कर्जे में तू पैदा होता/कर्जे में ही पलता है। जीवन भर कर्जे का बोझा/कर्जे में ही मरता है/तेरी इज्जत तेरी मेहनत/कौड़ी मोल बिकाती क्यों/नंगे पैरों मालिक चलता/नौकर चलता कारों से/देश की खुशहाली का रास्ता/गांव गली गलियारों से-ये सवाल अपनी कविताओं में उठाते हैं कल्याण सिंह। आज उन्हें राजनीति के चाहे जितने भी पैंतरे आ गए हों परन्तु उनकी कविताओं में समाज के लिए एकात्म मानववाद की अनुगूंज मिलती है। स्वदेशी के हिमायती कल्याण सिंह एक संवेदनशील कवि भी हैं। लोक जीवन की चेतना का उद्देश्य लोकाभ्यास को स्फूर्ति प्रदान करना। इसके लिए कृत्रिमता को त्याग कर लोक जीवन को अपनाया जाना ही एक मात्र विकल्प है। यह मानना है साहित्यकार कल्याण सिंह का। लोक जीवन जब जब सामयिकता से प्रभावित होता है, लोक चेतना की दृष्टि मिलती है। इसके द्वारा नयी मान्यताओं को स्थापित किया जाता है। इनके गीतों में ऐसी स्थापनाएं देखी जा सकती हैं। वह एक वस्तुनिष्ठ दृष्टि सम्पन्न कवि हैं। उनकी काव्य रचनाओं का कैनवास इतना विराट है कि जीवन के विभिन्न पक्षों, स्थितियों और यहां तक कि अपने समय को भी उनके गीतों में देखा जा सकता है। तभी तो अपनी रचनाओं में वे कहते हैं ‘फूटे घर घरौंदे तेरे/टूटी छान छपरिया रे/सुराखों से पानी टपके /भीगे तेरी खटिया रे/ अंधियारे में कटे जिन्दगी/बिना दिया बिन डिबिया रे/तेरी घरवाली के तन पर/ फटी फटाई अंगरिया रे/ इस सड़ांध में आग लगा दे/क्रांति भरे अंगारों से...।
भारतीय लोक जीवन की चेतना सदैव संस्कृति मूलक रही है, जिसमें जीवन का सक्रिय रूप उभरता रहा है। हमारी लोक चेतना के आदि प्रमाण वेद हैं। वेदों के संहिता काल से बुद्ध काल या फिर हमारे समय की लोक चेतना, सांस्कृतिक समाजवाद से परिवर्तित होकर धीरे-धीरे एकांत मानववाद मंे समाहित हो गयी, जिसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए इन्होंने काव्य माध्यम के रूप में चुना। लिख उठे सरकारी अजगर बैठे हैं/तुझ पर कसा शिकंजा है/दबा रहा तेरी गर्दन को/ उनका खूनी पंजा है/रहबर तेरे बने लुटेरे/रक्षक तेरे भक्षक हैं/कदम कदम पर डसे जा रहे/ यह जहरीले तक्षक हैं/लातों के ये भूत न मानें/बातों से मनुहारों से.....।
किसानों के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लिखी गयी ‘किसानों का अधिकार पत्र’ उनकी एक सार्थक रचना है, जो उनके जन हितैषी सृजन शक्ति का अंतरंग परिचय देती है। कल्याण सिंह वाराणसी जेल में रहते हुए लगभग डेढ़-दो दर्जन कविताएं लिखी हैं, जो उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और सरोकार का जीवंत दस्तावेज है। उनके गीतों में मानव समाज के स्वाभाविक संघर्ष, हलचल, रूपान्तर और राजनीतिक परिवर्तनों को लेकर जो एक क्रमशः इतिहास रचा गया है, वह उनके पाठकों को एक खास तरह से ऊर्जास्वित करता है। यद्यपि उनका कोई संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है और न ही उनकी कविताएं पत्र पत्रिकाओं में उस तरह से प्रकाशित हुई हैं, जिससे उनकी छवि एक कवि के रूप में उभर सके । फिर भी उनके पाठक और प्रशंसक हैं। मिरोस्लाव होलुब तो एक कवि की सार्थकता के लिए के वल तीन पाठकों की बात करते हैं। ये भारतीय राजनीति के उन अध्यव्यवसायियों में हैं, जिनकी कविताओं पर तत्कालिक राजनीतिक और उनके दलीय सरोकार इतने हावी नहीं रहे कि वे देश तथा समाज के दीर्घकालीन और स्थायी सवालों और सरोकारों को भुला दें तथा तटस्थ दृष्टा को उन्होंने अपने भीतर हमेशा बचाए रखा और सामने घट रही घटनाओं के नेपथ्य मंे चल रही अत्यन्त महीन अन्र्तक्रियाओं पर बराबर नजर रखी। जीवनानुभव के दायरे में अनेक ऐसी बातें आती हैं, जो प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को आंदोलित करती हैं। सामान्य व्यक्ति जहां किंचित सेाच के पश्चात् इन बातों को भुला देता है, रचनाकार उन्हें शब्द देकर किसी विधा का अंग बना देता है। तभी तो इनकी रचनाओं में साफ झलकता है दुनिया भर का तन ढकता है/फिर भी तू ही नंगा क्यों/भरता है तू पेट सभी का/ फिर भी तू ही भिखमंगा क्यों/तेरे ही बच्चों की फीकी/होली और दीवाली क्यों/रोता हुआ दशहरा तेरा/ये बीहड़ बेहाल क्यों/कंगाली के दाग मिटा दे/तीज और त्यौहारों से....।
खुरदुरे चेहरे पर ठोस मौन, पारदर्शी आंखों से झांकती चंचलता। चंचलता भी ऐसी जो हर वक्त अजीब सी बेचैनी बुनती रहती है। मनुष्य से मनुष्य तक की एक अविराम यात्रा से सीधे तौर पर राजनीति से जुड़ा यह कवि आज भी गांव की मिट्टी के इर्द-गिर्द लहलहाती फसलों के बीच की पगडंडियां खेत, खलिहानों से जुड़े लोगों का दर्द, धूल धूसरित जीवन की मस्ती और रस्मयता सेे सराबारे चित्र को अपने काव्य का विषय बनाता है। जबकि जिंदगी के किसी पड़ाव पर हारने की नौबत आती है, तो अपनी कविताओं को आगे कर देता है। आदमी बनने और लोगों को बने रहने देने के लिए ही स्वयं को अपने समय के किसी सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन में झांेक देने का संकल्प सजाए हुए ये अपनी साहित्य यात्रा से इतर खड़े हो गये, पर साहित्य को भी बनाए रखा। क्षण-क्षण विके न्द्रित/के न्द्रित होती राजनीति अस्थिर/स्थिर और नितांत उत्तर आधुनिक पारदर्शी जनतंत्र को निहारती हुई उनकी कविताओं में इतिहास और संस्कृति, मनुष्य और समाज, मिथक और यथार्थ निरन्तर एक दूसरे के आर-पार होते हैं और वे अपनी कविताओं में ऐसी प्रिज्म तैयार करते हैं, जिसमें होकर ये चीजें अपने अलग-अलग रंगों के साथ हमारी पहचान का हिस्सा होती चलती हैं।
संस्कृति इतिहास, राजनीति, दर्शन पीढ़ियों के पहचान का संकल्प, रूमानियत मूल्य, सभ्यता की दरारें इन सबको कल्याण सिंह अपने काव्य में बहुत गम्भीरता से पकड़ते हैं। मगर इन सबके साथ-साथ जीवन की जो अपनी निरन्तरता है, उसमें इत्तेफाकों और अनिश्चितताओं के लिए जो एक नियतवादी गुंजाइश है, उसमें जो अपरिभाषित रह जाने वाला तत्व है, उसकी मौजूदगी उन्हें समय से आगे ले जाती है। इनका आब्जर्वेशन अनुभवों के साथ मिलकर एक ऐसा रचना संसार बनाता है, जो बेहद पठनीय और असली होता है। यथा-तेरा बहुमत तेरी ताकत/लेकिन राज अमीरों का/इस साजिश का तू शिकार है/कैदी तू जंजीरों का/भीख नहीं अधिकार चाहिए/ यही लड़ाई लड़नी है/ हर पीड़ित की पीर मिटानी/ फटी बिंवाई भरनी है/ तू अपनी तकदीर बदल दे/ इंकलाब के नारों से....।
इन कविताओं में जीवन का भेद बहुत कम है, जिस जिन्दगी को समाज का सबसे पीड़ित गरीब तबका निरन्तर जी रहा है। जिस जिन्दगी के मानी में ज्यादा हिस्सा अपने को जीवित रखने के लिए जद्दोजहद से जुड़ा है, वह सब चित्रित है इनकी कविताओं में। बसी और बिखरती जिन्दगियां ऐसी हैं, जिनका परिचय आमतौर पर हम सबसे है। पुराने संसार की सुपरिचित और स्थायित्व का लगभग ध्वंस और नये संसार के नैन नक्श का स्पष्ट भू्रणावस्था में होना ही यदि संक्रान्ति है तो हम सब मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी संक्रान्ति से गुजर रहे हैं। बहु संरचनात्मक भारतीय यथार्थ इस इतिहास भंवर की लपेट में है, यह अकारण नहीं है। आज के बौद्धिक विमर्शों में या तो अन्तों की घोषणाओं का बाहुल्य है या संके तों की उद्घोषणाओं की अधिकता या फिर रूढ़ियों और आक्रामक धर्मान्धताओं से बनी किन्हीं अन्य गुहाओं में लौटने के लिए आह्वान। वस्तुतः यह सब संक्रान्ति की लाक्षणिक अभिव्यक्तियां हैं। क्योंकि मानवीय यथार्थ में आया मूलगामी परिवर्तन पुरानी अवधारणाओं की अपर्याप्तताओं और अप्रासंगिकताओं को उजागर करते हुए उन पर बुनियादी पुर्नचिंतन की मांग करता है। यथार्थ से कट चुकी अवधारणाओं की स्वायत्त संरचना के लिए इन तथ्यों और नवजात प्रश्नों को स्वीकारना भले ही कठिन या आत्मघाती हो लेकिन खुले दिलो दिमाग से सोचने और समझने वाले इस भयावह उथल पुथल में जनहितों के पक्षधर बौद्धिकों के लिए यह संक्रान्ति और तत्जनित अवधारणात्मक संकट एक सर्वव्यापी सच्चाई है।
जीवन के लम्बे रास्ते की सारी कथाएं मन में रखकर वर्षों तक सुनते सुनाते और फिर-फिर पढ़ने के लिए होती हैं। इस दौरान हर साहित्य में नए-नए पहलू, पंखुड़ियों की तरह स्वयमेव खुलते चले जाते हैं। कई ऐसे भी पहलू होते हैं जो लेखक खुद भी नहीं जानता। लेखक का भाषा से अपने पात्रों से अचानक साक्षात्कार, बेवजह टकराव, नए परिवेश से समझौता, उसकी चश्मदीद गवाहियां और उसके जीवन का इस पूरे परिदृश्य से रिश्ता, यह सब ऐसी बातें हैं, जिन्हें किसी भी पंडिताऊ, टीकावाद या दर्शन की भारी भरकम व्याख्या के नव बंधनों में जकड़ना ठीक नहीं है। यही कारण है कि कल्याण सिंह की कविताओं को इन मानदंडों पर तौला, परखा और विश्लेषित नहीं किया जा सकता। क्योंकि इनकी कविताओं में भाषा का अपने पात्रों से अचानक हो रहा है साक्षात्कार। उनके मन में अंदर कहीं बेहद बारीक तरीके से चल रहे सोच का प्रस्फुटन है। तभी तो कह उठते हैं, ‘श्रम का शोषण नहीं रहेगा/ऐसा देश बनायेंगे/व्यक्ति बदल देंगे/ बदलेंगे सड़ी व्यवस्था भारत की/मिले किसान मजदूरों का हक/ नयी व्यवस्था भारत की/ उठ धरती के लाल/ लड़ाई लड़नी है बटमारों से...।
अपने जीवन के सपने को राजनीति के माध्यम से सच करने में जुटे कल्याण सिंह अपना संकल्प अपनी कविताओं में बहुत पहले ही स्वीकार कर चुके हैं। इनकी कविता वही बोलती है जो वे करना चाहते हैं। इनके काव्य में इनका संकल्प तो है ही संकल्प की ठोस अभिव्यक्ति भी है। इसका प्रमाण उनकी कविताओं की इन लाइनों से मिल सकता है- हर जवान को काम मिले/ हर नारी को सम्मान मिले/ हर बच्चे को मिले पढ़ाई/ हरिजन को उत्थान मिले/खेत-खेत को मिले सिंचाई/हर रोगी को प्राण मिले/झोपड़ियों में मिले जिन्दगी....।
अंग्रेजी उपन्यासकार वर्जीनियावुल्फ की बात को स्वीकार करें तो इनकी कविताएं जीवन को दूर से देखी गई सुखान्तिका और पास से देखी गई त्रासदी पर समाप्त होती है।
भारतीय लोक जीवन की चेतना सदैव संस्कृति मूलक रही है, जिसमें जीवन का सक्रिय रूप उभरता रहा है। हमारी लोक चेतना के आदि प्रमाण वेद हैं। वेदों के संहिता काल से बुद्ध काल या फिर हमारे समय की लोक चेतना, सांस्कृतिक समाजवाद से परिवर्तित होकर धीरे-धीरे एकांत मानववाद मंे समाहित हो गयी, जिसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए इन्होंने काव्य माध्यम के रूप में चुना। लिख उठे सरकारी अजगर बैठे हैं/तुझ पर कसा शिकंजा है/दबा रहा तेरी गर्दन को/ उनका खूनी पंजा है/रहबर तेरे बने लुटेरे/रक्षक तेरे भक्षक हैं/कदम कदम पर डसे जा रहे/ यह जहरीले तक्षक हैं/लातों के ये भूत न मानें/बातों से मनुहारों से.....।
किसानों के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लिखी गयी ‘किसानों का अधिकार पत्र’ उनकी एक सार्थक रचना है, जो उनके जन हितैषी सृजन शक्ति का अंतरंग परिचय देती है। कल्याण सिंह वाराणसी जेल में रहते हुए लगभग डेढ़-दो दर्जन कविताएं लिखी हैं, जो उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और सरोकार का जीवंत दस्तावेज है। उनके गीतों में मानव समाज के स्वाभाविक संघर्ष, हलचल, रूपान्तर और राजनीतिक परिवर्तनों को लेकर जो एक क्रमशः इतिहास रचा गया है, वह उनके पाठकों को एक खास तरह से ऊर्जास्वित करता है। यद्यपि उनका कोई संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है और न ही उनकी कविताएं पत्र पत्रिकाओं में उस तरह से प्रकाशित हुई हैं, जिससे उनकी छवि एक कवि के रूप में उभर सके । फिर भी उनके पाठक और प्रशंसक हैं। मिरोस्लाव होलुब तो एक कवि की सार्थकता के लिए के वल तीन पाठकों की बात करते हैं। ये भारतीय राजनीति के उन अध्यव्यवसायियों में हैं, जिनकी कविताओं पर तत्कालिक राजनीतिक और उनके दलीय सरोकार इतने हावी नहीं रहे कि वे देश तथा समाज के दीर्घकालीन और स्थायी सवालों और सरोकारों को भुला दें तथा तटस्थ दृष्टा को उन्होंने अपने भीतर हमेशा बचाए रखा और सामने घट रही घटनाओं के नेपथ्य मंे चल रही अत्यन्त महीन अन्र्तक्रियाओं पर बराबर नजर रखी। जीवनानुभव के दायरे में अनेक ऐसी बातें आती हैं, जो प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को आंदोलित करती हैं। सामान्य व्यक्ति जहां किंचित सेाच के पश्चात् इन बातों को भुला देता है, रचनाकार उन्हें शब्द देकर किसी विधा का अंग बना देता है। तभी तो इनकी रचनाओं में साफ झलकता है दुनिया भर का तन ढकता है/फिर भी तू ही नंगा क्यों/भरता है तू पेट सभी का/ फिर भी तू ही भिखमंगा क्यों/तेरे ही बच्चों की फीकी/होली और दीवाली क्यों/रोता हुआ दशहरा तेरा/ये बीहड़ बेहाल क्यों/कंगाली के दाग मिटा दे/तीज और त्यौहारों से....।
खुरदुरे चेहरे पर ठोस मौन, पारदर्शी आंखों से झांकती चंचलता। चंचलता भी ऐसी जो हर वक्त अजीब सी बेचैनी बुनती रहती है। मनुष्य से मनुष्य तक की एक अविराम यात्रा से सीधे तौर पर राजनीति से जुड़ा यह कवि आज भी गांव की मिट्टी के इर्द-गिर्द लहलहाती फसलों के बीच की पगडंडियां खेत, खलिहानों से जुड़े लोगों का दर्द, धूल धूसरित जीवन की मस्ती और रस्मयता सेे सराबारे चित्र को अपने काव्य का विषय बनाता है। जबकि जिंदगी के किसी पड़ाव पर हारने की नौबत आती है, तो अपनी कविताओं को आगे कर देता है। आदमी बनने और लोगों को बने रहने देने के लिए ही स्वयं को अपने समय के किसी सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन में झांेक देने का संकल्प सजाए हुए ये अपनी साहित्य यात्रा से इतर खड़े हो गये, पर साहित्य को भी बनाए रखा। क्षण-क्षण विके न्द्रित/के न्द्रित होती राजनीति अस्थिर/स्थिर और नितांत उत्तर आधुनिक पारदर्शी जनतंत्र को निहारती हुई उनकी कविताओं में इतिहास और संस्कृति, मनुष्य और समाज, मिथक और यथार्थ निरन्तर एक दूसरे के आर-पार होते हैं और वे अपनी कविताओं में ऐसी प्रिज्म तैयार करते हैं, जिसमें होकर ये चीजें अपने अलग-अलग रंगों के साथ हमारी पहचान का हिस्सा होती चलती हैं।
संस्कृति इतिहास, राजनीति, दर्शन पीढ़ियों के पहचान का संकल्प, रूमानियत मूल्य, सभ्यता की दरारें इन सबको कल्याण सिंह अपने काव्य में बहुत गम्भीरता से पकड़ते हैं। मगर इन सबके साथ-साथ जीवन की जो अपनी निरन्तरता है, उसमें इत्तेफाकों और अनिश्चितताओं के लिए जो एक नियतवादी गुंजाइश है, उसमें जो अपरिभाषित रह जाने वाला तत्व है, उसकी मौजूदगी उन्हें समय से आगे ले जाती है। इनका आब्जर्वेशन अनुभवों के साथ मिलकर एक ऐसा रचना संसार बनाता है, जो बेहद पठनीय और असली होता है। यथा-तेरा बहुमत तेरी ताकत/लेकिन राज अमीरों का/इस साजिश का तू शिकार है/कैदी तू जंजीरों का/भीख नहीं अधिकार चाहिए/ यही लड़ाई लड़नी है/ हर पीड़ित की पीर मिटानी/ फटी बिंवाई भरनी है/ तू अपनी तकदीर बदल दे/ इंकलाब के नारों से....।
इन कविताओं में जीवन का भेद बहुत कम है, जिस जिन्दगी को समाज का सबसे पीड़ित गरीब तबका निरन्तर जी रहा है। जिस जिन्दगी के मानी में ज्यादा हिस्सा अपने को जीवित रखने के लिए जद्दोजहद से जुड़ा है, वह सब चित्रित है इनकी कविताओं में। बसी और बिखरती जिन्दगियां ऐसी हैं, जिनका परिचय आमतौर पर हम सबसे है। पुराने संसार की सुपरिचित और स्थायित्व का लगभग ध्वंस और नये संसार के नैन नक्श का स्पष्ट भू्रणावस्था में होना ही यदि संक्रान्ति है तो हम सब मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी संक्रान्ति से गुजर रहे हैं। बहु संरचनात्मक भारतीय यथार्थ इस इतिहास भंवर की लपेट में है, यह अकारण नहीं है। आज के बौद्धिक विमर्शों में या तो अन्तों की घोषणाओं का बाहुल्य है या संके तों की उद्घोषणाओं की अधिकता या फिर रूढ़ियों और आक्रामक धर्मान्धताओं से बनी किन्हीं अन्य गुहाओं में लौटने के लिए आह्वान। वस्तुतः यह सब संक्रान्ति की लाक्षणिक अभिव्यक्तियां हैं। क्योंकि मानवीय यथार्थ में आया मूलगामी परिवर्तन पुरानी अवधारणाओं की अपर्याप्तताओं और अप्रासंगिकताओं को उजागर करते हुए उन पर बुनियादी पुर्नचिंतन की मांग करता है। यथार्थ से कट चुकी अवधारणाओं की स्वायत्त संरचना के लिए इन तथ्यों और नवजात प्रश्नों को स्वीकारना भले ही कठिन या आत्मघाती हो लेकिन खुले दिलो दिमाग से सोचने और समझने वाले इस भयावह उथल पुथल में जनहितों के पक्षधर बौद्धिकों के लिए यह संक्रान्ति और तत्जनित अवधारणात्मक संकट एक सर्वव्यापी सच्चाई है।
जीवन के लम्बे रास्ते की सारी कथाएं मन में रखकर वर्षों तक सुनते सुनाते और फिर-फिर पढ़ने के लिए होती हैं। इस दौरान हर साहित्य में नए-नए पहलू, पंखुड़ियों की तरह स्वयमेव खुलते चले जाते हैं। कई ऐसे भी पहलू होते हैं जो लेखक खुद भी नहीं जानता। लेखक का भाषा से अपने पात्रों से अचानक साक्षात्कार, बेवजह टकराव, नए परिवेश से समझौता, उसकी चश्मदीद गवाहियां और उसके जीवन का इस पूरे परिदृश्य से रिश्ता, यह सब ऐसी बातें हैं, जिन्हें किसी भी पंडिताऊ, टीकावाद या दर्शन की भारी भरकम व्याख्या के नव बंधनों में जकड़ना ठीक नहीं है। यही कारण है कि कल्याण सिंह की कविताओं को इन मानदंडों पर तौला, परखा और विश्लेषित नहीं किया जा सकता। क्योंकि इनकी कविताओं में भाषा का अपने पात्रों से अचानक हो रहा है साक्षात्कार। उनके मन में अंदर कहीं बेहद बारीक तरीके से चल रहे सोच का प्रस्फुटन है। तभी तो कह उठते हैं, ‘श्रम का शोषण नहीं रहेगा/ऐसा देश बनायेंगे/व्यक्ति बदल देंगे/ बदलेंगे सड़ी व्यवस्था भारत की/मिले किसान मजदूरों का हक/ नयी व्यवस्था भारत की/ उठ धरती के लाल/ लड़ाई लड़नी है बटमारों से...।
अपने जीवन के सपने को राजनीति के माध्यम से सच करने में जुटे कल्याण सिंह अपना संकल्प अपनी कविताओं में बहुत पहले ही स्वीकार कर चुके हैं। इनकी कविता वही बोलती है जो वे करना चाहते हैं। इनके काव्य में इनका संकल्प तो है ही संकल्प की ठोस अभिव्यक्ति भी है। इसका प्रमाण उनकी कविताओं की इन लाइनों से मिल सकता है- हर जवान को काम मिले/ हर नारी को सम्मान मिले/ हर बच्चे को मिले पढ़ाई/ हरिजन को उत्थान मिले/खेत-खेत को मिले सिंचाई/हर रोगी को प्राण मिले/झोपड़ियों में मिले जिन्दगी....।
अंग्रेजी उपन्यासकार वर्जीनियावुल्फ की बात को स्वीकार करें तो इनकी कविताएं जीवन को दूर से देखी गई सुखान्तिका और पास से देखी गई त्रासदी पर समाप्त होती है।