दुनिया की आधी आबादी आज भी मुक्ति के लिए संघर्षरत है। नारी समानता के सवाल को लेकर राजनीतिक दलों में गाहे-बगाहे अपनी हौसले पूरे किये गये हैं। जेंडर इक्विलिटी जैसे तमाम आयोजनों के बाद भी अंधेरे में खड़ी औरत के न्द्र में रखकर हेमंत द्विवेदी ने अपनी सद्य प्रकाशित चैथी पुस्तक अंधेरे में औरत पाठकों और सुधिजनों के लिए प्रस्तुत की है। उत्तरोत्तर प्रगति करती दुनिया, बढ़ते आंदोलन, ऊंचा शैक्षिक स्तर का वातावरण इन सबके बावजूद औरत की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं आया। अगर फर्क आया तो बस इतना ही कि उसके द्वारा कुछ घंटे अधिक मेहनत, उसके खिलाफ कुछ ज्यादा छेड़छाड़, उस पर बच्चों और घर की कुछ ज्यादा जिम्मेदारियां। हेमंत द्विवेदी ने अपनी पुस्तक में साफतौर पर यह स्वीकार किया है कि समाज के मातृ सत्ता से पितृ सत्ता में परिवर्तन के दिन से आज तक औरत को सहर्षता से स्वीकार नहीं किया जा सकता। तभी तो वे लिखते हैं कि:
एक प्रकाश वर्ष में पूरे युग अंधकार का वरण किया,
हो गया लुप्त, रह गया घना
बस अंधकार अंाखों पर पट्टी का रहस्य।
अंधेरे में औरत, औरत की एक आदमकद तस्वीर है। जिसमें न सिर्फ औरत दिखायी पड़ती है बल्कि मर्द, बच्चे, समाज और राष्ट्र भी दिखायी देता है। यहां तक कि दुनिया भी दिखायी देती है। यह कोई ऐसी तस्वीर नहीं, जिसे पहले किसी ने न देखा हो। वस्तुतः यह वह तस्वीर है जो रोज ही चाहे, अनचाहे हम देखने को मजबूर हैं। भले उसे देखकर हम एक क्षण सोंचे, आनंदित हों या फिर मुंह फेर लें। नारी जीवन का सबसे बड़ा विरोधाभास है, उसका खण्डित व्यक्तित्व। पुरूष का साथ या पुरूष की छाया। उसके व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करती है। औरत के वस्त्र आभूषण, सिंदूर, परम्पराएं, धर्म, समाज की मानसिकता, सभी कुछ नारी के खंडित व्यक्तित्व को यथावत् बनाये रखने में सहायक है। उसका जिस्म, उसका कौमार्य, उसकी चेष्टि, उसकी मर्यादा को इतना महत्व दे दिया गया है कि उसका जिस्म जैसे जमीन के ऊपर आसमान के नीचे अधर में चस्पा कर दिया हो। चेष्टि गुहा कर अंधकार में खड़े तुलसी के कमजोर बिरवे की तरह है, जो जरा सी हवा लगते ही थरथराने लगती है। फिर भी मर्यादा न जाने कब से भंग होती चली जा रही है।
हिंदी के प्रगतिशील कवि हेमंत द्विवेदी के इस काव्य संकलन में उनकी 42 कविताएं हैं। कवि कर्म उनके लिए सोद्देश्य रहा है। उनकी कविता एक बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले सामूहिक और सांगठनिक प्रयत्नों की प्रेरणा और अनुपूरक है। सामाजिक, आर्थिक विषमता को स्वीकार करने वाली व्यवस्था को बदल देने की अभिलाषा लिये हुए कवि के कुछ सपने हैं। मान्यता है आदर्श हैं। इन सपनों, मान्यताओं और आदर्शों को नारी समानता में बाधा मानने के बाद भी वे इनसे भागना तो नहीं चाहते लेकिन नारी को अंधेरे के इस घटाटोप से निकलने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ दिखते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएं भी यथास्थितिवादी रूढ़िग्रस्त ढांचे से लगातार मुठभेड़ करती हुई मिलती हैं।
इतिहास के दर्द को आत्मसात कर उसे आगे बढ़ाने वाले उत्पादक वर्ग के कवि की अपनी शिकायत तो जरूर है परंतु शोषण तंत्र के विभिन्न पहलुओं से मुठभेड़ का लक्ष्य स्पष्ट होने से उनकी कविताओं में अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक खास तरह का जुझारू पन देखने को मिलता है। नारी प्रेमी पुरूषार्थ वादी कवि हेमंत द्विवेदी को स्वतंत्रता और समताप्रिय है। वे मानते हैं कि समता के बिना आर्थिक निर्भरता का पूरा सपना नहीं होगा और आर्थिक आत्म निर्भरता के अभाव में स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। आलोच्य संग्रह में ज्यादातर कविताएं कवि की ज्ञानात्मक संवेदना से व्युत्पन्न हैं। संवेदनात्मक ज्ञान का सुपरिचित और स्वाभाविक आधार इन कवियों में खासतौर से लक्षित होता है। वे नारी पर लगने वाले आचरणहीन, मामूलीपन के आरोप के खिलाफ खड़े होकर नारी को रचनात्मक प्रतिष्ठा प्रदान करते हंै।
नारी अपने जीवन के नारी पात्रों की चर्चा करते हुए रजिया सुल्तान को खासतौर से रेखांकित करने वाले हेमंत द्विवेदी की कविताओं में महाभारत काल की नारी पात्र खासतौर से रेखांकित हुई हैं। नारियों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए उन्होंने साफ तौर पर यह कहा कि मेरी प्रिय पात्रा रजिया को भी सहारा चाहिए थी। भले ही उसका नाम मलिक जमालुद्दीन याकूत हो या इख्तियारूद्दीन अल्तुनिया भले ही एक उसका प्रेमी हो और दूसरा उसका शौहर। भले ही एक सहारा दे और दूसरा उसे कैद कर दे। एक ने कुर्बानी के लिए मोहब्बत की दूसरे ने लालच।
जीवन के कोमलतम अनुभूतियों के तत्व कविता के प्रचलित मुहावरों की तरह कविता में न आकर जीवन के सहज स्पर्श की तरह कविता के भीतर से मुखरित होते हैं। कवि की कोशिश है कि कविता और पाठक के बीच भाषा एवं शिल्प के बीच ऊंची दीवारें न खड़ी हों। यही कारण है कि भाषा एवं शिल्प संबंधी आग्रह न के बराबर है। इसलिए कई बार उनकी कविताएं अनुभवों का सीधे-सीधे बयान करने लगती हैं, जिससे पाठक के लिए उनकी सम्प्रेषणीयता सहज हो उठती है। कई बार वे जटिलताओं को खोलने के बजाय उसे जस का तस रख देते हैं। उनकी कविताओं में नारी के सुलझे अनसुलझे रहस्यांे तथा जिजीविषा का अभाव अधिक है। वे अपने संवेदन वृत्त को नारी के अमूर्त विम्बों तक बढ़ाते हैं। नारी को उचित स्थान दिलाने की तलाश वे कविता के माध्यम से करना चाहते हैं। यही कारण है कि वे अपने ढंग से शब्द शिल्प, बिम्ब एवं प्रतिबिम्बों को गढ़ते हैं। इनकी कविताओं का कोई बंधा बंधाया फार्म नहीं है। ये किसी व्यामोह में नहीं फंसती और न ही किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित दिखती हैं। हेमंत द्विवेदी का काव्यबोध जितना सहज है उतना ही गूढ़ है। उनकी कविताएं कहीं बोझिल नहीं होतीं। बल्कि मैदान की तरह सपाट पसरी तलहटी की तरह उबड़ खाबड़ का सम्यक् ज्ञान कराती हैं। नदी की धारा की तरह मन में प्रवेश करती हैं। कठिन क्षणों, गहन विचारों सत्य और असत्य के बीच से स्फूर्त होकर आगे बढ़ती हैं। कविताएं जीवन के यथार्थ से रूबरू होती हैं। अपनी बात कहने के लिए न वे किसी बांस बल्ले का सहारा लेती हैं और न ही लता की तरह डोलती हैं। ऊपर से जितनी मुलायम हैं भीतर से उतनी ही सख्त। यही कारण है कि गहरे अर्थों को परोसने में वे नहीं चूकती। वस्तुतः देखा जाय तो उनका आत्मनुभूति, आत्मघटित के रूप में कविता लिखते समय उनके सामने तमाम सवाल लेकर खड़ा रहता है। तभी तो वे नारी को अंधेरे से मुक्ति दिलाने के लिए कोशिश में वे एक पूरा काव्य संग्रह परोस देते हैं। वे नहीं चाहते नारी मुक्ति के लिए याचना करे। इनकी कविताओं में नारी जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद की छोटी बड़ी घटनाएं वहां की जीवन शैली तथा संस्कृति का आकृत्रिम और सहज चित्रण है। कुछ पुरानी कविताओं को भी बिल्कुल नए तेवर में उन्होंने इस संग्रह में प्रस्तुत किया है। कथ्य में बेचैन भावनाएं पूरी शिद्दत के साथ महसूस होती हैं। काव्य में मर्यादित ढंग से न के वल तर्कहीन संस्कारों को तोड़ने का आह्वान है बल्कि व्यतीत की प्रासंगिकता के प्रति खड़े होने की ताकत भी है।
कुल मिलाकर कविताओं में जहां फक्कड़पन है, उन्मुक्तता है। वे कहते हैं अंधेरे में न सिर्फ औरत है बल्कि उसी के आसपास कहीं आदमी भी खड़ा है। जैसे-जैसे कृत्रिम प्रकाश की मांग बढ़ती गयी, उसकी आजादी और उसकी स्वायत्ता घटती गयी। अगर आदमी आजाद पैदा होकर मृत्युपर्यन्त गुलाम रहता है। ओशो की इस सूक्ति को स्वीकार कर लिया जाय तो हेमंत द्विवेदी के इस कविता संग्रह से गुजरने के बाद यह भी बात खासतौर से कह ही देनी पड़ेगी कि औरत तो पैदा ही गुलाम होती है और गुलाम बनी रहती है। पुरूष सत्ता के चिंतन क्षेत्र में सबसे ज्यादा स्थान घेरने वाली यह औरत पुरूष से सम्पर्क के बाद कहीं घनीभूत रूप से सम्प्रक्त हो जाती है। जबकि इसके बर खिलाफ पुरूष कहीं थोड़ा सा मुक्त हो जाता है। तभी तो स्त्री को यह बोध है कि-खुदा या
दुनिया का सबसे बड़ा गुनाह है।
क्या औरत होना।
सल्ट की निरक्षर विधवाओं का सवाल हो अंधेरे में औरत की बात उठाते हुए उनकी कविताएं कहती हैं कि महिलाएं अभी तक इजाजत की खूंटी से नीचे नहीं उतरी हैं। उसके शरीर पर होने वाले हमलों के आंकड़े रोज बरोज भयावह होते जा रहे हैं। जिसके पास औरत के जिस्म हैं, उसे रोज अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। ये परिस्थितियां तब हैं, जब आदमी की सभी दौलतों का जोड़ औरत है। शताब्दियों के खिलाफ हवा के बीच रहने के बाद भी यह कहना भी नहीं भूलती कि हां मैंने चूड़ियों को उतार दिया था पर न जाने कैसे जाने-अनजाने नींद में/तंद्रा में वे फिर से मेरे हाथों में आ गयीं। औरतों के जीवन से गायब हो रहे जीवन तत्व के प्रति भी कवि की चिंता खासतौर से मुखर हुई है। जब किसी/नौजवान लड़की गंध/आती है, घर से/ हर पड़ोसी उसके जिस्म से चिल्लाना/चाहता है/औरत बस एक चादर है सफेद/जो हर करवट के बाद थोड़ी मैली/थोड़ी सिमट जाती है।
एक प्रकाश वर्ष में पूरे युग अंधकार का वरण किया,
हो गया लुप्त, रह गया घना
बस अंधकार अंाखों पर पट्टी का रहस्य।
अंधेरे में औरत, औरत की एक आदमकद तस्वीर है। जिसमें न सिर्फ औरत दिखायी पड़ती है बल्कि मर्द, बच्चे, समाज और राष्ट्र भी दिखायी देता है। यहां तक कि दुनिया भी दिखायी देती है। यह कोई ऐसी तस्वीर नहीं, जिसे पहले किसी ने न देखा हो। वस्तुतः यह वह तस्वीर है जो रोज ही चाहे, अनचाहे हम देखने को मजबूर हैं। भले उसे देखकर हम एक क्षण सोंचे, आनंदित हों या फिर मुंह फेर लें। नारी जीवन का सबसे बड़ा विरोधाभास है, उसका खण्डित व्यक्तित्व। पुरूष का साथ या पुरूष की छाया। उसके व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करती है। औरत के वस्त्र आभूषण, सिंदूर, परम्पराएं, धर्म, समाज की मानसिकता, सभी कुछ नारी के खंडित व्यक्तित्व को यथावत् बनाये रखने में सहायक है। उसका जिस्म, उसका कौमार्य, उसकी चेष्टि, उसकी मर्यादा को इतना महत्व दे दिया गया है कि उसका जिस्म जैसे जमीन के ऊपर आसमान के नीचे अधर में चस्पा कर दिया हो। चेष्टि गुहा कर अंधकार में खड़े तुलसी के कमजोर बिरवे की तरह है, जो जरा सी हवा लगते ही थरथराने लगती है। फिर भी मर्यादा न जाने कब से भंग होती चली जा रही है।
हिंदी के प्रगतिशील कवि हेमंत द्विवेदी के इस काव्य संकलन में उनकी 42 कविताएं हैं। कवि कर्म उनके लिए सोद्देश्य रहा है। उनकी कविता एक बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले सामूहिक और सांगठनिक प्रयत्नों की प्रेरणा और अनुपूरक है। सामाजिक, आर्थिक विषमता को स्वीकार करने वाली व्यवस्था को बदल देने की अभिलाषा लिये हुए कवि के कुछ सपने हैं। मान्यता है आदर्श हैं। इन सपनों, मान्यताओं और आदर्शों को नारी समानता में बाधा मानने के बाद भी वे इनसे भागना तो नहीं चाहते लेकिन नारी को अंधेरे के इस घटाटोप से निकलने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ दिखते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएं भी यथास्थितिवादी रूढ़िग्रस्त ढांचे से लगातार मुठभेड़ करती हुई मिलती हैं।
इतिहास के दर्द को आत्मसात कर उसे आगे बढ़ाने वाले उत्पादक वर्ग के कवि की अपनी शिकायत तो जरूर है परंतु शोषण तंत्र के विभिन्न पहलुओं से मुठभेड़ का लक्ष्य स्पष्ट होने से उनकी कविताओं में अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक खास तरह का जुझारू पन देखने को मिलता है। नारी प्रेमी पुरूषार्थ वादी कवि हेमंत द्विवेदी को स्वतंत्रता और समताप्रिय है। वे मानते हैं कि समता के बिना आर्थिक निर्भरता का पूरा सपना नहीं होगा और आर्थिक आत्म निर्भरता के अभाव में स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। आलोच्य संग्रह में ज्यादातर कविताएं कवि की ज्ञानात्मक संवेदना से व्युत्पन्न हैं। संवेदनात्मक ज्ञान का सुपरिचित और स्वाभाविक आधार इन कवियों में खासतौर से लक्षित होता है। वे नारी पर लगने वाले आचरणहीन, मामूलीपन के आरोप के खिलाफ खड़े होकर नारी को रचनात्मक प्रतिष्ठा प्रदान करते हंै।
नारी अपने जीवन के नारी पात्रों की चर्चा करते हुए रजिया सुल्तान को खासतौर से रेखांकित करने वाले हेमंत द्विवेदी की कविताओं में महाभारत काल की नारी पात्र खासतौर से रेखांकित हुई हैं। नारियों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए उन्होंने साफ तौर पर यह कहा कि मेरी प्रिय पात्रा रजिया को भी सहारा चाहिए थी। भले ही उसका नाम मलिक जमालुद्दीन याकूत हो या इख्तियारूद्दीन अल्तुनिया भले ही एक उसका प्रेमी हो और दूसरा उसका शौहर। भले ही एक सहारा दे और दूसरा उसे कैद कर दे। एक ने कुर्बानी के लिए मोहब्बत की दूसरे ने लालच।
जीवन के कोमलतम अनुभूतियों के तत्व कविता के प्रचलित मुहावरों की तरह कविता में न आकर जीवन के सहज स्पर्श की तरह कविता के भीतर से मुखरित होते हैं। कवि की कोशिश है कि कविता और पाठक के बीच भाषा एवं शिल्प के बीच ऊंची दीवारें न खड़ी हों। यही कारण है कि भाषा एवं शिल्प संबंधी आग्रह न के बराबर है। इसलिए कई बार उनकी कविताएं अनुभवों का सीधे-सीधे बयान करने लगती हैं, जिससे पाठक के लिए उनकी सम्प्रेषणीयता सहज हो उठती है। कई बार वे जटिलताओं को खोलने के बजाय उसे जस का तस रख देते हैं। उनकी कविताओं में नारी के सुलझे अनसुलझे रहस्यांे तथा जिजीविषा का अभाव अधिक है। वे अपने संवेदन वृत्त को नारी के अमूर्त विम्बों तक बढ़ाते हैं। नारी को उचित स्थान दिलाने की तलाश वे कविता के माध्यम से करना चाहते हैं। यही कारण है कि वे अपने ढंग से शब्द शिल्प, बिम्ब एवं प्रतिबिम्बों को गढ़ते हैं। इनकी कविताओं का कोई बंधा बंधाया फार्म नहीं है। ये किसी व्यामोह में नहीं फंसती और न ही किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित दिखती हैं। हेमंत द्विवेदी का काव्यबोध जितना सहज है उतना ही गूढ़ है। उनकी कविताएं कहीं बोझिल नहीं होतीं। बल्कि मैदान की तरह सपाट पसरी तलहटी की तरह उबड़ खाबड़ का सम्यक् ज्ञान कराती हैं। नदी की धारा की तरह मन में प्रवेश करती हैं। कठिन क्षणों, गहन विचारों सत्य और असत्य के बीच से स्फूर्त होकर आगे बढ़ती हैं। कविताएं जीवन के यथार्थ से रूबरू होती हैं। अपनी बात कहने के लिए न वे किसी बांस बल्ले का सहारा लेती हैं और न ही लता की तरह डोलती हैं। ऊपर से जितनी मुलायम हैं भीतर से उतनी ही सख्त। यही कारण है कि गहरे अर्थों को परोसने में वे नहीं चूकती। वस्तुतः देखा जाय तो उनका आत्मनुभूति, आत्मघटित के रूप में कविता लिखते समय उनके सामने तमाम सवाल लेकर खड़ा रहता है। तभी तो वे नारी को अंधेरे से मुक्ति दिलाने के लिए कोशिश में वे एक पूरा काव्य संग्रह परोस देते हैं। वे नहीं चाहते नारी मुक्ति के लिए याचना करे। इनकी कविताओं में नारी जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद की छोटी बड़ी घटनाएं वहां की जीवन शैली तथा संस्कृति का आकृत्रिम और सहज चित्रण है। कुछ पुरानी कविताओं को भी बिल्कुल नए तेवर में उन्होंने इस संग्रह में प्रस्तुत किया है। कथ्य में बेचैन भावनाएं पूरी शिद्दत के साथ महसूस होती हैं। काव्य में मर्यादित ढंग से न के वल तर्कहीन संस्कारों को तोड़ने का आह्वान है बल्कि व्यतीत की प्रासंगिकता के प्रति खड़े होने की ताकत भी है।
कुल मिलाकर कविताओं में जहां फक्कड़पन है, उन्मुक्तता है। वे कहते हैं अंधेरे में न सिर्फ औरत है बल्कि उसी के आसपास कहीं आदमी भी खड़ा है। जैसे-जैसे कृत्रिम प्रकाश की मांग बढ़ती गयी, उसकी आजादी और उसकी स्वायत्ता घटती गयी। अगर आदमी आजाद पैदा होकर मृत्युपर्यन्त गुलाम रहता है। ओशो की इस सूक्ति को स्वीकार कर लिया जाय तो हेमंत द्विवेदी के इस कविता संग्रह से गुजरने के बाद यह भी बात खासतौर से कह ही देनी पड़ेगी कि औरत तो पैदा ही गुलाम होती है और गुलाम बनी रहती है। पुरूष सत्ता के चिंतन क्षेत्र में सबसे ज्यादा स्थान घेरने वाली यह औरत पुरूष से सम्पर्क के बाद कहीं घनीभूत रूप से सम्प्रक्त हो जाती है। जबकि इसके बर खिलाफ पुरूष कहीं थोड़ा सा मुक्त हो जाता है। तभी तो स्त्री को यह बोध है कि-खुदा या
दुनिया का सबसे बड़ा गुनाह है।
क्या औरत होना।
सल्ट की निरक्षर विधवाओं का सवाल हो अंधेरे में औरत की बात उठाते हुए उनकी कविताएं कहती हैं कि महिलाएं अभी तक इजाजत की खूंटी से नीचे नहीं उतरी हैं। उसके शरीर पर होने वाले हमलों के आंकड़े रोज बरोज भयावह होते जा रहे हैं। जिसके पास औरत के जिस्म हैं, उसे रोज अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। ये परिस्थितियां तब हैं, जब आदमी की सभी दौलतों का जोड़ औरत है। शताब्दियों के खिलाफ हवा के बीच रहने के बाद भी यह कहना भी नहीं भूलती कि हां मैंने चूड़ियों को उतार दिया था पर न जाने कैसे जाने-अनजाने नींद में/तंद्रा में वे फिर से मेरे हाथों में आ गयीं। औरतों के जीवन से गायब हो रहे जीवन तत्व के प्रति भी कवि की चिंता खासतौर से मुखर हुई है। जब किसी/नौजवान लड़की गंध/आती है, घर से/ हर पड़ोसी उसके जिस्म से चिल्लाना/चाहता है/औरत बस एक चादर है सफेद/जो हर करवट के बाद थोड़ी मैली/थोड़ी सिमट जाती है।