुरस्कारों के अनुभवों में क्या अन्तर है?
हां, अंतर है। जरूर है। सबसे पहले चीज तो यह है कि साहित्य एके डमी के पुरस्कार अभी तक निर्विवाद रहे हैं और उनकी चयन प्रक्रिया के बारे में बहुत कम संदेह व्यक्त किया गया है। अपनी बात साफ करते हुए उन्होंने जोड़ा संदेह तो व्यक्त किया गया है परन्तु, संदेह की वजह मूलतः सम्भवतः यह रही है कि हिन्दी क्षेत्र की विराटता और हिन्दी बोलने वालों की संख्या को देखते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार आधे भारत में एक वर्ष में के वल एक व्यक्ति को दिया जाता है जबकि शेष आधे भारत में लगभग 20-25 लेखक पुरस्कृत होते हैं। अपनी बात को जोड़ते हुए जगूड़ी ने कहा आधे भारत से मेरा मतलब भारत के उन पांच बड़े सूबों से है, जिनमें हिन्दी बोली जाती है। जनसंख्या व क्षेत्र की दृष्टि से देखा जाये तो यह पुरस्कार संख्या की दृष्टि से हिन्दी के लिए बहुत कम महसूस होता है। हिन्दी मंे इस पुरस्कार के लिए बहुत कम महसूस होता है। हिन्दी में इस पुरस्कार को विधाओं पर आधारित होना चाहिए। एक पुरस्कार कविता व नाटक पर, दूसरा कहानी व उपन्यास पर, तीसरा पुरस्कार यात्रा वृतांत, संस्मरण, आलोचना, रिपोर्ताज, निबंध आदि विधाओं पर दिया जाना चाहिए। अगर हिन्दी में साहित्य अकादमी के पुरस्कार विधाओं पर आधारित नहीं होंगे तो अच्छे साहित्य को समय से चिन्हित नहीं किया जा सके गा। यद्यपि पुरस्कार मिलने से ही कोई साहित्य अच्छा नहीं हो जाता।
सुना जाता है कि आपके पिछले कविता संग्रह ‘भय भी शक्ति देता है’ पर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने की चर्चा थी। खैर चलिए, आप क्या यह मानते हैं कि आज आपको जो पुरस्कार मिला वह सही समय पर है या देर से?
एक रचनाकार के रूप में अपनी हर रचना या किताब से मोह होना बहुत स्वाभाविक है। पुरस्कार से अधिक खुशी मुझे तब होती है जब कोई एक अच्छी पंक्ति दिमाग में आ जाये। एक अच्छा विचार और विम्ब, कथ्य का मिल जाना सबसे बड़ी उपलब्धि या पुरस्कार मैं समझता हूँ। फिर भी पुरस्कार जब मिल जाये तभी उसको सही समय पर मिला हुआ मानना चाहिए। क्योंकि हिन्दी में विचार को कम महत्व दिया जाता है लेखक की उम्र को अधिक। जबकि भारत की दूसरी भाषाओं में साहित्य अकादमी पुरस्कार 25 वर्ष से लेकर 35 वर्ष की उम्र तक के लेखकों को प्राप्त हो जाता है। वहां लेखकों को बूढ़े होने का इंतजार इसलिए नहीं करना पड़ता क्यांेकि वहां लेखकों की तादाद और प्रतियोगिता दोनों कम है।
आपका जीवन बेहद संघर्षों में बीता। आज आप सफलता के मुकाम पर हैं? क्या संघर्षों को भूलना चाहते हैं या शक्ति ग्रहण करना चाहते हैं?
मैं तो सफलता के मुकाम पर पहुंचा हुआ स्वयं को नहीं महसूस करता क्योंकि पुरस्कार प्राप्त करना सफलता नहीं है। संघर्षों ने शक्ति दी है और विपत्तियों ने मेरे जीवन में हमेशा एक नया द्वार खोला है।
जब आपने लिखना शुरू किया तो वह अकविता का दौर था, जिसे अराजक कविता का दौर भी कहा जाता है। आपकी कविता इस आन्दोलन के संदर्भ में कहां खड़ी थी?
अकविता एक ऐतिहासिक भूमिका है। एक नकली शब्दाडम्बरों से भरी कविता के विरूद्ध उसने भले ही असली शब्द पैदा नहीं किये पर नकली शब्दों की हवा निकाल दी। अकविता मनुष्य को सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में के न्द्र बनाकर रखकर लिखी जा रही थी। उसके चारो ओर का परिवेश, समाज, उसका बम्हाण्डीय दायित्व इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था। जो खोखले मनुष्य की ऐन्द्रिय चेतना को न भाषा दे सकी थी न मनुष्य को। मैंने सबसे पहले अकविता के विरूद्ध लिखना और बोलना शुरू किया। और अपने विचारों की पुष्टि ने सुमित्रानन्दन पंत की कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत करके अकवितावादियों को जवाब दिया। पंत की कविताएं अगर सरल भाषा में समझ ली जाये तो अकविता वालों का जो दैहिक चिंतन है उसके वह काफी निकट ही नहीं बल्कि उससे कहीं तीव्रतर संवेना की भी प्रतीति कराती है। धूमिल ने अकविता को तोड़ा और उसे समाजोन्मुखी अनुभवों की भाषा दी।
अभी आपने नकली शब्दों की बात उठायी है इसका क्या मायने है?
नकली शब्दों से मेरा आशय उन शब्दों से है जो जीवन के गहरे अनुभवों से न बने हों।
पहले आप गढ़वाली में लिखते थे फिर कट से गये ऐसा क्यों हुआ?
देखिए, गढ़वाली एक बोली है, भाषा नहीं है। गढ़वाली और कुमाऊंनी का कोई प्रमाणिक व्याकरण नहीं है। उसका जीवन और समाज इतना सीमित है कि तमाम बातें कहने के लिए बाहर आना ही पड़ता है। यह बात दूसरी है कि गढ़वाली लोकगीतों में शक्ति है। इनमें अनुभव का गहरा स्पर्श है लेकिन महज लोकगीतों से ही भाषा समृद्ध नहीं होती है। भाषा तब समृद्ध होती है जब जीवन का व्यापार बढ़ता है। पहाड़ी क्षेत्र में जीवन का व्यापार आजादी के बाद से सिर्फ दस प्रतिशत बढ़ पाया है। जब तक जीवन और जगत का व्यापार बहुत नहीं बढ़ेगा तब तक भाषा में नये शब्द नहीं पैदा होंगे।
आजादी के बाद से पहाड़ों पर एकमात्र चिंता चिपको आन्दोलन के रूप में दिखायी दी। शराबबंदी के खिलाफ भी आंदोलन तो हुए लेकिन इन पर लोकगीत नहीं लिखे गये? लोक कवि पैदा हुए, लोक कविताएं प्रकाशित हुईं? एक ऐसा समाज जो स्वयं को लोकगीतों पर जीवित रखे हुए था उसके स्वपर में चिपको आंदोलन और शराब बंदी जैसे मुद्दे नहीं आये।
आपकी कविता पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव है, साहित्य में यूरोपीय संस्कृति का प्रभाव कम नहीं है। दोनों काव्य संस्कृतियों के बारे में आपके तुलनात्मक विचार क्या हैं?
मैं बिल्कुल नहीं मानता कि मेरी कविता पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव है। क्यांेकि भारतीय संस्कृति स्थिर चीज तो है नहीं। वैसे भी संस्कृति स्थिरता की चीज नहीं होती। कोई भी संस्कृति दूसरी संस्कृतियों से परिसंवाद करती है। परिणामतः दोनों संस्कृतियों में गुणात्मक परिवर्तन होते रहते हैं। लेकिन एक बात सच है कि जो आवाज आवाज ही, भारतीय संस्कृति में दुनिया के दूसरी संस्कृतियों से रही है वैसा दुनिया के अन्य संस्कृतियों में कम ही देखने को मिलती है। यही कारण है कि भारतीय भूखण्ड पर जितनी भाषाएं हैं वे भी एक दो शताब्दी में अपना रूप बदल लेती हैं। आप पायेंगे कि सौ साल पहले की हिन्दी आज की हिन्दी जैसी नहीं थी। आज की हिन्दी में कई संस्कृतियों की छाप है। इसीलिए मेरी कविता में भारतीय संस्कृति की पुरानी स्मृतियां आज के हिन्दी में ही सम्भवतः घटित होती हैं।
आप बहुचर्चित लम्बी कविताआंे के कवि माने जाते हैं। जैसा कि आपका संग्रह ‘महाकाव्य के बिना’ प्रकाशित भी हुआ है। लम्बी कविताओं के बारे में आपके क्या विचार हैं?
लम्बी कविता हिन्दी में अपेक्षाकृत अन्य आन्दोलनों से कुछ ज्यादा पुराना है। लम्बी कविता 1525 से हिन्दी में शुरू हुई, ऐसा मेरा मानना है। 1525 में सुदामा चरित नामक कविता नरोत्तमदास ने लिखी थी वह कविता अवधी और हिन्दी भाषाओं में है जो न तो महाकाव्य है न खण्ड काव्य। बल्कि अपने विकास में मुझे यह हिन्दी की लम्बी कविता का प्रारम्भिक माॅडल लगती है। तुलसीदास भी नरोत्तमदास के बाद के कवि हैं। बल्कि एक स्तर पर उन्हें बाद के होते हुए भी समकालीन कहा जा सकता है। मुझे तो लम्बी कविताएं महाकाव्य एवं खण्ड काव्य का विकल्प लगती हैं।
आज की कविता में लम्बी कविताएं नहीं लिखी जा रहीं। इसका कोई सामाजिक कारण है या लेखकों की असमर्थता?
मैंने तो लम्बी कविताएं प्रायः इसलिए भी लिखी हैं कि मैं जब अपने पहाड़ी क्षेत्रों में पढ़ाता था। तो मुझे रोज लगभग 20 किमी पैदल जाना और आना पड़ता था। इस यात्रा में कविताएं सोचता था और सोचते-सोचते कविताओं का रूपाकार भी लम्बा हो जाता था। मेरी कविताओं का आकार लखनऊ आने के बाद छोटा हुआ है क्योंकि पैदल चलने की सम्भावनाएं नष्ट हो गयी हैं। तेज गति से चलने वाले वाहनों पर आखिर कितना सोचा जा सकता है।
आपके बारे में कहा जाता है कि उपभोक्ता संस्कृति के संकट को सबसे शिद्दत और गहराई से आपने रेखांकित किया है, इस पर आपकी क्या राय है?
सच पूछिए तो मुझे ऐसा नहीं लगता। मुझे तो लगता है कि मैं उपभोक्ता संस्कृति का सबसे ज्यादा शिकार हूं। भला उसे मैं कैसे सबसे ज्यादा समझ सकता हूं अगर समझता तो शिकार होने से बचता नहीं क्या?
आज के समाज के मुख्य संकट कौन-कौन से हैं?
सच कहा जाये तो आज के समाज का एक ही संकट है सिद्धांत-शून्यता।
आज की कविता कहां खड़ी है और इक्कीसवीं शताब्दी की कविता के बारे में आपकी क्या राय है?
आज कविता वहां खड़ी है जहां आज का जीवन और समाज खड़ा है। 21वीं सदी में कविता की मनुष्य को सबसे ज्यादा जरूरत होगी, क्योंकि कविता भाषा में शब्दों की मितव्ययिता, संशलिष्टता और सूत्रात्मकता को बनाये रखने का सबसे सरल माध्यम है।
हिन्दी साहित्य में दलित चेतना का सवाल गम्भीर रूप लेता जा रहा है। दलित साहित्य के बारे में आपकी क्या राय है?
हिन्दी समाज स्वयं बहुत दलित मनोवृत्ति का समाज रहा है। बावजूद इसके इसमें वर्ण व्यवस्था का भी जबर्दस्त हाथ है। दलित कोई जाति नहीं होती, मनोवृत्ति है और दलित मनोवृत्ति का साहित्य हिन्दी में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
आपकी कविताओं में पहाड़ बहुत हैं। पहाड़ के सुख-दुख बहुत ज्यादा प्रकट हुए हैं?
पहाड़ तो जीवनभर मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे और पहाड़ों के बीच पैदा हुआ हूं तो कुछ विशेष लगाव पहाड़ों से होना लाजमी है। एक डाक्टर ने मेरे गाल ब्लैडर का आपरेशन करके कहा, पहाड़ में पैदा हुए हो, पेट में भी पत्थर लिये घूमते हो।
आजकल कहानी और कविता के विवाद का सवाल गहराता जा रहा है और यह कहा जाने लगा है कि अब कहानी के न्द्र में है और कविता हाशिये पर। इस बारे में आपकी क्या राय है?
देखिए, कविता और कहानी का जन्म एक साथ ही हुआ है। भारतीय परम्परा में कविता कहानी से ही शुरू होती है। रामायण को सबसे पहला काव्य माना जाता है। उस कविता में राम की कथा है जो लोग कविता और कहानी में अन्तर समझते हैं वे अनुभव के मर्म को नहीं समझते हैं। वे विधा की चिन्ता करने हैं, विचार की नहीं। विधाएं परस्पर एक दूसरे की पूरक होती हैं, शत्रु नहीं। एक अच्छा गद्य कहीं न कहीं एक अच्छी कविता है और एक अच्छी कविता कहीं न कहीं एक अच्छा गद्य है। कुछ लोग टेढ़ी-मेढ़ी दो पंक्तियों को कविता समझते हैं और सीधा-सीधा जो कुछ लिखा हो उसे गद्य। सच पूछिए तो कविता एक ‘एसेंस’ का नाम है। एक ‘एलिमेंट’ का नाम है। अर्थात् कविता सार तत्व का नाम है। सार तत्व जहां भी हो वह कविता है। सारतत्व का सौन्दर्य गद्य और पेंटिंग को भी आकर्षक बनाता है। एक मूर्ति शिल्प में कविता हो सकती है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक सुन्दर जूते में। कविता के वल शब्दों में ही नहीं होती, वह दृश्य में भी हो सकती है, देखने वालों में दृष्टि चाहिए।
और कुछ.......?
मैं यह जानना चाहता हूं कि हिन्दी समाज पढ़ने-लिखने से दूर क्यों होता जा रहा है? हिन्दी भाषी परिवारों में अच्छी किताबों की उपस्थिति और इनके सौन्दर्य को न जानने की जो स्थितियां हैं वो चिन्ताजनक हैं। मैं चाहता हूं कि हिन्दी समाज अच्छी कविताओं को ढूंढ़कर पढ़े तभी दुःसाहसिक प्रकाशकों का अधिक कीमत वसूलने का दुःसाहस टूटेगा।