मजदूर वर्ग की समस्याओं का प्रतिनिधित्व करने वाले उपन्यासकार/कहानीकार कामतानाथ ने अपने जीवन में जहां ट्रेड यूनियन पाॅलिटिक्स में शिकरत करते हुए जेल जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव जीये वहीं उन्होंने सामाजिक जीवन की विसंगतियों के खिलाफ खड़े होने के लिए अपने साहित्यिक कैनवास का भी खासा उपयोग किया। साधारण मध्य वर्ग के परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले कामतानाथ का बचपन अभाव में बीता। इसे स्वीकार करते हुए आज हुई बातचीत में उन्होंने अपनी बचपन से आज तक की जीवनयात्रा को संक्षेप में रेखांकित करते हुए कहा, ‘मैं साधारण मिडिल क्लास परिवार का आदमी हूं।’ माता-पिता की सात-आठ संताने मर चुकी थीं। इन्फरटाइल मार्टिलिटी के बाद मेरा जन्म परिवार में बेहद मनौती के बाद हुआ। मेरा नाम कामतानाथ चित्रकूट में स्थित कामतानाथ पर्वत की मन्नत के आधार पर हुए जन्म के बाद रखा गया। हम तीन भाई और एक बहन हैं। इण्टरमीडिएट पास करते ही पिताजी रिटायर हो गये। उन्हें पेंशन भी नहीं मिलती थी। वे रेलवे में थे। माता ने मेरी पढ़ाई के दौरान सभी जेवरात बेच दिये। परिवार का माहौल बेहद धार्मिक था। मां धर्मनिष्ठ महिला थी हीं परंतु पिता से भी मुझे धर्म के संस्कार मिले। पिताजी उर्दू पढ़े थे। मेरी पहली जुबान उर्दू थी। बचपन में मैंने जो किताबें पढ़ीं उनमें अलिफ लैला, गुलशनोवर आदि किताबें थीं जो मूलतः परशियंथन थीं। रामायण, महाभारत और भागवत भी मैंने पहले उर्दू में ही पढ़ीं। साहित्य से परिचय प्रेमचंद्र के माध्यम से हुआ। प्रेमचंद्र को भी प्रारंभ में उर्दू में ही पढ़ा। लिखना दसवीं कक्षा में शुरू किया। सबसे पहले ’इलेक्टस्ट्रेटेड वीकली’ में अपनी कविता भेजी थी। कोई रमन साहब एडिटर थे। पूरा नाम याद नहीं। कविता को वापस करते हुए उन्होंने एक पत्र लिखा था जिसमें लिखते रहने का सुझाव दिया था। ‘शंकर्स वीकली’ के कम्पटीशन में भी मैंने अपनी कविता भेजी थी। छपी या नहीं, नहीं पता। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद का एक पत्र जरूर आया था।’
अपनी जीवन यात्रा को रेखांकित करते हुए वे जोड़ते गये, ‘आरंभ में लिखना शुरू किया। फिर लगा अंग्रेजी में लिखना ठीक नहीं है और हिन्दी में शिफ्ट गया गया। 1961 में हिन्दी में मेरी पहली कहानी ‘मेहमान’ स्वतंत्र भारत में छपी थी। पत्रिकाओं में मुझे इसी वर्ष कहानी में छपने का अवसर मिला। इसमें मेरी स्वर्गवास कहानी छपी। इसके बाद सारिका और अन्य पत्रिकाओं में कहानियां छपने लगीं। जब मैंने लिखना शुरू किया तो नयी कहानी आन्दोलन करीब-करीब समाप्त हो गया था। इसके रिएक्शन में सचेतन कहानी आन्देालन महीपसिंह, मनहर चैहान और आनन्द प्रसाद जैन चला रहे थे। यह भी समाप्त हो गया था। सचेतन और नयी कहानी आन्दोलन में वैचारिक स्तर पर कोई अन्तर नहीं था। कामु और काफका के प्रभाव से अकहानी का दौर शुरू हुआ। रवीन्द्र कालिया इसके प्रतिनिधि कहानीकार थे। उस दौरान की कहानियों में एक अजनबीपन का अहसास और निहलिज्म (नकारवाद) परिश्चम से उधार लेकर आन्देालन शुरू किया गया। यह साल दो साल चला। यौन-कुण्ठाओं को लेकर कहानियां लिखने का दौर भी चला। हिन्दी के कुछ लेखकों ने जिसमें मैं भी था मिलकर विचार-विमर्श किया। सुदीप, राम अरोड़ा, जितेन्द्र भाटिया, सें.रा. यात्री, दामोदर सदन, कमलेश्वर और तमाम लोगों ने बम्बई के इस विचार-विमर्श में यह तय किया कि कहानी को समाज के यथार्थ से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। परिणामतः कहानी ने अपने समाज में अपनी जड़ें खोजनीं शुरू कीं। हम लोग यह मानते हैं कि जब तक कहानी आम आदमी से नहीं जुड़ेगी तब तक दीर्घजीवी नहीं हो सकती।
समान्तर कहानी आन्दोलन की आप क्या उपलब्धियां मानते हैं?
-देखिए, हमारा इरादा आन्दोलन चलाने का नहीं था परन्तु यह आन्दोलन चल निकला। इस आन्दोलन की कहानियां आम आदमी की समस्याओं से रू-ब-रू हुईं। बाद में समान्तर कहानी आन्दोलन प्रगतिशील कहानी का हिस्सा बन गयी।
आपके बारे में कहा जाता है कि आपको कहानियां/उपन्यास मध्यवर्गीय परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं?
-देखिए, वास्तविकता यह एकदम नहीं है। यह सच है कि मेरी ‘अन्त्येष्टि’ (मां के ऊपर) और ‘छुट्टियां’, ‘अपराजेय’, ‘शापग्रस्त’ आदि कहानियां मध्यवर्गीय परिवार के इर्द-गिर्द रची-बुनी कहानियां हैं लेकिन इसके अलावा भी मेरी कहानियों में वैविध्य है। जैसे मजदूरों को लेकर लिखी गयी कहानी ‘काम का पहिया’ ‘पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध’, ‘कम्युनिस्ट’ आदि। इतना ही नहीं रेलवे के बिन मैन को लेकर लिखी मेरी ‘तीसरी सास’ कहानी भी चर्चित हुई। मैंने रिक्शे वालों, इक्केवालों को लेकर भी कहानियां लिखीं। मेरी कहानियों में समाज की कुरीतियों के खिलाफ भी काफी कुछ है। ‘खलनायक’ कहानी दहेज पर जहां प्रहार करती हैं वहीं ‘शिकस्त’ अवैध शराब धंधा करने वाले लोगों पर के न्द्रित है।
रही मेरे उपन्यासों की बात तो ‘समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की’ में मैंने पुरी के मन्दिर में पंडों के साम्राज्य तथा मन्दिर में प्रवेश पर प्रतिबंध पर लिखा है। इतना ही नहीं पुरी तट पर काम कर रहे मछुआरों के जीवन को भी समेटा है। ‘एक और हिन्दुस्तान’ मेरे जेल जीवन पर आधारित है। ट्रेड यूनियन में काम करते हुए मैं जेल भी गया। प्रारंभ के कुछ दिनों मुझे साक्षारण कैदियों के साथ रखा गया। जहां एक डब्बू दाल और एक पांच चपाती मिलती थी। बाद में ‘बी क्लास’ मिला। जेल की अपनी अलग दुनिया है। जेल में ऐसे लोग भी दिखे जिन्हें नहीं पता है कि वे क्यों और कितने दिनों के लिए बंद हैं। वहां ऐसे पा. भी मिले जो बार-बार जेल जाना चाहते हैं। जेल के बाहर फुटपाथ पर रहना और भूख की मार सहना पड़ता है। जेल में कम से कम उन्हें दो जून की रोटियां तो मयस्सर हो ही जाती हैं।
जेल में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों के एवज में जेल काट रहे हैं। कहते हुए कामतनाथ जेल जीवन में खोने लगे। उन्होंने एक वाकया सुनाया, ‘जेल में एक ड्राइवर डिप्टी सेके ट्री के एवज में जेल काट रहा था। गाड़ी चलाते हुए सेके ट्री साहब से एक बच्चे की दबकर मौत हो गयी थी। उनकी जगह ड्राइवर अन्दर था। मैंने जेल में यह महसूस किया कि बाहर जो हिन्दुस्तान है उससे अलग भी एक हिन्दुस्तान यहां बसता है। सुबह होने तक उपन्यास के के न्द्र में एक ऐसा बच्चा है जिसे घरेलू स्थितियों के नाते साधारण बच्चे की सुविधाएं मयस्सर नहीं हो पातीं। वह अपराध की दुनिया में प्रवेश कर जाता है। अन्ततः हत्या करता है। उसे फांसी होती है और रात को अपनी पूरी जिन्दगी दोहराता है। इस उपन्यास में अपराध की दुनिया से जुड़े लोगों का एक्सपोजर है। बाल अपराधी किस तरह बनते हैं, इस पर लिखा गया है।
काल कथा 900 पृष्ठांे का आपका एक ऐसा उपन्यास है जो आजकल खासी चर्चा में है। यह हिन्दी के अन्य उपन्यासों से किस मायने में भिन्न है और इसकी क्या विशेषता है?
-देखिए 900 पृष्ठों का यह उपन्यास है। इतने पृष्ठांे का उपन्यास हिन्दी में नहीं छपा है। वैसे अज्ञेय की शेखर की जीवनी, रवीन्द्र कालिया का ‘खुदा सही सलामत है’ नरेश मेहता का ‘यह पथ बन्ध था’ आदि कई अन्य उपन्यास आकार की दृष्टि से बड़े भले हों परन्तु अन्य उपन्यासों से इस मामले में हमारा उपन्यास भिन्न है कि यह पहला उपन्यास है जिसके दोनो खंड एक साथ पाठकों को उपलब्ध हुए। अभी दो खंड पर और काम कर रहा हूं। राजनीतिक पृष्ठभूमि में लिखे गये उपन्यास ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ तथा ‘यह पथ बन्ध था’ जैसे उपन्यासों से प्रमाणिकता को लेकर इतने बड़े फलक का उपन्यास नहीं लिखा गया। 1919 के जलियांवाला बाग कांड से शुरू होकर 1929 में रावी नदी के तट पर सम्पन्न हुए कांग्रेस के अधिवेशन जिसमें पूर्ण स्वराज की मांग हुई थी तक की घटनाएं इस उपन्यास में सिमटी हैं। इन दस सालों का दौर देश की आजादी की लड़ाई का महत्वपूर्ण दौर रहा है। खिलाफत मूवमेन्ट, असहयोग आन्दोलन, साइमन कमीशन जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। यही क्रांतिकारियों का भी काल है क्योंकि काकोरी कांड, सांडर्स वध, असेम्बली बम कांड, लार्ड इरविन की ट्रेन के नीचे बम विस्फोट आदि ये सभी घटनाएं इसी काल की हैं जो इस उपन्यास में सिमटी हैं। इसी के साथ-साथ इस उपन्यास में उस समय के जनजीवन का भी व्यापक चित्रण है। इसकी कथा अवध के एक गांव जो उन्नाव जिले में स्थित है, से शुरू होकर देश के अन्य भागों में पहुंचती है। इतिहास में सर्वाल्टर्न हिस्ट्री में भी मिलती है। पुस्तक में इस इतिहास का भी चित्र दलित मदारी पासी का भी उल्लेख है। अवधी के शब्दों का भी पात्रों के हिसाब से खासतौर से प्रयोग किया गया है। जो मुस्लिम पात्र हें वे खालिस उर्दू ही बोलते हैं। कथा में गांव का मुसलमान और पाॅलिटिकल मुस्लिम दोनो हैं।
आपने अपने साहित्य में वर्किंग क्लास की राजनीति को स्थान दिया है और भी तमाम लोगों ने वर्किंग क्लास को लेकर काफी रचनाएं की हैं। फिर भी वर्किंग क्लास के लिटरेचर को आलोचकों ने मान्यता नहीं दी?
-मैं इससे सहमत नहीं हूं। यह बात जो कही गयी है उसे उदाहरण देकर समझाया जाये तो बेहतर होगा। शेखर जोशी को ही लीजिए एक फैक्ट्री में काम करते थे। बदबू फैक्ट्री के माहौल पर लिखी उनकी कहानी खासी चर्चित हुई। वर्किंग क्लास लिटरेचर का मतलब अगर आपका यह है कि जिसे वर्कर लिखे तो मैं सहमत नहीं हूं। यही तो दलित साहित्य के लोग कहते हैं। दलित साहित्य वही है जिसे दलित लिखे।
पोस्ट सोवियत सीनेरियो में आज आप क्या सोचते हैं?
-कैपिटलिस्ट सिस्टम आॅफ सोसायटी में मेरी आस्था नहीं है। हमारे देश की आज जो स्थिति है यह पूंजीवादी आक्रमण का ही परिणाम है जो भूमंडलीकरण, प्रचार माध्यम, इलेक्ट्रानिक मीडिया और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से आ रहा है। पूंजीवादी दर्शन में नैतिकता का कोई मतलब नहीं है। अमरीकी दर्शन में सत्य को परिणाम में आंका गया है। हमारे समाज में भी इसका प्रचलन बढ़ रहा है। कुछ दिनों बाद इससे विस्फोटक स्थितियां पैदा होंगी। सतय तो नहीं बता सकता परन्तु परिणाम तो इसके खराब होंगे ही। समाजवादी विचारधारा के पराभव का कारण उसे गंभीरता से लागू नहीं किया जाना है। समाजवादी समाज में भी ‘ओपेन सोसायटी’ होनी चाहिए। अन्ततः मानव समाज की मुक्ति समाजवाद में ही है। वैचारिक स्तर पर मेरा समाजवाद पर पूरा भरोसा है।
आपकी पुस्तक 850 रूपये की है। इसे आम पाठक कैसे खरीदेगा? लेखक का प्रकाशक पर क्या यह दबाव नहीं होता कि पुस्तक का कितना मूल्य रखे। आपके जैसे जनवादी और दूसरे पूंजीवादी लेखकों में क्या अन्तर है? इन स्थितियों में जनता तक साहित्य पहुंचाने का क्या तरीका है?
-मैं सहमत हूं कि इतने मूल्य की पुस्तकें लाइब्रेरी की शोभा ही बन पायेंगी। पाठकों तक नहीं पहुंचेंगी। दुर्भाग्य है कि आज प्रकाशक के सरोकार वे नहीं हैं जो प्रेमचंद के जमाने में थे। आज का प्रकाशक पुस्तक को कमाडीटी मानता है। वह पुस्तक को जीवन मूल्य को प्रसारित करने का साधन स्त्रोत नहीं मानता। यह सही है कि कम मूल्य की पुस्तके ंआज भी छप रही हैं और पाठकों तक पहुंचने के लिए मूल्य एक महत्वपूर्ण माध्यम है लेकिन पाकाशक पुस्तकों को सरकारी खरीद के माध्यम से ही बेचना चाहता है और यह सिस्टम इतना भ्रष्ट है कि मूल्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा घूस के रूप में चला जाता है। अच्छी पुस्तकों के प्रकाशन को सरकार ने पूरी तरह से निग्लेक्ट कर रखा है। जहां कहीं सरकारी प्रकाशन की व्यवस्था भी है वहां पुस्तकों का चयन, वितरण ठीक नहीं होता है। इसलिए अच्छा लेखक अपनी ुपस्तक देना नहीं चाहता है। सरकार को चाहिए कि पुस्तकों के प्रकाशन में अनुदान दे। जहां तक लेखक का प्रश्न है कि लेखक प्रकाशक पर दबाव बना सकता है या नहीं तो उसका सच यह है कि प्रकाशक के साथ अनुबंध होता है तो मूल्य को लेकर कोई अनुबंध नहीं होता। अगर हो तो अच्छा होगा। रहा मेरी किताब का प्रश्न तो मैंने प्रकाशक से अनुरोध किया है कि इसका पेपर बैक संस्करण लायें।
अपनी जीवन यात्रा को रेखांकित करते हुए वे जोड़ते गये, ‘आरंभ में लिखना शुरू किया। फिर लगा अंग्रेजी में लिखना ठीक नहीं है और हिन्दी में शिफ्ट गया गया। 1961 में हिन्दी में मेरी पहली कहानी ‘मेहमान’ स्वतंत्र भारत में छपी थी। पत्रिकाओं में मुझे इसी वर्ष कहानी में छपने का अवसर मिला। इसमें मेरी स्वर्गवास कहानी छपी। इसके बाद सारिका और अन्य पत्रिकाओं में कहानियां छपने लगीं। जब मैंने लिखना शुरू किया तो नयी कहानी आन्दोलन करीब-करीब समाप्त हो गया था। इसके रिएक्शन में सचेतन कहानी आन्देालन महीपसिंह, मनहर चैहान और आनन्द प्रसाद जैन चला रहे थे। यह भी समाप्त हो गया था। सचेतन और नयी कहानी आन्दोलन में वैचारिक स्तर पर कोई अन्तर नहीं था। कामु और काफका के प्रभाव से अकहानी का दौर शुरू हुआ। रवीन्द्र कालिया इसके प्रतिनिधि कहानीकार थे। उस दौरान की कहानियों में एक अजनबीपन का अहसास और निहलिज्म (नकारवाद) परिश्चम से उधार लेकर आन्देालन शुरू किया गया। यह साल दो साल चला। यौन-कुण्ठाओं को लेकर कहानियां लिखने का दौर भी चला। हिन्दी के कुछ लेखकों ने जिसमें मैं भी था मिलकर विचार-विमर्श किया। सुदीप, राम अरोड़ा, जितेन्द्र भाटिया, सें.रा. यात्री, दामोदर सदन, कमलेश्वर और तमाम लोगों ने बम्बई के इस विचार-विमर्श में यह तय किया कि कहानी को समाज के यथार्थ से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। परिणामतः कहानी ने अपने समाज में अपनी जड़ें खोजनीं शुरू कीं। हम लोग यह मानते हैं कि जब तक कहानी आम आदमी से नहीं जुड़ेगी तब तक दीर्घजीवी नहीं हो सकती।
समान्तर कहानी आन्दोलन की आप क्या उपलब्धियां मानते हैं?
-देखिए, हमारा इरादा आन्दोलन चलाने का नहीं था परन्तु यह आन्दोलन चल निकला। इस आन्दोलन की कहानियां आम आदमी की समस्याओं से रू-ब-रू हुईं। बाद में समान्तर कहानी आन्दोलन प्रगतिशील कहानी का हिस्सा बन गयी।
आपके बारे में कहा जाता है कि आपको कहानियां/उपन्यास मध्यवर्गीय परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं?
-देखिए, वास्तविकता यह एकदम नहीं है। यह सच है कि मेरी ‘अन्त्येष्टि’ (मां के ऊपर) और ‘छुट्टियां’, ‘अपराजेय’, ‘शापग्रस्त’ आदि कहानियां मध्यवर्गीय परिवार के इर्द-गिर्द रची-बुनी कहानियां हैं लेकिन इसके अलावा भी मेरी कहानियों में वैविध्य है। जैसे मजदूरों को लेकर लिखी गयी कहानी ‘काम का पहिया’ ‘पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध’, ‘कम्युनिस्ट’ आदि। इतना ही नहीं रेलवे के बिन मैन को लेकर लिखी मेरी ‘तीसरी सास’ कहानी भी चर्चित हुई। मैंने रिक्शे वालों, इक्केवालों को लेकर भी कहानियां लिखीं। मेरी कहानियों में समाज की कुरीतियों के खिलाफ भी काफी कुछ है। ‘खलनायक’ कहानी दहेज पर जहां प्रहार करती हैं वहीं ‘शिकस्त’ अवैध शराब धंधा करने वाले लोगों पर के न्द्रित है।
रही मेरे उपन्यासों की बात तो ‘समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की’ में मैंने पुरी के मन्दिर में पंडों के साम्राज्य तथा मन्दिर में प्रवेश पर प्रतिबंध पर लिखा है। इतना ही नहीं पुरी तट पर काम कर रहे मछुआरों के जीवन को भी समेटा है। ‘एक और हिन्दुस्तान’ मेरे जेल जीवन पर आधारित है। ट्रेड यूनियन में काम करते हुए मैं जेल भी गया। प्रारंभ के कुछ दिनों मुझे साक्षारण कैदियों के साथ रखा गया। जहां एक डब्बू दाल और एक पांच चपाती मिलती थी। बाद में ‘बी क्लास’ मिला। जेल की अपनी अलग दुनिया है। जेल में ऐसे लोग भी दिखे जिन्हें नहीं पता है कि वे क्यों और कितने दिनों के लिए बंद हैं। वहां ऐसे पा. भी मिले जो बार-बार जेल जाना चाहते हैं। जेल के बाहर फुटपाथ पर रहना और भूख की मार सहना पड़ता है। जेल में कम से कम उन्हें दो जून की रोटियां तो मयस्सर हो ही जाती हैं।
जेल में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों के एवज में जेल काट रहे हैं। कहते हुए कामतनाथ जेल जीवन में खोने लगे। उन्होंने एक वाकया सुनाया, ‘जेल में एक ड्राइवर डिप्टी सेके ट्री के एवज में जेल काट रहा था। गाड़ी चलाते हुए सेके ट्री साहब से एक बच्चे की दबकर मौत हो गयी थी। उनकी जगह ड्राइवर अन्दर था। मैंने जेल में यह महसूस किया कि बाहर जो हिन्दुस्तान है उससे अलग भी एक हिन्दुस्तान यहां बसता है। सुबह होने तक उपन्यास के के न्द्र में एक ऐसा बच्चा है जिसे घरेलू स्थितियों के नाते साधारण बच्चे की सुविधाएं मयस्सर नहीं हो पातीं। वह अपराध की दुनिया में प्रवेश कर जाता है। अन्ततः हत्या करता है। उसे फांसी होती है और रात को अपनी पूरी जिन्दगी दोहराता है। इस उपन्यास में अपराध की दुनिया से जुड़े लोगों का एक्सपोजर है। बाल अपराधी किस तरह बनते हैं, इस पर लिखा गया है।
काल कथा 900 पृष्ठांे का आपका एक ऐसा उपन्यास है जो आजकल खासी चर्चा में है। यह हिन्दी के अन्य उपन्यासों से किस मायने में भिन्न है और इसकी क्या विशेषता है?
-देखिए 900 पृष्ठों का यह उपन्यास है। इतने पृष्ठांे का उपन्यास हिन्दी में नहीं छपा है। वैसे अज्ञेय की शेखर की जीवनी, रवीन्द्र कालिया का ‘खुदा सही सलामत है’ नरेश मेहता का ‘यह पथ बन्ध था’ आदि कई अन्य उपन्यास आकार की दृष्टि से बड़े भले हों परन्तु अन्य उपन्यासों से इस मामले में हमारा उपन्यास भिन्न है कि यह पहला उपन्यास है जिसके दोनो खंड एक साथ पाठकों को उपलब्ध हुए। अभी दो खंड पर और काम कर रहा हूं। राजनीतिक पृष्ठभूमि में लिखे गये उपन्यास ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ तथा ‘यह पथ बन्ध था’ जैसे उपन्यासों से प्रमाणिकता को लेकर इतने बड़े फलक का उपन्यास नहीं लिखा गया। 1919 के जलियांवाला बाग कांड से शुरू होकर 1929 में रावी नदी के तट पर सम्पन्न हुए कांग्रेस के अधिवेशन जिसमें पूर्ण स्वराज की मांग हुई थी तक की घटनाएं इस उपन्यास में सिमटी हैं। इन दस सालों का दौर देश की आजादी की लड़ाई का महत्वपूर्ण दौर रहा है। खिलाफत मूवमेन्ट, असहयोग आन्दोलन, साइमन कमीशन जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। यही क्रांतिकारियों का भी काल है क्योंकि काकोरी कांड, सांडर्स वध, असेम्बली बम कांड, लार्ड इरविन की ट्रेन के नीचे बम विस्फोट आदि ये सभी घटनाएं इसी काल की हैं जो इस उपन्यास में सिमटी हैं। इसी के साथ-साथ इस उपन्यास में उस समय के जनजीवन का भी व्यापक चित्रण है। इसकी कथा अवध के एक गांव जो उन्नाव जिले में स्थित है, से शुरू होकर देश के अन्य भागों में पहुंचती है। इतिहास में सर्वाल्टर्न हिस्ट्री में भी मिलती है। पुस्तक में इस इतिहास का भी चित्र दलित मदारी पासी का भी उल्लेख है। अवधी के शब्दों का भी पात्रों के हिसाब से खासतौर से प्रयोग किया गया है। जो मुस्लिम पात्र हें वे खालिस उर्दू ही बोलते हैं। कथा में गांव का मुसलमान और पाॅलिटिकल मुस्लिम दोनो हैं।
आपने अपने साहित्य में वर्किंग क्लास की राजनीति को स्थान दिया है और भी तमाम लोगों ने वर्किंग क्लास को लेकर काफी रचनाएं की हैं। फिर भी वर्किंग क्लास के लिटरेचर को आलोचकों ने मान्यता नहीं दी?
-मैं इससे सहमत नहीं हूं। यह बात जो कही गयी है उसे उदाहरण देकर समझाया जाये तो बेहतर होगा। शेखर जोशी को ही लीजिए एक फैक्ट्री में काम करते थे। बदबू फैक्ट्री के माहौल पर लिखी उनकी कहानी खासी चर्चित हुई। वर्किंग क्लास लिटरेचर का मतलब अगर आपका यह है कि जिसे वर्कर लिखे तो मैं सहमत नहीं हूं। यही तो दलित साहित्य के लोग कहते हैं। दलित साहित्य वही है जिसे दलित लिखे।
पोस्ट सोवियत सीनेरियो में आज आप क्या सोचते हैं?
-कैपिटलिस्ट सिस्टम आॅफ सोसायटी में मेरी आस्था नहीं है। हमारे देश की आज जो स्थिति है यह पूंजीवादी आक्रमण का ही परिणाम है जो भूमंडलीकरण, प्रचार माध्यम, इलेक्ट्रानिक मीडिया और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से आ रहा है। पूंजीवादी दर्शन में नैतिकता का कोई मतलब नहीं है। अमरीकी दर्शन में सत्य को परिणाम में आंका गया है। हमारे समाज में भी इसका प्रचलन बढ़ रहा है। कुछ दिनों बाद इससे विस्फोटक स्थितियां पैदा होंगी। सतय तो नहीं बता सकता परन्तु परिणाम तो इसके खराब होंगे ही। समाजवादी विचारधारा के पराभव का कारण उसे गंभीरता से लागू नहीं किया जाना है। समाजवादी समाज में भी ‘ओपेन सोसायटी’ होनी चाहिए। अन्ततः मानव समाज की मुक्ति समाजवाद में ही है। वैचारिक स्तर पर मेरा समाजवाद पर पूरा भरोसा है।
आपकी पुस्तक 850 रूपये की है। इसे आम पाठक कैसे खरीदेगा? लेखक का प्रकाशक पर क्या यह दबाव नहीं होता कि पुस्तक का कितना मूल्य रखे। आपके जैसे जनवादी और दूसरे पूंजीवादी लेखकों में क्या अन्तर है? इन स्थितियों में जनता तक साहित्य पहुंचाने का क्या तरीका है?
-मैं सहमत हूं कि इतने मूल्य की पुस्तकें लाइब्रेरी की शोभा ही बन पायेंगी। पाठकों तक नहीं पहुंचेंगी। दुर्भाग्य है कि आज प्रकाशक के सरोकार वे नहीं हैं जो प्रेमचंद के जमाने में थे। आज का प्रकाशक पुस्तक को कमाडीटी मानता है। वह पुस्तक को जीवन मूल्य को प्रसारित करने का साधन स्त्रोत नहीं मानता। यह सही है कि कम मूल्य की पुस्तके ंआज भी छप रही हैं और पाठकों तक पहुंचने के लिए मूल्य एक महत्वपूर्ण माध्यम है लेकिन पाकाशक पुस्तकों को सरकारी खरीद के माध्यम से ही बेचना चाहता है और यह सिस्टम इतना भ्रष्ट है कि मूल्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा घूस के रूप में चला जाता है। अच्छी पुस्तकों के प्रकाशन को सरकार ने पूरी तरह से निग्लेक्ट कर रखा है। जहां कहीं सरकारी प्रकाशन की व्यवस्था भी है वहां पुस्तकों का चयन, वितरण ठीक नहीं होता है। इसलिए अच्छा लेखक अपनी ुपस्तक देना नहीं चाहता है। सरकार को चाहिए कि पुस्तकों के प्रकाशन में अनुदान दे। जहां तक लेखक का प्रश्न है कि लेखक प्रकाशक पर दबाव बना सकता है या नहीं तो उसका सच यह है कि प्रकाशक के साथ अनुबंध होता है तो मूल्य को लेकर कोई अनुबंध नहीं होता। अगर हो तो अच्छा होगा। रहा मेरी किताब का प्रश्न तो मैंने प्रकाशक से अनुरोध किया है कि इसका पेपर बैक संस्करण लायें।