गुड्डी, उपहार, मिली, कोशिश और अभिमान जैसी साफ-सुथरी फिल्मों के साथ ही जंजीर जैसी व्यावसायिक फिल्म में अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाने वाली जया भादुड़ी (बच्चन) का नाम आज भी किसी परिचय का मोहताज नहीं है। फिल्मी दुनिया के शीर्ष अभिनेता रहे अमिताभ बच्चन के साथ गृहस्थी बसाने के बाद वे कुछ वर्षों के लिए भले ही फिल्मों से दूर गयी हों, पर उनके जीवन्त अभिनय को लोग भुला नहीं सके । महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘हजार चैरासी की मां’ पर गोविन्द निहलानी के निर्देशन में बनी फिल्म में वे एक बार फिर सेल्यूलाइड पर आ रही है। इस फिल्म के प्रीमियर शो पर लखनऊ आयीं श्रीमती जया बच्चन से राष्ट्रीय सहारा के योगेश मिश्र/हेमन्त शुक्ल ने बातचीत की। सुश्री बच्चन ने अपनी बातचीत में फिल्म निर्माताओं में बढ़ रही व्यावसायिकता पर चिन्ता जतायी। सिनेमा को आर्ट से काटकर बिजनेस एक्टिविटी बनाने पर एतराज जाहिर किया। सिनेमा और मीडिया की चरित्र निर्माण की दिशा में जहां वह प्रभावी दखल चाहती हैं, वहीं फिल्म उद्योग में माफिया के बढ़ते प्रभाव से क्षुब्ध हैं। अपनी दृष्टि में सौदागर को अमिताभ बच्चन की बहुत अच्छी फिल्म मानने वाली जया बच्चन का मानना है कि अमित जी के साथ लोगों का पर्सनल आइडेंटीफिके शन है। प्रस्तुत है उनसे लम्बी बातचीत के कुछ सम्पादित अंश:
आज के व्यावसायिक दौर में कला फिल्मों का भविष्य क्या है?
-वही भविष्य है, जो दस साल पहले था।
जिस दस वर्ष पहले की बात आप कह रही हैं, तब के वल फिल्म महोत्सव के लिए फिल्में नहीं बनती थीं, बल्कि इसके दर्शक भी हुआ करते थे-अब ऐसी बात नहीं है, लगता है कि दर्शक चुक से गये हैं।
-इसकी वजह यह है कि सिनेमा मात्र आर्ट तक सीमित नहीं रह गया है, वह एक बिजनेस एक्टिविटी बन गया है। फिल्म निर्माता आज सिनेमा से सिर्फ व्यापारिक दृष्टि से रिटर्न चाहने लगे हैं। वैसे समानान्तर सिनेमा के क्षेत्र में निर्माता निर्देशक काम करना चाहें तो काफी प्रोग्रेसिव तरीके से समानान्तर सिनेमा को हैंडिल कर सकते हैं। क्योंकि टेलीविजन समानान्तर सिनेमा के लिए आज एक बेहतर माध्यम है। विगत कई वर्षों से सिनेमा समाज से इतना प्रभावित हुआ है कि नैतिक मूल्यों के हृास के साथ सिनेमा के स्तर में भी गिरावट आयी है। आज के तनावपूर्ण माहौल में अधिसंख्य लोग अपने वास्तविक जीवन के आसपास घूमने वाली घटनाओं से ओत-प्रोत समानान्तर सिनेमा देखने की बजाय मन बहलाव के लिए हल्की-फुल्की व नाच-गाने वाली फिल्में देखना ज्यादा पसन्द करते हैं। यही कारण है कि आज के दौर में कला-फिल्मों के दर्शकों की संख्या कम हो गयी है।
पश्चिमी माहौल से प्रभावित आज की पीढ़ी शास्त्रीय संगीत की बजाय पाॅप म्युजिक की दीवानी है। यही कारण है कि फिल्म उद्योग से जुड़े ज्यादातर लोग अपनी फिल्म से अधिकाधिक कमाई करने के लिए कला फिल्मों की बजाय व्यावसायिक फिल्मों को अधिक तरजीह देते हैं। देखा जाए तो जनरल डी जनरेशन क्षण हर क्षेत्र में है। यह सिनेमा में भी है।
वीडियो पाइरेसी से निर्माताओं को कितनी हानि होती है, इससे बचने के क्या उपाय किये जा सकते हैं?
-मैं सोचती हूं, पाइरेसी या कोई एक्टिवटी जो लेजिटिमेट न हो-सब पर्सनल कैरेक्टर पर निर्भर है। जब तक कि यह एजूके शन/कैरेक्टर नहीं आएगा, तब तक सरकार या पुलिस वाले कितना कर पाएंगे। बेसिक लेबल पर यह एजूके शन होनी चाहिए कि पाइरेसी या कोई भी एंटीसोशल एक्टिविटी अच्छी चीज नहीं है। उसे नहीं करना चाहिए। अगर इंसान को बचपन से यह समझ में आ जाय तो वह बड़ा होकर कुछ भी ऐसा नहीं करेगा जिससे समाज को वह कुछ न दे सके ।
क्या कारण है कि कला फिल्मों से उभरे कलाकार व्यावसायिक फिल्मों में सफल होने के बाद आमतौर पर फिर कला फिल्मों की ओर नहीं मुड़ते?
-....किसकी बात कर रहे हैं-नासिरूद्दीन? उनकी तरफ से और उनकी ओर से बोलना बहुत मुश्किल है, पर मुझे लगता है कि उन्हें कहीं समानान्तर सिनेमा से डिस सटिशफेक्शन रहा होगा। समानान्तर सिनेमा में बहुत पाॅलिटिकल सिस्टम है-मैं सोचती हूं, जितने कलाकार हिन्दी फिल्मों में हैं, ज्यादातर में अपार संभावनाएं हैं मगर समानान्तर सिनेमा में जिन्होनंे डेरा बना रखा है, वे नये लोगों को प्रवेश नहीं लेने देते। एक चीज और मेरी समझ में आती है कि हर कलाकार में यह लालच जरूर होती है कि उसे हर आम आदमी पहचाने, जब तक आम आदमी में उसकी पहचान नहीं होती तब तक कलाकार को संतुष्टि नहीं मिलती।
क्या कारण है कि ‘स्टारडम’ की जिस ऊंचाई तक अमिताभ जी पहुंचे, वह किसी को अब तक नहीं मिल पायी?
-अमित जी के साथ लोगों का अलग-अलग तरह का आइडेंटीफिके शन है। बुजुर्ग औरतों उन्हें अपने बेटे के साथ आइडेंटीफाई करती हैं, क्योंकि उनकी तमाम फिल्मों में मां के साथ लगाव के कई भावनात्मक दृश्य हैं। युवकों के लिए अमित जी के रोल एक वह सपना होता था जिसमें ‘फाइट अगेन्स्ट स्टेब्लिसमेंट’ व्यवस्था के प्रति विद्रोह की ताकत रहती थी। एक कलाकार के नाते मैं सोचती हूं कि उनकी जुबान बहुत साफ है। हिन्दी फिल्मों में बहुत कम कलाकार ऐसे हैं, जो साफ हिन्दी बोलते हैं-हिन्दी बोलने से मेरा मतलब सिर्फ भाषा से नहीं है। कई बोलियों के मुहावरों और शब्दांे को अमित जी ने अपने अभिनय में बेहतर परफार्मेन्स के साथ उतारा है।
अमित जी की सबसे अच्छी फिल्म आपको कौन सी लगती है?
-देखिए, सबसे अच्छी फिल्म बताना तो मुश्किल है। हां, बहुत अच्छी फिल्म सौदागर लगती है।
क्यों?
-... एक तो कहानी बहुत अच्छी है। क्लासिकल है, टैगोर की लिखी हुई है। इसमें अलग तरह का रियलिस्टिक रोल भी है। वैसे मुझे ‘चुपके -चुपके ’ और ‘मिली’ में भी अमित जी का रोल बहुत अच्छा लगा। अग्निपथ भी काफी अच्छी लगती है।
आपको अपनी कौन सी फिल्म अच्छी लगती है?
-... देखिए, हर आर्टिस्ट को फिल्म कर लेने के बाद यह लगता है कि यह रोल वह इससे भी बेहतर कर सकता था, लेकिन पहली फिल्म के साथ अलग तरह का लगाव होता है, इमोशन होता है। जैसा कि ‘हजार चैरासी की मां’। मुझे लगता है कि इस फिल्म में मैंने अब तक की गयी फिल्मों से अलग हटकर कुछ और बेहतर किया है। वैसे तो इस फिल्म में मैंने जो कुछ भी किया है, इसका निर्णय तो लोग फिल्म देखकर ही करेंगे। लेकिन जहां तक मेरा सवाल है मैं इस फिल्म से बहुत आशान्वित हूं।
एक लम्बी चुप्पी के बाद आप अचानक फिर से फिल्मों की ओर मुड़ीं-क्या इसका कोई विशेष कारण है?
-आपका प्रश्न पूरी तरह से सही नहीं है, यह बात जरूर है कि घर-परिवार की जिम्मेदारियों और अमित जी की व्यस्तता के कारण मैंने फिल्मों में अभिनय करना तो बंद कर दिया था, लेकिन फिल्मों में पूरी तरह से ‘कट-आॅफ’ नहीं रही। इस दौरान सक्रिय भूमिका भले ही नहीं रही हो, पर परोक्ष रूप से मैं फिल्मों से जुड़ी रही हूं। अभी कुछ माह पूर्व गोविन्द जी ने महाश्वेता जी का उपन्यास मुझे पढ़ने के लिए दिया। इस उपन्यास ने मुझे बहुत प्रभावित किया। शायद यही कारण है कि गोविन्द जी के एक बार कहने पर ही मैं यह फिल्म करने को राजी हो गयी।
....इस फिल्म में टेक्निक और कम्युनिके शन के बीच बहुत बेहतर तालमेल है। पूरी फिल्म में किताब की आत्मा को सुरक्षित रखा गया है। कुछ चीजांे को निर्देशक ने ‘एवायड’ जरूर किया है। ये चीजें वर्तमान संदर्भ में जरूरी नहीं थीं। लेखक, निर्देशक, पटकथा-संवाद लेखक, यहां तक कि सबका काम फिल्म में देखते बन पड़ता है। दर्शक फिल्म देखेंगे तो उन्हे ंभी खुद लगेगा कि जो मैं कह रही हूं, उससे ज्यादा फिल्म जस्टीफाई करती है।
आप बाल एवं युवा फिल्मों की सरकारी संस्था से जुड़ी रही हैं। क्या कारण है कि आज बच्चों के चरित्र-निर्माण से सम्बन्धित फिल्मों का अभाव है?
-देखिए, सरकार की अपनी सीमाएं हैं। अब भी बच्चों और युवाओं के लिए काम करने की काफी जरूरत है। फिल्म उद्योग से इस दिशा में कुछ कर पाने की आशा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनका दृष्टिकोण व्यावसायिक है और सरकारी क्षेत्र में संकल्प का अभाव है, लेकिन अच्छे समाज के निर्माण के लिए इस पर तो काम करना ही पड़ेगा।
आपका पसंदीदा निर्देशक कौन है?
-मैं बहुत लकी रही हूं और मैंने जितने लोगों के साथ काम किया है, वे सभी फिल्म उद्योग में बहुत अच्छे माने जाते हैं, पर मैं सबसे आदरणीय स्थान हृषिके श मुखर्जी को देना चाहूंगी।
फिल्मी दुनिया पर माफिया के कसते शिकंजे का अंत कहां होगा, इस बारे में आप क्या सोचती हैं?
-माफिया का बढ़ता प्रभाव बहुत बुरी बात है। आजकल फिल्में रचनात्मकता से हट कर जो अलग स्वरूप अख्तियार कर रही हैं-यह उसी का नतीजा है।
अगला प्रोजेक्ट क्या है?
-दो-तीन लोगों ने बात की है, मगर स्क्रिप्ट लेकर आएंगे, तभी कुछ कह सकती हूं।
हरिवंश राय बच्चन जी को आपने कितना पढ़ा है और उनकी एक ऐसी कौन सी रचना है जो आपको ज्यादा अच्छी लगती है?
-मैंने तो उन्हें बहुत पढ़ा है, पर यह बता पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा (कुछ रुककर)... मुझे उनके पद्य अधिक अच्छे लगते हैं। खासकर ‘निशा निमंत्रण’ की कविताएं।
नानी बनने के बाद पीढ़ी परिवर्तन को कैसा महसूस करती हैं?
-कुछ अलग सा नहीं लगा... बहुत ही नेचुरल लगा। यह रियेलिटी है, इसमे ंआश्चर्य की कोई बात नहीं है।
आज के व्यावसायिक दौर में कला फिल्मों का भविष्य क्या है?
-वही भविष्य है, जो दस साल पहले था।
जिस दस वर्ष पहले की बात आप कह रही हैं, तब के वल फिल्म महोत्सव के लिए फिल्में नहीं बनती थीं, बल्कि इसके दर्शक भी हुआ करते थे-अब ऐसी बात नहीं है, लगता है कि दर्शक चुक से गये हैं।
-इसकी वजह यह है कि सिनेमा मात्र आर्ट तक सीमित नहीं रह गया है, वह एक बिजनेस एक्टिविटी बन गया है। फिल्म निर्माता आज सिनेमा से सिर्फ व्यापारिक दृष्टि से रिटर्न चाहने लगे हैं। वैसे समानान्तर सिनेमा के क्षेत्र में निर्माता निर्देशक काम करना चाहें तो काफी प्रोग्रेसिव तरीके से समानान्तर सिनेमा को हैंडिल कर सकते हैं। क्योंकि टेलीविजन समानान्तर सिनेमा के लिए आज एक बेहतर माध्यम है। विगत कई वर्षों से सिनेमा समाज से इतना प्रभावित हुआ है कि नैतिक मूल्यों के हृास के साथ सिनेमा के स्तर में भी गिरावट आयी है। आज के तनावपूर्ण माहौल में अधिसंख्य लोग अपने वास्तविक जीवन के आसपास घूमने वाली घटनाओं से ओत-प्रोत समानान्तर सिनेमा देखने की बजाय मन बहलाव के लिए हल्की-फुल्की व नाच-गाने वाली फिल्में देखना ज्यादा पसन्द करते हैं। यही कारण है कि आज के दौर में कला-फिल्मों के दर्शकों की संख्या कम हो गयी है।
पश्चिमी माहौल से प्रभावित आज की पीढ़ी शास्त्रीय संगीत की बजाय पाॅप म्युजिक की दीवानी है। यही कारण है कि फिल्म उद्योग से जुड़े ज्यादातर लोग अपनी फिल्म से अधिकाधिक कमाई करने के लिए कला फिल्मों की बजाय व्यावसायिक फिल्मों को अधिक तरजीह देते हैं। देखा जाए तो जनरल डी जनरेशन क्षण हर क्षेत्र में है। यह सिनेमा में भी है।
वीडियो पाइरेसी से निर्माताओं को कितनी हानि होती है, इससे बचने के क्या उपाय किये जा सकते हैं?
-मैं सोचती हूं, पाइरेसी या कोई एक्टिवटी जो लेजिटिमेट न हो-सब पर्सनल कैरेक्टर पर निर्भर है। जब तक कि यह एजूके शन/कैरेक्टर नहीं आएगा, तब तक सरकार या पुलिस वाले कितना कर पाएंगे। बेसिक लेबल पर यह एजूके शन होनी चाहिए कि पाइरेसी या कोई भी एंटीसोशल एक्टिविटी अच्छी चीज नहीं है। उसे नहीं करना चाहिए। अगर इंसान को बचपन से यह समझ में आ जाय तो वह बड़ा होकर कुछ भी ऐसा नहीं करेगा जिससे समाज को वह कुछ न दे सके ।
क्या कारण है कि कला फिल्मों से उभरे कलाकार व्यावसायिक फिल्मों में सफल होने के बाद आमतौर पर फिर कला फिल्मों की ओर नहीं मुड़ते?
-....किसकी बात कर रहे हैं-नासिरूद्दीन? उनकी तरफ से और उनकी ओर से बोलना बहुत मुश्किल है, पर मुझे लगता है कि उन्हें कहीं समानान्तर सिनेमा से डिस सटिशफेक्शन रहा होगा। समानान्तर सिनेमा में बहुत पाॅलिटिकल सिस्टम है-मैं सोचती हूं, जितने कलाकार हिन्दी फिल्मों में हैं, ज्यादातर में अपार संभावनाएं हैं मगर समानान्तर सिनेमा में जिन्होनंे डेरा बना रखा है, वे नये लोगों को प्रवेश नहीं लेने देते। एक चीज और मेरी समझ में आती है कि हर कलाकार में यह लालच जरूर होती है कि उसे हर आम आदमी पहचाने, जब तक आम आदमी में उसकी पहचान नहीं होती तब तक कलाकार को संतुष्टि नहीं मिलती।
क्या कारण है कि ‘स्टारडम’ की जिस ऊंचाई तक अमिताभ जी पहुंचे, वह किसी को अब तक नहीं मिल पायी?
-अमित जी के साथ लोगों का अलग-अलग तरह का आइडेंटीफिके शन है। बुजुर्ग औरतों उन्हें अपने बेटे के साथ आइडेंटीफाई करती हैं, क्योंकि उनकी तमाम फिल्मों में मां के साथ लगाव के कई भावनात्मक दृश्य हैं। युवकों के लिए अमित जी के रोल एक वह सपना होता था जिसमें ‘फाइट अगेन्स्ट स्टेब्लिसमेंट’ व्यवस्था के प्रति विद्रोह की ताकत रहती थी। एक कलाकार के नाते मैं सोचती हूं कि उनकी जुबान बहुत साफ है। हिन्दी फिल्मों में बहुत कम कलाकार ऐसे हैं, जो साफ हिन्दी बोलते हैं-हिन्दी बोलने से मेरा मतलब सिर्फ भाषा से नहीं है। कई बोलियों के मुहावरों और शब्दांे को अमित जी ने अपने अभिनय में बेहतर परफार्मेन्स के साथ उतारा है।
अमित जी की सबसे अच्छी फिल्म आपको कौन सी लगती है?
-देखिए, सबसे अच्छी फिल्म बताना तो मुश्किल है। हां, बहुत अच्छी फिल्म सौदागर लगती है।
क्यों?
-... एक तो कहानी बहुत अच्छी है। क्लासिकल है, टैगोर की लिखी हुई है। इसमें अलग तरह का रियलिस्टिक रोल भी है। वैसे मुझे ‘चुपके -चुपके ’ और ‘मिली’ में भी अमित जी का रोल बहुत अच्छा लगा। अग्निपथ भी काफी अच्छी लगती है।
आपको अपनी कौन सी फिल्म अच्छी लगती है?
-... देखिए, हर आर्टिस्ट को फिल्म कर लेने के बाद यह लगता है कि यह रोल वह इससे भी बेहतर कर सकता था, लेकिन पहली फिल्म के साथ अलग तरह का लगाव होता है, इमोशन होता है। जैसा कि ‘हजार चैरासी की मां’। मुझे लगता है कि इस फिल्म में मैंने अब तक की गयी फिल्मों से अलग हटकर कुछ और बेहतर किया है। वैसे तो इस फिल्म में मैंने जो कुछ भी किया है, इसका निर्णय तो लोग फिल्म देखकर ही करेंगे। लेकिन जहां तक मेरा सवाल है मैं इस फिल्म से बहुत आशान्वित हूं।
एक लम्बी चुप्पी के बाद आप अचानक फिर से फिल्मों की ओर मुड़ीं-क्या इसका कोई विशेष कारण है?
-आपका प्रश्न पूरी तरह से सही नहीं है, यह बात जरूर है कि घर-परिवार की जिम्मेदारियों और अमित जी की व्यस्तता के कारण मैंने फिल्मों में अभिनय करना तो बंद कर दिया था, लेकिन फिल्मों में पूरी तरह से ‘कट-आॅफ’ नहीं रही। इस दौरान सक्रिय भूमिका भले ही नहीं रही हो, पर परोक्ष रूप से मैं फिल्मों से जुड़ी रही हूं। अभी कुछ माह पूर्व गोविन्द जी ने महाश्वेता जी का उपन्यास मुझे पढ़ने के लिए दिया। इस उपन्यास ने मुझे बहुत प्रभावित किया। शायद यही कारण है कि गोविन्द जी के एक बार कहने पर ही मैं यह फिल्म करने को राजी हो गयी।
....इस फिल्म में टेक्निक और कम्युनिके शन के बीच बहुत बेहतर तालमेल है। पूरी फिल्म में किताब की आत्मा को सुरक्षित रखा गया है। कुछ चीजांे को निर्देशक ने ‘एवायड’ जरूर किया है। ये चीजें वर्तमान संदर्भ में जरूरी नहीं थीं। लेखक, निर्देशक, पटकथा-संवाद लेखक, यहां तक कि सबका काम फिल्म में देखते बन पड़ता है। दर्शक फिल्म देखेंगे तो उन्हे ंभी खुद लगेगा कि जो मैं कह रही हूं, उससे ज्यादा फिल्म जस्टीफाई करती है।
आप बाल एवं युवा फिल्मों की सरकारी संस्था से जुड़ी रही हैं। क्या कारण है कि आज बच्चों के चरित्र-निर्माण से सम्बन्धित फिल्मों का अभाव है?
-देखिए, सरकार की अपनी सीमाएं हैं। अब भी बच्चों और युवाओं के लिए काम करने की काफी जरूरत है। फिल्म उद्योग से इस दिशा में कुछ कर पाने की आशा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनका दृष्टिकोण व्यावसायिक है और सरकारी क्षेत्र में संकल्प का अभाव है, लेकिन अच्छे समाज के निर्माण के लिए इस पर तो काम करना ही पड़ेगा।
आपका पसंदीदा निर्देशक कौन है?
-मैं बहुत लकी रही हूं और मैंने जितने लोगों के साथ काम किया है, वे सभी फिल्म उद्योग में बहुत अच्छे माने जाते हैं, पर मैं सबसे आदरणीय स्थान हृषिके श मुखर्जी को देना चाहूंगी।
फिल्मी दुनिया पर माफिया के कसते शिकंजे का अंत कहां होगा, इस बारे में आप क्या सोचती हैं?
-माफिया का बढ़ता प्रभाव बहुत बुरी बात है। आजकल फिल्में रचनात्मकता से हट कर जो अलग स्वरूप अख्तियार कर रही हैं-यह उसी का नतीजा है।
अगला प्रोजेक्ट क्या है?
-दो-तीन लोगों ने बात की है, मगर स्क्रिप्ट लेकर आएंगे, तभी कुछ कह सकती हूं।
हरिवंश राय बच्चन जी को आपने कितना पढ़ा है और उनकी एक ऐसी कौन सी रचना है जो आपको ज्यादा अच्छी लगती है?
-मैंने तो उन्हें बहुत पढ़ा है, पर यह बता पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा (कुछ रुककर)... मुझे उनके पद्य अधिक अच्छे लगते हैं। खासकर ‘निशा निमंत्रण’ की कविताएं।
नानी बनने के बाद पीढ़ी परिवर्तन को कैसा महसूस करती हैं?
-कुछ अलग सा नहीं लगा... बहुत ही नेचुरल लगा। यह रियेलिटी है, इसमे ंआश्चर्य की कोई बात नहीं है।