युगीन पत्रकारिता का दस्तावेज

Update:1998-02-25 22:05 IST
आज की रचना एवं सम्भावनाओं के  बीच रहते हुए क्या कोई विशुद्ध साहित्य या कलात्मक दृष्टि हो सकती है? यह सवाल तो अभी तय होना बाकी है परन्तु नित्य नये-नये आयाम छूती पत्रकारिता की प्रवृत्तियों एवं उद्देश्यों को लक्ष्मण रेखा में रहने के  लिए इशारा करती छायावाद युगीन साहित्यिक पत्रकारिता उत्तर आधुनिक काल में इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर खड़े पाठकों के  सामने प्रस्तुत की गयी है। काल और समसामयिकता की दृष्टि से इस पर चाहे जो टिप्पणी की जाये परन्तु हिन्दी पत्रकारिता के  इतिहास को संजोने में इस पुस्तक की भूमिका निःसंदेह प्रशंसनीय बतायी जायेगी। 20 वर्ष पूर्व लेखक के  वैचारिक पृष्ठभूमि में आये इस प्रकाशन का औचित्य सिद्ध करने में यह पुस्तक सफल नहीं हुई है क्योंकि यह आज की पत्रकारिता के  उन तमाम सवालों को स्पर्श भी नहीं करती जिनके  बारे में आज चर्चा जरूरी है। यह पुस्तक साहित्य से पत्रकारिता के  रिश्ते तो तय करती है परन्तु आज की पत्रकारिता को देखा और समझा जाये तो वह साहित्य की मोहताज नहीं है। आज पत्रकारिता ने साहित्य से इतर एक ऐसी भाषा तैयार की है जिसे कम्युनिके टिंग लैंग्वेज कहा जा सकता है। वैसे भाषा का इतिहास देखा जाये तो यह साफ होता है कि अपनी बात को दूसरों तक पहुंचाने का माध्यम ही भाषा है। साहित्य इस माध्यम का वह महत्वपूर्ण पक्ष है जिसके  तई अपनी बात को बेहद कलात्मक एवं आकर्षक ढंग से रखा जा सकता है।
पुस्तक की सुभाशंसा में यह कहना कि छायावाद पहली वह प्रवृत्ति थी जो युगबोध को लेकर चली थी, सटीक नहीं बैठती है क्योंकि आगे के  अध्यायों में भारतेन्दुयुगीन और द्विवेदी युग की पत्रकारिता की सामाजिक विसंगतियों को जिस शिद्दत से उठाने के  लिए तारीफ की गयी है उससे साफ तौर पर यह कहा जा सकता है कि युगबोध को लेकर चलने की परम्परा हमारे साहित्य/पत्रकारिता में भक्ति काल से दिखायी पड़ती है। वैसे भी देखा जाये तो -‘छायावाद सूक्ष्म का स्थूल के  प्रति विद्रोह है।’ छायावाद अंग्रेजी के  रोमेन्टिसिज्म की अनुकृति है। इससे इनकार करने की सारी की सारी प्रवृत्ति और प्रयास नाहक कहे जाएंगे। यह उचित हो सकता है कि हम यह दावा करें कि इस अनुकृति में हमने कहां-कहां क्या-क्या जोड़ा/छोड़ा है।
छायावाद का काल सन् 1918 से 1938 के  आस-पास ठहरता है। कालक्रम के  बहुत निश्चित निर्धारण न हो पाने के  कारण साहित्य को समेटने की दृष्टि से हिन्दी साहित्य के  इतिहास में इतिहासज्ञों ने चार वर्ष और जोड़े हैं। इस तरह छायावाद का कालक्रम 1914 से 1942 तक लाया जा सकता है। 1916 में निराला की जूही की कली एवं 1920 में पंत की पल्लव जैसी रचनाएं आ गयी थीं। इतना ही नहीं 1935 में छायावादी काव्य चेतना को मूर्तिमान करने वाली कृति कामायनी का प्रकाशन हो गया था। गंभीरता से देखा जाये तो छायावाद युग में हम जिस पत्रकारिता की बात करते हैं वह मूलतः पत्रकारिता न होकर साहित्य के  प्रचार-प्रसार का वह तरीका था जिसमें बाल विवाह, वैधव्य, नारीत्व बोध, दहेज समस्या, वेश्यावृत्ति, पर्दा प्रथा, बाल समस्या, अस्पृश्यता तथा हरिजन व अन्त्यज प्रथा के  खिलाफ काफी आक्रोश भरा पड़ा है।
छायावाद युग में जिन पत्रिकाओं के  प्रकाशन का उल्लेख पुस्तक में है। उसमें समाचार ;छम्ॅैद्ध के  न तो अनिवार्य इन्डीग्रेन्ट्स हैं और न ही आज के  समाचारों जैसी उसमें सूचनात्मक उपस्थिति। यदि पुस्तक की अवधारणा में लिखी बात समाचारों के  आदान प्रदान से समाचार पत्र बनता है, को मान लिया जाये तो यह साफ हो जाता है कि छायावाद युग मंे जिस पत्रकारिता की बात हम करते हैं उसमें समाचार का अभाव है। हां, समाचार एवं साहित्य के  प्रभाव की एकरूपता की बात जो पुस्तक में उठायी गयी है उसकी पुष्टि जरूर हो जाती है। समाचार घटना का विवरण होता है और पुस्तक में ‘इन्दु’, ‘सुधा’, ‘श्री शारदा’, ‘हंस’, ‘मतवाला’, ‘जागरण’, ‘वीणा’, ‘गंगा’, ‘माधुरी’, ‘सरस्वती’, ‘प्रभा’, ‘चांद’, ‘सरोज’, ‘समन्वय’, ‘लक्ष्मी’, ‘रंगीला’, ‘विशाल भारत’ तथा ‘औघड़’ जैसी पत्रिकाओं को अध्ययन का आधार बनाया गया है, अधिकांश में घटना के  विवरण का सर्वथा अभाव है और घटनाएं उल्लिखित भी हैं तो वे पत्रकारिता के  इन्डीग्रेन्ट्स पर खरी नहीं उतरती हैं।
विषय की महत्ता के  दृष्टिकोण से पुस्तक को नौ अध्यायों में विभक्त किया गया है। पहले अध्याय में ‘समाचार की अवधारणा’, परिधि, इसी प्रकार तथा संग्रह क्षेत्र का निरूपण किया गया है। इस अध्याय में जो सम्यक् जानकारी उपलब्ध करायी गयी है वह पत्रकारिता के  इतिहास के  लिए उपयोगी है। इसके  दूसरे अध्याय में जनसंचार तथा पत्रकारिता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए संचार माध्यमों एवं सवाद समितियों के  बारे में व्यापक सूचनाएं उपलब्ध हैं। तीसरा अध्याय समाचार समितियों का क्षेत्र और कार्यप्रणाली के  बारे में जिज्ञासुओं के  तमाम सवालों का जवाब देता है। चैथे अध्याय में छायावाद पूर्व हिन्दी पत्रकारिता के  आरंभ से लेकर 1920 ईस्वी तक प्रकाशित विविध पत्र-पत्रिकाओं का परिचय दिया गया है। पांचवे अध्याय में साहित्यिक पत्रकारिता के  स्वरूप विकास’ का विमर्श है। इस कालावधि में प्रकाशित नाना पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेख अगले अध्याय के  अंतर्गत करते हुए साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास परिभाषा तथा उसके  भेदोपभेद और आज तक के  पत्रकारिता की चर्चा की गयी है। उद्देश्यों को देखते हुए पत्रिकाओं को वर्गीत करने की चेष्टा, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की आचार संहिता और उनका विस्तृत तथा विशद परिचय देने का प्रयास भी किया गया है।
सातवें अध्याय में छायावादी युगबोध के  रूपायन में पत्रकारिता के  योगदान का समाकलन करते हुए युगबोध की निमीयिका विविध स्थितियों-परिस्थितियों को समाहित-निरूपित करने वाले प्रकाशित साहित्य के  माध्यम से उनको विवेचित, विश्लेषित करने की कोशिश हुई है। आठवां अध्याय छायावादी कवियांे की साहित्यिक पत्रकारिता में अवदान कर के न्द्रित है। छायावाद के  गौण कवियों की विवेचना करके  इस अध्याय में उन ऐतिहासिक सूचनाओं को भी उपलब्ध कराया गया है जिसे हमारे साहित्य में बहुत कम स्थान प्राप्त हो पाया है। उपसंहार में छायावाद युग की पत्रिकाओं में प्रकाशित विविध साहित्यिक विधाओं का अनति-विस्तृत विवेचना का प्रयास किया गया है और कहा गया है कि छायावादयुगीन समस्त साहित्यिक पत्रिकाओं के  परिवेश में उस युग की आशा-आकांक्षाओं और आवश्यकताओं का सम्यक् समावेश होता था। समाज, संस्कृति राजनीति, धर्म, साहित्य आदि से सम्बन्धित किसी भी विषय के  प्रतिबिम्ब को उस काल की पत्रिकाओं में देखा जा सकता है। इस दृष्टि से तद्युगीन विविध पत्र-पत्रिकाओं की ओर से जो समय-समय पर विशेषांक प्रकाशित किये गये वे निश्चय ही आज भी हिन्दी साहित्य की अक्षुण्ण और अद्भुत निधि है।
इस तरह देखा जाये तो पुस्तक मंे छायावाद पूर्व एवं छायावादयुगीन हिन्दी पत्रकारिता के  संदर्भ में दी गयी सूचनाएं हिन्दी पत्रकारिता के  इतिहास के  लिए बेहद महत्वपूर्ण जान पड़ती है। इसमें उल्लिखित सभी समाचार पत्रों के  नाम, सम्पादक एवं उनके  बारे में अन्य जानकारियां पठनीय हैं। इतिहास और सूचनाओं की दृष्टि से पुस्तक संग्रहणीय और पठनीय भले ही कही जाये परन्तु यह पूरी तौर पर यह सिद्ध कर पाने में समर्थ नहीं हो पायी है कि आज की पत्रकारिता में उपस्थित साहित्यिक पृष्ठ छायावाद युग की ही देन है।
साहित्य ने पत्रकारिता को भाषा तो दी है लेकिन जिस भाषा की बात छायावाद युग में की जाती थी और छायावादयुगीन पत्र-पत्रिकाआंे में उपलब्ध होती है वह भाषा आज समाचार/पत्रकारिता मंे वैसी उपलब्ध नहीं है फिर भी एक बात तो पूरी तौर पर सच है कि छायावादयुगीन सोच ने पत्र-पत्रिकाओं के  माध्यम से सामाजिक विसंगतियों के  खिलाफ खड़े होने की ताकत दी। वस्तुतः यह ताकत ही आज की पत्रकारिता को छायावाद युग की उपलब्धि के  तौर पर हासिल है जिसको रेखांकित करने में छायावादयुगीन साहित्यिक पत्रकारिता कमजोर पड़ती है। (पुस्तक-छायावादयुगीन साहित्यिक पत्रकारिता/लेखक-डाॅ. रमेश चन्द्र त्रिपाठी/ संस्करण-1997/मूल्य-250/-, पृष्ठ-259, प्रकाशक-भवदीय प्रकाशन श्रृंगारहाट, अयोध्या, फैजाबाद)।

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